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== स्नान विधि ==
 
== स्नान विधि ==
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== स्नान के प्रकार ==
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स्नान इस कर्म के कई प्रकार होते हैं। यह तो '''मुख्य'''(जल के साथ) या '''गौण''' ये दो प्रकार हैं, और पुनः ये दोनों प्रकार कई भागों में विभक्त हुये हैं जैसे- नित्य, नैमित्तिक, काम्य, क्रियांग, मलापकर्षण(अभ्यंग स्नान), एवं क्रिया स्नान ये नैमित्तिक स्नान के छः प्रकार किये गये हैं।
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=== मुख्य स्नान ===
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* '''नित्य स्नान'''
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आवश्यक प्रतिदिन का स्नान नित्य स्नान कहलाता है।
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* '''नैमित्तिक स्नान'''
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किन्हीं विशेष अवसरों पर किया जाने वाला नैमित्तिक स्नान कहलाता है।
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* '''काम्य स्नान-''' किसी तीर्थ को जाते समय या पुष्य नक्षत्र में चन्द्रोदय पर जो स्नान होता है, माघ एवं वैशाख मासों में पुण्य के लिये प्रातः काल जो स्नान होता है, तथा इसी प्रकार के जो स्नान इच्छा की पूर्ति(फल प्राप्ति की इच्छा) के लिये किये जाते हैं उन्हैं काम्य स्नान की संज्ञा मिली है।
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# '''क्रियांग स्नान-''' कूप-मन्दिर, वाटिका तथा जन-कल्याण के निर्माण-कार्य के समय जो स्नान होता है, उसे क्रियांग स्नान की संज्ञा मिली है।
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# '''मलापकर्षक(अभ्यंग-स्नान)-''' जब शरीर में तेल एवं आँवला लगाकर केवल शरीर को स्वच्छ करने की इच्छा से स्नान होता है, तो उसे मलापकर्षक या अभ्यंग-स्नान कहा जाता है। सप्तमी, नवमी एवं पर्व की तिथियों में आमलक-प्रयोग का प्रयोग निषिद्ध माना गया है।
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# '''क्रिया स्नान-''' जब कोई किसी तीर्थ-स्थान पर यात्रा के फल प्राप्ति के लिये स्नान के स्नान करता है तो उसे क्रिया स्नान कहते हैं।
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# '''कापिल स्नान'''-बीमार व्यक्ति गर्म जल से स्नान कर सकता है। यदि वह उसे सह न सके तो उसका शरीर(शिर को छोडकर) पोंछ देना चाहिये। इस स्नान को कापिल-स्नान कहते हैं। रजस्वला स्त्री चौथे दिन ज्वर से पीडित हों यदि तो किसी अन्य स्त्री को दस या बारह बार उसे बार-बार स्पर्श करके वस्त्रयुक्त स्नान करना चाहिये। अन्त में रजस्वला स्त्री के वस्त्र बदल देना चाहिये। इस प्रकार वह पवित्र हो जाती है।
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=== गौण स्नान ===
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ये स्नान रोगियों के लिये, समय अभाव या उस समय के लिये हैं, जब कि साधारण मुख्य(जल सहित) स्नान में कठिनाई प्रतीत होने पर गौण स्नान का पालन करना चाहिये। इनके कुछ भेद इस प्रकार हैं-
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# '''वारुण स्नान-''' जल सहित स्नान को वारुण स्नान कहा जाता है।
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# '''मन्त्र स्नान-''' शास्त्रों में मन्त्र स्नान, गुर्वनुज्ञा एवं ब्राह्म स्नान इनकों एक-दूसरे का पर्याय कहा गया है।
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# '''भौम स्नान-''' मिट्टी के द्वावा जो स्नान किया जाता है वह भौम स्नान कहलाता है। भौम स्नान को पार्थिव स्नान भी कहा गया है।
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# '''आग्नेय स्नान-''' पवित्र विभूतियों(यज्ञ या होम की भस्म 'राख' आदि) के द्वारा जो स्नान किया जाता है वह आग्नेय स्नान कहलाता है।
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# '''वायव्य स्नान-''' गौ के खुरों के द्वारा उठती हुई धूलि से स्नान वायव्य स्नान कहलाता है।
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# '''दिव्य स्नान-''' सूर्य की किरणों के रहते हुये(धूप में)  वर्षा में स्नान करना दिव्य स्नान कहलाता है।
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# '''मानस स्नान-''' भगवान विष्णु आदि देवताओं का स्मरण मात्र मानस स्नान कहलाता है।
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=== आश्रम-व्यवस्था एवं स्नान ===
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मनु स्मृति में आश्रम व्यवस्था के अनुसार स्नान का भी उल्लेख प्राप्त होता है-
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'''ब्रह्मचर्य'''- ब्रह्मचारियों के लिये एक बार स्नान का विधान है।
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'''गृहस्थ-''' गृहस्थों को दो बार स्नान विहित है।
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'''वानप्रस्थ-''' वानप्रस्थियों के लिये प्रातः मध्याह्न एवं सायान्ह त्रिकाल स्नान का विधान है।
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'''सन्यास-''' सन्यासियों के लिये भी त्रिकाल स्नान का विधान है।
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किसी भी आश्रम में स्थित रोगी के लिये स्नान के गौण आदि स्नान विधान का पालन करना चाहिये।
    
=== तीर्थ स्नान ===
 
=== तीर्थ स्नान ===
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== स्नान का महत्व ==
 
== स्नान का महत्व ==
स्नान करनेमें सर्वप्रथम ध्यान देनेकी बात है कि स्नानसे शरीरको शुद्ध करना है, अतः स्नान भी शुद्ध जल एवं शुद्ध पात्रमें रखे जलसे ही करना चाहिये।<blockquote>शुद्धोदकेन स्नात्वा नित्यकर्म समारभेत्॥</blockquote>आदि शास्त्रीय वाक्य स्पष्ट ही हैं। गंगादि पुण्यतोया नदियोंमें स्नान करना उत्तम माना गया है, तडागका मध्यम तथा घरका स्नान निम्न कोटिका है। सुधार लें अथवा समाजका सहयोग लें। अन्यथा स्वर्गरूपी गृह परागमन शिविर बनकर रह जायगा। पुरुष तो वृक्षके नीचे रहकर भी जी लेगा, पर स्त्रीका सुरक्षित आश्रय हमेशाके लिये नष्ट हो जायगा। इससे गृहणी गर्हित होगी, सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जायगा। अत: मर्यादामें रहकर गृहस्थाश्रम व्यवस्थाको आँच न आने दें। नारी ही इसकी मूलभित्ति और आधारशिला है।<blockquote>उत्तमं तु नदीस्नानं तडागं मध्यम तथा। कनिष्ठं कूपस्नानं भाण्डस्नानं वृथा वृथा ॥</blockquote>स्नानसे पूर्व संकल्प तथा किसी नदी आदिपर स्नानके समय स्नानांग-तर्पण करनेका भी विधान है।
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स्नान करनेमें सर्वप्रथम ध्यान देनेकी बात है कि स्नानसे शरीरको शुद्ध करना है, अतः स्नान भी शुद्ध जल एवं शुद्ध पात्रमें रखे जलसे ही करना चाहिये।<blockquote>शुद्धोदकेन स्नात्वा नित्यकर्म समारभेत्॥</blockquote>आदि शास्त्रीय वाक्य स्पष्ट ही हैं। गंगादि पुण्यतोया नदियोंमें स्नान करना उत्तम माना गया है, तडागका मध्यम तथा घरका स्नान निम्न कोटिका है। सुधार लें अथवा समाजका सहयोग लें। अन्यथा स्वर्गरूपी गृह परागमन शिविर बनकर रह जायगा। पुरुष तो वृक्षके नीचे रहकर भी जी लेगा, पर स्त्रीका सुरक्षित आश्रय हमेशाके लिये नष्ट हो जायगा। इससे गृहणी गर्हित होगी, सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जायगा। अत: मर्यादामें रहकर गृहस्थाश्रम व्यवस्थाको आँच न आने दें। नारी ही इसकी मूलभित्ति और आधारशिला है।<blockquote>उत्तमं तु नदीस्नानं तडागं मध्यम तथा। कनिष्ठं कूपस्नानं भाण्डस्नानं वृथा वृथा ॥</blockquote>स्नानसे पूर्व संकल्प तथा किसी नदी आदिपर स्नानके समय स्नानांग-तर्पण करनेका भी विधान है।<blockquote>स्नानाङ्गतर्पणं विद्वान् कदाचिन्नैव हापयेत्।</blockquote>जल सृष्टिका प्रथम तत्त्व है और जलमें सभी देवताओंका भी निवास है-<blockquote>अपां मध्ये स्थिता देवा सर्वमप्सु प्रतिष्ठितम।</blockquote>
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स्नानाङ्गतर्पणं विद्वान् कदाचिन्नैव हापयेत्।
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तथापि स्नानसे पूर्व जलमें जलाधिपति वरुण, गंगा-यमुना आदि नदियोंका आवाहन कर लेना चाहिये। गंगाजीके नन्दिनी-नलिनी आदि नामोंका स्मरणकर स्नान करनेपर उस जलमें स्वयं गंगाजीका ही वास होता है, ऐसा स्वयं भगवती गंगाजीका कथन है<blockquote>नन्दिनी नलिनी सीता मालती च मलापहा। विष्णुपादाब्जसम्भूता गङ्गा त्रिपथगामिनी॥
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जल सृष्टिका प्रथम तत्त्व है और जलमें सभी देवताओंका भी निवास है-
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भागीरथी भोगवती जाह्नवी त्रिदशेश्वरी।द्वादशैतानि नामानि यत्र यत्र जलाशये ॥स्नानोद्यतः पठेयस्तु तत्र तत्र वसाम्यहम्॥</blockquote>सृष्टिका निर्माण स्वयं सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने मायाके द्वारा किया है। अत: मायामय जगत्की नश्वर एवं अपवित्र वस्तुका सम्पर्क शरीर अथवा शरीरके किसी तत्त्वसे हो जाय तो उसे अपवित्र माना जाता है। जिसकी शुद्धिहेतु सामान्य विधान स्नान ही है। महाभारत, दक्ष एवं अन्य मतों के अनुसार स्नान के द्वारा दश गुणों की प्राप्ति होती है-<blockquote>गुणा दश स्नानशीलं भजन्ते बलं रूपं स्वरवर्णप्रशुद्धिः। स्पर्शश्च गन्धश्च विशुद्धता च श्रीः सौकुमार्यं प्रवराश्च नार्यः॥(उद्योगपर्व ३७॥३३)<ref>डा०पाण्डुरंग वामन काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास,प्रथम खण्ड, सन् १९९२,(पृ०३६७)।</ref></blockquote>अर्थ- बल, रूप, स्वर, वर्ण की शुद्धि, शरीर का मधुर एवं गन्धयुक्त स्पर्श, विशुद्धता, श्री, सौकुमार्य एवं सुन्दर स्त्री।
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अपां मध्ये स्थिता देवा सर्वमप्सु प्रतिष्ठितम।
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== स्नान के भेद ==
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<blockquote>मान्त्रं भौमं तथाग्नेयं वायव्यं दिव्यमेव च। वारुणं मानसं चैव सप्त स्नानान्यनुक्रमात्॥
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तथापि स्नानसे पूर्व जलमें जलाधिपति वरुण, गंगा-यमुना आदि नदियोंका आवाहन कर लेना चाहिये। गंगाजीके नन्दिनी-नलिनी आदि नामोंका स्मरणकर स्नान करनेपर उस जलमें स्वयं गंगाजीका ही वास होता है, ऐसा स्वयं भगवती गंगाजीका कथन है<blockquote>नन्दिनी नलिनी सीता मालती च मलापहा। विष्णुपादाब्जसम्भूता गङ्गा त्रिपथगामिनी॥</blockquote><blockquote>भागीरथी भोगवती जाह्नवी त्रिदशेश्वरी।द्वादशैतानि नामानि यत्र यत्र जलाशये ॥</blockquote><blockquote>स्नानोद्यतः पठेजातु तत्र तत्र वसाम्यहम्।</blockquote>सृष्टिका निर्माण स्वयं सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने मायाके द्वारा किया है। अत: मायामय जगत्की नश्वर एवं अपवित्र वस्तुका सम्पर्क शरीर अथवा शरीरके किसी तत्त्वसे हो जाय तो उसे अपवित्र माना जाता है। जिसकी शुद्धिहेतु सामान्य विधान स्नान ही है।
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आपो हि ष्ठादिभिर्मान्त्रं मृदालम्भस्तु पार्थिवम्। आग्नेयं भस्मना स्नानं वायव्यं गोरजः स्मृतम॥
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== स्नान के भेद ==
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यत्तु सातपवर्षेण स्नानं तद् दिव्यमुच्यते । अवगाहो वारुणं स्यात् मानसं ह्यात्मचिन्तनम् ॥ (आचारमयूख, पृ० ४७-४८, प्रयोगपारिजात)</blockquote>मन्त्रस्नान, भौमस्नान, अग्निस्नान, वायव्यस्नान, दिव्यस्नान, वारुणस्नान और मानसिक स्नान-ये सात प्रकारके स्नान हैं। 'आपो हि ष्ठा०' इत्यादि मन्त्रोंसे मार्जन करना मन्त्रस्नान, समस्त शरीरमें मिट्टी लगाना भौमस्नान, भस्म लगाना अग्निस्नान, गायके खुरकी धूलि लगाना वायव्यस्नान, सूर्यकिरणमें वर्षाके जलसे स्नान करना दिव्यस्नान, जलमें डुबकी लगाकर स्नान करना वारुणस्नान, आत्मचिन्तन करना मानसिक स्नान कहा गया है।
<blockquote>मान्त्रं भौमं तथाग्नेयं वायव्यं दिव्यमेव च । वारुणं मानसं चैव सप्त स्नानान्यनुक्रमात् ॥</blockquote><blockquote>आपो हि ष्ठादिभिर्मान्त्रं मृदालम्भस्तु पार्थिवम् । आग्नेयं भस्मना स्नानं वायव्यं गोरजः स्मृतम॥</blockquote><blockquote>यत्तु सातपवर्षेण स्नानं तद् दिव्यमुच्यते । अवगाहो वारुणं स्यात् मानसं ह्यात्मचिन्तनम् ॥ (आचारमयूख, पृ० ४७-४८, प्रयोगपारिजात) </blockquote>मन्त्रस्नान, भौमस्नान, अग्निस्नान, वायव्यस्नान, दिव्यस्नान, वारुणस्नान और मानसिक स्नान-ये सात प्रकारके स्नान हैं। 'आपो हि ष्ठा०' इत्यादि मन्त्रोंसे मार्जन करना मन्त्रस्नान, समस्त शरीरमें मिट्टी लगाना भौमस्नान, भस्म लगाना अग्निस्नान, गायके खुरकी धूलि लगाना वायव्यस्नान, सूर्यकिरणमें वर्षाके जलसे स्नान करना दिव्यस्नान, जलमें डुबकी लगाकर स्नान करना वारुणस्नान, आत्मचिन्तन करना मानसिक स्नान कहा गया है।
      
==== अशक्तोंके लिये स्नान ====
 
==== अशक्तोंके लिये स्नान ====
<blockquote>अशिरस्कं भवेत् स्नानं स्नानाशक्तौ तु कर्मिणाम् । आईण वाससा वापि मार्जनं दैहिकं विदुः॥</blockquote>स्नानमें असमर्थ होनेपर सिरके नीचेसे ही स्नान करना चाहिये अथवा गीले वस्त्रसे शरीरको पोंछ लेना भी एक प्रकारका स्नान कहा गया है।
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<blockquote>अशिरस्कं भवेत् स्नानं स्नानाशक्तौ तु कर्मिणाम्। आईण वाससा वापि मार्जनं दैहिकं विदुः॥</blockquote>स्नानमें असमर्थ होनेपर सिरके नीचेसे ही स्नान करना चाहिये अथवा गीले वस्त्रसे शरीरको पोंछ लेना भी एक प्रकारका स्नान कहा गया है।
    
स्नानकी विधि-उषा की लालीसे पहले ही स्नान करना उत्तम माना गया है । इससे प्राजापत्यका फल प्राप्त होता है । तेल लगाकर तथा देहको मल-मलकर नदीमें नहाना मना है। अतः नदीसे बाहर तटपर ही देहहाथ मलकर नहा ले, तब नदीमें गोता लगाये। शास्त्रोंने इसे 'मलापकर्षण' स्नान कहा है। यह अमन्त्रक होता है। यह स्नान स्वास्थ्य और शुचिता दोनोंके लिये आवश्यक है। देहमें मल रह जानेसे शुचितामें कमी आ जाती है और रोमछिद्रोंके न खुलनेसे स्वास्थ्य में भी अवरोध हो जाता है। इसलिये मोटे कपड़ेसे प्रत्येक अङ्गको खूब रगड़-रगड़कर तटपर नहा लेना चाहिये। निवीती होकर बेसन आदिसे यज्ञोपवीत भी स्वच्छ कर ले ।
 
स्नानकी विधि-उषा की लालीसे पहले ही स्नान करना उत्तम माना गया है । इससे प्राजापत्यका फल प्राप्त होता है । तेल लगाकर तथा देहको मल-मलकर नदीमें नहाना मना है। अतः नदीसे बाहर तटपर ही देहहाथ मलकर नहा ले, तब नदीमें गोता लगाये। शास्त्रोंने इसे 'मलापकर्षण' स्नान कहा है। यह अमन्त्रक होता है। यह स्नान स्वास्थ्य और शुचिता दोनोंके लिये आवश्यक है। देहमें मल रह जानेसे शुचितामें कमी आ जाती है और रोमछिद्रोंके न खुलनेसे स्वास्थ्य में भी अवरोध हो जाता है। इसलिये मोटे कपड़ेसे प्रत्येक अङ्गको खूब रगड़-रगड़कर तटपर नहा लेना चाहिये। निवीती होकर बेसन आदिसे यज्ञोपवीत भी स्वच्छ कर ले ।
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==== विशेष स्नान ====
 
==== विशेष स्नान ====
<blockquote>सन्ध्याकालेऽर्चनाकाले संक्रान्तौ ग्रहणे तथा । वमने मद्यमांसास्थिचर्मस्पर्शेऽङ्गनारतौ ॥ १०७ ॥</blockquote><blockquote>अशौचान्ते च रोगान्ते स्मशाने मरणश्रुतौ । दुःस्वप्ने च शवस्पर्शे स्पर्शनेऽन्त्यजनेऽपि वा ॥ १०८ ।।</blockquote><blockquote>स्पृष्टे विष्णमूत्रकाकोलूकश्वानग्रामस्करे । ऋषीणां मरणे जाते दूरान्तमरणे श्रुते ॥ १०९॥</blockquote><blockquote>उच्छिष्टास्पृश्यवान्तादिरजस्वलादिसंश्रये । अस्पृश्यस्पृष्टवस्त्रात्रभुक्तपत्रविभाजने ॥ ११० ॥</blockquote><blockquote>शुद्ध वारिणि पूर्वोक्तं यन्त्र मन्त्रे सचेलकः । कुर्यात्स्नानत्रयं जिहादन्तधावनपूर्वकम् ॥ १११ ।।</blockquote><blockquote>अर्घ च तर्पणं मन्त्रजपदानार्चनं चरेत् । बहिरन्तर्गता शुद्धिरेवं स्याद्गृहमेधिनाम् ॥ ११२ ॥</blockquote>'''अर्थ-'''सन्ध्याके समय, पूजाके समय, संक्रान्तिके दिन, ग्रहण के दिन, उल्टी हो जानेपर, मदिरा, मांस हडी, चर्म, इनका स्पर्श हो जानेपर, मैथुन करनेपर, टट्टी होकर आने पर, बीमारीसे उठने पर, मशान घाटके ऊपर जानेपर, किसीका मरण सुनने पर, खराब स्वप्नके आनेपर, मुर्देसे छू जानेपर, चांडालादिका स्पर्श हो जानेपर, बिष्ठा-मूत्र, कौआ, उजू, स्वान, ग्राम-शूकरोंसे छू आनेपर, ऋषियोंकी मृत्यु हो जानेपर, अपने कुटुंबीकी दूरसे या पाससे मरणकी सुनावनी आनेपर, उच्छिष्ठ, अस्पर्श, वमन, रजस्वला आदिका संसर्ग हो जानेपर, अस्पर्श मनुष्योंके जुए हुए वस्त्र, अन्न, भोजन, आदिसे छू जाने पर और जीमते समय पत्तल फट जानेपर, दतौनके साथ साथ पूर्वोक्त मंत्र-यंत्रे पूर्वक शुद्ध जलसे तीन वार स्नान करे, अपने पहने हुए सब कपड़ोंको धोवे तथा अर्घ, तर्पण, मंत्र, जप, दान, पूजा वगैरह सब कार्य करे । इस तरह करनेसे गृहस्थियोंकी बाह्य अभ्यन्तर शुद्धि होती है ॥१०७॥११२ ॥<ref>श्रीसोमसेन भट्टारक, त्रैवर्णिकाचार, बम्बई: जैनसाहित्य-प्रसारक कार्यलय हीराबाग गिरगाव(पृ० ४५)।</ref>
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<blockquote>सन्ध्याकालेऽर्चनाकाले संक्रान्तौ ग्रहणे तथा । वमने मद्यमांसास्थिचर्मस्पर्शेऽङ्गनारतौ ॥ १०७ ॥
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अशौचान्ते च रोगान्ते स्मशाने मरणश्रुतौ । दुःस्वप्ने च शवस्पर्शे स्पर्शनेऽन्त्यजनेऽपि वा ॥ १०८ ।।
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स्पृष्टे विष्णमूत्रकाकोलूकश्वानग्रामस्करे । ऋषीणां मरणे जाते दूरान्तमरणे श्रुते ॥ १०९॥
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उच्छिष्टास्पृश्यवान्तादिरजस्वलादिसंश्रये । अस्पृश्यस्पृष्टवस्त्रात्रभुक्तपत्रविभाजने ॥ ११० ॥
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शुद्ध वारिणि पूर्वोक्तं यन्त्र मन्त्रे सचेलकः । कुर्यात्स्नानत्रयं जिहादन्तधावनपूर्वकम् ॥ १११॥
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अर्घ च तर्पणं मन्त्रजपदानार्चनं चरेत् । बहिरन्तर्गता शुद्धिरेवं स्याद्गृहमेधिनाम् ॥ ११२ ॥</blockquote>'''अर्थ-'''सन्ध्याके समय, पूजाके समय, संक्रान्तिके दिन, ग्रहण के दिन, उल्टी हो जानेपर, मदिरा, मांस हडी, चर्म, इनका स्पर्श हो जानेपर, मैथुन करनेपर, टट्टी होकर आने पर, बीमारीसे उठने पर, मशान घाटके ऊपर जानेपर, किसीका मरण सुनने पर, खराब स्वप्नके आनेपर, मुर्देसे छू जानेपर, चांडालादिका स्पर्श हो जानेपर, बिष्ठा-मूत्र, कौआ, उजू, स्वान, ग्राम-शूकरोंसे छू आनेपर, ऋषियोंकी मृत्यु हो जानेपर, अपने कुटुंबीकी दूरसे या पाससे मरणकी सुनावनी आनेपर, उच्छिष्ठ, अस्पर्श, वमन, रजस्वला आदिका संसर्ग हो जानेपर, अस्पर्श मनुष्योंके जुए हुए वस्त्र, अन्न, भोजन, आदिसे छू जाने पर और जीमते समय पत्तल फट जानेपर, दतौनके साथ साथ पूर्वोक्त मंत्र-यंत्रे पूर्वक शुद्ध जलसे तीन वार स्नान करे, अपने पहने हुए सब कपड़ोंको धोवे तथा अर्घ, तर्पण, मंत्र, जप, दान, पूजा वगैरह सब कार्य करे । इस तरह करनेसे गृहस्थियोंकी बाह्य अभ्यन्तर शुद्धि होती है ॥१०७॥११२ ॥<ref>श्रीसोमसेन भट्टारक, त्रैवर्णिकाचार, बम्बई: जैनसाहित्य-प्रसारक कार्यलय हीराबाग गिरगाव(पृ० ४५)।</ref>
    
==== स्नान के समय में मन्त्र ====
 
==== स्नान के समय में मन्त्र ====
    
== स्नान के लाभ ==
 
== स्नान के लाभ ==
स्नान करते ही मनुष्य पवित्रता और आनन्द का अनुभव करने लगता है। भौतिक लाभ की दृष्टि से आयुर्वेद शास्त्र सुश्रुत संहिता में इस प्रकार लिखा है-<blockquote>निद्रादाहश्रम हरं स्वेद कण्डू तृषापहम् । हृद्य मल हरं श्रेष्ठं सर्वेन्द्रिय विशोधनम् ॥</blockquote><blockquote>तन्द्रायाथोपशमनं पुष्टिदं पुसत्व वर्द्धनम् । रक्तप्रसादनं चापि स्नान मग्नेश्च दीपनम् ॥ (सु०चि०स्थान ११७।११८)</blockquote>अर्थात् स्नान से निद्रा, दाह, थकावट, पसीना, तथा प्यास दूर होती है। स्नान हृदय को हितकर मैल को दूर करने में श्रेष्ठ तथा समस्त इन्द्रियों का शोधन करने वाला होता है। तन्द्रा (आलस्य अथवा ऊंघना ) कष्ट निवारक, पुष्टिकर्ता, पुरुषत्ववर्द्धक, रक्त शोधक और जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला है । चरक में भी लिखा है कि-<blockquote>दौर्गन्ध्यं गौरवं तन्द्रा कण्डूमलमरोचकम् । स्वेदं वीभत्सतां हन्ति शरीर परिमार्जनम् ।।</blockquote>अर्थात् स्नान देह दुर्गन्ध नाशक, शरीर के भारीपन को दूर करने वाला, तन्द्रा ( शरीर में निद्रावत् क्लान्ति होना ), खुजली, मैल, मन की अरुचि तथा पसीना एवं देह की कुरूपता को नष्ट करता है। जो लोग ढोंग समझकर अथवा आलस्यवश नित्य स्नान नहीं करते उन्हें स्नान के गुण व लाभ समझ लेने चाहिये और नित्य प्रातः स्नान अवश्य करना चाहिये ।
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स्नान करते ही मनुष्य पवित्रता और आनन्द का अनुभव करने लगता है। भौतिक लाभ की दृष्टि से आयुर्वेद शास्त्र सुश्रुत संहिता में इस प्रकार लिखा है-<blockquote>निद्रादाहश्रम हरं स्वेद कण्डू तृषापहम् । हृद्य मल हरं श्रेष्ठं सर्वेन्द्रिय विशोधनम् ॥
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तन्द्रायाथोपशमनं पुष्टिदं पुसत्व वर्द्धनम् । रक्तप्रसादनं चापि स्नान मग्नेश्च दीपनम् ॥ (सु०चि०स्थान ११७।११८)</blockquote>अर्थात् स्नान से निद्रा, दाह, थकावट, पसीना, तथा प्यास दूर होती है। स्नान हृदय को हितकर मैल को दूर करने में श्रेष्ठ तथा समस्त इन्द्रियों का शोधन करने वाला होता है। तन्द्रा (आलस्य अथवा ऊंघना ) कष्ट निवारक, पुष्टिकर्ता, पुरुषत्ववर्द्धक, रक्त शोधक और जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला है । चरक में भी लिखा है कि-<blockquote>दौर्गन्ध्यं गौरवं तन्द्रा कण्डूमलमरोचकम्। स्वेदं वीभत्सतां हन्ति शरीर परिमार्जनम् </blockquote>अर्थात् स्नान देह दुर्गन्ध नाशक, शरीर के भारीपन को दूर करने वाला, तन्द्रा ( शरीर में निद्रावत् क्लान्ति होना ), खुजली, मैल, मन की अरुचि तथा पसीना एवं देह की कुरूपता को नष्ट करता है। जो लोग ढोंग समझकर अथवा आलस्यवश नित्य स्नान नहीं करते उन्हें स्नान के गुण व लाभ समझ लेने चाहिये और नित्य प्रातः स्नान अवश्य करना चाहिये ।
    
स्नानमूलाः क्रियाः सर्वाः श्रुतिस्मृत्युदिता नृणाम् । तस्मात् स्नानं निषेवेत श्रीपुष्ट्यारोग्यवर्धनम् ।।
 
स्नानमूलाः क्रियाः सर्वाः श्रुतिस्मृत्युदिता नृणाम् । तस्मात् स्नानं निषेवेत श्रीपुष्ट्यारोग्यवर्धनम् ।।
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