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पाठ्यक्रम हमारे उद्देश्य के अनुरूप होना चाहिये यह तो सार्वत्रिक सिद्धान्त है और विश्व में मान्य है । परन्तु जिस देश के विद्यार्थियों के लिये वह बनने वाला है उस देश की जीवनदृष्टि और राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार लेना चाहिये यह भी सार्वत्रिक सिद्धान्त है । आज भारत के सन्दर्भ में इस बात का विशेष रूप से उल्लेख करना पड़ता है क्योंकि हम वैश्विकता के मोह में भारतीयता को भुलाकर ही चलते हैं । अत: प्रथम सिद्धान्त है जीवनदृष्टि के आधार पर पाठ्यक्रम निर्धारित होना ।
 
पाठ्यक्रम हमारे उद्देश्य के अनुरूप होना चाहिये यह तो सार्वत्रिक सिद्धान्त है और विश्व में मान्य है । परन्तु जिस देश के विद्यार्थियों के लिये वह बनने वाला है उस देश की जीवनदृष्टि और राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार लेना चाहिये यह भी सार्वत्रिक सिद्धान्त है । आज भारत के सन्दर्भ में इस बात का विशेष रूप से उल्लेख करना पड़ता है क्योंकि हम वैश्विकता के मोह में भारतीयता को भुलाकर ही चलते हैं । अत: प्रथम सिद्धान्त है जीवनदृष्टि के आधार पर पाठ्यक्रम निर्धारित होना ।
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दूसरा मुद्दा यह है कि पाठ्यक्रम व्यक्ति के लिये होता है परन्तु व्यक्ति को समाज, सृष्टि और देश के लिये लायक और जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिये होता है । आज हम व्यक्ति के विकास को लक्ष्य बनाकर चल रहे हैं । व्यक्ति का विकास यह प्राथमिक और व्यावहारिक लक्ष्य है परन्तु व्यक्ति के विकास को राष्ट्रीय आलंबन होना अनिवार्य है ।यह भी भारतीय जीवनदृष्टि का एक अनिवार्य हिस्सा है । पाठ्यक्रम में धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा को अनिवार्य रूप से स्थान देना चाहिये । भारत में हम जनसंख्या को उल्टी दृष्टि से देखते हैं । जनसंख्या हमें एक समस्या लगती है जबकि वह हमारे लिये मूल्यवान सम्पत्ति है । इसे समस्या मानना भी पश्चिम के प्रभाव से हमने शुरू किया है । वहाँ वह समस्या हो सकती है, हमारे लिये नहीं । हमें यंत्रों की आवश्यकता ही नहीं है क्‍योंकि प्रकृतिदत्त यंत्र मनुष्यशरीर के रूप में हमारे पास है ही । मानवशरीर को यंत्र कहना उसका अपमान नहीं है। शरीर तो यंत्र है ही । शरीर के स्थान पर निर्जीव सामग्री से बने यंत्र का प्रयोग करना इस जिंदा शरीर का अपमान है। इस शरीर रूपी यंत्र को सक्षम बनाना और उसके आधार पर उत्पादन क्षमता बढ़ाना हमारी प्रथम राष्ट्रीय आवश्यकता है। शरीर के साथ ही मनुष्य का मन प्रथम से ही ठीक करना चाहिये । तभी वह अपने दायित्वों को निभाने के लिये तत्पर भी होगा और सक्षम भी होगा । इन दो बिन्दुओं को लेकर ही धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा का स्वीकार करना चाहिये । यह बात केवल प्राथमिक शिक्षा के लिये नहीं है, उच्चशिक्षा तक यही सिद्धान्त लागू है।   
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दूसरा मुद्दा यह है कि पाठ्यक्रम व्यक्ति के लिये होता है परन्तु व्यक्ति को समाज, सृष्टि और देश के लिये लायक और जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिये होता है । आज हम व्यक्ति के विकास को लक्ष्य बनाकर चल रहे हैं । व्यक्ति का विकास यह प्राथमिक और व्यावहारिक लक्ष्य है परन्तु व्यक्ति के विकास को राष्ट्रीय आलंबन होना अनिवार्य है ।यह भी भारतीय जीवनदृष्टि का एक अनिवार्य हिस्सा है । पाठ्यक्रम में धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा को अनिवार्य रूप से स्थान देना चाहिये । भारत में हम जनसंख्या को उल्टी दृष्टि से देखते हैं । जनसंख्या हमें एक समस्या लगती है जबकि वह हमारे लिये मूल्यवान सम्पत्ति है । इसे समस्या मानना भी पश्चिम के प्रभाव से हमने आरम्भ किया है । वहाँ वह समस्या हो सकती है, हमारे लिये नहीं । हमें यंत्रों की आवश्यकता ही नहीं है क्‍योंकि प्रकृतिदत्त यंत्र मनुष्यशरीर के रूप में हमारे पास है ही । मानवशरीर को यंत्र कहना उसका अपमान नहीं है। शरीर तो यंत्र है ही । शरीर के स्थान पर निर्जीव सामग्री से बने यंत्र का प्रयोग करना इस जिंदा शरीर का अपमान है। इस शरीर रूपी यंत्र को सक्षम बनाना और उसके आधार पर उत्पादन क्षमता बढ़ाना हमारी प्रथम राष्ट्रीय आवश्यकता है। शरीर के साथ ही मनुष्य का मन प्रथम से ही ठीक करना चाहिये । तभी वह अपने दायित्वों को निभाने के लिये तत्पर भी होगा और सक्षम भी होगा । इन दो बिन्दुओं को लेकर ही धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा का स्वीकार करना चाहिये । यह बात केवल प्राथमिक शिक्षा के लिये नहीं है, उच्चशिक्षा तक यही सिद्धान्त लागू है।   
    
वर्तमान पाठ्यक्रम बहुत अधिक पुस्तकीय हो गया है। वैसे तो पाठनपद्धति उसे अधिक पुस्तकीय बना देती है तथापि हमारी परीक्षा पद्धति को देखते हुए यह बात भी सिद्ध होती है कि पाठ्यक्रम भी पुस्तकीय ही है। हमने वाचन और लेखन को इतना अधिक महत्त्व दिया है कि सारी शिक्षा साक्षरता का ही पर्याय बन गई है और साक्षरता लिखने, पढ़ने और बोलने में ही सीमित हो गई है। हम शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से आलसी और अकर्मण्य हो गए हैं और उसमें ही महत्ता मानते हैं। इसके इलाज के लिये हमें धर्मप्रधान और कर्मप्रधान पाठ्यक्रमों की आवश्यकता है।  
 
वर्तमान पाठ्यक्रम बहुत अधिक पुस्तकीय हो गया है। वैसे तो पाठनपद्धति उसे अधिक पुस्तकीय बना देती है तथापि हमारी परीक्षा पद्धति को देखते हुए यह बात भी सिद्ध होती है कि पाठ्यक्रम भी पुस्तकीय ही है। हमने वाचन और लेखन को इतना अधिक महत्त्व दिया है कि सारी शिक्षा साक्षरता का ही पर्याय बन गई है और साक्षरता लिखने, पढ़ने और बोलने में ही सीमित हो गई है। हम शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से आलसी और अकर्मण्य हो गए हैं और उसमें ही महत्ता मानते हैं। इसके इलाज के लिये हमें धर्मप्रधान और कर्मप्रधान पाठ्यक्रमों की आवश्यकता है।  

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