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| # गृहस्थाश्रम में प्रवेश के साथ उसकी गृहस्थी की शिक्षा शुरू होती है। अब वह पिता, शिक्षक या व्यवसाय के मालिक का विद्यार्थी नहीं है। ये सब उसके मार्गदर्शक हैं। अपनी शिक्षा की चिन्ता अब उसे स्वयं करनी है। | | # गृहस्थाश्रम में प्रवेश के साथ उसकी गृहस्थी की शिक्षा शुरू होती है। अब वह पिता, शिक्षक या व्यवसाय के मालिक का विद्यार्थी नहीं है। ये सब उसके मार्गदर्शक हैं। अपनी शिक्षा की चिन्ता अब उसे स्वयं करनी है। |
| # अब मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु उसके घर में बडे बुझुर्ग हैं। ये तो हमेशा साथ ही रहते हैं और नित्य उपलब्ध है। विचारविमर्श करने के लिये पत्नी है जिसकी गृहस्थी की शिक्षा उसके समान ही हुई है। क्रियात्मक अनुभव लेने के लिये घर है जहाँ उसे जिम्मेदारीपूर्वक जीना है। उसका मित्रपरिवार है जो उसके समान ही शिक्षा पूर्ण कर अब गृहस्थ बना है । विद्यालय में तथा घर में प्राप्त शिक्षा का स्मरण रखते हुए अब उसे शिक्षा को क्रियात्मक स्वरूप देना है। घर में बच्चों का जन्म होता है। उनका संगोपन करते करते वह अनुभव प्राप्त करता है। अब अपने बच्चों के लिये वह शिक्षक है । जिस प्रकार मार्गदर्शन के लिये अपने मातापिता से परामर्श करता है उसी प्रकार समय समय पर विद्यालय में भी जाता है जहाँ उसका शिक्षक वृन्द है । इस प्रकार उसकी शिक्षा का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है। इस अवस्था की शिक्षा के लिये दो प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिये । एक तो विद्यालय में पूर्व छात्र परिषद बनानी चाहिये जिसके माध्यम से विद्यालय में पढकर गये हुए विद्यार्थी निश्चित किये हुए कार्यक्रमों के माध्यम से विद्यालय में आ सकें । दूसरी समाज में भी शिक्षित लोगों की परिषद की रचना करनी चाहिये । यह उनके लिये विश्वविद्यालय का अंग ही होगा जिसमें वे आपस में अनुभवों का आदानप्रदान कर सकते हैं और एकदूसरे से सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। ये परिषदें किसी न किसी स्वरूप में विश्वविद्यालय के साथ जुडी रहेंगी। इन परिषदों का एक काम अपने विश्वविद्यालयों की आर्थिक तथा अन्य प्रकार की चिन्ता करने का भी रहेगा । जिस प्रकार वह अपने परिवारजनों के प्रति अपना दायित्व निभाता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के प्रति दायित्व भी निभायेगा । इनके माध्यम से विद्यालय भी समाज के साथ जुडा रहेगा । विद्यालय के अन्य व्यवस्थात्मक कार्यों जैसे कि सभा सम्मेलनों या परिषद के आयोजनों में वह सहभागी होता रहेगा। विद्यालय के समाज प्रबोधन कार्यक्रम में भी वह सहभागी बनेगा। वह मातापिता का पुत्र और विद्यालय का विद्यार्थी बना ही रहेगा। | | # अब मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु उसके घर में बडे बुझुर्ग हैं। ये तो हमेशा साथ ही रहते हैं और नित्य उपलब्ध है। विचारविमर्श करने के लिये पत्नी है जिसकी गृहस्थी की शिक्षा उसके समान ही हुई है। क्रियात्मक अनुभव लेने के लिये घर है जहाँ उसे जिम्मेदारीपूर्वक जीना है। उसका मित्रपरिवार है जो उसके समान ही शिक्षा पूर्ण कर अब गृहस्थ बना है । विद्यालय में तथा घर में प्राप्त शिक्षा का स्मरण रखते हुए अब उसे शिक्षा को क्रियात्मक स्वरूप देना है। घर में बच्चों का जन्म होता है। उनका संगोपन करते करते वह अनुभव प्राप्त करता है। अब अपने बच्चों के लिये वह शिक्षक है । जिस प्रकार मार्गदर्शन के लिये अपने मातापिता से परामर्श करता है उसी प्रकार समय समय पर विद्यालय में भी जाता है जहाँ उसका शिक्षक वृन्द है । इस प्रकार उसकी शिक्षा का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है। इस अवस्था की शिक्षा के लिये दो प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिये । एक तो विद्यालय में पूर्व छात्र परिषद बनानी चाहिये जिसके माध्यम से विद्यालय में पढकर गये हुए विद्यार्थी निश्चित किये हुए कार्यक्रमों के माध्यम से विद्यालय में आ सकें । दूसरी समाज में भी शिक्षित लोगों की परिषद की रचना करनी चाहिये । यह उनके लिये विश्वविद्यालय का अंग ही होगा जिसमें वे आपस में अनुभवों का आदानप्रदान कर सकते हैं और एकदूसरे से सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। ये परिषदें किसी न किसी स्वरूप में विश्वविद्यालय के साथ जुडी रहेंगी। इन परिषदों का एक काम अपने विश्वविद्यालयों की आर्थिक तथा अन्य प्रकार की चिन्ता करने का भी रहेगा । जिस प्रकार वह अपने परिवारजनों के प्रति अपना दायित्व निभाता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के प्रति दायित्व भी निभायेगा । इनके माध्यम से विद्यालय भी समाज के साथ जुडा रहेगा । विद्यालय के अन्य व्यवस्थात्मक कार्यों जैसे कि सभा सम्मेलनों या परिषद के आयोजनों में वह सहभागी होता रहेगा। विद्यालय के समाज प्रबोधन कार्यक्रम में भी वह सहभागी बनेगा। वह मातापिता का पुत्र और विद्यालय का विद्यार्थी बना ही रहेगा। |
− | # वह प्रौढ अवस्था का होता है तब उसके दो प्रकार के शिक्षक होंगे । एक होंगे ग्रन्थ जिनका स्वाध्याय उसे करना है। अब उसके अध्ययन का स्वरूप चिन्तनात्मक रहेगा। घर में, विद्यालय में और समाज में वह विद्यार्थी कम और शिक्षक अधिक रहेगा। वह धीरे धीरे अनुभवी मार्गदर्शक बनेगा। दूसरा शिक्षक है सन्त, कथाकार, तीर्थयात्रा, धार्मिक अनुष्ठान आदि। यह उसका सत्संग है। यहाँ वह विद्यार्थी के रूप में ही जाता है। अब तक प्राप्त की हुई अनुभवात्मक शिक्षा को और अधिक परिपक्व बनाता है। ऐसी शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय के कुलपति और धर्माचार्यों ने मिलकर लोकविद्यालयों की रचना करनी चाहिये । इन विद्यालयों में सत्संग, अनुष्ठान, कथा, प्रवचन आदि के माध्यम से धर्माचर्चा चले । लोकशिक्षा के इन विद्यालयों में जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है ऐसे लोग भी आ सकते हैं और नहीं किया है ऐसे भी लोग आ सकते हैं। दोनों के लिये आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की योजना होगी। जरूरी नहीं कि इन विद्यालयों में वानप्रस्थी ही विद्यार्थी के रूप में आयें। जो अभी वानप्रस्थी नहीं हुए हैं ऐसे गृहस्थ भी आ सकते हैं। इनमें उपनिषदों और पुराणों का अध्ययन और देशविदेश की जानकारी देने का प्रबन्ध होगा । सम्पूर्ण समाज को देशकाल परिस्थिति के अनुसार शिक्षित करने हेतु ये विद्यालय होंगे। इन विद्यालयों के संचालन का प्रमुख दायित्व धर्माचार्यों का रहेगा जिन्हें शिक्षक सहायता करेंगे। ऐसे लोकविद्यालयों के नाम भिन्न भिन्न हो सकते हैं परन्तु यह विधिवत्लो कशिक्षा की ही योजना के अंग होंगे। | + | # वह प्रौढ अवस्था का होता है तब उसके दो प्रकार के शिक्षक होंगे । एक होंगे ग्रन्थ जिनका स्वाध्याय उसे करना है। अब उसके अध्ययन का स्वरूप चिन्तनात्मक रहेगा। घर में, विद्यालय में और समाज में वह विद्यार्थी कम और शिक्षक अधिक रहेगा। वह धीरे धीरे अनुभवी मार्गदर्शक बनेगा। दूसरा शिक्षक है सन्त, कथाकार, तीर्थयात्रा, धार्मिक अनुष्ठान आदि। यह उसका सत्संग है। यहाँ वह विद्यार्थी के रूप में ही जाता है। अब तक प्राप्त की हुई अनुभवात्मक शिक्षा को और अधिक परिपक्व बनाता है। ऐसी शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय के कुलपति और धर्माचार्यों ने मिलकर लोकविद्यालयों की रचना करनी चाहिये । इन विद्यालयों में सत्संग, अनुष्ठान, कथा, प्रवचन आदि के माध्यम से धर्माचर्चा चले । लोकशिक्षा के इन विद्यालयों में जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है ऐसे लोग भी आ सकते हैं और नहीं किया है ऐसे भी लोग आ सकते हैं। दोनों के लिये आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की योजना होगी। आवश्यक नहीं कि इन विद्यालयों में वानप्रस्थी ही विद्यार्थी के रूप में आयें। जो अभी वानप्रस्थी नहीं हुए हैं ऐसे गृहस्थ भी आ सकते हैं। इनमें उपनिषदों और पुराणों का अध्ययन और देशविदेश की जानकारी देने का प्रबन्ध होगा । सम्पूर्ण समाज को देशकाल परिस्थिति के अनुसार शिक्षित करने हेतु ये विद्यालय होंगे। इन विद्यालयों के संचालन का प्रमुख दायित्व धर्माचार्यों का रहेगा जिन्हें शिक्षक सहायता करेंगे। ऐसे लोकविद्यालयों के नाम भिन्न भिन्न हो सकते हैं परन्तु यह विधिवत्लो कशिक्षा की ही योजना के अंग होंगे। |
| # इसके साथ ही वानप्रस्थों, सन्यासियों के लिये जो विद्यालय होंगे वे आश्रम, मन्दिर, मठ आदि नामों से जाने जायेंगे। ये भी सत्संग और धर्माचर्चा, कथाकीर्तन और प्रवचन के माध्यम से समाजशिक्षा का काम ही करेंगे। | | # इसके साथ ही वानप्रस्थों, सन्यासियों के लिये जो विद्यालय होंगे वे आश्रम, मन्दिर, मठ आदि नामों से जाने जायेंगे। ये भी सत्संग और धर्माचर्चा, कथाकीर्तन और प्रवचन के माध्यम से समाजशिक्षा का काम ही करेंगे। |
| # वानप्रस्थियों के लिये समाजसेवा यह अपेक्षित आचार बनाया जाना चाहिये । समाजेसवा की सारी संस्थायें वानप्रस्थियों के दायित्व में चलेंगी जिनमें वेतन की कोई व्यवस्था नहीं रहेगी। वानप्रस्थियों के निर्वाह का दायित्व उनके परिवार का ही रहेगा। यदि वे घर छोडकर संस्था में ही रहना चाहेंगे तो संस्था निर्वाह कर सकती है परन्तु संस्था में निर्वाह की व्यवस्था हो सके इस उद्देश्य से वे समाजेसवा नहीं करेंगे। | | # वानप्रस्थियों के लिये समाजसेवा यह अपेक्षित आचार बनाया जाना चाहिये । समाजेसवा की सारी संस्थायें वानप्रस्थियों के दायित्व में चलेंगी जिनमें वेतन की कोई व्यवस्था नहीं रहेगी। वानप्रस्थियों के निर्वाह का दायित्व उनके परिवार का ही रहेगा। यदि वे घर छोडकर संस्था में ही रहना चाहेंगे तो संस्था निर्वाह कर सकती है परन्तु संस्था में निर्वाह की व्यवस्था हो सके इस उद्देश्य से वे समाजेसवा नहीं करेंगे। |