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मानव को परमात्मा ने अन्य प्राणियों से स्वरयंत्र, मन, बुद्धि जैसी कुछ विशेष नेमतें दीं हैं। प्राणी जीवन अव्यवस्थित होता है। अनिश्चितताओं से भरा होता है। मनुष्य अपनी परमात्मा प्रदत्त क्षमताओं के आधारपर जीवन को व्यवस्थित बनाकर अनिश्चितताओं से मुक्ति पा सकता है। इसी कारण विश्वभर में मानवों ने अपनी अपनी व्यवस्थाएं निर्माण की हैं।
मानव को परमात्मा ने अन्य प्राणियों से स्वरयंत्र, मन, बुद्धि जैसी कुछ विशेष नेमतें दीं हैं। प्राणी जीवन अव्यवस्थित होता है। अनिश्चितताओं से भरा होता है। मनुष्य अपनी परमात्मा प्रदत्त क्षमताओं के आधारपर जीवन को व्यवस्थित बनाकर अनिश्चितताओं से मुक्ति पा सकता है। इसी कारण विश्वभर में मानवों ने अपनी अपनी व्यवस्थाएं निर्माण की हैं।
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स्त्री पुरूष सहजीवन प्राकृतिक है। इस का अच्छा या कम अच्छा विचार और व्यवस्था तो विश्व के हर समाज ने की थी। लेकिन इनमें धार्मिक (भारतीय) समाज छोडकर अन्य किसी भी समाज ने वर्ण और आश्रम की व्यवस्थाओं का निर्माण नहीं किया था। जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ये दोनों व्यवस्थाएँ इतनी श्रेष्ठ और उपयुक्त समझ में आयीं कि इन्हें वर्णाश्रम धर्म कहा गया। वर्ण व्यवस्था का विचार हम पूर्व के अध्याय में कर आये हैं। अब हम आश्रम व्यवस्था का विचार करेंगे।
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स्त्री पुरूष सहजीवन प्राकृतिक है। इस का अच्छा या कम अच्छा विचार और व्यवस्था तो विश्व के हर समाज ने की थी। लेकिन इनमें धार्मिक (भारतीय) समाज छोडकर अन्य किसी भी समाज ने वर्ण और आश्रम की व्यवस्थाओं का निर्माण नहीं किया था। जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ये दोनों व्यवस्थाएँ इतनी श्रेष्ठ और उपयुक्त समझ में आयीं कि इन्हें वर्णाश्रम धर्म कहा गया। वर्ण व्यवस्था का विचार हम पूर्व के अध्याय में कर आये हैं। अब हम आश्रम व्यवस्था का विचार करेंगे।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय १८, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
== आश्रम की व्याख्या ==
== आश्रम की व्याख्या ==