| परन्तु व्यवहार जगत में व्यक्ति अकेला नहीं होता, अकेला रह भी नहीं सकता । उसे दूसरों के साथ रहना है । साथ रहने के लिये लेनदेन का व्यवहार करना ही होता है, दूसरों का काम करना होता है, दूसरों से काम लेना भी होता _है। तब स्वायत्तता और स्वतन्त्रता का क्या होगा ? | | परन्तु व्यवहार जगत में व्यक्ति अकेला नहीं होता, अकेला रह भी नहीं सकता । उसे दूसरों के साथ रहना है । साथ रहने के लिये लेनदेन का व्यवहार करना ही होता है, दूसरों का काम करना होता है, दूसरों से काम लेना भी होता _है। तब स्वायत्तता और स्वतन्त्रता का क्या होगा ? |
− | इस प्रश्न का समाधान खोजते खोजते भारत ने कुटुम्ब व्यवस्था बनाई । कुटुम्ब व्यवस्था का, केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । कुटुम्ब में सब साथ रहते हैं और साथ साथ काम करते हैं। कुटुम्ब में व्यक्ति दूसरों का काम करता है और उसका काम दूसरा कोई करता है। फिर व्यक्ति की स्वतन्त्रता और स्वायतत्ता का क्या होगा ? इस के लिये समाधान यह है कि कुटुम्ब में पहले अपनापन होता है, बाद में एकदूसरे का काम करना होता है। कुटुम्ब में सब एक होते हैं, एकदूसरे के होते हैं । यहाँ सब का काम सब करते हैं । कोई एक व्यक्ति दूसरे का काम, दूसरे की इच्छा के अनुसार काम कब करता है ? भारत में सिखाया जाता है कि भय, स्वार्थ, लालच, विवशता से दूसरे का काम न करो परन्तु आदर, स्नेह, श्रद्धा, दया से दूसरों का काम अवश्य करो । इसे ही सेवा कहा गया है। इस सूत्र से ही मातापिता की, गुरु की, सन्त की, रुग्ण की, अनाथ और अपाहिज की, शिशु की सेवा करना कर्तव्य बताया गया है और किसी के दबाव में आकर, अपना स्वार्थ साधने के लिये, दीन बनकर, धूर्त बनकर किसी का काम करने को त्याज्य बताया गया है। इसलिये अर्थार्जन के क्षेत्र में नौकरी को कभी भी प्रतिष्ठा नहीं मिली है। विवशता अथवा गुलामी का ही दूसरा नाम नौकरी है। नौकरी को सेवा कहना सेवा शब्द की अवमानना है। अर्थार्जन के लिये व्यक्ति नहीं अपितु कुटुम्ब साथ मिलकर काम करता है। कामकाज के क्षेत्र में नौकरी नहीं अपितु परस्परावलम्बिता, परस्परपरकता, परस्पर सहयोग आधारभूत तत्व है। उदाहरण के लिये किसी की बड़ी खेती है तब प्रथम तो किसान अधिक भाई और बेटे चाहता है ताकि काम पूरा हो सके । परन्तु फिर भी व्यक्ति कम पड रहे हैं तो अपने भतीजें आदि को काम में सहयोगी बनने के लिये बुलाता है। भतीजा कुटुम्ब का ही सदस्य है। यदि कुटुम्बीजन के अलावा और किसी को बुलाने की आवश्यकता पड़ती है तब उसे भागीदारी पर बुलाया जाता _है, मजदूर के रूप में नहीं। वह सहभागी होता है, नौकर नहीं। | + | इस प्रश्न का समाधान खोजते खोजते भारत ने कुटुम्ब व्यवस्था बनाई । कुटुम्ब व्यवस्था का, केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । कुटुम्ब में सब साथ रहते हैं और साथ साथ काम करते हैं। कुटुम्ब में व्यक्ति दूसरों का काम करता है और उसका काम दूसरा कोई करता है। फिर व्यक्ति की स्वतन्त्रता और स्वायतत्ता का क्या होगा ? इस के लिये समाधान यह है कि कुटुम्ब में पहले अपनापन होता है, बाद में एकदूसरे का काम करना होता है। कुटुम्ब में सब एक होते हैं, एकदूसरे के होते हैं । यहाँ सब का काम सब करते हैं । कोई एक व्यक्ति दूसरे का काम, दूसरे की इच्छा के अनुसार काम कब करता है ? भारत में सिखाया जाता है कि भय, स्वार्थ, लालच, विवशता से दूसरे का काम न करो परन्तु आदर, स्नेह, श्रद्धा, दया से दूसरों का काम अवश्य करो । इसे ही सेवा कहा गया है। इस सूत्र से ही मातापिता की, गुरु की, सन्त की, रुग्ण की, अनाथ और अपाहिज की, शिशु की सेवा करना कर्तव्य बताया गया है और किसी के दबाव में आकर, अपना स्वार्थ साधने के लिये, दीन बनकर, धूर्त बनकर किसी का काम करने को त्याज्य बताया गया है। इसलिये अर्थार्जन के क्षेत्र में नौकरी को कभी भी प्रतिष्ठा नहीं मिली है। विवशता अथवा गुलामी का ही दूसरा नाम नौकरी है। नौकरी को सेवा कहना सेवा शब्द की अवमानना है। अर्थार्जन के लिये व्यक्ति नहीं अपितु कुटुम्ब साथ मिलकर काम करता है। कामकाज के क्षेत्र में नौकरी नहीं अपितु परस्परावलम्बिता, परस्परपरकता, परस्पर सहयोग आधारभूत तत्व है। उदाहरण के लिये किसी की बड़ी खेती है तब प्रथम तो किसान अधिक भाई और बेटे चाहता है ताकि काम पूरा हो सके । परन्तु तथापि व्यक्ति कम पड रहे हैं तो अपने भतीजें आदि को काम में सहयोगी बनने के लिये बुलाता है। भतीजा कुटुम्ब का ही सदस्य है। यदि कुटुम्बीजन के अलावा और किसी को बुलाने की आवश्यकता पड़ती है तब उसे भागीदारी पर बुलाया जाता _है, मजदूर के रूप में नहीं। वह सहभागी होता है, नौकर नहीं। |
| स्वायत्त समाज में अर्थार्जन के क्षेत्र में भी कुटुम्बों को, भिन्न भिन्न व्यवसायों को साथ मिलकर ही काम करना होता है। तब भी परस्परावलम्बिता, परस्परपूरकता, सहभागिता और आत्मीयता के आधार पर रचना बनती है । मुख्य बात यह होती है कि श्रम और काम की प्रतिष्ठा होती है और श्रम और काम करनेवाला अपने श्रम और काम का मालिक होता है। | | स्वायत्त समाज में अर्थार्जन के क्षेत्र में भी कुटुम्बों को, भिन्न भिन्न व्यवसायों को साथ मिलकर ही काम करना होता है। तब भी परस्परावलम्बिता, परस्परपूरकता, सहभागिता और आत्मीयता के आधार पर रचना बनती है । मुख्य बात यह होती है कि श्रम और काम की प्रतिष्ठा होती है और श्रम और काम करनेवाला अपने श्रम और काम का मालिक होता है। |
− | धार्मिक समाज को संगठित रखनेवाली व्यवस्थायें थीं वर्ण व्यवस्था, जातिव्यवस्था, [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमव्यवस्था]] और परिवारव्यवस्था । इनमें परिवारव्यवस्था केन्द्र में थी और सबका आश्रय थी। आज आश्रम व्यवस्था को नाम से भी नई पीढी जानती नहीं है। आश्रम के नाम पर ऋषिमुनियों के आश्रम ही कल्पना में आते हैं, कदाचित वे भी परिचित नहीं हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम की कल्पना ही नहीं रही। वर्ण और जाति बहुत बदनाम हो गये हैं यद्यपि यह कहना चाहिये कि वे बदनामी के जितने लायक थे उससे कई गुना अधिक बदनाम हो गये हैं। परिवारव्यवस्था का अस्तित्व आज है परन्तु उस पर बहुत अधिक पश्चिमी प्रभाव है। समाजव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जाने से धर्म और संस्कृति, शिक्षा और अर्थार्जन, दायित्वबोध और देशभक्ति अनाश्रित बन गये हैं। इन आधारों की चिन्ता किये बिना समाज व्यवस्थित नहीं हो सकता और जब तक समाज व्यवस्थित नहीं होता, शिक्षा धार्मिक नहीं बन सकती। | + | धार्मिक समाज को संगठित रखनेवाली व्यवस्थायें थीं [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]]]], [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]], [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमव्यवस्था]] और परिवारव्यवस्था । इनमें परिवारव्यवस्था केन्द्र में थी और सबका आश्रय थी। आज आश्रम व्यवस्था को नाम से भी नई पीढी जानती नहीं है। आश्रम के नाम पर ऋषिमुनियों के आश्रम ही कल्पना में आते हैं, कदाचित वे भी परिचित नहीं हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम की कल्पना ही नहीं रही। वर्ण और जाति बहुत बदनाम हो गये हैं यद्यपि यह कहना चाहिये कि वे बदनामी के जितने लायक थे उससे कई गुना अधिक बदनाम हो गये हैं। परिवारव्यवस्था का अस्तित्व आज है परन्तु उस पर बहुत अधिक पश्चिमी प्रभाव है। समाजव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जाने से धर्म और संस्कृति, शिक्षा और अर्थार्जन, दायित्वबोध और देशभक्ति अनाश्रित बन गये हैं। इन आधारों की चिन्ता किये बिना समाज व्यवस्थित नहीं हो सकता और जब तक समाज व्यवस्थित नहीं होता, शिक्षा धार्मिक नहीं बन सकती। |
| वर्ण और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और | | वर्ण और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और |