Changes

Jump to navigation Jump to search
11,348 bytes added ,  16:03, 15 December 2023
सुधार जारि
Line 1: Line 1: −
काल गणना में वर्ष से छोटी एवं मास से बड़ी एक इकाई है अयन। वर्ष में दो अयन होते हैं - उत्तरायण एवं दक्षिणायन, ये इसके दो भेद हैं। इनकी अवधि 6 - 6 मास होती है। इससे हमें ऋतुओं का पता लगाने में सहायता मिलती है। साथ में ही सूर्य की सापेक्ष गति के बारे में भी हम इससे जान सकते हैं एवं अयन का दिन मान से भी सीधा संबंध होता है। वर्तमान में अयन संबंधी सायन एवं निरयन ये दो गणनायें प्रचलित हैं। जो कि प्रसिद्ध खगोलज्ञ वराहमिहिर जी के समय में अयानांश संस्कार की आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि उस समय सायन एवं निरयन गणना समान थी। हम प्रस्तुत लेख में अधोलिखित विषयों को देखेंगे -   
+
काल गणना में वर्ष से छोटी एवं मास से बड़ी एक इकाई है अयन। भारतीय संस्कृति में एक वर्ष को दो भागों में विभक्त किया गया है, जिन्हैं हम दक्षिणायन एवं उत्तरायण के रूप में जानते हैं। इनकी अवधि 6 - 6 मास होती है। इससे हमें ऋतुओं का पता लगाने में सहायता मिलती है। साथ में ही सूर्य की सापेक्ष गति के बारे में भी हम इससे जान सकते हैं एवं अयन का दिन मान से भी सीधा संबंध होता है। वर्तमान में अयन संबंधी सायन एवं निरयन ये दो गणनायें प्रचलित हैं। जो कि प्रसिद्ध खगोलज्ञ वराहमिहिर जी के समय में अयानांश संस्कार की आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि उस समय सायन एवं निरयन गणना समान थी। हम प्रस्तुत लेख में अधोलिखित विषयों को देखेंगे -   
    
'''अयन क्या है ?'''  
 
'''अयन क्या है ?'''  
Line 35: Line 35:  
*सूर्य इस नाड़ी वृत्त पर नही घूमता है। वह हमेशा क्रांति वृत्त ECLIPTIC पर घूमता है।
 
*सूर्य इस नाड़ी वृत्त पर नही घूमता है। वह हमेशा क्रांति वृत्त ECLIPTIC पर घूमता है।
   −
*दोनो वृत्त 23'''.'''30 अंश का कोण बनाते हुए दो स्थानो पर एक दूसरे को काटते है, इन्हे ही सम्पात बिन्दु या अयन बिन्दु कहते है।
+
* दोनो वृत्त 23'''.'''30 अंश का कोण बनाते हुए दो स्थानो पर एक दूसरे को काटते है, इन्हे ही सम्पात बिन्दु या अयन बिन्दु कहते है।
   −
* क्रांति वृत्त के उत्तर दक्षिण एक  9-9 अंश का कल्पित पट्टा है जिसे ही भचक्र कहते है।
+
*क्रांति वृत्त के उत्तर दक्षिण एक  9-9 अंश का कल्पित पट्टा है जिसे ही भचक्र कहते है।
 +
मैत्रायणी उपनिषद् में उदग् अयन, उत्तरायण ये शब्द कई स्थानों पर आये हैं। उदक् अयन के पर्यायवाची शब्द देवयान, देवलोक और दक्षिणायन के पर्यायवाची पितृयाण, पितृलोक बताये गये हैं।
    
==प्राच्य एवं पाश्चात्य अयन प्रणाली==
 
==प्राच्य एवं पाश्चात्य अयन प्रणाली==
Line 44: Line 45:  
वेदांग ज्योतिष काल में नक्षत्रों का आरम्भ धनिष्ठा नक्षत्र से माना जाता था। क्योंकि उस समय मकर संक्रान्ति (उत्तरायन) प्रारम्भ धनिष्ठा नक्षत्र से होता था। महाभारत काल में भीष्म पितामह इसी उत्तरायन की प्रतीक्षा में शर-शैया पर पडे रहे थे। उत्तरायन आरम्भ होने पर ही उन्होंने अपने प्राण त्यागे थे।<ref name=":1" />
 
वेदांग ज्योतिष काल में नक्षत्रों का आरम्भ धनिष्ठा नक्षत्र से माना जाता था। क्योंकि उस समय मकर संक्रान्ति (उत्तरायन) प्रारम्भ धनिष्ठा नक्षत्र से होता था। महाभारत काल में भीष्म पितामह इसी उत्तरायन की प्रतीक्षा में शर-शैया पर पडे रहे थे। उत्तरायन आरम्भ होने पर ही उन्होंने अपने प्राण त्यागे थे।<ref name=":1" />
   −
==अयनांश ॥ AYNAMSHA==
+
== अयनांश ॥ PRECESSION OF EQUINOX==
 
अयनांश संस्कृत (अयन = हिलना-डुलना, चलना , अंश = घटक) शब्द है। भारतीय खगोल शास्त्र में इसका अर्थ अग्रगमन की राशि है। अग्रगमन (PRECESSION) एक घूर्णन पिंड के घूर्णन अक्ष का उन्मुखीकरण (बदलाव) है। स्थायी मेष के प्रथम बिन्दु और चलायमान मेष के प्रथम बिन्दु की कोणीय दूरी अयनांश है, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो जिस समय सायन और निरयण भचक्र सम्पाती (समान) थे, वहां से वसंत सम्पात की पीछे की ओर कोणीय दूरी अयनांश कहलाती है।
 
अयनांश संस्कृत (अयन = हिलना-डुलना, चलना , अंश = घटक) शब्द है। भारतीय खगोल शास्त्र में इसका अर्थ अग्रगमन की राशि है। अग्रगमन (PRECESSION) एक घूर्णन पिंड के घूर्णन अक्ष का उन्मुखीकरण (बदलाव) है। स्थायी मेष के प्रथम बिन्दु और चलायमान मेष के प्रथम बिन्दु की कोणीय दूरी अयनांश है, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो जिस समय सायन और निरयण भचक्र सम्पाती (समान) थे, वहां से वसंत सम्पात की पीछे की ओर कोणीय दूरी अयनांश कहलाती है।
   Line 65: Line 66:     
इसी प्रकार चित्रा के मध्य बिन्दु (१८० अंश) से ९० अंश आगे या अश्विनी के प्रथम बिन्दु से २७० अंश आगे सूर्य के उत्तराषाढा नक्षत्र के द्वितीय चरण (वर्तमान में मूल नक्षत्र के द्वितीय चरण के अन्त में) उत्तरायन प्रारंभ कर देता है।
 
इसी प्रकार चित्रा के मध्य बिन्दु (१८० अंश) से ९० अंश आगे या अश्विनी के प्रथम बिन्दु से २७० अंश आगे सूर्य के उत्तराषाढा नक्षत्र के द्वितीय चरण (वर्तमान में मूल नक्षत्र के द्वितीय चरण के अन्त में) उत्तरायन प्रारंभ कर देता है।
 +
 +
==सम्पात एवं अयन==
 +
सूर्य का क्रान्तिवृत्त की कर्कादि छः राशियों में दक्षिण की ओर गमन दक्षिणायन है और सूर्य का मकरादि छः राशियों में उत्तर की ओर गमन उत्तरायण कहलात है।
 +
 +
वसन्त सम्पात से 90॰ आगे चलकर जब सूर्य दक्षिणायन बिन्दु पर पहुँचता है तो दक्षिणायन प्रारम्भ होता है। यह प्रायः 21 जून को घटित होता है। इसी प्रकार दक्षिणायन बिन्दु से 90॰ आगे जाकर सूर्य शरत्सम्पात पर 23 सितंबर के लगभग पहुंचता है तो सर्दी की ऋतु आरंभ हो जाती है। उसके बाद में 90॰ आगे जाकर उत्तरायण बिन्दु पर पहुंचता है तो सूर्य उत्तराभिमुख होकर चलने लगता है, अतः वही समय 22 दिसंबर उत्तरायण का होता है।
 +
 +
उसके बाद पुनः 90॰ आगे चलकर पुनः वसंत ऋतु के प्रारंभ बिंदु वसंत संपात पर पहुंचता है। यह सम्पूर्ण क्रांतिवृत्त की परिक्रमा 90॰ x 4 = 360॰ अंशों या 12 राशियों की होती है। अतः ये चारों घटनायें प्रतिवर्ष होती हैं। <blockquote>मकरादिस्थेषड्भस्थे सूर्ये सौम्यायनं स्मृतम्। कर्कादिराशिषटके च याम्यायनमुदाहृतम् ॥</blockquote>मकरादि ६ राशियों में सूर्य के रहने पर सौम्यायन और कर्कादि ६ राशियों में याम्यायन कहलाता है।
 +
 +
वसन्त सम्पात व शरत्सम्पात वे बिन्दु हैं जो राशिवृत्त व विषुवद्वृत्त की काट पर स्थित हैं। ये दो हैं। अतः सूर्य वर्ष में दो बार २१ मार्च व २३ सितम्बर को विषुवद्वृत्त पर पहुँचता है। ये दो दिन विषुव दिन या गोल दिन व इस दिन होने वाली सायन मेष व तुला संक्रान्ति गोल या विषुवसंक्रान्ति कहलाती है।
 +
 +
'''विषुव (equinox) का क्या तात्पर्य है?'''
 +
 +
वर्ष में दो बार ऐसी स्थिति भी आती है, जब पृथ्वी का झुकाव न सूर्य की ओर ही होता है और न ही सूर्य से दूसरी ओर, बल्कि बीच में होता है। इस स्थिति को विषुव या इक्विनॉक्स कहा जाता है।
 +
 +
स्पष्ट है कि सायन मेष से सायन तुला प्रवेश तक उत्तर गोल व सायन तुला से सायन मेषारम्भ पूर्व तक दक्षिण गोल होता है। इनकी तिथियां इस प्रकार हैं -
 +
 +
*वसन्त सम्पात (Spring Equinox) या सायन मेष - 21 मार्च या उत्तर गोलारम्भ।
 +
*सायन मेष + 90॰ = दक्षिणायन (सायन कर्क अर्थात् 21 जून)
 +
*सायन कर्क + 90॰ = शरत्सम्पात (Autumnal Equinox) या सायन तुला या दक्षिण गोलारम्भ या 23 सितम्बर।
 +
*सायन तुला + 90॰ = उत्तरायणारम्भ या सायन मकर या 22 दिसम्बर।
 +
 +
क्रांतिवृत्त के प्रथमांश का विभाजन उत्तर व दक्षिण गोल के मध्यवर्ती ध्रुवों के द्वारा माना गया है। यही विभाजन उत्तरायण और दक्षिणायन कहलाता है। इन अयनों का ज्योतिष संसार में प्रमुख स्थान है।
    
==सम्पातों का नक्षत्र परिवर्तन==
 
==सम्पातों का नक्षत्र परिवर्तन==
 
पृथ्वी की धुरी का झुकाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। इस झुकाव में प्रतिवर्ष .468 विकला की कमी होती जा रही है। सन् 1918 में धुरी का झुकाव 23 अंश 27 कला तथा 1947 में 23 अंश 26 कला 46 विकला था। वर्तमान में यह झुकाव 23 अंश 26 कला 13 विकला (1 जनवरी 1997) है।
 
पृथ्वी की धुरी का झुकाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। इस झुकाव में प्रतिवर्ष .468 विकला की कमी होती जा रही है। सन् 1918 में धुरी का झुकाव 23 अंश 27 कला तथा 1947 में 23 अंश 26 कला 46 विकला था। वर्तमान में यह झुकाव 23 अंश 26 कला 13 विकला (1 जनवरी 1997) है।
   −
धुरी के झुकाव में लगातार कमी होने के कारण सूर्यपथ की विषुवत रेखा से तिर्यकता (Obliquity) कम होती जा रही है। फलस्वरूप सूर्यपथ द्वारा विषुवत् रेखा को काटे जाने वाले सांपातिक बिंदु विपरीत दिशा में खिसक रहे हैं या पीछे हट रहे हैं। सांपातिक बिन्दुओं के विपरीत दिशा में खिसकाव को 'संपात का पिछडना' (Precession of Equinox) कहते हैं।
+
धुरी के झुकाव में लगातार कमी होने के कारण सूर्यपथ की विषुवत रेखा से तिर्यकता (Obliquity) कम होती जा रही है। फलस्वरूप सूर्यपथ द्वारा विषुवत् रेखा को काटे जाने वाले सांपातिक बिंदु विपरीत दिशा में खिसक रहे हैं या पीछे हट रहे हैं। सांपातिक बिन्दुओं के विपरीत दिशा में खिसकाव को 'संपात का पिछडना' (Precession of Equinox) कहते हैं। यह पिछड़ाव 26000 वर्षों में सूर्यपथ का एक चक्कर लगाता है। किसी भी समय मूल सांपातिक बिंदु से पिछड़े हुए सांपातिक बिंदु तक का कोण अयनांश (Angle of Precession) कहलाता है।
 
  −
यह पिछड़ाव 26000 वर्षों में सूर्यपथ का एक चक्कर लगाता है। किसी भी समय मूल सांपातिक बिंदु से पिछड़े हुए सांपातिक बिंदु तक का कोण अयनांश (Angle of Precession) कहलाता है।
      
'''सायन भचक्र (tropical / movable zodiac)'''
 
'''सायन भचक्र (tropical / movable zodiac)'''
Line 82: Line 103:     
==अयन सिद्धान्त==
 
==अयन सिद्धान्त==
वेदांग ज्योतिष के अयन पद्धति में आचार्य लगध ने अयनारम्भ स्थान धनिष्ठा नक्षत्र को माना है।<blockquote>प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्।<ref name=":0">टी०एस० कुप्पन्ना शास्त्री, वेदांग ज्योतिष (अनुवाद सहित), सन् 1985, इण्डियन नेशनल साइंस अकादमी (पृ० २४)।</ref></blockquote>
+
वेदांग ज्योतिष के अयन पद्धति में आचार्य लगध ने अयनारम्भ स्थान धनिष्ठा नक्षत्र को माना है - <blockquote>प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्॥<ref name=":0">टी०एस० कुप्पन्ना शास्त्री, वेदांग ज्योतिष (अनुवाद सहित), सन् 1985, इण्डियन नेशनल साइंस अकादमी (पृ० २४)।</ref></blockquote>
 +
 
 +
इस प्रकार का लगध का कथन वेदांगज्योतिष में प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में आचार्य लगध <nowiki>''</nowiki>इदानीमयने आह<nowiki>''</nowiki> प्रकार से कह रहे हैं - <blockquote>प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणाऽर्कस्य माघश्रावणयोः सदा॥ (वे०ज्यो०श्लो०सं०७)<ref name=":0" /></blockquote>अर्थ - श्रविष्ठा अर्थात् धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य, चन्द्र उत्तर की ओर संचालित होने लगते हैं, और आश्लेषा नक्षत्र के आधे भाग पर दक्षिण की ओर संचालित होने लगते हैं। सूर्य सर्वदा माघ मास और श्रावण मास में क्रमशः उत्तर और दक्षिण की ओर गमन में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार अयनों के आरम्भ  स्थान का कथन देने के उपरान्त आचार्य लगध <nowiki>''</nowiki>इदानीमयनयोर्दिनरात्रिमाने आह<nowiki>''</nowiki> इत्यादि प्रकार से उत्तर एवं दक्षिण अयन के आरम्भ का दिनरात्रिमान कह रहे हैं -  <blockquote>घर्मवृद्धिरपां प्रस्थः क्षपाह्रास उदग्गतौ। दक्षिणेतौ विपर्यासः षण्मुहूर्त्त्ययनेन तु॥ (वे० ज्यो० श्लो० सं० ८)<ref name=":0" />  </blockquote>'''अर्थ -''' सूर्य के उदगयन में एक पानीयप्रस्थ (12.5 पल) के तुल्य दिनमान में वृद्धि होती है, और रात्रिमान में ह्रास होता है। दक्षिणायन में इसके विपरीत होता है। अयनों के द्वारा एक अयन वर्ष में दिनरात्रिमान में क्रमशः ६ मुहूर्त वृद्धि होती है।
 +
 
 +
==उत्तरायण एवं दक्षिणायन==
 +
वेदों में उत्तरायण को देवयान एवं दक्षिणायन को पितृयान कहा गया है। इन्हैं याम्यायन एवं सौम्यायन के नाम से भी जाना जाता है। अर्थात दक्षिणायन को याम्यायन एवं उत्तरायण को सौम्यायन कहते हैं
   −
इस प्रकार का लगध का कथन वेदांगज्योतिष में प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में आचार्य लगध <nowiki>''</nowiki>इदानीमयने आह<nowiki>''</nowiki> प्रकार से कह रहे हैं - <blockquote>प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणाऽर्कस्य माघश्रावणयोः सदा॥ (वे०ज्यो०श्लो०सं०७)<ref name=":0" /></blockquote>अर्थ - श्रविष्ठा अर्थात् धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य, चन्द्र उत्तर की ओर संचालित होने लगते हैं, और आश्लेषा नक्षत्र के आधे भाग पर दक्षिण की ओर संचालित होने लगते हैं। सूर्य सर्वदा माघ मास और श्रावण मास में क्रमशः उत्तर और दक्षिण की ओर गमन में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार अयनों के आरम्भ  स्थान का कथन देने के उपरान्त आचार्य लगध <nowiki>''</nowiki>इदानीमयनयोर्दिनरात्रिमाने आह<nowiki>''</nowiki> इत्यादि प्रकार से उत्तर एवं दक्षिण अयन के आरम्भ का दिनरात्रिमान कह रहे हैं - <blockquote>घर्मवृद्धिरपां प्रस्थः क्षपाह्रास उदग्गतौ। दक्षिणेतौ विपर्यासः षण्मुहूर्त्त्ययनेन तु॥(वे० ज्यो० श्लो० सं० ८)<ref name=":0" />  </blockquote>'''अर्थ -''' सूर्य के उदगयन में एक पानीयप्रस्थ (12.5 पल) के तुल्य दिनमान में वृद्धि होती है, और रात्रिमान में ह्रास होता है। दक्षिणायन में इसके विपरीत होता है। अयनों के द्वारा एक अयन वर्ष में दिनरात्रिमान में क्रमशः ६ मुहूर्त वृद्धि होती है।
+
प्रति वर्ष विपुव-वृत्त से उत्तर २४ अंश और दक्षिण भी उतने ही अंश तक सूर्य का आवागमन होता है। वैदिक काल में जब सूर्य विषव-वृत्त से उत्तर को जाता था तब उसे उत्तरायण संज्ञा प्राप्त होती थी; और जब वह इस वृत्त से दक्षिण को गमन करता था तब वह दक्षिणायन कहलाता था। उसी उत्तरायण का नाम वेदों में देवयान और दक्षिणायन का पितृयान है। इस देवयान और पितृयान का ऋग्वेद-संहिता में अनेक बार उल्लेख आया है। एक उदाहरण लीजिए-<blockquote>प्र-मे पन्था देवयाना अदृश्यन्तमर्धन्तो वसुमिरिष्कृतासः। अमूदु केतुरुषसः पुरस्तात्प्रतीव्यागादधि हर्मेभ्यः॥ (मं॰ ७, सूक्त- १६, मंत्र- २)</blockquote>
    
==वेदांग ज्योतिषीय अयन प्रणाली==
 
==वेदांग ज्योतिषीय अयन प्रणाली==
अयन संबंधी विचारधारा का दिग्दर्शन वेदांग ज्योतिष के ऋग् ज्योतिष तथा याजुष् ज्योतिष में विशेष रूप से होता है। ऋक् ज्योतिष के अनुसार जब चन्द्रमा और सूर्य एक साथ स्थित होकर धनिष्ठा नक्षत्र में होते हैं तब नए युग के उत्तरायण का प्रारंभ होता है। जैसा कि उत्तरायण के प्रारंभ के विषय में बता दिया गया था कि धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य और चन्द्रमा उत्तर की ओर मुडते हैं जबकि आश्लेषा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य और चन्द्रमा दक्षिण कीओर मुडते हैं।जहाँ तक उत्तरायण एवं दक्षिणायन का प्रारंभ किस मास में होता है तो ऋक् ज्योतिष में आचार्य लगध ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सूर्य का उत्तरायण माघ मास में तथा तथा दक्षिणायन श्रावण मास में होता है।<ref>Sunayna Bhati, [http://hdl.handle.net/10603/31942 Vedang jyotish ka samikshatamak adhyayan], year 2012, University of Delhi ( page -108).</ref>
+
अयन संबंधी विचारधारा का दिग्दर्शन वेदांग ज्योतिष के ऋग् ज्योतिष तथा याजुष् ज्योतिष में विशेष रूप से होता है। ऋक् ज्योतिष के अनुसार जब चन्द्रमा और सूर्य एक साथ स्थित होकर धनिष्ठा नक्षत्र में होते हैं तब नए युग के उत्तरायण का प्रारंभ होता है। जैसा कि उत्तरायण के प्रारंभ के विषय में बता दिया गया था कि धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य और चन्द्रमा उत्तर की ओर मुडते हैं जबकि आश्लेषा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य और चन्द्रमा दक्षिण कीओर मुडते हैं।जहाँ तक उत्तरायण एवं दक्षिणायन का प्रारंभ किस मास में होता है तो ऋक् ज्योतिष में आचार्य लगध ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सूर्य का उत्तरायण माघ मास में तथा तथा दक्षिणायन श्रावण मास में होता है।<ref>Sunayna Bhati, [http://hdl.handle.net/10603/31942 Vedang jyotish ka samikshatamak adhyayan], year 2012, University of Delhi ( page -108).</ref><blockquote>अयनांशा प्रदातव्या लग्ने क्रांतौ चरागमे। वित्रिभे सत्रिभे पाते तथा दिक्कर्म पातयोः॥ (ब्राह्मस्फुट सि०)<ref>रामदीन ज्योतिर्वित् , [https://archive.org/details/brihad-daivagya-ranjanam-of-ram-deen-pandit-khemraj/page/n2/mode/1up बृहद्दैवज्ञरंजन], सन् १९९९, खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन, बम्बई (पृ० २९)</ref>
 +
 
 +
रात्रिभागः समाख्यातः खरांशोर्दक्षिणायनम्। व्रतबंधादिकं तत्र चूडाकर्म च वर्जयेत् ॥
 +
 
 +
जलाशयसुरारामप्रतिष्ठा व्रतबंधनम् । अग्न्याधानं विवाहं च चौलं राज्याभिषेचनम् ॥ नवगेहप्रवेशादीन् न कुर्याद्दक्षिणायने॥
 +
 
 +
गृहप्रवेशस्त्रिदशप्रतिष्ठा विवाहचौलव्रतबंधदीक्षा। सौम्यायने कर्म शुभं विधेयं यद्गर्हितं तत्खलु दक्षिणायने॥</blockquote>
 +
 
 +
==अयन का महत्व==
 +
उत्तरायण को दक्षिणायन से श्रेष्ठ माना गया है। सूर्य का उत्तरायण में पदार्पण प्रत्येक जन को प्राणहारी ठंड की समाप्ति एवं प्रत्यासन्न वसंत ऋतु के आगमन का शुभ संदेश देता है। इसमें दिन बडे होने लगते हैं और प्रकाश एवं प्राणदायिनी ऊष्मा की वृद्धि होने लगती है। जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में उत्तरायण एवं दक्षिणायन के सन्दर्भ में वर्णित है - <blockquote>अग्निज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् । तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥ (भ०गी० ८, २४)</blockquote>'''भावार्थ -''' इस श्लोक में उत्तरायण को शुक्ल मार्ग से संबोधित किया गया है। अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण में जिन्होंने देह त्याग किया वे लोग ब्रह्म को प्राप्त कर मुक्त हो जाते हैं। पर दक्षिणायन में जिन्होंने शरीर त्याग किया उन्हैं चन्द्रलोक की प्राप्ति होती है, वे मुक्त नहीं होते।
    
==सारांश==
 
==सारांश==
925

edits

Navigation menu