Changes

Jump to navigation Jump to search
editing content
Line 54: Line 54:     
== जागरण प्रभृति नित्य विधि। ==
 
== जागरण प्रभृति नित्य विधि। ==
 +
 +
==== हस्तदर्शन का विज्ञान ====
 +
प्रातः हाथका दर्शन शुभ हुआ करता है। कहा भी गया है-<blockquote>कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करपृष्ठे च गोविन्दः प्रभाते कर-दर्शनम्।।</blockquote>इस पद्यमें हाथके अग्रभागमें लक्ष्मीका, मध्यभागमें सरस्वतीका और पृष्ठभागमें गोविन्दका निवास कहा है।
 +
 +
संसारके सर्वस्व लक्ष्मी सरस्वती और गोविन्द जब हाथमें स्थित हैं तो हाथमें बड़ी शक्ति सिद्ध हुई । संसारमें यही तो वस्तुएँ अपेक्षित हैं, ऐसी शक्तिको धारण करनेवाले, हमारी संसार-यात्राके एकमात्र अवलम्ब एवं लक्ष्मी आदिके प्रतिनिधि हाथका प्रातःकाल दर्शन शुभकारक ही सिद्ध है क्योंकि इसी हाथसे ही तो हमें सभी कार्य करने हैं।
 +
 +
केवल पुराणों में ही हाथका महत्व बताया गया हो ऐसा भी नहीं है। वेद में भी हाथका महत्व बताया गया है देखिये-<blockquote>अयं मे हस्तो भगवान अयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः॥ (ऋ० १०।६०।१२)</blockquote>इस मन्त्रका देवता भी 'हस्त' है। इसमें हाथको भगवान का अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है।
 +
 +
जो जितनी अधिक शक्तिवाला होगा उसके हाथ में शक्ति भी उतनी ही अधिक होगी। इसलिए हम जिनकी वन्दना करके उनका आशीर्वाद चाहते हैं वे भी अपने हाथसे ही हमारे सिरको स्पर्श करके आशीर्वाद देते हैं। कई ज्यौतिष(सामुद्रिक)विद्याविशारद भी इसी हाथमें स्थित रेखाओं को देखकर ही फलित बताते हैं । हाथमें अमृत के स्थित होनेसे गुरुजनों के द्वारा शिष्यको हाथसे मारने पर भी शिष्यों में गुण की वृद्धि ही पाई जाती है जैसा कि श्रीदयानन्द सरस्वती जी के द्वारा रचित व्यवहारभानु नामक ग्रन्थ में व्याकरण महाभाष्य का प्रमाण है- <blockquote>सामृतैः पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितैः।लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः।। (व्यवहारभानु) <ref>श्री दयानन्द सरस्वती,व्यवहारभानु,अजमेरनगर वैदिकयन्त्रालय,पृ० १४।</ref></blockquote>'''अर्थ'''-जो माता, पिता और आचार्य, सन्तान और शिष्यों का ताड़न करते हैं वे जानो अपने सन्तान और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं और जो सन्तानों वा शिष्यों का लाड़न करते हैं वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिला के नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं। क्योंकि लाड़न से सन्तान और शिष्य दोषयुक्त तथा ताड़ना से गुणयुक्त होते हैं ।
 +
 +
सन्तान और शिष्य लोग भी ताड़ना से प्रसन्न और लाड़न से अप्रसन्न सदा रहा करें। परन्तु माता, पिता तथा अध्यापक लोग ईर्ष्या, द्वेष से ताड़न न करें किन्तु ऊपर से भयप्रदान और भीतर से कृपादृष्टि रक्खें।इससे हाथमें हानिजनक शत्रुओंकेलिए विष भी सन्निहित है-यह भी प्रतीत होता है।
 +
 +
इस प्रकारके हमारे अवलम्बभूत, यजुर्वेद (बृहदारण्यकोपनिषद्) का यह कथन प्रसिद्ध है- <blockquote>सर्वेषां कर्मणार्थ हस्तौ एकायनम् । ( बृहदारण्यकोपनिषद २।४।११)</blockquote>इन शब्दों में सब कर्मोंके मूल-जिसके न होनेसे हम 'निहत्थे' कहे जाते हैं-सारी रात्रिके ग्रहनक्षत्रादि के प्रभावसे तथा प्रातःकालिक वायुसे पवित्र उस हाथके दर्शनसे हमारा शुभ होना सोपपत्तिक ही है।
 +
 +
==== प्रातः भूमिवन्दन ====
 +
प्रातः उठते ही अपनी आश्रयभूत भूमिकी वन्दना करनी श्रेयस्कर हुआ करती है। तभी तो कहा है-<blockquote>जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।</blockquote>जन्मभूमिको स्वर्गसे भी बढ़कर माना गया है। इसीलिए वेदने भी उसे नमस्कार करनेका आदेश दिया है<blockquote>शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता। तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः॥ (अथर्व० १२।१।२६)।</blockquote><blockquote>नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्यै(यजु०६।२२)।</blockquote>यहाँ पर दो बार पृथिवी माताकी वन्दना करके वेदने अपने भक्तोंको उसकी पूजाका आदेश दे दिया है। इसीलिए वेदानुसारी पुराणोंने भी  उसे नमस्कार करके उस पर पांव रखनेकी क्षमा चाही है।<blockquote>समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमण्डिते। विष्णु-पत्नि ! नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे॥</blockquote>इससे हम भूमिके भक्त भी बने रहेंगे, विलायती भूमियोंके प्रेमी न बनेंगे।उठते ही पृथिवीपर एकदम पाँव रखना लौकिक दृष्टिसे भी ठीक नहीं, क्योंकि-सारी रात हम बिस्तर पर सोते हैं; उसमें भी शीतकालमें गर्म कपडों से अपने आपको ढककर सोते हैं। इसी कारण हमारे अन्दर उष्णता पर्याप्त होती है, विशेषकर पैरोंमें क्योंकि तब पैर प्रायः ढके रहते हैं; उस समय ठण्डे परमाणुओंसे युक्त भूमिमें एकदम ही पैर रखना ठीक नहीं; क्योंकि-गर्मी-सर्दी पांवके ही द्वारा हमारे शरीर में तत्क्षण संक्रांत होती है। अतः कुछ देर तक बिस्तर पर बैठकर निद्रा पूर्णतया दूर करके जब अधिक ऊष्मा हटकर उसका समीभाव हो जाता है, तब पांवका भूमि पर रखना ठीक होता है।
 +
 +
इसके अतिरिक्त भूमि हमारी माता है, हम उसके पुत्र हैं, जैसे कि अथर्ववेदसंहितामें कहा है-<blockquote>माता भूमिः, पुत्रो अहं पृथिव्याः (अथर्व०१२।१।१२)।</blockquote>और भूमि देवतारूप भी है। अतः उस पर पांव रखना उचित नहीं दीखता; पर अनिवार्य होनेसे कुछ समय उससे पादस्पर्शके लिए क्षमा मांगना उचित भी है।
 +
 +
==== मङ्गल दर्शन एवं गुरुजनोंका अभिवादन ====
 +
प्रातः-जागरणके बाद यथासम्भव सर्वप्रथम मांगलिक वस्तुएँ (गौ, तुलसी, पीपल, गंगा, देवविग्रह आदि) जो भी उपलब्ध हों, उनका दर्शन करना चाहिये तथा घरमें मातापिता एवं गुरुजनों, अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करना चाहिये।
 +
 +
अभिमुखीकरणाय वादनं नामोच्चारणपूर्वकनमस्कारः अभिवादनम्  प्रणाम एवं अभिवादन मानवका सर्वोत्तम सात्त्विक संस्कार है। अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करनेके बहुत लाभ हैं-<blockquote>अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥</blockquote>'''अनु-''' जो व्यक्ति सुशील और विनम्र  होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।
    
==== प्रातःस्मरण ====
 
==== प्रातःस्मरण ====
Line 93: Line 116:  
एतादृश जागरण के अनन्तर दैनिक क्रिया कलापों की सूची बद्धता प्रातः स्मरण के बाद ही बिस्तर पर निर्धारित कर लेना चाहिये जिससे हमारे नित्य के कार्य सुचारू रूप से पूर्ण हो सकें।
 
एतादृश जागरण के अनन्तर दैनिक क्रिया कलापों की सूची बद्धता प्रातः स्मरण के बाद ही बिस्तर पर निर्धारित कर लेना चाहिये जिससे हमारे नित्य के कार्य सुचारू रूप से पूर्ण हो सकें।
   −
==== हस्तदर्शन का विज्ञान ====
+
== शौचाचार एवं स्नानविधि। ==
प्रातः हाथका दर्शन शुभ हुआ करता है। कहा भी गया है-<blockquote>कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करपृष्ठे च गोविन्दः प्रभाते कर-दर्शनम्।।</blockquote>इस पद्यमें हाथके अग्रभागमें लक्ष्मीका, मध्यभागमें सरस्वतीका और पृष्ठभागमें गोविन्दका निवास कहा है।
     −
संसारके सर्वस्व लक्ष्मी सरस्वती और गोविन्द जब हाथमें स्थित हैं तो हाथमें बड़ी शक्ति सिद्ध हुई संसारमें यही तो वस्तुएँ अपेक्षित हैं, ऐसी शक्तिको धारण करनेवाले, हमारी संसार-यात्राके एकमात्र अवलम्ब एवं लक्ष्मी आदिके प्रतिनिधि हाथका प्रातःकाल दर्शन शुभकारक ही सिद्ध है क्योंकि इसी हाथसे ही तो हमें सभी कार्य करने हैं।
+
=== शौचाचार ===
 +
<blockquote>शौचे यत्नः सदा कार्यः शौचमूलो द्विजः स्मृतः शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः ॥(दक्षस्मृ०५।२, बाधूलस्मृ० २०)</blockquote>शौचाचारमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका मूल शौचाचार ही है, शौचाचारका पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए ।
   −
केवल पुराणों में ही हाथका महत्व बताया गया हो ऐसा भी नहीं है। वेद में भी हाथका महत्व बताया गया है देखिये-<blockquote>अयं मे हस्तो भगवान अयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः॥ (ऋ० १०।६०।१२)</blockquote>इस मन्त्रका देवता भी 'हस्त' है। इसमें हाथको भगवान का अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है।
+
अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: बाह्याभंतर: शुचि:।।
   −
जो जितनी अधिक शक्तिवाला होगा उसके हाथ में शक्ति भी उतनी ही अधिक होगी। इसलिए हम जिनकी वन्दना करके उनका आशीर्वाद चाहते हैं वे भी अपने हाथसे ही हमारे सिरको स्पर्श करके आशीर्वाद देते हैं। कई ज्यौतिष(सामुद्रिक)विद्याविशारद भी इसी हाथमें स्थित रेखाओं को देखकर ही फलित बताते हैं । हाथमें अमृत के स्थित होनेसे गुरुजनों के द्वारा शिष्यको हाथसे मारने पर भी शिष्यों में गुण की वृद्धि ही पाई जाती है जैसा कि श्रीदयानन्द सरस्वती जी के द्वारा रचित व्यवहारभानु नामक ग्रन्थ में व्याकरण महाभाष्य का प्रमाण है- <blockquote>सामृतैः पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितैः।लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः।। (व्यवहारभानु) <ref>श्री दयानन्द सरस्वती,व्यवहारभानु,अजमेरनगर वैदिकयन्त्रालय,पृ० १४।</ref></blockquote>'''अर्थ'''-जो माता, पिता और आचार्य, सन्तान और शिष्यों का ताड़न करते हैं वे जानो अपने सन्तान और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं और जो सन्तानों वा शिष्यों का लाड़न करते हैं वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिला के नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं। क्योंकि लाड़न से सन्तान और शिष्य दोषयुक्त तथा ताड़ना से गुणयुक्त होते हैं ।
+
'''अनु-'''कोई भी मनुष्य जो पवित्र हो, अपवित्र हो या किसी भी स्थिति को प्राप्त क्यों न हो, जो भगवान पुण्डरीकाक्ष का स्मरण करता है, वह बाहर-भीतर से पवित्र हो जाता है।
   −
सन्तान और शिष्य लोग भी ताड़ना से प्रसन्न और लाड़न से अप्रसन्न सदा रहा करें। परन्तु माता, पिता तथा अध्यापक लोग ईर्ष्या, द्वेष से ताड़न करें किन्तु ऊपर से भयप्रदान और भीतर से कृपादृष्टि रक्खें।इससे हाथमें हानिजनक शत्रुओंकेलिए विष भी सन्निहित है-यह भी प्रतीत होता है।  
+
शौच में मुख्यतः दो भेद हैं-
 +
* बाह्य शौच
 +
* आभ्यन्तर शौच
 +
मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है इसकी अबाधित आवश्यकता है किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना बाह्यशौच प्रतिष्ठित नहीं हो पाता। मनोभावको शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका होना आभ्यन्तर शौच है।
   −
इस प्रकारके हमारे अवलम्बभूत, यजुर्वेद (बृहदारण्यकोपनिषद्) का यह कथन प्रसिद्ध है- <blockquote>सर्वेषां कर्मणार्थ हस्तौ एकायनम् । ( बृहदारण्यकोपनिषद २।४।११)</blockquote>इन शब्दों में सब कर्मोंके मूल-जिसके न होनेसे हम 'निहत्थे' कहे जाते हैं-सारी रात्रिके ग्रहनक्षत्रादि के प्रभावसे तथा प्रातःकालिक वायुसे पवित्र उस हाथके दर्शनसे हमारा शुभ होना सोपपत्तिक ही है।
+
श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि यदि पहाड़-जितनी मिट्टी और गङ्गाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुद्धि-कार्य करता रहे, किंतु उसके पास 'आन्तरिक शौच' न हो तो वह शुद्ध नहीं हो सकता। अतः आभ्यन्तर शौच अत्यावश्यक है भगवान् सबमें विद्यमान हैं। इसलिये किसीसे द्वेष, क्रोधादि न करे सबमें भगवान्का दर्शन करते हुए, सब परिस्थितियोंको भगवान्का वरदान समझते हुए, सबमें मैत्रीभाव रखें। साथ ही प्रतिक्षण भगवान्का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा समझकर शास्त्रविहित कार्य करते रहें ।
   −
==== प्रातः भूमिवन्दन ====
+
याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि-<blockquote>दिवा सन्ध्या सुकर्णस्थ ब्रह्मसूत्र उदङ मुखः कुर्यान्मूत्र पुरीणे च रात्रौ चेद्दक्षिणा मुखः ॥( याज्ञ० )</blockquote>अर्थात् जनेऊ को दायें कान पर चढ़ाकर प्रातःकाल उत्तर दिशा की ओर मुख करके तथा सायंकाल दक्षिणाभिमुख होकर मल मूत्र का त्याग करें।
प्रातः उठते ही अपनी आश्रयभूत भूमिकी वन्दना करनी श्रेयस्कर हुआ करती है। तभी तो कहा है-<blockquote>जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी </blockquote>जन्मभूमिको स्वर्गसे भी बढ़कर माना गया है। इसीलिए वेदने भी उसे नमस्कार करनेका आदेश दिया है<blockquote>शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता। तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः॥ (अथर्व० १२।१।२६)।</blockquote><blockquote>नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्यै(यजु०६।२२)</blockquote>यहाँ पर दो बार पृथिवी माताकी वन्दना करके वेदने अपने भक्तोंको उसकी पूजाका आदेश दे दिया है। इसीलिए वेदानुसारी पुराणोंने भी  उसे नमस्कार करके उस पर पांव रखनेकी क्षमा चाही है।<blockquote>समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमण्डिते। विष्णु-पत्नि ! नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे॥</blockquote>इससे हम भूमिके भक्त भी बने रहेंगे, विलायती भूमियोंके प्रेमी न बनेंगे।उठते ही पृथिवीपर एकदम पाँव रखना लौकिक दृष्टिसे भी ठीक नहीं, क्योंकि-सारी रात हम बिस्तर पर सोते हैं; उसमें भी शीतकालमें गर्म कपडों से अपने आपको ढककर सोते हैं। इसी कारण हमारे अन्दर उष्णता पर्याप्त होती है, विशेषकर पैरोंमें क्योंकि तब पैर प्रायः ढके रहते हैं; उस समय ठण्डे परमाणुओंसे युक्त भूमिमें एकदम ही पैर रखना ठीक नहीं; क्योंकि-गर्मी-सर्दी पांवके ही द्वारा हमारे शरीर में तत्क्षण संक्रांत होती है। अतः कुछ देर तक बिस्तर पर बैठकर निद्रा पूर्णतया दूर करके जब अधिक ऊष्मा हटकर उसका समीभाव हो जाता है, तब पांवका भूमि पर रखना ठीक होता है।
     −
इसके अतिरिक्त भूमि हमारी माता है, हम उसके पुत्र हैं, जैसे कि अथर्ववेदसंहितामें कहा है-<blockquote>माता भूमिः, पुत्रो अहं पृथिव्याः (अथर्व०१२।१।१२)।</blockquote>और भूमि देवतारूप भी है। अतः उस पर पांव रखना उचित नहीं दीखता; पर अनिवार्य होनेसे कुछ समय उससे पादस्पर्शके लिए क्षमा मांगना उचित भी है।
+
मूत्रोच्चारसमुत्सर्ग दिवा कुर्यादुदंमुखः । दक्षिणाभिमुखो रात्रौ सन्ध्ययोश्च तथा दिवा॥( मनु० ४।५० तथा वशिष्ठ०६।१० )
   −
== शौचाचार एवं स्नानविधि। ==
+
अर्थात दिन में उत्तर की ओर तथा रात में दक्षिण की ओर और दोनों सन्ध्यात्रों में दिन के समान अर्थात् उत्तर की ओर मुंह करके मल मूत्र त्याग करना चाहिए ।
शौचादि कृत्य
     −
ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए
+
प्रत्यग्नि प्रतिसूर्य' च प्रतिसोमोदकद्विजान् । प्रतिगां प्रतिवातं च प्रज्ञा नश्यति मेहतः ॥ (मनु० ४।५२ तथा वशिष्ठ० ६।११)
   −
“मूत्रोच्चारसमुत्सर्ग दिवा कुर्यादुदंमुखः । दक्षिणाभिमुखो रात्रौ सन्ध्ययोश्च तथा दिवा॥" ( मनु० ४।५० तथा वशिष्ठ०६।१० ) अर्थात दिन में उत्तर की ओर तथा रात में दक्षिण की ओर और दोनों सन्ध्यात्रों में दिन के समान अर्थात् उत्तर की ओर मुंह करके मल मूत्र त्याग करना चाहिए ।
+
अर्थात् अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, ब्राह्मण, गौ तथा वायु इन के सामने की ओर मल मूत्र करने वाले की बुद्धि नष्ट हो जाती है।
   −
"प्रत्यग्नि प्रतिसूर्य' च प्रतिसोमोदकद्विजान् प्रतिगां प्रतिवातं च प्रज्ञा नश्यति मेहतः ॥" (मनु० ४।५२ तथा वशिष्ठ० ६।११)
+
ऐसी अनेकों शिक्षायें दी गयी हैं जिनका पालन न करने से ही लोग आजकल प्रमेह, बवासीर आदि अनेकों इन्द्रिय रोगों से ग्रसित हो रहे हैं। कारण यह है कि पूर्व की ओर से आती हुई विद्युत्शक्ति वायु के साथ सामने से मल मूत्र के ऊपर से होकर इन्द्रियों में सूक्ष्म कीटाणुओं के द्वारा प्रवेश कर जाती है मल-मूत्र के दोष से दूषित वह वायु प्रवेश तथा स्पर्श करके रोग उत्पन्न कर देती है ।
   −
अर्थात् अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, ब्राह्मण, गौ तथा वायु इन के सामने की ओर मल मूत्र करने वाले की बुद्धि नष्ट हो जाती है। ऐसी अनेकों शिक्षायें दी गयी हैं जिनका पालन न करने से ही लोग आजकल प्रमेह, बवासीर आदि अनेकों इन्द्रिय रोगों से ग्रसित हो रहे हैं। कारण यह है कि पूर्व की ओर से आती हुई विद्युत्शक्ति वायु के साथ सामने से मल मूत्र के ऊपर से होकर इन्द्रियों में सूक्ष्म कीटाणुओं के द्वारा प्रवेश कर जाती है । मल-मूत्र के दोष से दूषित वह वायु, प्रवेश तथा स्पर्श करके रोग उत्पन्न कर देती है । अग्नि की विद्युत्शक्ति द्वारा भी यही बात होती है, वायु से तो यह बात प्रत्यक्षसिद्ध ही है। इसके अतिरिक्त अति उज्ज्वल, सतेज, तथा सबल वस्तु के स्पर्श, दर्शन आदि से स्नायुजाल उत्तेजित और चंचल हो उठता है। इससे कोष्ठशुद्धि में बाधा होने के कारण रोग उत्पन्न हो सकते हैं। इसलिए अग्नि, जल, ब्राह्मण, सूर्य आदि की ओर मुंह करके शौच जाना निषिद्ध है। तथा ये सब पूज्य भी हैं, अत: इनके सम्मुख ऐसी क्रिया करने से बुद्धि अवश्य ही भ्रष्ट हो जायगी। कि---
+
अग्नि की विद्युत्शक्ति द्वारा भी यही बात होती है वायु से तो यह बात प्रत्यक्षसिद्ध ही है। इसके अतिरिक्त अति उज्ज्वल, सतेज, तथा सबल वस्तु के स्पर्श, दर्शन आदि से स्नायुजाल उत्तेजित और चंचल हो उठता है। इससे कोष्ठशुद्धि में बाधा होने के कारण रोग उत्पन्न हो सकते हैं। इसलिए अग्नि, जल, ब्राह्मण, सूर्य आदि की ओर मुंह करके शौच जाना निषिद्ध है। तथा ये सब पूज्य भी हैं अत: इनके सम्मुख ऐसी क्रिया करने से बुद्धि अवश्य ही भ्रष्ट हो जायगी।
    
कहा गया है
 
कहा गया है
Line 128: Line 152:  
अर्थात् शौच के समय बोलना हांफना और थूकना आदि नहीं चाहिये।
 
अर्थात् शौच के समय बोलना हांफना और थूकना आदि नहीं चाहिये।
   −
पुरीषे मैथुने पाने प्रस्रावे दन्त धावने । स्नानभोजनजाप्येषु सदा मौनं समाचरेत् ।.(अत्रिस्मृति-३२०)
+
पुरीषे मैथुने पाने प्रस्रावे दन्त धावने । स्नानभोजनजाप्येषु सदा मौनं समाचरेत् ।(अत्रिस्मृति-३२०)
   −
अर्थात् मल त्याग, मैथुन, जलादि पीने, लघुशंका करने, दन्तधावन, स्नान, भोजन तथा जप के समय सर्वदा मौन धारण करना चाहिये । तथा शिर पर वस्त्र लपेट कर शौच जाना चाहिये।
+
अर्थात् मल त्याग, मैथुन, जलादि पीने, लघुशंका करने, दन्तधावन, स्नान, भोजन तथा जप के समय सर्वदा मौन धारण करना चाहिये ।
   −
अन्तर्धाय तृणैर्भूमि शिरः प्रावृत्य वाससा तथा वशिष्ठ० १२।१)(अंगिरास्मृति)
+
अन्तर्धाय तृणैर्भूमि शिरः प्रावृत्य वाससा ( वशिष्ठ० १२।१)(अंगिरास्मृति)
   −
वहां अधिक ठहरना भी नहीं चाहिये। इन सब क्रियाओं में महत्त्व पूर्ण विज्ञान भरा है। शरीर के ऊपरी भाग में जो स्नायुजाल है, उसमें क्रिया उत्पन्न होने पर नीचे का शारीरिक यन्त्र पूर्णरूपेण यथारीति कार्य नहीं कर सकेगा, अत: यदि उस समय थूकना, बातचीत करना, हांफना इत्यादि कोई क्रिया की जायगी, तो नीचे का स्नायुजाल शिथिल हो जाने के कारण शौच क्रिया ठीक से नहीं होगी, इससे अनेक रोग हो जाने की सम्भावना है। शौच क्रिया रोकने से प्रातः शौच न करके अन्य कर्म में लग जाने से शारीरिक यन्त्र काम करने लगेगा, जिससे कि हलचल पैदा हो जाने के कारण शरीर के मल का दूषित रस रक्त में मिलकर अनेकों रोग उत्पन्न करेगा, जिससे रक्तविकार आदि अवश्य हो जायगा। पहले ही कहा जा चुका है कि शिर द्वारा शक्ति का आकर्षण एवं प्रवेश होता है, अत: मलत्याग के समय दूषित वायु, विकार तथा मल के कीटाणुओं का प्रभाव न पड़े, इस लिए शिर वेष्ठित करके शौच जाने का विधान किया गया है। दूसरी बात यह है कि शिर के पास की नाड़ी
+
तथा शिर पर वस्त्र लपेट कर शौच जाना चाहिये।
   −
वस्त्र-वेष्ठित होने से दबाव पड़ने के कारण शौचक्रिया स्वच्छ और ठीक हो जाती है। शौच के बाद मल के ऊपर मिट्टी डाल देना इसलिए कहा है, जिससे उसके कीटाणु तथा दूषित वायु बाहर न जा सके और उसका प्रभाव दूसरे के ऊपर न पड़ सके।
+
वहां अधिक ठहरना भी नहीं चाहिये। इन सब क्रियाओं में महत्त्व पूर्ण विज्ञान भरा है। शरीर के ऊपरी भाग में जो स्नायुजाल है, उसमें क्रिया उत्पन्न होने पर नीचे का शारीरिक यन्त्र पूर्णरूपेण यथारीति कार्य नहीं कर सकेगा, अत: यदि उस समय थूकना, बातचीत करना, हांफना इत्यादि कोई क्रिया की जायगी, तो नीचे का स्नायुजाल शिथिल हो जाने के कारण शौच क्रिया ठीक से नहीं होगी, इससे अनेक रोग हो जाने की सम्भावना है। शौच क्रिया रोकने से प्रातः शौच न करके अन्य कर्म में लग जाने से शारीरिक यन्त्र काम करने लगेगा, जिससे कि हलचल पैदा हो जाने के कारण शरीर के मल का दूषित रस रक्त में मिलकर अनेकों रोग उत्पन्न करेगा, जिससे रक्तविकार आदि अवश्य हो जायगा। पहले ही कहा जा चुका है कि शिर द्वारा शक्ति का आकर्षण एवं प्रवेश होता है, अत: मलत्याग के समय दूषित वायु, विकार तथा मल के कीटाणुओं का प्रभाव न पड़े, इस लिए शिर वेष्ठित करके शौच जाने का विधान किया गया है। दूसरी बात यह है कि शिर के पास की नाड़ी वस्त्र-वेष्ठित होने से दबाव पड़ने के कारण शौचक्रिया स्वच्छ और ठीक हो जाती है। शौच के बाद मल के ऊपर मिट्टी डाल देना इसलिए कहा है, जिससे उसके कीटाणु तथा दूषित वायु बाहर न जा सके और उसका प्रभाव दूसरे के ऊपर न पड़ सके।  
 
  −
याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि
  −
 
  −
दिवा सन्ध्या सुकर्णस्थ ब्रह्मसूत्र उदङ मुखः । कुर्यान्मूत्र पुरीणे च रात्रौ चेद्दक्षिणा मुखः ॥
  −
 
  −
( याज्ञ० )
  −
 
  −
अर्थात् जनेऊ को दायें कान पर चढ़ाकर प्रातःकाल उत्तर दिशा की ओर मुख करके तथा सायंकाल दक्षिणाभिमुख होकर मल मूत्र का त्याग करे।
      
इसी प्रकार और भी लिखा है कि-
 
इसी प्रकार और भी लिखा है कि-
Line 150: Line 166:  
दश हस्तान् परित्यज्य मूत्र कुर्याज्जलाशये। शत हस्तान् पुरीषं तु तीर्थे नद्यां चतुर्गुणाम् ॥( आश्वलायन )  
 
दश हस्तान् परित्यज्य मूत्र कुर्याज्जलाशये। शत हस्तान् पुरीषं तु तीर्थे नद्यां चतुर्गुणाम् ॥( आश्वलायन )  
   −
अर्थात् तालाव आदि जलाशय से दश हाथ की दूरी छोड़ कर मल विसर्जन करना चाहिये। इसी भांति तीर्थ (मंदिर, विद्यालय आदि) स्थान और नदी से चालीस हाथ दूर मूत्र और चार सौ हाथ दूर मल विसर्जन करने जाना चाहिये। यह शास्त्र की आज्ञा है, इसमें लाभ तथा वैज्ञानिक रहस्य यह है कि मल दूर त्याग करने से जलाशय तथा मंदिर, विद्यालय आदि के किनारे का वायु मण्डल दूषित नहीं होगा, दुर्गन्ध भी नहीं फैलेगी। प्रात:काल के समय लोग 56/277 में दर्शन, विद्यालय में पठन के लिए जाते हैं, स्वास्थ्य का दाष्ट से वायु सेवन का तथा नित्य कर्म की दृष्टि से यह स्नान, ध्यान, पठन पाठन आदि का समय होता है और इन कर्मों के लिये जलाशय, तीथे स्थान आदि पर ही विशेषकर लोग जाते हैं। अत: यदि इन स्थानों के आस पास मल मूत्र विसर्जन होगा तो न तो हमारा स्वास्थ्य ही ठीक रह सकेगा और न हमारे दैनिक आवश्यक कर्म ही सुचारु रूप से सम्पन्न हो सकेंगे। इसके अतिरिक्त मल मूत्र का अंश तथा दूषित प्रभाव भी जलाशय पर नहीं पड़ सकेगा। जल से सभी लोग स्नान करते, तथा उसे पान करते हैं अत: दूषित होने से बचाने के लिए तथा पवित्रता की रक्षा करने के लिये ही ऋषियों ने ऐसी व्यवस्था धर्म रूप से की है। इससे हमारा ही कल्याण है ।
+
अर्थात् तालाव आदि जलाशय से दश हाथ की दूरी छोड़ कर मल विसर्जन करना चाहिये। इसी भांति तीर्थ (मंदिर, विद्यालय आदि) स्थान और नदी से चालीस हाथ दूर मूत्र और चार सौ हाथ दूर मल विसर्जन करने जाना चाहिये। यह शास्त्र की आज्ञा है, इसमें लाभ तथा वैज्ञानिक रहस्य यह है कि मल दूर त्याग करने से जलाशय तथा मंदिर, विद्यालय आदि के किनारे का वायु मण्डल दूषित नहीं होगा, दुर्गन्ध भी नहीं फैलेगी।  
 +
 
 +
प्रात:काल के समय लोग मन्दिर में दर्शन, विद्यालय में पठन के लिए जाते हैं, स्वास्थ्य का दाष्ट से वायु सेवन का तथा नित्य कर्म की दृष्टि से यह स्नान, ध्यान, पठन पाठन आदि का समय होता है और इन कर्मों के लिये जलाशय, तीर्थ आदि स्थान पर ही विशेषकर लोग जाते हैं। अत: यदि इन स्थानों के आस पास मल मूत्र विसर्जन होगा तो न तो हमारा स्वास्थ्य ही ठीक रह सकेगा और न हमारे दैनिक आवश्यक कर्म ही सुचारु रूप से सम्पन्न हो सकेंगे। इसके अतिरिक्त मल मूत्र का अंश तथा दूषित प्रभाव भी जलाशय पर नहीं पड़ सकेगा। जल से सभी लोग स्नान करते, तथा उसे पान करते हैं अत: दूषित होने से बचाने के लिए तथा पवित्रता की रक्षा करने के लिये ही ऋषियों ने ऐसी व्यवस्था धर्म रूप से की है। इससे हमारा ही कल्याण है ।
    
यह ब्राह्म मुहूर्त में जागरण एवं सूर्योदय के पूर्व स्नान करने विलक्षण चमत्कार है।
 
यह ब्राह्म मुहूर्त में जागरण एवं सूर्योदय के पूर्व स्नान करने विलक्षण चमत्कार है।
   −
शौच विधान में विज्ञान
+
'''शौच विधान में विज्ञान'''
 
  −
शौच के पश्चात् निर्मल जल तथा मिट्टी से हाथ धोना कहा है, कारण यह है कि मल भी विकृत पृथ्वीतत्व है, और मिट्टी भी पृथ्वीतत्व है, अत: हाथों की दुर्गन्ध पृथ्वी की मिट्टी से जिस प्रकार दूर हो सकती है, उस प्रकार सावुन आदि किसी अन्य वस्तु से नहीं। तथा सावुन आदि में दूषित हाथ लगाने से सावुन स्वयं दूषित हो जाता है। एक बात और भी है-पित्त के संयोग से मल में तेल की तरह एक प्रकार का लस दार पदार्थ रहता है जो केवल मिट्टी से ही छूटता है, अत: मिट्टी से ही हाथ धोना चाहिए और बाद में पैरों को भी तीन बार मिट्टी लगाकर धोना चाहिए क्योंकि शौच जाने के बाद तत्काल थोड़ी सी उष्णता उत्पन्न हो जाती है, वह तलवे को धोने से जाती रहती है और उदर ठीक रीति से रहता है। मूत्रत्याग के पश्चात् ठण्ढे जल से इन्द्रिय धोना कहा गया है कारण यह है कि मूत्र अत्यन्त पित्तप्रधान होने के कारण उसमें विषैली वस्तुएं रहती हैं और धोती आदि में यदि मूत्र बिन्दु रह गये, तो अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ठण्डे जल से धो देने से उत्तेजना भी दूर हो जाती है तथा कीटार हो जाते हैं। एक स्थान पर कई लोगों को मू 57/27 चाहिए, इससे उपदंश आदि संक्रामक विकार है। क्योंकि मूत्र की धार का तारतम्य एक ही स्थान पर रहने के कारण इसके रोग वाले कीटाणु धार के सहारे एक दूसरे संक्रमित हो जाते हैं। यदि जल लेने का अभ्यास होगा, तो इस दोष का भी निवारण हो जायगा। इत्यादि आचार के विषय में अनेक प्रमाण भरे पड़े हैं। हमें अब उनकी वैज्ञानिक चर्चा करनी है।
     −
प्रातःस्नान
+
शौच के पश्चात् निर्मल जल तथा मिट्टी से हाथ धोना कहा है, कारण यह है कि मल भी विकृत पृथ्वीतत्व है, और मिट्टी भी पृथ्वीतत्व है, अत: हाथों की दुर्गन्ध पृथ्वी की मिट्टी से जिस प्रकार दूर हो सकती है, उस प्रकार सावुन आदि किसी अन्य वस्तु से नहीं। तथा सावुन आदि में दूषित हाथ लगाने से सावुन स्वयं दूषित हो जाता है। एक बात और भी है-पित्त के संयोग से मल में तेल की तरह एक प्रकार का लस दार पदार्थ रहता है जो केवल मिट्टी से ही छूटता है, अत: मिट्टी से ही हाथ धोना चाहिए और बाद में पैरों को भी तीन बार मिट्टी लगाकर धोना चाहिए क्योंकि शौच जाने के बाद तत्काल थोड़ी सी उष्णता उत्पन्न हो जाती है, वह तलवे को धोने से जाती रहती है और उदर ठीक रीति से रहता है। मूत्रत्याग के पश्चात् ठण्ढे जल से इन्द्रिय धोना कहा गया है कारण यह है कि मूत्र अत्यन्त पित्तप्रधान होने के कारण उसमें विषैली वस्तुएं रहती हैं और धोती आदि में यदि मूत्र बिन्दु रह गये, तो अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ठण्डे जल से धो देने से उत्तेजना भी दूर हो जाती है तथा कीटार हो जाते हैं। एक स्थान पर कई लोगों को मूत्र विसर्जन नहीं करना चाहिए, इससे उपदंश आदि संक्रामक विकार होते हैं। क्योंकि मूत्र की धार का तारतम्य एक ही स्थान पर रहने के कारण इसके रोग वाले कीटाणु धार के सहारे एक दूसरे संक्रमित हो जाते हैं। यदि जल लेने का अभ्यास होगा, तो इस दोष का भी निवारण हो जायगा। इत्यादि आचार के विषय में अनेक प्रमाण भरे पड़े हैं। हमें अब उनकी वैज्ञानिक चर्चा करनी है।
   −
ब्राह्म मुहूर्त में जागरण के विषय में शास्त्र का प्रमाण दिया ही जा चुका है। अब प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। इसमें वैज्ञानिक विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय गणों का लाभ उठा सकेगा।
+
'''प्रातःस्नान'''
   −
दिन को उत्तर की ओर मुंह करके बैठने का विधान है
+
ब्राह्म मुहूर्त में जागरण के विषय में शास्त्र का प्रमाण दिया ही जा चुका है। अब प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। इसमें वैज्ञानिक विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय कणों का लाभ उठा सकेगा।
    
== वस्त्रधारण एवं भस्मादि तिलक धारण विधि। ==
 
== वस्त्रधारण एवं भस्मादि तिलक धारण विधि। ==
924

edits

Navigation menu