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महर्षि वशिष्ठ लिखते हैं कि-<blockquote>आचारः परमोधर्मः सर्वेषामिति निश्चयः । हीनाचार परीतात्मा प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ <ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।१) पृ०४६२।</ref></blockquote>अर्थात् यह निश्चय है कि आचार ही सबका परम धर्म है आचार भ्रष्ट मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों में नष्ट होता है।  
 
महर्षि वशिष्ठ लिखते हैं कि-<blockquote>आचारः परमोधर्मः सर्वेषामिति निश्चयः । हीनाचार परीतात्मा प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ <ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।१) पृ०४६२।</ref></blockquote>अर्थात् यह निश्चय है कि आचार ही सबका परम धर्म है आचार भ्रष्ट मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों में नष्ट होता है।  
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काशी खण्ड में भी कहा गया है कि-<blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः ।आचाराद्वर्द्धते ह्मायु राचारात् पाप संक्षयः। ।</blockquote>अर्थात् प्राचार परम धर्म है, आचार परम तप है, आचार से आयु की वृद्धि तथा पाप का नाश होता है।<blockquote>आचार हीनं न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीता सहषड्भिरंगैः। छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव ताप तप्ताः।<ref>(अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।३) पृ०४६१।</ref></blockquote>आचार हीन व्यक्ति यदि सांगोपांग वेदों का विद्वान् भी है तो वेद उसको पवित्र नहीं कर सकते और वैदिक ऋचायें भी उसे अन्तकाल में इसी प्रकार त्याग देती हैं जैसे अग्नि के ताप से तप्त घोंसले को पक्षी त्याग देते हैं।<blockquote>आचारात् फलते धर्ममाचारात् फलते धनम् । आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।<ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।७) पृ०४६१।</ref></blockquote>इसके अतिरिक्त दुराचारी मनुष्य लोक में निन्दित, दु:ख का भागी, रोग ग्रस्त और अल्पायु होता है। सदाचार का फल धर्म है, सदाचार का फल धन है, सदाचार से श्री की प्राप्ति होती है तथा सदाचार कुलक्षणों को नाश करता है। <blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः।आचारः परमं ज्ञानं आचारात् कि न साध्यते ॥   आचाराद् विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।आचारेण समायुक्तः सम्पूर्णफलभाग् भवेत् ॥</blockquote>यः स्वाचारपरिभ्रष्टः साङ्गवेदान्तगोऽपि चेत् ।स एव पतितो ज्ञेयो सर्वकर्मबहिष्कृतः॥  
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काशी खण्ड में भी कहा गया है कि-<blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः ।आचाराद्वर्द्धते ह्मायु राचारात् पाप संक्षयः। ।</blockquote>अर्थात् प्राचार परम धर्म है, आचार परम तप है, आचार से आयु की वृद्धि तथा पाप का नाश होता है।<blockquote>आचार हीनं न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीता सहषड्भिरंगैः। छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव ताप तप्ताः।<ref>(अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।३) पृ०४६१।</ref></blockquote>आचार हीन व्यक्ति यदि सांगोपांग वेदों का विद्वान् भी है तो वेद उसको पवित्र नहीं कर सकते और वैदिक ऋचायें भी उसे अन्तकाल में इसी प्रकार त्याग देती हैं जैसे अग्नि के ताप से तप्त घोंसले को पक्षी त्याग देते हैं।<blockquote>आचारात् फलते धर्ममाचारात् फलते धनम् । आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।<ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।७) पृ०४६१।</ref></blockquote>इसके अतिरिक्त दुराचारी मनुष्य लोक में निन्दित, दु:ख का भागी, रोग ग्रस्त और अल्पायु होता है। सदाचार का फल धर्म है, सदाचार का फल धन है, सदाचार से श्री की प्राप्ति होती है तथा सदाचार कुलक्षणों को नाश करता है। <blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः।आचारः परमं ज्ञानं आचारात् कि न साध्यते ॥ </blockquote><blockquote>आचाराद् विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।आचारेण समायुक्तः सम्पूर्णफलभाग् भवेत् ॥</blockquote><blockquote>यः स्वाचारपरिभ्रष्टः साङ्गवेदान्तगोऽपि चेत् ।स एव पतितो ज्ञेयो सर्वकर्मबहिष्कृतः॥</blockquote>आचार ही सर्वोत्तम धर्म है, आचार ही सर्वोत्तम तप है, आचार ही सर्वोत्तम ज्ञान है, यदि आचारका पालन हो तो असाध्य क्या है! अर्थात कुछ भी नहीं। शास्त्रोमें आचारका ही सर्वप्रथम उपदेश ( निर्देशन ) हुआ है । धर्म भी आचारसे ही उत्पन्न है ( अर्थात् ) आचार ही धर्मका माता-पिता है और एकमात्र ईश्वर ही धर्मका स्वामी है । इस प्रकार आचार स्वयं ही परमेश्वर सिद्ध होता है। एक ब्राह्मण जो आचारसे च्युत हो गया है,वह वेदोंके फलकी प्राप्तिसे वञ्चित हो जाता है, चाहे वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् ही क्यो न हो, किंतु जो आचारका पालन करता है, वह सबका फल प्राप्त कर लेता है ।
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आचार ही सर्वोत्तम धर्म है, आचार ही सर्वोत्तम तप है, आचार ही सर्वोत्तम ज्ञान है, यदि आचारका पालन हो तो असाध्य क्या है! अर्थात कुछ भी नहीं। शास्त्रोमें आचारका ही सर्वप्रथम उपदेश ( निर्देशन ) हुआ है धर्म भी आचारसे ही उत्पन्न है ( अर्थात् ) आचार ही धर्मका माता-पिता है और एकमात्र ईश्वर ही धर्मका स्वामी है इस प्रकार आचार स्वयं ही परमेश्वर सिद्ध होता है। एक ब्राह्मण जो आचारसे च्युत हो गया है,वह वेदोंके फलकी प्राप्तिसे वञ्चित हो जाता है, चाहे वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् ही क्यो हो, किंतु जो आचारका पालन करता है, वह सबका फल प्राप्त कर लेता है ।
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== परिचय ==
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मानवके विधिबोधित क्रिया-कलापोंको आचारके नामसे सम्बोधित किया जाता है।आचार-पद्धति ही सदाचार या शिष्टाचार कहलाती है। मनीषियोंने पवित्र और सात्त्विक आचारको ही धर्मका मूल बताया है-<blockquote>धर्ममूलमिदं स्मृतम्।</blockquote>धर्मका मूल श्रुति- स्मृतिमूलक आचार ही है इतना ही नहीं, षडङ्ग-वेदज्ञानी भी यदि आचारसे हीन हो तो वेद भी उसे पवित्र नहीं बनाते- <blockquote>आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः।</blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च । तस्मादेतत्समायुक्तं गृह्णीयादात्मनो द्विजः ॥।
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आचारालभ्यते पूजा आचारालभ्यते प्रजा आचारादनमक्षय्यं तदाचारस्य लक्षणम् ।।
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आचारात्प्राप्यते स्वर्ग आचारात्प्राप्यते सुखम् आचारात्माप्यते मोक्ष भाचाराकिं लभ्यते ॥
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== परिचय ==
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तस्मात्चतुर्णामपि वर्णानामाचारो धर्मपालनम् । आचारस्रष्टदेहानां भवेद्धर्मः परामुखः ।।
मानवके विधिबोधित क्रिया-कलापोंको आचारके नामसे सम्बोधित किया जाता है।आचार-पद्धति ही सदाचार या शिष्टाचार कहलाती है। मनीषियोंने पवित्र और सात्त्विक आचारको ही धर्मका मूल बताया है-<blockquote>धर्ममूलमिदं स्मृतम्।</blockquote>धर्मका मूल श्रुति- स्मृतिमूलक सदाचार ही है।
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इतना ही नहीं, षडङ्ग-वेदज्ञानी भी यदि आचारसे हीन हो तो वेद भी उसे पवित्र नहीं बनाते-<blockquote>आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः।</blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च । तस्मादेतत्समायुक्तं गृह्णीयादात्मनो द्विजः । आचारालभ्यते पूजा आचारालभ्यते प्रजा । आचारादनमक्षय्यं तदाचारस्य लक्षणम् ।। आचारात्प्राप्यते स्वर्ग आचारात्प्राप्यते सुखम् । आचारात्माप्यते मोक्ष भाचाराकिं न लभ्यते ॥ तस्मात्चतुर्णामपि वर्णानामाचारो धर्मपालनम् । आचारस्रष्टदेहानां भवेद्धर्मः परामुखः ।। दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः । दुःखभोगी च सततं रोगी चाल्पायुषी भवेत् ।। दक्षः
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दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः । दुःखभोगी च सततं रोगी चाल्पायुषी भवेत् ।। दक्षः
    
आचार आयुकी वृद्धि करता है, आचारसे इच्छित संतानकी प्राप्ति होती है, वह शाश्वत एवं असीम धन देता है और दोष-दुर्लक्षणोंको भी दूर कर देता है । जो आचारसे भ्रष्ट हो गया है, वह चाहे सभी अङ्गों- सहित वेद-वेदान्तका पारगामी क्यो न हो, उसे पतित तथा सभी कर्मोंसे बहिष्कृत समझना चाहिये ।
 
आचार आयुकी वृद्धि करता है, आचारसे इच्छित संतानकी प्राप्ति होती है, वह शाश्वत एवं असीम धन देता है और दोष-दुर्लक्षणोंको भी दूर कर देता है । जो आचारसे भ्रष्ट हो गया है, वह चाहे सभी अङ्गों- सहित वेद-वेदान्तका पारगामी क्यो न हो, उसे पतित तथा सभी कर्मोंसे बहिष्कृत समझना चाहिये ।
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== ब्राह्ममुहूर्त में जागरण। ==
 
== ब्राह्ममुहूर्त में जागरण। ==
 
{{Main|Brahma Muhurta - Scientific Aspects (ब्राह्ममुहूर्त का वैज्ञानिक अंश)}}
 
{{Main|Brahma Muhurta - Scientific Aspects (ब्राह्ममुहूर्त का वैज्ञानिक अंश)}}
ब्राह्म-मुहूर्त सूर्योदयसे चार घड़ी (लगभग डेढ़ घंटे) पूर्व  ब्राह्ममुहूर्तमें ही जग जाना चाहिये। रातकी अन्तिम चार घड़ियोंमें पहलेकी दो घड़ियां ब्राह्ममुहूर्त नामसे और अन्तिम दो घड़िय रौद्रमुहूर्त नामसे कही जाती हैं। इनमें ब्राह्ममुहूर्तमें ही शय्य त्याग कहा गया है।
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ब्राह्म-मुहूर्त सूर्योदयसे चार घड़ी (लगभग डेढ़ घंटे) पूर्व  ब्राह्ममुहूर्तमें ही जग जाना चाहिये। रातकी अन्तिम चार घड़ियोंमें पहलेकी दो घड़ियां ब्राह्ममुहूर्त नामसे और अन्तिम दो घड़ियां रौद्रमुहूर्त नामसे कही जाती हैं। इनमें ब्राह्ममुहूर्तमें ही शय्या त्याग कहा गया है।
    
इस समय सोना शास्त्रमें निषिद्ध है-<blockquote>ब्राह्मे मुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी।  </blockquote>जैसे कल्पका प्रारम्भ ब्रह्माके दिनका प्रारम्भ होता है, उसीसमय ब्रह्माका दीर्घनिद्रामें विश्रान्त हुई सृष्टि के निर्माण एवं उत्थानका काल होता है। ज्ञानरूप वेदका प्राकट्यकाल भी वही होता है, उत्तम ज्ञानवाली एवं शुद्ध-मेधावती ऋषि-सृष्टि भी तभी होती है, सत्त्वयुग वा सत्ययुग भी तभी होता है; धार्मिक प्रजा भी उसी प्रारम्भिक कालमें होती है, यह काल भी वैसा ही होता है।उसी ब्राह्मदिनका संक्षिप्त संस्करण यह 'ब्राह्ममुहूर्त' होता है। यह भी सत्सृष्टि-निर्माणका प्रतिनिधि होनेसे सृष्टिका सचमुच निर्माण ही करता है। अपने निर्माण कार्यमें इस ब्राह्ममुहूर्तका उपयोग लेना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। इसके उपयोगसे हमें ऐहलौकिक-अभ्युदय एवं पारलौकिक-निःश्रेयस प्राप्त होकर सर्वाङ्गीण धर्मलाभ सम्भव हो जाता है।ढाई घड़ीका एक घंटा होता है।
 
इस समय सोना शास्त्रमें निषिद्ध है-<blockquote>ब्राह्मे मुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी।  </blockquote>जैसे कल्पका प्रारम्भ ब्रह्माके दिनका प्रारम्भ होता है, उसीसमय ब्रह्माका दीर्घनिद्रामें विश्रान्त हुई सृष्टि के निर्माण एवं उत्थानका काल होता है। ज्ञानरूप वेदका प्राकट्यकाल भी वही होता है, उत्तम ज्ञानवाली एवं शुद्ध-मेधावती ऋषि-सृष्टि भी तभी होती है, सत्त्वयुग वा सत्ययुग भी तभी होता है; धार्मिक प्रजा भी उसी प्रारम्भिक कालमें होती है, यह काल भी वैसा ही होता है।उसी ब्राह्मदिनका संक्षिप्त संस्करण यह 'ब्राह्ममुहूर्त' होता है। यह भी सत्सृष्टि-निर्माणका प्रतिनिधि होनेसे सृष्टिका सचमुच निर्माण ही करता है। अपने निर्माण कार्यमें इस ब्राह्ममुहूर्तका उपयोग लेना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। इसके उपयोगसे हमें ऐहलौकिक-अभ्युदय एवं पारलौकिक-निःश्रेयस प्राप्त होकर सर्वाङ्गीण धर्मलाभ सम्भव हो जाता है।ढाई घड़ीका एक घंटा होता है।
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==== आयुर्वेदीय लाभ ====
 
==== आयुर्वेदीय लाभ ====
ब्राह्ममुहूर्त में जागरण के अनन्तर जल पीने के आयुर्वेदीय लाभ- अंजलि (लगभग १ गिलास) रात्रि में ताम्र पात्र में रखा पानी पीता है और ऐसा नियमपूर्वक करता है वह जरा-वृद्धत्व को सहज प्राप्त नहीं होकर, आरोग्य लाभ प्राप्त करते शतायु होने का गुण लाभ प्राप्त करता है।
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ब्राह्ममुहूर्त में जागरण के अनन्तर जल पीने के आयुर्वेदीय लाभ-आठ अंजलि (लगभग १ गिलास) रात्रि में ताम्र पात्र में रखा पानी पीता है और ऐसा नियमपूर्वक करता है वह जरा-वृद्धत्व को सहज प्राप्त नहीं होकर, आरोग्य लाभ प्राप्त करते शतायु होने का गुण लाभ प्राप्त करता है।
    
भाव प्रकाश में स्पष्ट उल्लेख है कि-<blockquote>सवितुरूदयकाले प्रसृतिः सलिलस्य य: पिवेदष्टौ।रोगजरापरिमुक्तो जीवेद्वत्सरशतं साग्रम् ॥ </blockquote><blockquote>अम्भसः प्रसृतोरष्टौ सूर्याऽनुदिते पिबेत् । वातपित्तकफान् जित्वा जीवेद्वर्षशतं सुखी॥</blockquote>भावार्थ- यह कि सूर्योदय पूर्व में जल की आठ अंजलि जो मनुष्य पीता है, वह वृद्धावस्था से मुक्त होकर सौ  वर्ष तक जीता है। सूर्योदय पूर्व जलपान से वात-पित्त-कफ विकृति दूर होकर शतायु का वरदान प्राप्त होता है।साथ ही उष: पान विधान से बवासीर-कोष्ठबद्धता, कब्ज, शोथ, संग्रहणी, ज्वर, जठर, जरा, कुष्ठ, मेद विकार, मूत्राघात, रक्तपत्ति, कर्णविकार, गलरोग, शिरारोग, कटिशूल, नेत्र रोगों का पलायन होता है।
 
भाव प्रकाश में स्पष्ट उल्लेख है कि-<blockquote>सवितुरूदयकाले प्रसृतिः सलिलस्य य: पिवेदष्टौ।रोगजरापरिमुक्तो जीवेद्वत्सरशतं साग्रम् ॥ </blockquote><blockquote>अम्भसः प्रसृतोरष्टौ सूर्याऽनुदिते पिबेत् । वातपित्तकफान् जित्वा जीवेद्वर्षशतं सुखी॥</blockquote>भावार्थ- यह कि सूर्योदय पूर्व में जल की आठ अंजलि जो मनुष्य पीता है, वह वृद्धावस्था से मुक्त होकर सौ  वर्ष तक जीता है। सूर्योदय पूर्व जलपान से वात-पित्त-कफ विकृति दूर होकर शतायु का वरदान प्राप्त होता है।साथ ही उष: पान विधान से बवासीर-कोष्ठबद्धता, कब्ज, शोथ, संग्रहणी, ज्वर, जठर, जरा, कुष्ठ, मेद विकार, मूत्राघात, रक्तपत्ति, कर्णविकार, गलरोग, शिरारोग, कटिशूल, नेत्र रोगों का पलायन होता है।
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==== निष्कर्ष ====
 
==== निष्कर्ष ====
* वातावरण सात्त्विकता  एवं  शुद्ध वायु (आक्सिजन गैस)
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* वातावरण की सात्त्विकता  एवं  शुद्ध वायु की प्राप्ति (आक्सिजन गैस)
 
* सूर्य शक्ति का अवलम्बन  
 
* सूर्य शक्ति का अवलम्बन  
* मस्तिष्क शुद्ध तथा शान्त एवं नवशक्तियुक्त हो(मानसिक लाभ)
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* मस्तिष्क का शुद्ध तथा शान्त एवं नवशक्तियुक्त होना(मानसिक लाभ)
 
* आयुर्वेदीय लाभ (जल पान आदि से शारीरिक लाभ)
 
* आयुर्वेदीय लाभ (जल पान आदि से शारीरिक लाभ)
  
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