Line 1: |
Line 1: |
| [[Category:Bhagavad Gita]] | | [[Category:Bhagavad Gita]] |
| [[Category:Prasthana Trayi]] | | [[Category:Prasthana Trayi]] |
| + | ॐ |
| + | श्रीपरमात्मने नमः |
| + | '''अथ पञ्चदशोऽध्यायः''' |
| + | |
| + | '''श्रीभगवानुवाच''' |
| + | |
| + | ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥१५- १॥ |
| + | |
| + | अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखागुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥१५- २॥ |
| + | |
| + | न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा । अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥१५- ३॥ |
| + | |
| + | ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः । तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥१५- ४॥ |
| + | |
| + | निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः । द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥१५- ५॥ |
| + | |
| + | न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥१५- ६॥ |
| + | |
| + | ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥१५- ७॥ |
| + | |
| + | शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः । गृहित्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥१५- ८॥ |
| + | |
| + | श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥१५- ९॥ |
| + | |
| + | उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् । विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥१५- १०॥ |
| + | |
| + | यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥१५- ११॥ |
| + | |
| + | यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥१५- १२॥ |
| + | |
| + | गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥१५- १३॥ |
| + | |
| + | अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः । प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥१५- १४॥ |
| + | |
| + | सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥१५- १५॥ |
| + | |
| + | द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१५- १६॥ |
| + | |
| + | उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥१५- १७॥ |
| + | |
| + | यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः । अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥१५- १८॥ |
| + | |
| + | यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् । स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥१५- १९॥ |
| + | |
| + | इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥१५- २०॥ |
| + | |
| + | ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥ |