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− | ज्योतिषशास्त्रमें देश की अवधारणा और उसके भेदों का वर्णन है। इसमें देश और भूमि का विश्लेषण। ग्रामवास में नराकृति, नाम राशि के अनुसार ग्रामवास का शुभ विचार, विधि तथा निषेध, अक्षांश, देशान्तर आदि का परिचय प्राप्त होगा। एवं दिक् परिचय, दिक् साधन की प्राचीन विधियाँ, दिक् साधन की आधुनिक विधियाँ और इन दोनों विधियों के अन्तर का ज्ञान यहाँ प्राप्त करेंगे। | + | ज्योतिषशास्त्रमें देश की अवधारणा और उसके भेदों का वर्णन है। इसमें देश और भूमि का विश्लेषण। ग्रामवास में नराकृति, नाम राशि के अनुसार ग्रामवास का शुभ विचार, विधि तथा निषेध, अक्षांश, देशान्तर आदि का परिचय प्राप्त होगा। एवं दिक् परिचय, दिक् साधन की प्राचीन विधियाँ, दिक् साधन की आधुनिक विधियाँ और इन दोनों विधियों के अन्तर का ज्ञान यहाँ प्राप्त करेंगे। ज्योतिष शास्त्रमें काल की अवधारणा और इसके भेदों का वर्णन भी किया गया है। |
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− | ज्योतिष शास्त्रमें काल की अवधारणा और इसके भेदों का वर्णन भी किया गया है।
| + | == दिक् परिचय == |
− | ===दिक् परिचय===
| + | ज्योतिषशास्त्र के किसी भी स्कन्ध के मुख्य रूप से तीन आधार स्तम्भ हैं - दिक् , देश एवं काल। इन्हीं तीनों के आधार पर ज्योतिषीय गणित, फलित एवं संहिता आदि स्कन्ध अपना-अपना कार्य करती है।अतः उनमें यहाँ दिक् साधन से सम्बन्धित विषयों को प्रस्तुत किया जा रहा है। यहाँ हम दिक् साधन के गणितीय एवं उसका सैद्धान्तिक पक्ष के स्वरूप को समझते हैं। |
− | वस्तुतः प्राचीन ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर आज हर कोई समझदार व्यक्ति दिग् ज्ञान से परिचित हैं। लगभग हर व्यक्ति पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा का ज्ञान रखता है परन्तु फिर भी हमारे शास्त्रों में इन चार दिशाओं के अतिरिक्त भी अन्य चार दिशाओं का भी वर्णन विद्यमान है, जिनका नाम क्रमशः ईशान, आग्नेय, नैरृत्य व पश्चिम उत्तर के मध्य वायव्य तथा उत्तर पूर्व के मध्य ईशान दिशा है। इन चारों को विदिशा अथवा कोणीय दिशा के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार से क्रमशः प्रदक्षिण क्रम अर्थात् सृष्टिक्रम या दक्षिणावर्त क्रमशः पूर्व-आग्नेय-दक्षिण-नैरृत्य-पश्चिम-वायव्य-उत्तर ईशान आदि दिशाओं का उल्लेख हमें शास्त्रों में मिलता है।
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− | ===दिक् साधन का महत्व===
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− | विभिन्न शास्त्रकार दिशाओं के महत्व को समझाते हुये कहते हैं कि कोई भी निर्माण जो मानवों द्वारा किया जाता है जैसे भवन, राजाप्रसाद, द्वार, बरामदा, यज्ञमण्डप आदि में दिक्शोधन करना प्रथम व अपरिहार्य है क्योंकि दिक्भ्रम होने पर यदि निर्माण हो तो कुल का नाश होता है।
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− | ==देश का विचार==
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− | देश-स्थान-क्षेत्र ये सब समानार्थक शब्द हैं। वस्तुतः देश अथवा स्थान के निर्धारण हेतु अक्षांश एवं देशान्तर का साधन किया जाता है। अब अक्षांश और देशान्तर क्या हैं ये समझने के लिए पृथ्वी के गोलत्व को समझना पडेगा।
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− | जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारी पृथ्वी गोल है। इस प्रकार गोल पृथ्वी को दो आधे-आधे भागों में बांटा जा सकता है। यहाँ हम पहले प्रकार से गोल को पृथ्वी के दोनों उपरीभाग अर्थात् पृष्ठीय ध्रुवों से ९० अंश की दूरी पर स्थित भूमध्य रेखा से दो भागों में विभाजन किया जाता है। इन दोनों गोलार्द्धों को बीच से विभाजित वाली रेखा को ही भू मध्य रेखा अथवा विषुवत रेखा अथवा निरक्षवृत्त अर्थात् शून्य अक्षांश रेखा भी कहा जाता है।
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− | इसको अगर हम दूसरे शब्दों में समझे तो इसी भूमध्य से उत्तरी ध्रुव तक के नब्बे अंश के क्षेत्र को उत्तरी गोलार्द्ध तथा इसी प्रकार दक्षिणी ध्रुव तक के ९० अंशों तक के विस्तार को दक्षिणी गोलार्द्ध के नाम से जाना जाता है। हम अपने स्थान का निर्धारण भी इसी विषुवद्वृत्त के आधार पर अक्षांशों द्वारा करते हैं।
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− | द्वितीय प्रकार से हम अपने देश का निर्धारण देशान्तरों के माध्यम से करते हैं कि कल्पना की है। इसके अन्तर्गत इनमें से एक वृत्त को मानक भूमध्य देशान्तर मानकर उससे पूर्व या पश्चिम कितने अंशादि पर अपना स्थान अथवा देश है इसका ज्ञान किया जाता है। किसी स्थान की सटीक स्थिति को उस स्थान के अक्षांश व देशान्तर की मदद से जान सकते हैं। किसी स्थान को अक्षांशधरातल पर उस स्थान की उत्तर-दक्षिण स्थिति को बताता है। यहाँ हम अक्षांश व देशान्तर को विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं।
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− | ===अक्षांश विचार===
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− | ===देशान्तर विचार===
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− | ==दिक् की अवधारणा==
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− | ज्योतिषशास्त्र के किसी भी स्कन्ध के मुख्य रूप से तीन आधार स्तम्भ हैं - दिक् , देश एवं काल। इन्हीं तीनों के आधार पर ज्योतिषीय गणित, फलित एवं संहिता आदि स्कन्ध अपना-अपना कार्य करती है।अतः उनमें यहाँ दिक् साधन से सम्बन्धित विषयों को प्रस्तुत किया जा रहा है। यहाँ हम दिक् साधन के गणितीय एवं उसका सैद्धान्तिक पक्ष के स्वरूप को समझते हैं।
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− | ==दिक् परिचय==
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| दिक् साधन ज्योतिषशास्त्र के मूलाधार पक्षों में से एक है। ऋषियों ने किसी भी वस्तु के परिज्ञान के लिये दिक् साधन की व्यवस्था प्रतिपादित किया है। ज्योतिष में प्रयोग के तीन पक्ष हैं- दिक् , देश एवं काल। इनके ज्ञानाभाव में ज्योतिषशास्त्र द्वारा सम्यक् रूप से किसी भी तथ्य को जानपाना सर्वथा दुष्कर है। | | दिक् साधन ज्योतिषशास्त्र के मूलाधार पक्षों में से एक है। ऋषियों ने किसी भी वस्तु के परिज्ञान के लिये दिक् साधन की व्यवस्था प्रतिपादित किया है। ज्योतिष में प्रयोग के तीन पक्ष हैं- दिक् , देश एवं काल। इनके ज्ञानाभाव में ज्योतिषशास्त्र द्वारा सम्यक् रूप से किसी भी तथ्य को जानपाना सर्वथा दुष्कर है। |
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| ज्योतिष शास्त्र में दिशाओं की संख्या १० कही गयी है। पूर्व, अग्नि कोण, दक्षिण, नैरृत्य कोण, पश्चिम, वायव्य कोण, उत्तर, ऐशान्य कोण, ऊर्ध्व एवं अधः दिशा। इनमें प्रधान पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण चार दिशा, चार कोण एवं ऊर्ध्व एवं अधः दिशा। इनमें प्रधान पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण चार दिशा, चार कोण एवं ऊर्ध्व तथा अधः दिशाओं को विदिशा के नाम से भी जाना जाता है। | | ज्योतिष शास्त्र में दिशाओं की संख्या १० कही गयी है। पूर्व, अग्नि कोण, दक्षिण, नैरृत्य कोण, पश्चिम, वायव्य कोण, उत्तर, ऐशान्य कोण, ऊर्ध्व एवं अधः दिशा। इनमें प्रधान पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण चार दिशा, चार कोण एवं ऊर्ध्व एवं अधः दिशा। इनमें प्रधान पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण चार दिशा, चार कोण एवं ऊर्ध्व तथा अधः दिशाओं को विदिशा के नाम से भी जाना जाता है। |
− | ===विदिशा निर्णय=== | + | ===दिक् की अवधारणा=== |
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| + | ==विदिशा निर्णय== |
| <blockquote>आग्नेयी पूर्वदिग्ज्ञेया दक्षिणादिक् च नैरृती। वायवी पश्चिम दिक् स्यादैशानी च तथोत्तरा॥</blockquote>अर्थात् अग्निकोण की गणना पूर्वदिशा में, वायव्य कोण की पश्चिम दिशा में, नैरृत्य कोण की दक्षिण दिशा में तथा ईशान कोण की गणना उत्तर दिशा में जानना चाहिये। | | <blockquote>आग्नेयी पूर्वदिग्ज्ञेया दक्षिणादिक् च नैरृती। वायवी पश्चिम दिक् स्यादैशानी च तथोत्तरा॥</blockquote>अर्थात् अग्निकोण की गणना पूर्वदिशा में, वायव्य कोण की पश्चिम दिशा में, नैरृत्य कोण की दक्षिण दिशा में तथा ईशान कोण की गणना उत्तर दिशा में जानना चाहिये। |
| ===दिशा विचार=== | | ===दिशा विचार=== |
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| इसके अतिरिक्त भी आचार्य ने लिखा है कि समग्र भूमण्डल पर स्थित व्यक्तियों के लिये सुमेरु उत्तर दिशा में होता है। अतः सुमेरु से १८०० दूसरी तरफ दक्षिण दिशा सिद्ध होगी। परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में सूर्योदय तथा सूर्यास्त के द्वारा दिग्साधन करने से व्यवहारिक उपयोग में भी अनुभव हीनता से अनेक समस्याएं दिग् निर्धारण में उपस्थित हो जाती हैं क्यों कि सूर्य के विषुवत् रेखा से २३०। २७ (परम क्रान्ति तुल्य) उत्तर से लेकर विषुवत् रेखा से २३०।२७ दक्षिण तक भ्रमण करने के कारण ४६०।५४ के बीच में हर स्थान पर सूर्योदय एवं सूर्यास्त का स्थान क्रमशः रोज बदलता रहेगा जिससे एक जगह पर भी प्रतिदिन पूर्वादि दिशाएं भिन्न-भिन्न होती रहेंगी। अतः ४६०।५४ के मध्य किस बिन्दु के सूर्योदय को पूर्व बिन्दु मानकर किसी कार्य व्यापार का सम्पादन किया जाय एतदर्थ आचार्यों ने सूक्ष्म दिग्ज्ञान की व्यवस्थाएं दी हैं क्यों कि यागादि कर्म में स्वल्प दिग्दोष उपस्थित होने पर भी उनके फल नहीं मिलते है। अतः आचार्यों ने इस प्रपंच से मुक्ति के लिये सूक्ष्म प्रकार से दिग् साधन की अनेक विधियाँ ग्रन्थों में दी हैं। | | इसके अतिरिक्त भी आचार्य ने लिखा है कि समग्र भूमण्डल पर स्थित व्यक्तियों के लिये सुमेरु उत्तर दिशा में होता है। अतः सुमेरु से १८०० दूसरी तरफ दक्षिण दिशा सिद्ध होगी। परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में सूर्योदय तथा सूर्यास्त के द्वारा दिग्साधन करने से व्यवहारिक उपयोग में भी अनुभव हीनता से अनेक समस्याएं दिग् निर्धारण में उपस्थित हो जाती हैं क्यों कि सूर्य के विषुवत् रेखा से २३०। २७ (परम क्रान्ति तुल्य) उत्तर से लेकर विषुवत् रेखा से २३०।२७ दक्षिण तक भ्रमण करने के कारण ४६०।५४ के बीच में हर स्थान पर सूर्योदय एवं सूर्यास्त का स्थान क्रमशः रोज बदलता रहेगा जिससे एक जगह पर भी प्रतिदिन पूर्वादि दिशाएं भिन्न-भिन्न होती रहेंगी। अतः ४६०।५४ के मध्य किस बिन्दु के सूर्योदय को पूर्व बिन्दु मानकर किसी कार्य व्यापार का सम्पादन किया जाय एतदर्थ आचार्यों ने सूक्ष्म दिग्ज्ञान की व्यवस्थाएं दी हैं क्यों कि यागादि कर्म में स्वल्प दिग्दोष उपस्थित होने पर भी उनके फल नहीं मिलते है। अतः आचार्यों ने इस प्रपंच से मुक्ति के लिये सूक्ष्म प्रकार से दिग् साधन की अनेक विधियाँ ग्रन्थों में दी हैं। |
− | ===दिक् साधन की विविध शास्त्रीय विधियां===
| + | ==दिक् साधन की विविध शास्त्रीय विधियां== |
| ज्योतिष शास्त्र में दिक्साधन करने हेतु शंकु का बहुत महत्त्व है। अथर्ववेद के उपवेद रूप में प्रसिद्ध वास्तुशास्त्र में भी दिग्ज्ञान के शुद्धिकरण हेतु शंकु के प्रयोग का वर्णन भी उपलब्ध होता है। ग्राम-नगर-पुर-गृह आदि के निर्माण में शंकु का पर्याप्त महत्त्व रहता है। उपर्युक्त बातों को जानकर हम यह भी कह सकते हैं कि दिक् साधन वास्तुशास्त्र का एक प्रयोजन है। शंकु मुख्यतया लकडी-लोहे-धातु आदि से निर्मित एक दण्डिका होती है। जिसकी लम्बाई १२, १८ या २४ अंगुल की तथा उसके आधार की चौडाई ४,५ अथवा ६ अंगुल की हो सकती है। इसी प्रकार यह दण्डिका सूची के आकार की होती है। जो स्थान अथवा देश या क्षेत्र जहां हमें निर्माण का कार्य करना | | ज्योतिष शास्त्र में दिक्साधन करने हेतु शंकु का बहुत महत्त्व है। अथर्ववेद के उपवेद रूप में प्रसिद्ध वास्तुशास्त्र में भी दिग्ज्ञान के शुद्धिकरण हेतु शंकु के प्रयोग का वर्णन भी उपलब्ध होता है। ग्राम-नगर-पुर-गृह आदि के निर्माण में शंकु का पर्याप्त महत्त्व रहता है। उपर्युक्त बातों को जानकर हम यह भी कह सकते हैं कि दिक् साधन वास्तुशास्त्र का एक प्रयोजन है। शंकु मुख्यतया लकडी-लोहे-धातु आदि से निर्मित एक दण्डिका होती है। जिसकी लम्बाई १२, १८ या २४ अंगुल की तथा उसके आधार की चौडाई ४,५ अथवा ६ अंगुल की हो सकती है। इसी प्रकार यह दण्डिका सूची के आकार की होती है। जो स्थान अथवा देश या क्षेत्र जहां हमें निर्माण का कार्य करना |
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− | दिक्साधन की आधुनिक विधियाँ | + | == दिक्साधन की आधुनिक विधि == |
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| प्राचीन व आधुनिक दिक्साधन विधियों में अन्तर | | प्राचीन व आधुनिक दिक्साधन विधियों में अन्तर |
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| + | == दिक् साधन का महत्व == |
| + | विभिन्न शास्त्रकार दिशाओं के महत्व को समझाते हुये कहते हैं कि कोई भी निर्माण जो मानवों द्वारा किया जाता है जैसे भवन, राजाप्रसाद, द्वार, बरामदा, यज्ञमण्डप आदि में दिक्शोधन करना प्रथम व अपरिहार्य है क्योंकि दिक्भ्रम होने पर यदि निर्माण हो तो कुल का नाश होता है।<ref>योगेंद्र कुमार शर्मा, दिक् की अवधारणा एवं भेद, सन् 2021, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २९४)।</ref> |
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| + | वस्तुतः प्राचीन ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर आज हर कोई समझदार व्यक्ति दिग् ज्ञान से परिचित हैं। लगभग हर व्यक्ति पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा का ज्ञान रखता है परन्तु फिर भी हमारे शास्त्रों में इन चार दिशाओं के अतिरिक्त भी अन्य चार दिशाओं का भी वर्णन विद्यमान है, जिनका नाम क्रमशः ईशान, आग्नेय, नैरृत्य व पश्चिम उत्तर के मध्य वायव्य तथा उत्तर पूर्व के मध्य ईशान दिशा है। इन चारों को विदिशा अथवा कोणीय दिशा के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार से क्रमशः प्रदक्षिण क्रम अर्थात् सृष्टिक्रम या दक्षिणावर्त क्रमशः पूर्व-आग्नेय-दक्षिण-नैरृत्य-पश्चिम-वायव्य-उत्तर ईशान आदि दिशाओं का उल्लेख हमें शास्त्रों में मिलता है। |
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| + | == देश का विचार == |
| + | देश-स्थान-क्षेत्र ये सब समानार्थक शब्द हैं। वस्तुतः देश अथवा स्थान के निर्धारण हेतु अक्षांश एवं देशान्तर का साधन किया जाता है। अब अक्षांश और देशान्तर क्या हैं ये समझने के लिए पृथ्वी के गोलत्व को समझना पडेगा। |
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| + | इसको अगर हम दूसरे शब्दों में समझे तो इसी भूमध्य से उत्तरी ध्रुव तक के नब्बे अंश के क्षेत्र को उत्तरी गोलार्द्ध तथा इसी प्रकार दक्षिणी ध्रुव तक के ९० अंशों तक के विस्तार को दक्षिणी गोलार्द्ध के नाम से जाना जाता है। हम अपने स्थान का निर्धारण भी इसी विषुवद्वृत्त के आधार पर अक्षांशों द्वारा करते हैं। |
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| + | द्वितीय प्रकार से हम अपने देश का निर्धारण देशान्तरों के माध्यम से करते हैं कि कल्पना की है। इसके अन्तर्गत इनमें से एक वृत्त को मानक भूमध्य देशान्तर मानकर उससे पूर्व या पश्चिम कितने अंशादि पर अपना स्थान अथवा देश है इसका ज्ञान किया जाता है। किसी स्थान की सटीक स्थिति को उस स्थान के अक्षांश व देशान्तर की मदद से जान सकते हैं। किसी स्थान को अक्षांशधरातल पर उस स्थान की उत्तर-दक्षिण स्थिति को बताता है। यहाँ हम अक्षांश व देशान्तर को विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं। |
| + | ===अक्षांश विचार=== |
| + | ===देशान्तर विचार=== |
| ==काल की अवधारणा== | | ==काल की अवधारणा== |
| यास्कानुसार काल वह शक्ति है जो सबको गति देती है। संसार में गति अथवा कर्म का मूलाधार काल ही है क्योंकि कोई भी गति या कर्म किसी काल में ही किया जाता है, चाहे वह सूक्ष्म हो या व्यापक हो। वस्तुतः ज्योतिषशास्त्र काल विधायक शास्त्र है, इसका मुख्य आधार ही कालगणना है। जन्मकुण्डली निर्माण से लेकर मुहूर्त शोधन व समष्टि गत शुभाशुभ का विचार तक इसी काल के सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं स्थूल दोनों रूपों द्वारा होता है अर्थात् सर्वत्र काल गणना ही आधार है। | | यास्कानुसार काल वह शक्ति है जो सबको गति देती है। संसार में गति अथवा कर्म का मूलाधार काल ही है क्योंकि कोई भी गति या कर्म किसी काल में ही किया जाता है, चाहे वह सूक्ष्म हो या व्यापक हो। वस्तुतः ज्योतिषशास्त्र काल विधायक शास्त्र है, इसका मुख्य आधार ही कालगणना है। जन्मकुण्डली निर्माण से लेकर मुहूर्त शोधन व समष्टि गत शुभाशुभ का विचार तक इसी काल के सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं स्थूल दोनों रूपों द्वारा होता है अर्थात् सर्वत्र काल गणना ही आधार है। |
| ===परिचय=== | | ===परिचय=== |
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| काल | | काल |