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# मन को शान्त और सदगुणी बनाने में योग अत्यन्त उपयोगी है । विशेष रूप से यम, नियम, प्रत्याहार और ध्यान का विशेष महत्व है। आजकल योग विषय का भी विपर्यास हो गया है। योग को आसनों और शारीरिक व्यायाम का रूप दिया गया है, इसे एक चिकित्सा पद्धति बना दिया गया है और स्पर्धा का तथा प्रदर्शन का विषय बना दिया गया है। इस व्यवस्था को पूर्ण रूप से बदलना होगा। वातावरण में, व्यवस्था में और व्यवहार में सादगी, सुन्दरता, सात्विकता लाना आवश्यक है। यह मुद्दा गणवेश, बस्ता, बैठक व्यवस्था, भवनव्यवस्था आदि सभी आयामों को लागू है। साथ ही खानपान में सात्विकता अत्यन्त आवश्यक है । आजकल सात्विक  भोजन बिना स्वाद का होता है, केवल बीमार लोग उसे खाते हैं ऐसा माना जाता है। बच्चों की खाने पीने की आदतों की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता है। बच्चे तो क्या बड़े भी आरोग्य और संस्कार दोनों के लिये अत्यन्त हानिकारक आहार पसन्द करते हैं। केवल आहार ही नहीं, दिनचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है। जिस समय जो काम करना चाहिये, जो काम जिस प्रकार से करना चाहिये उस समय पर और उस प्रकार से करने का कोई आग्रह नहीं होता। इस बात का घोर अआज्ञान है । केवल अज्ञान ही नहीं यह तो विपरीत ज्ञान है। इसे ठीक करना चाहिये ।
 
# मन को शान्त और सदगुणी बनाने में योग अत्यन्त उपयोगी है । विशेष रूप से यम, नियम, प्रत्याहार और ध्यान का विशेष महत्व है। आजकल योग विषय का भी विपर्यास हो गया है। योग को आसनों और शारीरिक व्यायाम का रूप दिया गया है, इसे एक चिकित्सा पद्धति बना दिया गया है और स्पर्धा का तथा प्रदर्शन का विषय बना दिया गया है। इस व्यवस्था को पूर्ण रूप से बदलना होगा। वातावरण में, व्यवस्था में और व्यवहार में सादगी, सुन्दरता, सात्विकता लाना आवश्यक है। यह मुद्दा गणवेश, बस्ता, बैठक व्यवस्था, भवनव्यवस्था आदि सभी आयामों को लागू है। साथ ही खानपान में सात्विकता अत्यन्त आवश्यक है । आजकल सात्विक  भोजन बिना स्वाद का होता है, केवल बीमार लोग उसे खाते हैं ऐसा माना जाता है। बच्चों की खाने पीने की आदतों की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता है। बच्चे तो क्या बड़े भी आरोग्य और संस्कार दोनों के लिये अत्यन्त हानिकारक आहार पसन्द करते हैं। केवल आहार ही नहीं, दिनचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है। जिस समय जो काम करना चाहिये, जो काम जिस प्रकार से करना चाहिये उस समय पर और उस प्रकार से करने का कोई आग्रह नहीं होता। इस बात का घोर अआज्ञान है । केवल अज्ञान ही नहीं यह तो विपरीत ज्ञान है। इसे ठीक करना चाहिये ।
 
# मनोरंजन का क्षेत्र भीषण संकट निर्माण करने वाला बन गया है। फिल्म, धारावाहिक, नाच गाने के कार्यक्रम और विज्ञापन एक साथ मन के निम्नतर भावों को भड़काने वाले और वासनाओं को बढ़ाने वाले ही होते हैं। संयम को आवश्यक माना ही नहीं जाता है इसलिये उसकी शिक्षा भी किसी माध्यम से होती नहीं है। इस क्षेत्र पर आज साधु संतों, संन्यासियों, धर्माचार्यों, शिक्षकों या किसी भी समझदार लोगों का नियंत्रण या निर्देशन नहीं है। यह क्षेत्र केवल बाजार से निर्देशित होता है और कामोपभोग के लिये लोगों को भड़काकर पैसे बनाने का ही विचार करता है। इसका उपाय करने की आवश्यकता है।
 
# मनोरंजन का क्षेत्र भीषण संकट निर्माण करने वाला बन गया है। फिल्म, धारावाहिक, नाच गाने के कार्यक्रम और विज्ञापन एक साथ मन के निम्नतर भावों को भड़काने वाले और वासनाओं को बढ़ाने वाले ही होते हैं। संयम को आवश्यक माना ही नहीं जाता है इसलिये उसकी शिक्षा भी किसी माध्यम से होती नहीं है। इस क्षेत्र पर आज साधु संतों, संन्यासियों, धर्माचार्यों, शिक्षकों या किसी भी समझदार लोगों का नियंत्रण या निर्देशन नहीं है। यह क्षेत्र केवल बाजार से निर्देशित होता है और कामोपभोग के लिये लोगों को भड़काकर पैसे बनाने का ही विचार करता है। इसका उपाय करने की आवश्यकता है।
# कामजीवन के स्वास्थ्य हेतु केवल त्याग औरसंयम ही नहीं है। आनंद प्रमोद के सारे क्रियाकलाप हैं। शिशुअवस्था से शुरू कर बड़ी आयु तक रसिकता, सौन्दर्यबोध, उच्च और संस्कारपूर्ण रुचि और आभिजात्य का विकास करना चाहिये। आज देखा जाता है कि नृत्य, गीत, खेल आदि का रस केवल अक्रिय श्रोता या दर्शक बनकर लिया जाता है। लोग गायन सुनते हैं, गाते नहीं हैं। नाटक या खेल देखते हैं, स्वयं खेलते नहीं हैं। नृत्य देखते हैं, करते नहीं। स्वादिष्ट आहार खाते हैं, बनाते नहीं हैं। ये जब भी वे गाते या नाचते हैं तब वह अत्यन्त कुरूप और भोंडा होता है। मनोरंजन के इन क्रियाकलापों में सक्रिय होने से ही सच्ची रसिकता का विकास होता है। कल्पनाशीलता और सृजनशीलता का भी विकास होता है। मन स्वच्छ और स्वस्थ होता है और काम का उन्नयन होता है। आहार, वस्त्र, अलंकार, संगीत, नृत्य, नाटक, पर्यटन आदि में संस्कारिता होनी चाहिये। इसकी शिक्षा, सम्पूर्ण शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह शिक्षा घर में भी देनी चाहिये और विद्यालय में भी। वास्तव में इसका मुख्य केन्द्र घर है परन्तु आज घर इस शिक्षा के लिये सक्षम नहीं होने के कारण विद्यालय को घर का भी मार्गदर्शन करने का दायित्व निभाने की आवश्यकता है ।
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# कामजीवन के स्वास्थ्य हेतु केवल त्याग औरसंयम ही नहीं है। आनंद प्रमोद के सारे क्रियाकलाप हैं। शिशुअवस्था से आरम्भ कर बड़ी आयु तक रसिकता, सौन्दर्यबोध, उच्च और संस्कारपूर्ण रुचि और आभिजात्य का विकास करना चाहिये। आज देखा जाता है कि नृत्य, गीत, खेल आदि का रस केवल अक्रिय श्रोता या दर्शक बनकर लिया जाता है। लोग गायन सुनते हैं, गाते नहीं हैं। नाटक या खेल देखते हैं, स्वयं खेलते नहीं हैं। नृत्य देखते हैं, करते नहीं। स्वादिष्ट आहार खाते हैं, बनाते नहीं हैं। ये जब भी वे गाते या नाचते हैं तब वह अत्यन्त कुरूप और भोंडा होता है। मनोरंजन के इन क्रियाकलापों में सक्रिय होने से ही सच्ची रसिकता का विकास होता है। कल्पनाशीलता और सृजनशीलता का भी विकास होता है। मन स्वच्छ और स्वस्थ होता है और काम का उन्नयन होता है। आहार, वस्त्र, अलंकार, संगीत, नृत्य, नाटक, पर्यटन आदि में संस्कारिता होनी चाहिये। इसकी शिक्षा, सम्पूर्ण शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह शिक्षा घर में भी देनी चाहिये और विद्यालय में भी। वास्तव में इसका मुख्य केन्द्र घर है परन्तु आज घर इस शिक्षा के लिये सक्षम नहीं होने के कारण विद्यालय को घर का भी मार्गदर्शन करने का दायित्व निभाने की आवश्यकता है ।
 
# कला और कारीगरी का रक्षण और संवर्धन करने की महती आवश्यकता है । इस दृष्टि से छात्रों को हाथ से काम करना सिखाना और हर काम को उत्तम पद्धति से कर उत्कृष्टता के स्तर तक ले जाना सिखाना चाहिये। शिक्षा केवल पढने लिखने की और लिखित परीक्षा की नहीं होती। वह हर स्तर पर प्रायोगिक होनी चाहिये। हर व्यक्ति के हाथ कुशल कारीगर होने चाहिये। हर व्यक्ति का मन सेवाभाव से युक्त होना चाहिये । चित्तशुद्धि के लिये सेवाभाव अत्यन्त आवश्यक है। | सृजनशीलता का विकास, उत्कृष्ट निर्माणशीलता, सेवाभाव, | सृजन से प्राप्त होने वाला आनन्द काम का उन्नयन करते हैं। इसका असर समाज जीवन पर भी पड़ता है। समाज में एक प्रकार की शान्ति और सुरक्षा प्रस्थापित होती है। श्रेष्ठ समाज में संस्कारितापूर्ण समृद्धि होती है। काम पुरुषार्थ समाज को निर्धन या दरिद्र नहीं रहने देता। काम पुरुषार्थ समाज को आलसी भी नहीं रहने देता । परन्तु नियमन में रखा गया काम, समाज को संस्कारित समृद्धि और उद्यम को विनय से अलंकृत करता है।  
 
# कला और कारीगरी का रक्षण और संवर्धन करने की महती आवश्यकता है । इस दृष्टि से छात्रों को हाथ से काम करना सिखाना और हर काम को उत्तम पद्धति से कर उत्कृष्टता के स्तर तक ले जाना सिखाना चाहिये। शिक्षा केवल पढने लिखने की और लिखित परीक्षा की नहीं होती। वह हर स्तर पर प्रायोगिक होनी चाहिये। हर व्यक्ति के हाथ कुशल कारीगर होने चाहिये। हर व्यक्ति का मन सेवाभाव से युक्त होना चाहिये । चित्तशुद्धि के लिये सेवाभाव अत्यन्त आवश्यक है। | सृजनशीलता का विकास, उत्कृष्ट निर्माणशीलता, सेवाभाव, | सृजन से प्राप्त होने वाला आनन्द काम का उन्नयन करते हैं। इसका असर समाज जीवन पर भी पड़ता है। समाज में एक प्रकार की शान्ति और सुरक्षा प्रस्थापित होती है। श्रेष्ठ समाज में संस्कारितापूर्ण समृद्धि होती है। काम पुरुषार्थ समाज को निर्धन या दरिद्र नहीं रहने देता। काम पुरुषार्थ समाज को आलसी भी नहीं रहने देता । परन्तु नियमन में रखा गया काम, समाज को संस्कारित समृद्धि और उद्यम को विनय से अलंकृत करता है।  
 
# स्त्री पुरुष सम्बन्ध का क्षेत्र बहुत ध्यान देने योग्य है। आज यह विशेष चिन्ता का विषय बन गया है। बलात्कार और अनाचार की मात्रा बढ़ गई हैं। स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं और पुरुष लज्जाहीन हो गए हैं। स्त्रियाँ भी लज्जा का त्याग कर रही है। वस्त्रालंकार, प्रसाधन, अंगविन्यास, वेषभूषा, बोलचाल आदि में मर्यादा नहीं दिखाई देती है। उन्मुक्तता और स्वैराचार को ही स्वतन्त्रता कहा जाता है। इस स्थिति में मर्यादापूर्ण व्यवहार सिखाने की आवश्यकता है। स्त्रियों के प्रति देखने का पुरुषों का दृष्टिकोण और पुरुर्षों के प्रति देखने का स्त्रियों का दृष्टिकोण स्वस्थ बनाने की आवश्यकता है। समाज को टीवी चैनलों | के माध्यम से प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। बालक बालिकाओं, किशोर | किशोरियों, युवक युवतियों के परस्पर संपर्क को स्वस्थ कैसे बनाया जाये, इसकी शिक्षा उस उस स्तर के विद्यालयों और घरों में आग्रहपूर्वक देनी चाहिये । आज इस विषय में सर्वत्र उदासीनता दिखाई देती है। उसका त्याग करना चाहिये। उसके स्थान पर विनय, श्रीदाक्षिण्य (स्त्रियों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार) मर्यादा आदि की शिक्षा छात्रों को प्राप्त होनी चाहिये । पतिपत्नी के सम्बन्धों को कामुकता से मुक्त कर एकात्मता की ओर विकसित करना चाहिये। इसके अनुकूल व्यवस्थाएँ कैसी होंगी, यह भी शिक्षा का विषय है। महाविद्यालयीन शिक्षा का यह महत्त्वपूर्ण विषय बनना चाहिये ।  
 
# स्त्री पुरुष सम्बन्ध का क्षेत्र बहुत ध्यान देने योग्य है। आज यह विशेष चिन्ता का विषय बन गया है। बलात्कार और अनाचार की मात्रा बढ़ गई हैं। स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं और पुरुष लज्जाहीन हो गए हैं। स्त्रियाँ भी लज्जा का त्याग कर रही है। वस्त्रालंकार, प्रसाधन, अंगविन्यास, वेषभूषा, बोलचाल आदि में मर्यादा नहीं दिखाई देती है। उन्मुक्तता और स्वैराचार को ही स्वतन्त्रता कहा जाता है। इस स्थिति में मर्यादापूर्ण व्यवहार सिखाने की आवश्यकता है। स्त्रियों के प्रति देखने का पुरुषों का दृष्टिकोण और पुरुर्षों के प्रति देखने का स्त्रियों का दृष्टिकोण स्वस्थ बनाने की आवश्यकता है। समाज को टीवी चैनलों | के माध्यम से प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। बालक बालिकाओं, किशोर | किशोरियों, युवक युवतियों के परस्पर संपर्क को स्वस्थ कैसे बनाया जाये, इसकी शिक्षा उस उस स्तर के विद्यालयों और घरों में आग्रहपूर्वक देनी चाहिये । आज इस विषय में सर्वत्र उदासीनता दिखाई देती है। उसका त्याग करना चाहिये। उसके स्थान पर विनय, श्रीदाक्षिण्य (स्त्रियों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार) मर्यादा आदि की शिक्षा छात्रों को प्राप्त होनी चाहिये । पतिपत्नी के सम्बन्धों को कामुकता से मुक्त कर एकात्मता की ओर विकसित करना चाहिये। इसके अनुकूल व्यवस्थाएँ कैसी होंगी, यह भी शिक्षा का विषय है। महाविद्यालयीन शिक्षा का यह महत्त्वपूर्ण विषय बनना चाहिये ।  

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