| खगोल ज्योतिष का आरंभ सूर्य, पृथिवी, चन्द्र, नक्षत्र, ग्रह और उपग्रहों की गति-परिज्ञान से होता है। गति परिज्ञान के लिये देश और काल दोनों की मापों का प्रयोग आवश्यक है। ज्योतिष ज्ञान की ओर संकेत निम्नलिखित मन्त्र से स्पष्ट है- <blockquote>कोऽअस्य वेद भुवनस्य नाभिं को द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षम्। कः सूर्य्यस्य वेद बृहतो जनित्रं को वेद चन्द्रमसं यतोजाः॥(यजु०23.59)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8%E0%A5%A9 शुक्ल यजुर्वेद], अध्याय-२३, मन्त्र स० ५९।</ref></blockquote>कौन इस विश्वमण्डल की नाभि को जानता है? कौन द्यौ, पृथिवी और अन्तरिक्ष को जानता है? इस बृहद् सूर्य के जन्म-स्थान को कौन जानता है? कौन यह जानता है कि यह चन्द्रमा कहाँ से उत्पन्न हुआ? ये प्रश्न हैं जो कौतूहल के समान हमारे सम्मुख उत्पन्न हुए और इन प्रश्नों के समाधान ले प्रयास ने आज के विश्वज्योतिष का विकास किया। इस संबन्ध में यजुर्वेद में इस प्रकार कहा गया है-<blockquote>संवत्सरो ऽसि परिवत्सरोऽसीदावत्सरो ऽसीद्वत्सरो ऽसि वत्सरो ऽसि। उषसस् ते कल्पन्ताम् अहोरात्रास् ते कल्पन्ताम् अर्धमासास् ते कल्पन्तां मासास् ते कल्पन्ताम् ऋतवस् ते कल्पन्ताꣳ संवत्सरस् ते कल्पताम्।(यजु० 27.45)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8%E0%A5%AD शुक्ल यजुर्वेद], अध्याय-२७, मन्त्र सं० ४५।</ref></blockquote>इस मन्त्र में काल मान सूचक शब्द हैं- संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर, वत्सर, उषा, अहोरात्र, अर्धमास, मास और ऋतु। चान्द्र और सौर वर्षों का समन्वय पाँच वर्षों के एक चक्र में होता है। इन पाँच वर्षों के नाम सम्वत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर और वत्सर हैं। भारतीय ज्योतिष की एकमात्र यह विशेषता रही है कि चान्द्र और सौर- दोनों गतियों का जहाँ तक संभव हो, समन्वय किया जाता रहे। इस समन्वय को यजुर्वेद के इस मन्त्र से प्रेरणा मिलती है। चन्द्रगति ने अहोरात्र, अर्धमास (पक्ष) और मास को जन्म दिया तथा सौर-गति ने ऋतु वत्सरों को। दिनों का सप्ताहों में विभाजन करना इस देश की पुरानी परम्परा रही है।<ref>डॉ० सत्यप्रकाश, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.442230/page/n1/mode/2up?view=theater वैज्ञानिक विकास की भारतीय परम्परा], सन् १९५४, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् सम्मेलन भवन, पटना (पृ०२७)।</ref> | | खगोल ज्योतिष का आरंभ सूर्य, पृथिवी, चन्द्र, नक्षत्र, ग्रह और उपग्रहों की गति-परिज्ञान से होता है। गति परिज्ञान के लिये देश और काल दोनों की मापों का प्रयोग आवश्यक है। ज्योतिष ज्ञान की ओर संकेत निम्नलिखित मन्त्र से स्पष्ट है- <blockquote>कोऽअस्य वेद भुवनस्य नाभिं को द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षम्। कः सूर्य्यस्य वेद बृहतो जनित्रं को वेद चन्द्रमसं यतोजाः॥(यजु०23.59)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8%E0%A5%A9 शुक्ल यजुर्वेद], अध्याय-२३, मन्त्र स० ५९।</ref></blockquote>कौन इस विश्वमण्डल की नाभि को जानता है? कौन द्यौ, पृथिवी और अन्तरिक्ष को जानता है? इस बृहद् सूर्य के जन्म-स्थान को कौन जानता है? कौन यह जानता है कि यह चन्द्रमा कहाँ से उत्पन्न हुआ? ये प्रश्न हैं जो कौतूहल के समान हमारे सम्मुख उत्पन्न हुए और इन प्रश्नों के समाधान ले प्रयास ने आज के विश्वज्योतिष का विकास किया। इस संबन्ध में यजुर्वेद में इस प्रकार कहा गया है-<blockquote>संवत्सरो ऽसि परिवत्सरोऽसीदावत्सरो ऽसीद्वत्सरो ऽसि वत्सरो ऽसि। उषसस् ते कल्पन्ताम् अहोरात्रास् ते कल्पन्ताम् अर्धमासास् ते कल्पन्तां मासास् ते कल्पन्ताम् ऋतवस् ते कल्पन्ताꣳ संवत्सरस् ते कल्पताम्।(यजु० 27.45)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8%E0%A5%AD शुक्ल यजुर्वेद], अध्याय-२७, मन्त्र सं० ४५।</ref></blockquote>इस मन्त्र में काल मान सूचक शब्द हैं- संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर, वत्सर, उषा, अहोरात्र, अर्धमास, मास और ऋतु। चान्द्र और सौर वर्षों का समन्वय पाँच वर्षों के एक चक्र में होता है। इन पाँच वर्षों के नाम सम्वत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर और वत्सर हैं। भारतीय ज्योतिष की एकमात्र यह विशेषता रही है कि चान्द्र और सौर- दोनों गतियों का जहाँ तक संभव हो, समन्वय किया जाता रहे। इस समन्वय को यजुर्वेद के इस मन्त्र से प्रेरणा मिलती है। चन्द्रगति ने अहोरात्र, अर्धमास (पक्ष) और मास को जन्म दिया तथा सौर-गति ने ऋतु वत्सरों को। दिनों का सप्ताहों में विभाजन करना इस देश की पुरानी परम्परा रही है।<ref>डॉ० सत्यप्रकाश, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.442230/page/n1/mode/2up?view=theater वैज्ञानिक विकास की भारतीय परम्परा], सन् १९५४, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् सम्मेलन भवन, पटना (पृ०२७)।</ref> |