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भारतीय संस्कृतिमें प्रत्येक दैनिक कर्म विधि-विधानसे पूर्ण किया जाता है। भोजन ग्रहण करने हेतु भी शास्त्रों में भोजनविधि का वर्णन किया गया है। शास्त्रोक्त विधिसे भोजन करने पर आयु, सुख एवं
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भारतीय संस्कृतिमें प्रत्येक दैनिक कर्म विधि-विधानसे पूर्ण किया जाता है। भोजन ग्रहण करने हेतु भी शास्त्रों में भोजनविधि का वर्णन किया गया है। शास्त्रोक्त विधिसे भोजन करने पर आयु, तेज, उत्साह, पुष्टि, तुष्टि एवं सुख प्राप्त होता है।
    
आजकल सहभोज (बफेपार्टी) आदि जो भी प्रचलित हैं वह शास्त्रीय भोजन पद्धति का अनुसरण नहीं करती है। जिसमें स्पर्शदोष, दृष्टिदोष, भोजनस्थल की पवित्रता आदि का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा जाता है। जिसके फलस्वरूप अजीर्ण आदि शरीरमें बहुविधरोग होने लगते हैं।
 
आजकल सहभोज (बफेपार्टी) आदि जो भी प्रचलित हैं वह शास्त्रीय भोजन पद्धति का अनुसरण नहीं करती है। जिसमें स्पर्शदोष, दृष्टिदोष, भोजनस्थल की पवित्रता आदि का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा जाता है। जिसके फलस्वरूप अजीर्ण आदि शरीरमें बहुविधरोग होने लगते हैं।
    
== परिचय ==
 
== परिचय ==
भारतीय धर्म चार आचार-विचार, आहार तथा व्यवहार इन चार वस्तुओं पर निर्भर है। इनमें आहारकी तो मुख्यता है ही क्योंकि प्रसिद्ध है- <blockquote>जैसा खावे अन्न, वैसा होवे तन और मन।</blockquote>अर्थात् जैसा आहार होगा वैसे मन और बुध्दि होंगे। जैसे मन और बुद्धि होंगे वैसे विचार होंगे। जैसे विचार होंगे वैसे ही आचरण होंगे। जैसे आचरण होंगे वैसा ही दूसरोंसे व्यवहार होगा। यदि व्यवहार-शुद्धि है तो कोई अशान्ति या अव्यवस्था नहीं हो पाती। इन्हीं हेतुओं के कारण से ही सनातनधर्ममें भोजन का संबंध धर्मके साथ स्थापित किया गया है-<blockquote>अन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्रान् जिघांसति।(मनु ५/४)</blockquote>अन्न दोषके कारण ही मृत्युकी प्राप्ति होती है।
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मनुष्य का शरीर आहार से संभव है और शरीर द्वारा ही सभी क्रियाऐं संभव हैं। अतः आहार का सम्यक् विचार करके इसे ग्रहण करना चाहिये। सनातन धर्ममें आचार-विचार, आहार तथा व्यवहार इन चार वस्तुओं पर निर्भर है। इनमें आहारकी तो मुख्यता ही है क्योंकि प्रसिद्ध है- <blockquote>जैसा खावे अन्न, वैसा होवे तन और मन।</blockquote>अर्थात् जैसा आहार होगा वैसे मन और बुध्दि होंगे। जैसे मन और बुद्धि होंगे वैसे विचार होंगे। जैसे विचार होंगे वैसे ही आचरण होंगे। जैसे आचरण होंगे वैसा ही दूसरोंसे व्यवहार होगा। यदि व्यवहार-शुद्धि है तो कोई अशान्ति या अव्यवस्था नहीं हो पाती। इन्हीं हेतुओं के कारण से ही सनातनधर्ममें भोजन का संबंध धर्मके साथ स्थापित किया गया है-<blockquote>अन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्रान् जिघांसति।(मनु ५/४)</blockquote>अन्न दोषके कारण ही मृत्युकी प्राप्ति होती है।
    
== भोजन विधि का महत्व ==
 
== भोजन विधि का महत्व ==
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=== अन्न शुद्धि ===
 
=== अन्न शुद्धि ===
भोजनसामग्री की शुद्धता
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समय पर जो भोजन उपलब्ध हो उसे संतुष्ट चित्त होकर खाना चाहिए।
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अन्न (भोजन) की कभी भी निंदा नहीं करनी चाहिए-<blockquote>अनिन्दन् भक्षयेन्नित्यं वाग्यतोऽन्नमकुत्सयन्।</blockquote>निंदा करके खाया हुआ अन्न कभी भी बल और आरोग्य नहीं देता है।
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=== भोग निवेदन ===
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परिवार में या जहाँ कहीं भी भोजन बनकर तैयार हो वहं पर उसे थाली में या किसी अन्य पात्र में निकाल कर देवता को भोग लगाया जाता है। प्रायः सामूहिक भोजन के अवसर पर भी पाचक बने हुये भोजन का स्वल्प अंश अग्नि में अवश्य छोडते हैं। साथ ही वह प्रार्थना करते हैं कि उसके द्वारा बनाया हुआ भोजन पुष्टिकारक हो। सनातन संस्कृतिमें आज भी भोग लगाने की प्रथा चली आ रही है।<blockquote>अस्माकंनित्यमस्त्वेतदिति।</blockquote>यह अन्न मुञ्चे नित्य प्राप्त हो। इस प्रकार नैवेद्य के साथमें ईश्वर से प्रार्थना की जाती है।
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=== भोजन पात्र विचार ===
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कांस्यपात्र मे भोजन करने से काम शक्ति की वृद्धि होती है। अतः यति, ब्रह्मचारी, विधवा, साधक, तपस्वी को कांस्य में भोजन नहीं करना चाहिए। गृहस्थ को भी कांस्य पात्र में हमेशा अकेले भोजन करना चाहिए, अन्यथा तांबेका पात्र एक का दोष दूसरे में शीघ्र प्रेषित करता है।
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स्वर्ण, चांदी, ताम्बा का पात्र, शुक्ति (सितु), शंख, संगमरमर, पत्थर, स्फटिक आदि का पात्र यदि चटक जाये, फूट जाये या उसमें दरार पड़ जाये तो उसका दोष नहीं होता है-<blockquote>सौवर्णं राजतं ताम्रंपात्रं शुक्तिजशंखजे। अश्मजं स्फाटिकं चैव न भेदाद् दोषमर्हति॥(व्यासः)</blockquote>स्वर्ण पात्र, रजत (चाँदी) पात्र, ताम्रपात्र, कमल पत्र तथा पलाश पत्र पर भोजन करना चाहिए-<blockquote>सौवर्णे राजते ताम्रे पद्मपत्रपलाशयोः। भाजने भोजन चैव त्रिरात्रफलमश्नुते॥(पैठीनसिः)</blockquote>गृहस्थ को ताम्रपात्र में भोजन नहीं करना चाहिए। ताम्रपात्र में दूध, दही, तक्र (मठा) शीघ्र खराब होता है।
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=== भोजनमें दिशा विचार ===
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अपनी जानकारी में हमेशा पूर्वमुख बैठकर भोजन करने का प्रयास करना चाहिए। पूर्व दिशा देव दिशा होती है-<blockquote>प्राङ्मुखोऽन्नानि भुञ्जीत शुचिः पीठमधिष्ठितः॥ (देवलः)</blockquote>पूर्वमुख या उत्तरमुख होकर भोजन करना चाहिए-<blockquote>प्राडमुखोदङ्मुखो वापि न चैवान्यमना नरः॥(विष्णुपुराणम् , ३/१९१/८०)</blockquote>दक्षिण की ओर मुख करके भोजन करने से माता की आयु क्षरित होती है। पश्चिम मुख भोजन करने से रोग बढ़ता है।
    
== एकान्तस्थानमें भोजन की आवश्यकता ==
 
== एकान्तस्थानमें भोजन की आवश्यकता ==
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(विवाह के दिन पति-पत्नी एक साथ एक पात्र मेँ भोजन करते हेँ। इससे
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अभेद की स्थिति उत्पन्न होती है। अतः पत्नी के साथ भोजन करना पाप
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कर्म नहीं हे, पर यह नित्यकर्म भी नहीं हं। यह रतिकर्म या अनुराग कर्म
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मे गिना जाता हे।)
    
== भोजन उपरान्त की क्रियाऐं ==
 
== भोजन उपरान्त की क्रियाऐं ==
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मौन भोजन-
 
मौन भोजन-
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भोजन करते समय अत्यन्त शंत ओर मोन रहना चाहिए। शीत्कार, हूँ, खांसने का शब्द नहीं करना चाहिए।
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भोजन करते समय अत्यन्त शांत और मौन रहना चाहिए। शीत्कार, हूँकार, खांसने का शब्द नहीं करना चाहिए।<blockquote>मौनेनान्नं तु भोजयेत् - ब्रह्मपुराण</blockquote>
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मौनेनान्नं तु भोजयेत् - ब्रह्मपुराण।
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स्नान करते समय मौन रहना चाहिए। हवन करते समय मौन रहना चाहिए। भोजन करते समय मौन रहना चाहिए। स्नान के समय बोलने से शक्ति का ह्रास होता है। हवन के समय बोलने से शोभा (कान्ति) का ह्रास होता है और भोजन करते समय बोलने से आयु का ह्रास होता है-<blockquote>स्नास्यते वरुणः शक्तिं जुह्वतोऽग्निर्हरेत् श्रियम्। भुञ्जतो मृत्युरायुष्यं तस्मान्मौनव्रतं चरेत् ॥(व्यासः)</blockquote>
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स्नान करते समय मौन रहना चाहिए। हवन करते समय मौन रहना चाहिए। भोजन करते समय मौन रहना चाहिए। स्नान के समय बोलने से शक्ति का ह्रास होता है। हवन के समय बोलने से शोभा (कान्ति) का ह्रास होता है और भोजन करते समय बोलने से आयु का ह्रास होता है-<blockquote>स्नास्यते वरुणः शक्तिं जुह्वतोऽग्निर्हरेत् श्रियम्। भुञ्जतो मृत्युरायुष्यं तस्मान्मौनव्रतं चरेत् ॥</blockquote>
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== भोजन संख्या ==
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अहोरात्र (दिन-रात) में मात्र दो बार ही भोजन करना चाहिए। दिन और रात्रि में मात्र दो बार भोजन करने वाला उपवास करने का पुण्य प्राप्त करता है- <blockquote>नान्तरा भोजनं दृष्टमुपवासविधिर्हि सः॥ (महा.अनु. १६२/४०)</blockquote>चौबीस घण्टे में दो बार भोजन करना नियमित जीवनचर्या का महत्वपूर्ण अंग है।<blockquote>द्वौ भोजनकालौ सायं प्रातश्च। ततोऽन्यस्मिन्काले न भुञ्जीत॥ (मेधातिधिः)</blockquote>चौबीस घण्टे में एक बार भोजन करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। दो बार भोजन करना मानवी प्रवृत्ति होती हे। तीसरी बार जो भोजन किया जाता है वह भूत-प्रेतादि को प्राप्त होता है। चौथी बार का भोजन राक्षसों को प्राप्त होता है-
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देवानामेकभुक्तं तु द्विभुक्तं स्यान्नरस्य च। त्रिभुक्तं॒प्रेतदैत्यस्य चतुर्थं कौणपस्य च॥(पद्मपुराणम्,५१/१२९)
    
== भोजन के आयुर्वेदीय अंश ==
 
== भोजन के आयुर्वेदीय अंश ==
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=== पैर धोकर भोजन करना ===
 
=== पैर धोकर भोजन करना ===
भोजन करने के पूर्व शास्त्रानुसार पैरों को धुल लेना चाहिये। पैर धोनेसे बुद्धि की पवित्रता, दरिद्रता का विनाश और परिश्रम जनित दुख का निवारण होता है तथा यह आयु को हितकर भी है। जैसाकि पैर धोने के विषयमें मनुजी लिखते हैं-
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भोजन करने के पूर्व शास्त्रानुसार पैरों को धुल लेना चाहिये। पैर धोनेसे बुद्धि की पवित्रता, दरिद्रता का विनाश और परिश्रम जनित दुख का निवारण होता है तथा यह आयु को हितकर भी है। जैसाकि पैर धोने के विषयमें मनुजी लिखते हैं-<blockquote>आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत नार्द्रपादस्तु संविशेत् । आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥(मनु० ४/७३)</blockquote>अर्थात् गीले पैर से भोजन करना चाहिये, गीले पैर से सोना नहीं चाहिये।
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आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत नार्द्रपादस्तु संविशेत् । आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥(मनु० ४/७३)
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योगासन और भोजन
 
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अर्थात् गीले पैर से भोजन करना चाहिये, गीले पैर से सोना नहीं चाहिये।
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==== योगासन और भोजन ====
      
==== अनारोग्य अवस्था में भोजन विधि ====
 
==== अनारोग्य अवस्था में भोजन विधि ====
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आधुनिक भोजन विधान
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==== आधुनिक भोजन विधान ====
   
स्वल्पाहार,आहार,पूर्णाहर
 
स्वल्पाहार,आहार,पूर्णाहर
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==== उपवास के वैज्ञानिक अंश ====
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उपवास के वैज्ञानिक अंश
 
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== भोजन में वर्जित कर्म ==
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दक्षिण मुख भोजन न करें- न दक्षिणाभिमुखं भुजीत।
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हयेली मे भोजन न करे न तु पाणितले भुक्ते।
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पुत्कार पूर्वक भोजन न करे न तु फूत्कारसयुतम् ।
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उंगली फेला कर भोजन न करे न च प्रसृताङ्कलिभिः।
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अपच में भोजन न करे नाजीर्णे भोजनं कुर्यात् ..
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अतिनुभुक्षित होने पर अन्न न खाये (रस लें) स्याच्चनातिबुमुक्षितः।
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हाथी-घोड़ा-रथ-सवारी-ञट-महल के छत पर चढ़कर भोजन न करें-
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हस्त्यश्चरथयानोष्टप्रासादस्थो न भक्षयेत् ।
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समृशान मे भोजन न करे शमशानाभ्यन्तरगतो।
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देवालय में भोजन न करे देवालयगतोऽपि वा।
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नौका में बैठ कर भोजन न करे न नावि भुङ्धीत।
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शयन करते (सोते) हए भोजन न करे शयनस्थो न भुञ्जीत।
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हथेली में, पूजन के आसन पर, शयनीय आसन पर बेठ कर भोजन न
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करे न पाणिस्थं न चासने।
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प्रातः सान्ध्यवेला-मध्याहवेला ८१२ बजे दिन)- रात्रय्धवेला (१२ बजे रात)
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मे भोजन न करे न सन्ध्ययोर्न मध्याह्ने नार्धरात्रे कदाचन।
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गीला कपड़ा पहन कर भोजन न करे नार्द्रवासा।
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गीला सिर भोजन न करे | नार्द्रशिरा।
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यज्ञोपवीत रहित होकर भोजन न करं नचायज्ञोपवीतवान् ।
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पैर फैलाकर भोजन न करे न प्रसारितपादस्तु!
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पैरों पर हाथ रख कर भोजन न करे पादारोपितपाणिमान् ।
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अन्र के ऊपर बैठ कर भोजन न कर नावसिक्त सस्थश्च।
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पलंग पर बैठ कर भोजन न करे न पर्यकिकास्थितः।
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सिर टंक कर, पगड़ी बोधकर भोजन न करे न वेष्टितशिराश्चापि।
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उत्संग (गोद) में रखकर भोजन न करे नोत्संगकृतभाजनः।
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एक वख पहन कर भोजन न करे नैक वख्रो।
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दुष्टों के बीच भोजन न करे न दुष्टमध्ये।
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जूता-चप्पल पहन कर भोजन न करे न सोपानत्कः।
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खड़ाऊं पहन कर भोजन न करे न सपादुकः।
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चर्म आसन पर बैठ कर भोजन न करे न चर्मोपरिसस्थश्च।
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पलई, कमर मे चमड़ा (बेल्ट) बोधकर भोजन न करे-चम्विष्टितपार््धवान् ।
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बाल ओर कौड़ी से युक्त भोजन न करे न केशकीटावपन्नम् ।
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अन्न की निदान करे नान्नस्य जन्मकालुष्यम् ।
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भोजन पंक्ति की निदान करे न पंक्ति च विकुत्सयेत् ।
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ग्रास (कोर) से बचा अन्न न खाये ्रासशोषं नाश्नीयात् वे।
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त भोजन १५३
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अंजलि से जल नहीं पीना चाहिए-
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जलं पिबेनाञ्जलिना, याज्ञवल्क्यः, न वार्यञ्जलिना पिबेत् , मनुस्मृतिः।
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खड़ा हां कर जल नहीं पीना चाहिए-
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- न जलरं पिबेत् - स्कन्दपुराणम् , ब्रह्मपुराणम् ।
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वाये हाथ से जल नहीं पीना चाहिए। यह सुरापान की तरह माना गया हे
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उत्थाय वामहस्तेन यत्तोयं पिबति द्विजः।
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सुरापी च स विज्ञेयः सर्वधर्मबहिष्कृतः। । ब्रह्मवै. २७/२४।।
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पानी पीते समय यदि मुंह से निकल कर भोजन थाल में गिर जाय तो
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उस भोजन को नहीं खाना चाहिए- .
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पिवतः पतिते तोये भोजनं मुखनिःसुते।
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अभोज्यं तद् विजुनीयाद् भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् । । महाभारत।।
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बछड़ों के हिस्से का दृध थन से पूरी तरह निकाल कर जो पीता है उसके
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पानी पीते समय यदि मुंह से निकल कर भोजन थाल में गिर जाय तो
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उस भोजन को नहीं खाना चाहिए- .
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पिवतः पतिते तोये भोजनं मुखनिःसुते।
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अभोज्यं तद् विजुनीयाद् भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् । । महाभारत।।
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बछड़ों के हिस्से का दृध थन से पूरी तरह निकाल कर जो पीता है उसके
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वंश का नाश हो जाता हं
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क्षीर तु बालवत्साना ये पिवन्तीह मानवाः।
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न तेषां क्षीरपाः केचिद् जायन्ते कुलवर्धनाः ।
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महाभारत, अनुशासनपर्व, ९२५/६६।।
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साधक, योगी, ब्रह्मचारी को भस का दुध नहीं पीना चाहिए-
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अभक्ष्यं महिषीणां च दुग्धं दधि धृतं तथा।
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मुख से निकले शेष जल को न पि्ये। थोड़ा जल लें ओर उसे पूरा पि्े-
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पीतशेषं पिबेन् न च।
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नासी (रात्रि का शेष) भोजन न करे न पर्युषितम् । शीतलाष्टमी का
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नासी भोजन करना धर्मकृत्य है- पर्युषितान्नपानादिकमत्र विहितम् ।
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फल-शाक-मूल-ईख को भोजन करते समय दात से न काटे; बल्कि चाकू
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आदि से इसे काट कर खाये-
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शाकमूलफलेश्ष्वादि दन्तच्छेदैर्न भक्षयेत् ।
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अनेक लोगों के साथ भोजन करते समय तेजी से न खायं-
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बहूनामश्नतां मध्ये न चाश्नीयात् त्वरान्वितः।
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रजस्वला द्वारा बनाया हुआ या छुआ हआ भोजन नहीं करना चाहिए। कौआ
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द्वारा जूढा किया हुआ तथा पैर से दुकराया हआ अन्न नहीं खाना चाहिए-
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रजस्वलाकृष्णशकुनिपदोपहतम् ।। गौतमस्मृतिः १७/२।।
      
== बाहर भोजन कब लें? ==
 
== बाहर भोजन कब लें? ==
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