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| इस समय सोना शास्त्रमें निषिद्ध है-<blockquote>ब्राह्मे मुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी। । </blockquote>जैसे कल्पका प्रारम्भ ब्रह्माके दिनका प्रारम्भ होता है, उसीसमय ब्रह्माका दीर्घनिद्रामें विश्रान्त हुई सृष्टि के निर्माण एवं उत्थानका काल होता है। ज्ञानरूप वेदका प्राकट्यकाल भी वही होता है, उत्तम ज्ञानवाली एवं शुद्ध-मेधावती ऋषि-सृष्टि भी तभी होती है, सत्त्वयुग वा सत्ययुग भी तभी होता है; धार्मिक प्रजा भी उसी प्रारम्भिक कालमें होती है, यह काल भी वैसा ही होता है।उसी ब्राह्मदिनका संक्षिप्त संस्करण यह 'ब्राह्ममुहूर्त' होता है। यह भी सत्सृष्टि-निर्माणका प्रतिनिधि होनेसे सृष्टिका सचमुच निर्माण ही करता है। अपने निर्माण कार्यमें इस ब्राह्ममुहूर्तका उपयोग लेना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। इसके उपयोगसे हमें ऐहलौकिक-अभ्युदय एवं पारलौकिक-निःश्रेयस प्राप्त होकर सर्वाङ्गीण धर्मलाभ सम्भव हो जाता है। | | इस समय सोना शास्त्रमें निषिद्ध है-<blockquote>ब्राह्मे मुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी। । </blockquote>जैसे कल्पका प्रारम्भ ब्रह्माके दिनका प्रारम्भ होता है, उसीसमय ब्रह्माका दीर्घनिद्रामें विश्रान्त हुई सृष्टि के निर्माण एवं उत्थानका काल होता है। ज्ञानरूप वेदका प्राकट्यकाल भी वही होता है, उत्तम ज्ञानवाली एवं शुद्ध-मेधावती ऋषि-सृष्टि भी तभी होती है, सत्त्वयुग वा सत्ययुग भी तभी होता है; धार्मिक प्रजा भी उसी प्रारम्भिक कालमें होती है, यह काल भी वैसा ही होता है।उसी ब्राह्मदिनका संक्षिप्त संस्करण यह 'ब्राह्ममुहूर्त' होता है। यह भी सत्सृष्टि-निर्माणका प्रतिनिधि होनेसे सृष्टिका सचमुच निर्माण ही करता है। अपने निर्माण कार्यमें इस ब्राह्ममुहूर्तका उपयोग लेना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। इसके उपयोगसे हमें ऐहलौकिक-अभ्युदय एवं पारलौकिक-निःश्रेयस प्राप्त होकर सर्वाङ्गीण धर्मलाभ सम्भव हो जाता है। |
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| + | ब्राह्म मुहूर्त में जागरण के विषय में शास्त्र का प्रमाण दिया ही जा चुका है। अब प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। इसमें वैज्ञानिक विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय गणों का लाभ उठा सकेगा। |
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| == जागरण प्रभृति नित्य विधि। == | | == जागरण प्रभृति नित्य विधि। == |
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| == शौचाचार एवं स्नानविधि। == | | == शौचाचार एवं स्नानविधि। == |
| + | शौचादि कृत्य |
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| + | ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए दिन को उत्तर की ओर मुंह करके बैठने का विधान है |
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| + | “मूत्रोच्चारसमुत्सर्ग दिवा कुर्यादुदंमुखः । दक्षिणाभिमुखो रात्रौ सन्ध्ययोश्च तथा दिवा॥" ( मनु० ४।५० तथा वशिष्ठ०६।१० ) अर्थात दिन में उत्तर की ओर तथा रात में दक्षिण की ओर और दोनों सन्ध्यात्रों में दिन के समान अर्थात् उत्तर की ओर मुंह करके मल मूत्र त्याग करना चाहिए । |
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| + | "प्रत्यग्नि प्रतिसूर्य' च प्रतिसोमोदकद्विजान् । प्रतिगां प्रतिवातं च प्रज्ञा नश्यति मेहतः ॥" (मनु० ४।५२ तथा वशिष्ठ० ६।११) |
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| + | अर्थात् अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, ब्राह्मण, गौ तथा वायु इन के सामने की ओर मल मूत्र करने वाले की बुद्धि नष्ट हो जाती है। ऐसी अनेकों शिक्षायें दी गयी हैं जिनका पालन न करने से ही लोग आजकल प्रमेह, बवासीर आदि अनेकों इन्द्रिय रोगों से ग्रसित हो रहे हैं। कारण यह है कि पूर्व की ओर से आती हुई विद्युत्शक्ति वायु के साथ सामने से मल मूत्र के ऊपर से होकर इन्द्रियों में सूक्ष्म कीटाणुओं के द्वारा प्रवेश कर जाती है । मल-मूत्र के दोष से दूषित वह वायु, प्रवेश तथा स्पर्श करके रोग उत्पन्न कर देती है । अग्नि की विद्युत्शक्ति द्वारा भी यही बात होती है, वायु से तो यह बात प्रत्यक्षसिद्ध ही है। इसके अतिरिक्त अति उज्ज्वल, सतेज, तथा सबल वस्तु के स्पर्श, दर्शन आदि से स्नायुजाल उत्तेजित और चंचल हो उठता है। इससे कोष्ठशुद्धि में बाधा होने के कारण रोग उत्पन्न हो सकते हैं। इसलिए अग्नि, जल, ब्राह्मण, सूर्य आदि की ओर मुंह करके शौच जाना निषिद्ध है। तथा ये सब पूज्य भी हैं, अत: इनके सम्मुख ऐसी क्रिया करने से बुद्धि अवश्य ही भ्रष्ट हो जायगी। कि--- |
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| + | कहा गया है |
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| + | वाचं नियम्य यत्नेन ष्ठीवनोच्छ्वासवजितः। |
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| + | अर्थात् शौच के समय बोलना हांफना और थूकना आदि नहीं चाहिये। |
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| + | पुरीषे मैथुने पाने प्रस्रावे दन्त धावने । स्नानभोजनजाप्येषु सदा मौनं समाचरेत् ।.(अत्रिस्मृति-३२०) |
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| + | अर्थात् मल त्याग, मैथुन, जलादि पीने, लघुशंका करने, दन्तधावन, स्नान, भोजन तथा जप के समय सर्वदा मौन धारण करना चाहिये । तथा शिर पर वस्त्र लपेट कर शौच जाना चाहिये। |
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| + | अन्तर्धाय तृणैर्भूमि शिरः प्रावृत्य वाससा तथा वशिष्ठ० १२।१)(अंगिरास्मृति) |
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| + | वहां अधिक ठहरना भी नहीं चाहिये। इन सब क्रियाओं में महत्त्व पूर्ण विज्ञान भरा है। शरीर के ऊपरी भाग में जो स्नायुजाल है, उसमें क्रिया उत्पन्न होने पर नीचे का शारीरिक यन्त्र पूर्णरूपेण यथारीति कार्य नहीं कर सकेगा, अत: यदि उस समय थूकना, बातचीत करना, हांफना इत्यादि कोई क्रिया की जायगी, तो नीचे का स्नायुजाल शिथिल हो जाने के कारण शौच क्रिया ठीक से नहीं होगी, इससे अनेक रोग हो जाने की सम्भावना है। शौच क्रिया रोकने से प्रातः शौच न करके अन्य कर्म में लग जाने से शारीरिक यन्त्र काम करने लगेगा, जिससे कि हलचल पैदा हो जाने के कारण शरीर के मल का दूषित रस रक्त में मिलकर अनेकों रोग उत्पन्न करेगा, जिससे रक्तविकार आदि अवश्य हो जायगा। पहले ही कहा जा चुका है कि शिर द्वारा शक्ति का आकर्षण एवं प्रवेश होता है, अत: मलत्याग के समय दूषित वायु, विकार तथा मल के कीटाणुओं का प्रभाव न पड़े, इस लिए शिर वेष्ठित करके शौच जाने का विधान किया गया है। दूसरी बात यह है कि शिर के पास की नाड़ी |
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| + | वस्त्र-वेष्ठित होने से दबाव पड़ने के कारण शौचक्रिया स्वच्छ और ठीक हो जाती है। शौच के बाद मल के ऊपर मिट्टी डाल देना इसलिए कहा है, जिससे उसके कीटाणु तथा दूषित वायु बाहर न जा सके और उसका प्रभाव दूसरे के ऊपर न पड़ सके। |
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| + | याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि |
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| + | दिवा सन्ध्या सुकर्णस्थ ब्रह्मसूत्र उदङ मुखः । कुर्यान्मूत्र पुरीणे च रात्रौ चेद्दक्षिणा मुखः ॥ |
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| + | ( याज्ञ० ) |
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| + | अर्थात् जनेऊ को दायें कान पर चढ़ाकर प्रातःकाल उत्तर दिशा की ओर मुख करके तथा सायंकाल दक्षिणाभिमुख होकर मल मूत्र का त्याग करे। |
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| + | इसी प्रकार और भी लिखा है कि- |
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| + | दश हस्तान् परित्यज्य मूत्र कुर्याज्जलाशये। शत हस्तान् पुरीषं तु तीर्थे नद्यां चतुर्गुणाम् ॥( आश्वलायन ) |
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| + | अर्थात् तालाव आदि जलाशय से दश हाथ की दूरी छोड़ कर मल विसर्जन करना चाहिये। इसी भांति तीर्थ (मंदिर, विद्यालय आदि) स्थान और नदी से चालीस हाथ दूर मूत्र और चार सौ हाथ दूर मल विसर्जन करने जाना चाहिये। यह शास्त्र की आज्ञा है, इसमें लाभ तथा वैज्ञानिक रहस्य यह है कि मल दूर त्याग करने से जलाशय तथा मंदिर, विद्यालय आदि के किनारे का वायु मण्डल दूषित नहीं होगा, दुर्गन्ध भी नहीं फैलेगी। प्रात:काल के समय लोग 56/277 में दर्शन, विद्यालय में पठन के लिए जाते हैं, स्वास्थ्य का दाष्ट से वायु सेवन का तथा नित्य कर्म की दृष्टि से यह स्नान, ध्यान, पठन पाठन आदि का समय होता है और इन कर्मों के लिये जलाशय, तीथे स्थान आदि पर ही विशेषकर लोग जाते हैं। अत: यदि इन स्थानों के आस पास मल मूत्र विसर्जन होगा तो न तो हमारा स्वास्थ्य ही ठीक रह सकेगा और न हमारे दैनिक आवश्यक कर्म ही सुचारु रूप से सम्पन्न हो सकेंगे। इसके अतिरिक्त मल मूत्र का अंश तथा दूषित प्रभाव भी जलाशय पर नहीं पड़ सकेगा। जल से सभी लोग स्नान करते, तथा उसे पान करते हैं अत: दूषित होने से बचाने के लिए तथा पवित्रता की रक्षा करने के लिये ही ऋषियों ने ऐसी व्यवस्था धर्म रूप से की है। इससे हमारा ही कल्याण है । |
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| + | यह ब्राह्म मुहूर्त में जागरण एवं सूर्योदय के पूर्व स्नान करने विलक्षण चमत्कार है। |
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| + | शौच विधान में विज्ञान |
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| + | शौच के पश्चात् निर्मल जल तथा मिट्टी से हाथ धोना कहा है, कारण यह है कि मल भी विकृत पृथ्वीतत्व है, और मिट्टी भी पृथ्वीतत्व है, अत: हाथों की दुर्गन्ध पृथ्वी की मिट्टी से जिस प्रकार दूर हो सकती है, उस प्रकार सावुन आदि किसी अन्य वस्तु से नहीं। तथा सावुन आदि में दूषित हाथ लगाने से सावुन स्वयं दूषित हो जाता है। एक बात और भी है-पित्त के संयोग से मल में तेल की तरह एक प्रकार का लस दार पदार्थ रहता है जो केवल मिट्टी से ही छूटता है, अत: मिट्टी से ही हाथ धोना चाहिए और बाद में पैरों को भी तीन बार मिट्टी लगाकर धोना चाहिए क्योंकि शौच जाने के बाद तत्काल थोड़ी सी उष्णता उत्पन्न हो जाती है, वह तलवे को धोने से जाती रहती है और उदर ठीक रीति से रहता है। मूत्रत्याग के पश्चात् ठण्ढे जल से इन्द्रिय धोना कहा गया है कारण यह है कि मूत्र अत्यन्त पित्तप्रधान होने के कारण उसमें विषैली वस्तुएं रहती हैं और धोती आदि में यदि मूत्र बिन्दु रह गये, तो अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ठण्डे जल से धो देने से उत्तेजना भी दूर हो जाती है तथा कीटार हो जाते हैं। एक स्थान पर कई लोगों को मू 57/27 चाहिए, इससे उपदंश आदि संक्रामक विकार है। क्योंकि मूत्र की धार का तारतम्य एक ही स्थान पर रहने के कारण इसके रोग वाले कीटाणु धार के सहारे एक दूसरे संक्रमित हो जाते हैं। यदि जल लेने का अभ्यास होगा, तो इस दोष का भी निवारण हो जायगा। इत्यादि आचार के विषय में अनेक प्रमाण भरे पड़े हैं। हमें अब उनकी वैज्ञानिक चर्चा करनी है। |
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| + | प्रातःस्नान |
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| + | ब्राह्म मुहूर्त में जागरण के विषय में शास्त्र का प्रमाण दिया ही जा चुका है। अब प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। इसमें वैज्ञानिक विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय गणों का लाभ उठा सकेगा। |
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| == वस्त्रधारण एवं भस्मादि तिलक धारण विधि। == | | == वस्त्रधारण एवं भस्मादि तिलक धारण विधि। == |