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३९, जिसका पैसा हमें खर्च नहीं करना पडा है ऐसी सामग्री का अपव्यय करने में जरा भी विचार नहीं करना भी स्वाभाविक बन गया है । किसी भी सामग्री का अपव्यय नहीं करना नैतिकता है । हमारे सभी शास्त्र यह सिखाते हैं । परन्तु यह आदत छूटती नहीं है । अब तो हम पैसे खर्च करके लाये हैं ऐसी सामग्री का भी अपव्यय होता है । यह व्यक्तिगत स्वभाव से आगे अब संस्थागत स्वभाव बन गया है । एक पेन की आवश्यकता है परन्तु दो लाना, पाँच छायाप्रतियों की आवश्यकता है परन्तु आठ करवाना आदि असंख्य बातों में अपव्यय दिखाई देता है । प्रजा की समृद्धि का इससे हास होता है । संस्थाओं की कार्यपद्धति में बदल करने की आवश्यकता है और विद्यालयों में और घरों में इसे सिखाने की आवश्यकता है ।
 
३९, जिसका पैसा हमें खर्च नहीं करना पडा है ऐसी सामग्री का अपव्यय करने में जरा भी विचार नहीं करना भी स्वाभाविक बन गया है । किसी भी सामग्री का अपव्यय नहीं करना नैतिकता है । हमारे सभी शास्त्र यह सिखाते हैं । परन्तु यह आदत छूटती नहीं है । अब तो हम पैसे खर्च करके लाये हैं ऐसी सामग्री का भी अपव्यय होता है । यह व्यक्तिगत स्वभाव से आगे अब संस्थागत स्वभाव बन गया है । एक पेन की आवश्यकता है परन्तु दो लाना, पाँच छायाप्रतियों की आवश्यकता है परन्तु आठ करवाना आदि असंख्य बातों में अपव्यय दिखाई देता है । प्रजा की समृद्धि का इससे हास होता है । संस्थाओं की कार्यपद्धति में बदल करने की आवश्यकता है और विद्यालयों में और घरों में इसे सिखाने की आवश्यकता है ।
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४०. हम मानते हैं कि मोबाईल, यातायात के साधन आदि के कारण अब सम्पर्क सरल हो गया है परन्तु वास्तव में हम देखते हैं कि हमारी गैरजिम्मेदारी ही बढ़ी है । किसी कार्यक्रम की सूचना पहले केवल मौखिक अथवा केवल पोस्टकार्ड से देने पर भी मिल जाती थी और उसका पालन भी होता था । आज मोबाइल और इण्टरनेट होने पर भी बार बार सूचना देनी पढ़ती है और फिर भी उसका पालन नहीं होता । सुविधा ने हमारा कृतित्व शिथिल बना दिया है ।
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४०. हम मानते हैं कि मोबाईल, यातायात के साधन आदि के कारण अब सम्पर्क सरल हो गया है परन्तु वास्तव में हम देखते हैं कि हमारी गैरजिम्मेदारी ही बढ़ी है । किसी कार्यक्रम की सूचना पहले केवल मौखिक अथवा केवल पोस्टकार्ड से देने पर भी मिल जाती थी और उसका पालन भी होता था । आज मोबाइल और इण्टरनेट होने पर भी बार बार सूचना देनी पढ़ती है और तथापि उसका पालन नहीं होता । सुविधा ने हमारा कृतित्व शिथिल बना दिया है ।
    
४१. विवाह समारोहों में भोजन की व्यवस्था के सम्बन्ध में पुनर्विचार करने की बहुत आवश्यकता है । भोजन पदार्थों की संख्या और विविधता इतनी अधिक होती है कि एक व्यक्ति इन सबका एक एक कौर भी नहीं खा सकता । संस्कार , स्वास्थ्य और पैसा, तीनों के लिये यह हानिकारक है । परन्तु एक ने किया तो उसकी आलोचना होने के स्थान पर दूसरों ने करना आरम्भ किया । यह तो सामाजिक शिक्षा का बहुत बड़ा विषय है । लोकशिक्षा का दायित्व जिनका है उन्होंने यह सिखाना चाहिये...
 
४१. विवाह समारोहों में भोजन की व्यवस्था के सम्बन्ध में पुनर्विचार करने की बहुत आवश्यकता है । भोजन पदार्थों की संख्या और विविधता इतनी अधिक होती है कि एक व्यक्ति इन सबका एक एक कौर भी नहीं खा सकता । संस्कार , स्वास्थ्य और पैसा, तीनों के लिये यह हानिकारक है । परन्तु एक ने किया तो उसकी आलोचना होने के स्थान पर दूसरों ने करना आरम्भ किया । यह तो सामाजिक शिक्षा का बहुत बड़ा विषय है । लोकशिक्षा का दायित्व जिनका है उन्होंने यह सिखाना चाहिये...
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सामाजिक व्यवहार
 
सामाजिक व्यवहार
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७०, सामाजिक स्तर पर सम्बन्धों की आज लगभग कोई व्यवस्था नहीं है । हमने वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि का तो त्याग कर दिया परन्तु उनके स्थान पर कोई व्यवस्था नहीं बनाई । पुरानी व्यवस्थाओं को छोडने Ho afer दृष्टि से तो कोई आपत्ति नहीं होती | पर्यायी व्यवस्था के अभाव में व्यावहारिक स्तर पर कठिनाई होती है । आज वैसी ही कठिनाई हो रही है। एक ही सन्तान को जन्म देने के आग्रह के कारण पारिवारिक सम्बन्धों का दायरा छोटा हो रहा है। दो पीढ़ियाँ साथ साथ नहीं रहने के कारण भी पारिवारिक सम्बन्धों की व्यवस्था गडबडा गई है । उस स्थिति में परिवार के बाहर सामाजिक सम्बन्धों की भी कोई व्यवस्था नहीं होना अनेक प्रकार की मानसिक और व्यावहारिक परेशानियों को जन्म देता है । हमने क्लबों, वृद्धाश्रमों , महिला मण्डलों जैसी व्यवस्थायें बनाना आरम्भ तो किया है परन्तु एक तो वे अभी बहुत ही प्राथमिक स्वरूप की हैं और दूसरे, वे विकसित होकर भी सम्बन्ध नहीं निर्माण कर सकतीं । फिर भी हम कह सकते हैं कि किसी प्रकार की सम्बन्धों की व्यवस्थायें तो हमें करनी ही चाहिये । नहीं तो सामाजिक संगठन तो होगा नहीं उल्टे विघटन को गति मिलेगी ।
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७०, सामाजिक स्तर पर सम्बन्धों की आज लगभग कोई व्यवस्था नहीं है । हमने वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि का तो त्याग कर दिया परन्तु उनके स्थान पर कोई व्यवस्था नहीं बनाई । पुरानी व्यवस्थाओं को छोडने Ho afer दृष्टि से तो कोई आपत्ति नहीं होती | पर्यायी व्यवस्था के अभाव में व्यावहारिक स्तर पर कठिनाई होती है । आज वैसी ही कठिनाई हो रही है। एक ही सन्तान को जन्म देने के आग्रह के कारण पारिवारिक सम्बन्धों का दायरा छोटा हो रहा है। दो पीढ़ियाँ साथ साथ नहीं रहने के कारण भी पारिवारिक सम्बन्धों की व्यवस्था गडबडा गई है । उस स्थिति में परिवार के बाहर सामाजिक सम्बन्धों की भी कोई व्यवस्था नहीं होना अनेक प्रकार की मानसिक और व्यावहारिक परेशानियों को जन्म देता है । हमने क्लबों, वृद्धाश्रमों , महिला मण्डलों जैसी व्यवस्थायें बनाना आरम्भ तो किया है परन्तु एक तो वे अभी बहुत ही प्राथमिक स्वरूप की हैं और दूसरे, वे विकसित होकर भी सम्बन्ध नहीं निर्माण कर सकतीं । तथापि हम कह सकते हैं कि किसी प्रकार की सम्बन्धों की व्यवस्थायें तो हमें करनी ही चाहिये । नहीं तो सामाजिक संगठन तो होगा नहीं उल्टे विघटन को गति मिलेगी ।
    
७१. सामाजिक सम्बन्ध निर्माण करने हेतु हम व्यवसायों का आधार ले सकते हैं क्योंकि वही एक बात ऐसी है जो हम परिवार से बाहर जाकर करते हैं । एक व्यवसाय करने वालों के यदि समूह बनते हैं और उनमें सामाजिक सम्बन्ध विकसित होते हैं तो व्यावहारिक और मानसिक दोनों प्रकार से आत्मीयता और परस्पर सहयोग की भावना बढ़ेगी । सामाजिक सम्बन्ध व्यावसायिक सम्बन्धों से थोड़े अधिक अन्तरंग होते हैं । जैसे कि आपस में मैत्री होना, एकदूसरे के घर आनाजाना, विवाह आदि पारिवारिक समारोहों में सम्मिलित होना, पारिवारिक सुखदुःखों में सहभागी होना आदि से सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं । यह एक मनोवैज्ञानिक सुरक्षा व्यवस्था है ।
 
७१. सामाजिक सम्बन्ध निर्माण करने हेतु हम व्यवसायों का आधार ले सकते हैं क्योंकि वही एक बात ऐसी है जो हम परिवार से बाहर जाकर करते हैं । एक व्यवसाय करने वालों के यदि समूह बनते हैं और उनमें सामाजिक सम्बन्ध विकसित होते हैं तो व्यावहारिक और मानसिक दोनों प्रकार से आत्मीयता और परस्पर सहयोग की भावना बढ़ेगी । सामाजिक सम्बन्ध व्यावसायिक सम्बन्धों से थोड़े अधिक अन्तरंग होते हैं । जैसे कि आपस में मैत्री होना, एकदूसरे के घर आनाजाना, विवाह आदि पारिवारिक समारोहों में सम्मिलित होना, पारिवारिक सुखदुःखों में सहभागी होना आदि से सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं । यह एक मनोवैज्ञानिक सुरक्षा व्यवस्था है ।
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८३. किसे कौनसी शिक्षा प्राप्त करनी चाहिये इसकी व्यवस्था केवल परीक्षा में मिलने वाले अंक हैं, कौन चुनाव लड सकता है इसका उत्तर केवल आयु और भारत की नागरिकता है । इस प्रकार हर बात बडी यान्त्रिक, आवश्यकता निरपेक्ष, भावना निरपेक्ष, तर्क निरपेक्ष है । यह तो कोई व्वस्था ही नहीं हुई ।
 
८३. किसे कौनसी शिक्षा प्राप्त करनी चाहिये इसकी व्यवस्था केवल परीक्षा में मिलने वाले अंक हैं, कौन चुनाव लड सकता है इसका उत्तर केवल आयु और भारत की नागरिकता है । इस प्रकार हर बात बडी यान्त्रिक, आवश्यकता निरपेक्ष, भावना निरपेक्ष, तर्क निरपेक्ष है । यह तो कोई व्वस्था ही नहीं हुई ।
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८४. हमारी परिवार व्यवस्था भी युगों से जो संस्कृति का प्रवाह बह रहा है उसके संस्कार हमारे चित्त पर अभी भी हैं, मिटे नहीं है ऐसलिये चल रही है । यह तो हमारी ही आन्तरिक ताकत इतनी अधिक है कि सर्व प्रकार की विपरीतताओं का आक्रमण उसे तोड नहीं सका है । वह छिन्न विच्छिन्न हो तो रही है फिर भी बनी रही है । यही एक आशा है ।
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८४. हमारी परिवार व्यवस्था भी युगों से जो संस्कृति का प्रवाह बह रहा है उसके संस्कार हमारे चित्त पर अभी भी हैं, मिटे नहीं है ऐसलिये चल रही है । यह तो हमारी ही आन्तरिक ताकत इतनी अधिक है कि सर्व प्रकार की विपरीतताओं का आक्रमण उसे तोड नहीं सका है । वह छिन्न विच्छिन्न हो तो रही है तथापि बनी रही है । यही एक आशा है ।
    
८५. हमने देखा कि हमारा सामाजिक संगठन कितना व्यवस्थाहीन हो गया है । तो भी वह अभी चल रहा है। हमारे अन्तःकरण में जो अच्छाई है, जो
 
८५. हमने देखा कि हमारा सामाजिक संगठन कितना व्यवस्थाहीन हो गया है । तो भी वह अभी चल रहा है। हमारे अन्तःकरण में जो अच्छाई है, जो
    
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