− | a. Osho also discuses about Aparigraha in “Amrit Kan (अमृत कण)” 1968 ed., chap 4, Aparigraha, pg 14.<blockquote>अपरिग्रह</blockquote><blockquote>“अपरिग्रह यानी आत्मनिष्ठा। परिग्रह का विश्वास वस्तुओं में है, अपरिग्रह का स्वयं में। अपरिग्रह का मूलभूत संबंध संग्रह से नहीं, संग्रह की वृत्ति से है। जो उसका संबंध संग्रह से ही मान लेता है, वह संग्रह के त्याग में ही अपरिग्रही की उपलब्धि देखता है, जब कि संग्रह का आग्रहपूर्ण त्याग भी वस्तुओं में ही विश्वास है। वह परिवर्तन बहुत ऊपरी है और व्यक्ति का अंतस्तल उससे अछूता ही रह जाता है। संग्रह नहीं, संग्रह की विक्षिप्त वृत्ति विचारणीय है। स्वयं की आंतरिक रिक्तता और खालीपन को भरने के लिए ही व्यक्ति संग्रह की दौड़ में पड़ता है। रिक्तता से भय पैदा होता है और उसे किसी भी भांति धन से, यश से, पद से, पुण्य से या ज्ञान से भर लेने से सुरक्षा मालूम होने लगती है। यह रिक्तता की दौड़ से भी भरी जा सकती है। लेकिन ऐसे रिक्तता भरती नहीं केवल भूली रहती है और मृत्यु का आघत सारी वंचना को नष्ट कर देता है। इसलिए ही मृत्यु की कल्पना भी भयभीत करती है। वह भय मृत्यु का नहीं है, क्योंकि भय उसके संबंध में ही हो सकता है जिसे कि हम जानते हों और जिससे परिचित हो। मृत्यु है अज्ञात और अनजान। और उससे हमारा कोई भी संबंध नहीं है। इससे भय मृत्यु का नहीं, भय है उस रिक्तता का जिसे हम तथाकथित जीवन से ढांक हुए हैं और भूले हुए हैं और जिसे मृत्यु निश्चित ही उघड़ देने को है। संग्रह की शक्ति असत्य है, क्योंकि वह शक्ति स्वयं की नहीं है। शक्ति तो वही सत्य है जो कि स्वयं की है। संग्रह मात्र, पर है। उसे शक्ति और सुरक्षा मानकर जो चलता है, वह जीवन को व्यर्थ ही खो देता है। आत्म ज्ञान न हो तो प्रत्येक के भीतर गहरे अभाव का बोध होता है। ऐसा बोध स्वाभाविक ही है और इस बोध का संताप ही स्वयं में क्रांति भी लाता है। लेकिन इस अभाव को क्षणिक और अस्थायी रूप से बाट जगत के प्रति आसक्ति आर मूर्च्छा से भी भरा जा सकता है। ऐसी मूर्च्छा ही परिग्रह है। इसलिए जो परिग्रह के बंधनों से अपरिग्रह की मुक्ति में प्रवेश चाहता है, उसे अपनी मूर्च्छा को तोड़ना होगा। स्वयं के समस्त कार्यों, विचारों और भावों में जागरूक रहने से क्रमशः मूर्च्छा नष्ट होती है। साधारणतः हम सोए ही हुए हैं। अपने कार्यों और विचारों का निरीक्षण करेंगे तो यह सहज ही ज्ञात हो जाएगा। सम्यक निरीक्षण जागरूकता में ले जाता है और जागरूकता अपरिग्रह बन जाती है। मैं कौन हूं? इसे न जानने से ही परिग्रह पैदा होता है। स्वयं की संपदा को जानते ही, बाट संपत्ति में परिणत हो जाती है। जिसके पास हीरे मोती नहीं हैं, वहीं कंकड़-पत्थरों को बीनने में समय खो सकता है। परिग्रह के बहुत रूप हैं, लेकिन सूक्ष्मतम और केंद्रीय परिग्रह विचारों का परिग्रह है। उस तल पर जो अपरिग्रह को साध लेता है, वह समाधि को उपलब्ध हो जाता है। वस्त्र छोड़कर नग्न होना बहुत कठिन है, किंतु असली तपश्चर्या तो विचारों के वस्त्र छोड़कर नग्न होने में है- शरीर, आत्मा नग्न। और भीतर शून्य हो तो ही सत्य का साक्षात संभव है। और भोजन त्यागकर निराहार रहना भी क्या बहुत कठिन है? किंतु असली प्रश्न तो विचार का आहार छोड़कर उपवास में होना है। विचार मात्र स्वयं से दूर ले जाते हैं। जहां विचार की प्रक्रिया है, वही सत्ता स्वयं से विमुख हैं। स्वयं को छोड़ कहीं और होना ही विचार का प्राण है। विचार में हम स्वयं से दूर और निर्विचार में स्वयं में होते हैं। और स्व में होना ही है परमात्मा के निकट वास अर्थात उपवास है। विचार का अपरिग्रह ही अत्यंतिक और आधारभूत अपरिग्रह है। यह स्मरण रहे कि परिग्रह की वृत्ति परमात्मा, स्वर्ग या मोक्ष पाने के लिए सहज ही छोड़ी जा सकती है, लेकिन वह वास्तविक अपरिग्रह नहीं है। जहां कुछ भी पाने की कामना है, चाहे वह मोक्ष की ही क्यों न हो, वहां वासना है, परिग्रह है, आसक्ति है, यह लोभ का अंत नहीं वरन रूपांतरण है। और इस रूप में उसे पहचानना भी बहुत कठिन है। क्या संन्यासियों में छिपे संसारियों को पहचानना, कठिन नहीं है। वासना जहां है, वहां संसार है। इसलिए, मोक्ष को तो चाहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि चाहने के कारण ही वह मोक्ष नहीं रह जाता है। जो चित्त मोक्ष को चाह रहा है, वह संसार को ही चाह रहा है। क्योंकि चाह में ही संसार का बीज है। मोक्ष की चाह से भरे चित्त में अभी स्वयं के बाहर जाने का द्वार खुला हुआ है। उसकी कामना के स्वप्नों का भी अंत नहीं हुआ। वह स्वप्नों को भंग कर अभी स्वयं में लौटने में समर्थ नहीं हुआ है। उसे स्वयं की सत्ता स्वयं में ही पूर्ण और पर्याप्त है, इस सत्य की अभी प्रतीति नहीं हुई है। अभी वह नए नामों से पुरानी दौड़ में ही दौड़ रहा है। उसके चित्त की शराब पुरानी ही है, सिर्फ बोतलें उसने नयी ले ली हैं। वास्तविक अपरिग्रह तो तभी फलित होता है, जब स्वयं का स्वयं होना पर्याप्त और पूर्ण होता है। वस्तुतः ऐसी अनुभूति ही मोक्ष है। मोक्ष को चाहा नहीं जाना, लेकिन चित्त में जब कोई चाह नहीं होती है तो उसे पाया अवश्य ही जाता है। वह स्वयं के बाहर कोई उपलब्धि नहीं, वरन स्वयं के भीतर जो है उसका ही अनावरण और अनुभूति है।“</blockquote>b. Iyengar, B. K. S (2002), Light on Yoga Sutras of Patanjali, London, Thorsons<blockquote>“One who observes aparigraha will come to know of his past and future lives.” –page 30</blockquote><blockquote>“Aparigraha means not only non-possession and non-acceptance of gifts, but also freedom from rigidity of thought. Holding on to one's thoughts is also a form of possessiveness, and thoughts, as well as material possessions, should be shunned. Otherwise, they leave strong impressions on the consciousness and become seeds to manifest in future lives. These cycles of life continue until the sadhaka is totally clean and clear in thoughts, words and deeds.</blockquote><blockquote>Aparigraha is the subtlest aspect of yama, and difficult to master. Yet, repeated attempts must be made to gain pure knowledge of 'what I am' and 'what I am meant for'.” -- page 153</blockquote> | + | a. Osho also discuses about Aparigraha in “Amrit Kan (अमृत कण)” 1968 ed., chap 4, Aparigraha, pg 14.<blockquote>अपरिग्रह</blockquote><blockquote>“अपरिग्रह यानी आत्मनिष्ठा। परिग्रह का विश्वास वस्तुओं में है, अपरिग्रह का स्वयं में। अपरिग्रह का मूलभूत संबंध संग्रह से नहीं, संग्रह की वृत्ति से है। जो उसका संबंध संग्रह से ही मान लेता है, वह संग्रह के त्याग में ही अपरिग्रही की उपलब्धि देखता है, जब कि संग्रह का आग्रहपूर्ण त्याग भी वस्तुओं में ही विश्वास है। वह परिवर्तन बहुत ऊपरी है और व्यक्ति का अंतस्तल उससे अछूता ही रह जाता है। संग्रह नहीं, संग्रह की विक्षिप्त वृत्ति विचारणीय है। स्वयं की आंतरिक रिक्तता और खालीपन को भरने के लिए ही व्यक्ति संग्रह की दौड़ में पड़ता है। रिक्तता से भय पैदा होता है और उसे किसी भी भांति धन से, यश से, पद से, पुण्य से या ज्ञान से भर लेने से सुरक्षा मालूम होने लगती है। यह रिक्तता की दौड़ से भी भरी जा सकती है। लेकिन ऐसे रिक्तता भरती नहीं केवल भूली रहती है और मृत्यु का आघत सारी वंचना को नष्ट कर देता है। “</blockquote>b. Iyengar, B. K. S (2002), Light on Yoga Sutras of Patanjali, London, Thorsons<blockquote>“One who observes aparigraha will come to know of his past and future lives.” –page 30</blockquote><blockquote>“Aparigraha means not only non-possession and non-acceptance of gifts, but also freedom from rigidity of thought. Holding on to one's thoughts is also a form of possessiveness, and thoughts, as well as material possessions, should be shunned. Otherwise, they leave strong impressions on the consciousness and become seeds to manifest in future lives. These cycles of life continue until the sadhaka is totally clean and clear in thoughts, words and deeds.</blockquote><blockquote>Aparigraha is the subtlest aspect of yama, and difficult to master. Yet, repeated attempts must be made to gain pure knowledge of 'what I am' and 'what I am meant for'.” -- page 153</blockquote> |