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| # सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट ऍंड एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक.. बलवान ही जियेगा। बलवानों की आवश्यकता के अनुसार ही, दुर्बल कितना और कैसे जियेगा यह बलवान तय करेगा। पाश्चात्य विचार से राजा सर्वशक्तिमान होता है। उस के हित की व्यवस्थाएं ही वह निर्माण करेगा और चलने देगा। जनमत का आक्रोश सीमा से अधिक न बढे इतना राजा देखेगा। आज राजा यह व्यवस्था नहीं है। उस का स्थान प्रजातंत्र ने लिया है। अब प्रजातांत्रिक ढंग से या किसी भी तंत्र से जो चुनाव जीतेगा वह सर्वसत्ताधीश होगा। इस सरकार पर बलवानों का अंकुश रहता है। फिर वह बल धन का हो, सत्ता का हो, माफिया गुंडाशक्ति का हो, चतुराई का हो या एकगठ्ठा मतों का हो। इसलिये अर्थव्यवस्था बलवानों के लिये चलती है। हाल ही में पाश्चात्य जगत पर भीषण आर्थिक संकट आया था। बड़ी बड़ी कंपनियों के लोभ के कारण यह संकट निर्माण हुआ था। किंतु उसका नुकसान किसी बलवान को नहीं सामान्य करदाता को ही भुगतना पडा था। सहकारी संस्थाएं इसी आर्थिक क्षेत्र का एक घटक होने से इस घटिया अर्थशास्त्र के सभी घटिया लक्षण वर्तमान सहकारिता के क्षेत्र में भी दिखाई देते है। इस में सर्वाधिकार उन्हे प्राप्त होते है जो ५१ या अधिक प्रतिशत मतों के स्वामी होते है। वह व्यक्ति हो, इस बात की सम्भावनाएँ बहुत कम होती है। इस बहुमत की अमर्याद सत्ता ही इस सहकारी इकाई में चलती है। सहकारी शकर कारखानों के लिये काम करने वाले दुर्बल मजदूर और किसानों का शोषण सरे आम होता है। इसमें गलाकाट स्पर्धा है। इस में अमीर और गरीबों की बढती खाई है। इस में काले धन के निर्माण और भ्रष्टाचार की अपार सम्भावनाएँ हैं। इस में, मायनार्ड केन्स के कहने के अनुसार लोभ को ही भगवान माना जाता है। और सामान्य मानव का हित शायद कभी कभी गौण उत्पाद के रूप में प्रकट होता है (लेट ग्रीड बी अवर गॉड एन्ड द ह्यूमन वेलफेयर विल कम आऊट ऍज ए बायप्रॉडक्ट - मायनार्ड केन्स) | | # सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट ऍंड एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक.. बलवान ही जियेगा। बलवानों की आवश्यकता के अनुसार ही, दुर्बल कितना और कैसे जियेगा यह बलवान तय करेगा। पाश्चात्य विचार से राजा सर्वशक्तिमान होता है। उस के हित की व्यवस्थाएं ही वह निर्माण करेगा और चलने देगा। जनमत का आक्रोश सीमा से अधिक न बढे इतना राजा देखेगा। आज राजा यह व्यवस्था नहीं है। उस का स्थान प्रजातंत्र ने लिया है। अब प्रजातांत्रिक ढंग से या किसी भी तंत्र से जो चुनाव जीतेगा वह सर्वसत्ताधीश होगा। इस सरकार पर बलवानों का अंकुश रहता है। फिर वह बल धन का हो, सत्ता का हो, माफिया गुंडाशक्ति का हो, चतुराई का हो या एकगठ्ठा मतों का हो। इसलिये अर्थव्यवस्था बलवानों के लिये चलती है। हाल ही में पाश्चात्य जगत पर भीषण आर्थिक संकट आया था। बड़ी बड़ी कंपनियों के लोभ के कारण यह संकट निर्माण हुआ था। किंतु उसका नुकसान किसी बलवान को नहीं सामान्य करदाता को ही भुगतना पडा था। सहकारी संस्थाएं इसी आर्थिक क्षेत्र का एक घटक होने से इस घटिया अर्थशास्त्र के सभी घटिया लक्षण वर्तमान सहकारिता के क्षेत्र में भी दिखाई देते है। इस में सर्वाधिकार उन्हे प्राप्त होते है जो ५१ या अधिक प्रतिशत मतों के स्वामी होते है। वह व्यक्ति हो, इस बात की सम्भावनाएँ बहुत कम होती है। इस बहुमत की अमर्याद सत्ता ही इस सहकारी इकाई में चलती है। सहकारी शकर कारखानों के लिये काम करने वाले दुर्बल मजदूर और किसानों का शोषण सरे आम होता है। इसमें गलाकाट स्पर्धा है। इस में अमीर और गरीबों की बढती खाई है। इस में काले धन के निर्माण और भ्रष्टाचार की अपार सम्भावनाएँ हैं। इस में, मायनार्ड केन्स के कहने के अनुसार लोभ को ही भगवान माना जाता है। और सामान्य मानव का हित शायद कभी कभी गौण उत्पाद के रूप में प्रकट होता है (लेट ग्रीड बी अवर गॉड एन्ड द ह्यूमन वेलफेयर विल कम आऊट ऍज ए बायप्रॉडक्ट - मायनार्ड केन्स) |
| # फाईट फॉर सर्व्हायव्हल एन्ड फाईट फॉर राईट्स् : जीना है तो संघर्ष करना ही पडेगा। लेकिन प्रत्यक्ष में केवल जीने तक यह संघर्ष नहीं रहता। औरों का जीना दुष्वार करने तक यह आगे बढता है। स्पर्धा सामान्य स्तर की नहीं होती। वह गलाकाट ही होती है। जहाँ एक-दूसरे का गला काटना संभव नहीं होता वहाँ ऐसे दो बलवान इकट्ठे आकर अन्य दुर्बलों का गला काटते है। रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार यह बातें सहकार के क्षेत्र में भी सामान्य हो गईं है। | | # फाईट फॉर सर्व्हायव्हल एन्ड फाईट फॉर राईट्स् : जीना है तो संघर्ष करना ही पडेगा। लेकिन प्रत्यक्ष में केवल जीने तक यह संघर्ष नहीं रहता। औरों का जीना दुष्वार करने तक यह आगे बढता है। स्पर्धा सामान्य स्तर की नहीं होती। वह गलाकाट ही होती है। जहाँ एक-दूसरे का गला काटना संभव नहीं होता वहाँ ऐसे दो बलवान इकट्ठे आकर अन्य दुर्बलों का गला काटते है। रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार यह बातें सहकार के क्षेत्र में भी सामान्य हो गईं है। |
− | # फ्रॅगमेंटेड ऍप्रोच ऍंड मटेरियलिस्टिक व्ह्यू. किसी भी बात का विचार करते समय उसे टुकडों में बाँटकर विचार करना। और यह टुकड़े जड़ पदार्थ हैं ऐसी मान्यता है। प्रकृति का और मेरा संबंध, प्रकृति भोगने की वस्तू है और मैं भोगनेवाला हूं, इतना ही है। इसलिये सहकारी तत्व पर चलने वाले उद्योगों और अन्य उद्योगों में प्रकृति प्रदूषण के मामले में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। सभी शकर कारखाने कई किलोमीटर तक दुर्गंध फ़ैलानेवाले केन्द्र बने हुए है। मानवीय और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का शोषण यह भी अन्य उद्योगों जैसा ही सहकारी उद्योगों का स्वभाव बन गया है। 'सहकारी' ऐसा नाम ना लगाते हुए भी ७०-८० वर्ष पहले धनवान लोग धर्मशालाएं बनाते थे। आज धनवान लोग, और धनी बनने के लिये हॉटेल बनाते है। अपंगाश्रम, वृध्दाश्रम, विधवाश्रम, अनाथालय आदि बनाना यह अब सरकार के लिये अनिवार्यता बन गई है। | + | # फ्रॅगमेंटेड ऍप्रोच ऍंड मटेरियलिस्टिक व्ह्यू. किसी भी बात का विचार करते समय उसे टुकडों में बाँटकर विचार करना। और यह टुकड़े जड़़ पदार्थ हैं ऐसी मान्यता है। प्रकृति का और मेरा संबंध, प्रकृति भोगने की वस्तू है और मैं भोगनेवाला हूं, इतना ही है। इसलिये सहकारी तत्व पर चलने वाले उद्योगों और अन्य उद्योगों में प्रकृति प्रदूषण के मामले में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। सभी शकर कारखाने कई किलोमीटर तक दुर्गंध फ़ैलानेवाले केन्द्र बने हुए है। मानवीय और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का शोषण यह भी अन्य उद्योगों जैसा ही सहकारी उद्योगों का स्वभाव बन गया है। 'सहकारी' ऐसा नाम ना लगाते हुए भी ७०-८० वर्ष पहले धनवान लोग धर्मशालाएं बनाते थे। आज धनवान लोग, और धनी बनने के लिये हॉटेल बनाते है। अपंगाश्रम, वृध्दाश्रम, विधवाश्रम, अनाथालय आदि बनाना यह अब सरकार के लिये अनिवार्यता बन गई है। |
| # अनलिमिटेड इंडिव्हिज्युल लिबर्टी. अर्थात् अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य। लेकिन यह केवल बलवानों के लिये है। दुर्बलों के लिये शर्तें बलवान ही तय करते है। इस तरह बलवान अधिक बलवान और दुर्बल अधिक दुर्बल होते जाते है। मुझे 'स्पेस' चाहिये। ऐसे आग्रह के चलते समाज और कुटुम्ब नष्ट हो रहे है। परस्पर सहकार्य की भावना नष्ट हो रही है। | | # अनलिमिटेड इंडिव्हिज्युल लिबर्टी. अर्थात् अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य। लेकिन यह केवल बलवानों के लिये है। दुर्बलों के लिये शर्तें बलवान ही तय करते है। इस तरह बलवान अधिक बलवान और दुर्बल अधिक दुर्बल होते जाते है। मुझे 'स्पेस' चाहिये। ऐसे आग्रह के चलते समाज और कुटुम्ब नष्ट हो रहे है। परस्पर सहकार्य की भावना नष्ट हो रही है। |
| # धिस इज द ओन्ली लाईफ. अर्थात् मेरे मरने के बाद दुनिया भले डूबे। जो कुछ है बस यही जन्म है। इसलिये प्रकृति को लूट-खसोटकर तथा दुर्बलों का शोषण कर जितना उपभोग मिल सके उतना भोगने की महत्वाकांक्षा अन्य उद्योगपतियों की ही तरह सहकारी क्षेत्र के उद्योगपतियों में भी पाई जाती है। सहकारी क्षेत्र के जाने माने नेता, एक ओर तो मंदिरों में पूजा के फोटो छपवाकर अपनी छवि को धार्मिक बनाने का प्रयास करते है वहीं दूसरी ओर सैंकड़ों/हजारों/लाखों करोड का गबन करते हुए दिखाई देते है। | | # धिस इज द ओन्ली लाईफ. अर्थात् मेरे मरने के बाद दुनिया भले डूबे। जो कुछ है बस यही जन्म है। इसलिये प्रकृति को लूट-खसोटकर तथा दुर्बलों का शोषण कर जितना उपभोग मिल सके उतना भोगने की महत्वाकांक्षा अन्य उद्योगपतियों की ही तरह सहकारी क्षेत्र के उद्योगपतियों में भी पाई जाती है। सहकारी क्षेत्र के जाने माने नेता, एक ओर तो मंदिरों में पूजा के फोटो छपवाकर अपनी छवि को धार्मिक बनाने का प्रयास करते है वहीं दूसरी ओर सैंकड़ों/हजारों/लाखों करोड का गबन करते हुए दिखाई देते है। |