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पाँच पाण्डवों में सबसे बड़े और धर्मराज के नाम से विख्यात्। इन्होंने महाभारत युद्ध को टालने का यथासंभव प्रयास किया। ये कौरवों के अन्याय का बदला अन्यायी मार्ग से लेने के विरुद्ध थे। यही नहीं, अपितु कौरवों के शत्रुतापूर्ण छलों से बारम्बार पीड़ित होते रहने के उपरान्त भी इनके वनवास के समय जब चित्रसेन गन्धर्व ने दुर्योधन को बंदी बनाया तो धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा- “आपस के संघर्ष में हम पाँच और कौरव सौ हैं,परन्तु अन्य लोगोंं से संघर्ष में हम एक सौ पाँच रहेंगे।" यक्ष द्वारा पूछे गये प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर देकर उन्होंने एक भाई को जिलाने का वरदान पाया और विमाता माद्री के पुत्र को जिलाने की समदृष्टि का परिचय देकर अपने चारों मृत बन्धुओं को जिला लिया था। इन्होंने उजाड़ खाण्डवप्रस्थ को वासयोग्य बनाकर इन्द्रप्रस्थ नगर (दिल्ली) की स्थापना की और राजसूय यज्ञ का आयोजन किया था। महाभारत युद्ध के पश्चात् कलियुगारम्भ से 36 वर्ष पूर्व ये हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठे और द्वापर के अन्त में (3101 ई०पू०) राज्य-शासन परीक्षित को सौंपकर भाइयों और द्रौपदी सहित तीर्थयात्रा के बाद हिमालय पर चढ़ते चले गये। युधिष्ठिर को छोड़कर अन्य सब पाण्डव और द्रौपदी एक-एक कर मार्ग में ही गिर गये। युधिष्ठिर के नाम से भारत में एक संवत् भी प्रचलित है।