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महर्षि दधीचि, अथर्वा ऋषि के पुत्र, त्याग और परोपकार के अद्वितीय आदर्श हैं। परम तपस्वी [[Dadhichi (दधीचिः)|दधीचि]] के तप से देवराज [[Indra (इन्द्रः)|इन्द्र]] को अपना सिंहासन छिनने की शंका हो गयी थी। उसने इनकी तपस्या में विघ्न डालने के अनेक उपाय किये, पर असफल रहा। वही इन्द्र [[Vrtrasura (वृत्रासुरः)|वृत्रासुर]] से पराजित होकर महर्षि दधीचि के यहाँ याचक के रूप मे उपस्थित हुआ और बोला, "हम आपत्ति में पड़ आपसे याचना करने आये हैं। हमें आपके शरीर की अस्थि चाहिए।" उदारचेता महर्षि ने इन्द्र के पिछले कृत्यों को भुलाकर लोकहित के लिए योग-विधि से शरीर छोड़ दिया। तब इन्द्र ने उनकी अस्थियों से वज्र बनाया और वृत्रासुर को पराजित किया।
दधीचि [[Upanishads (उपनिषदः)|उपनिषदों]] में वर्णित [[Madhuvidya (मधुविद्या)|मधुविद्या]] के ज्ञाता थे। किन्त उसके साथ यह शाप भी जुड़ा हुआ था कि यदि वे किसी को वह विद्या बतायेंगे तो उनका शिर कटकर गिर जायेगा। इस बाधा से बचने के लिए [[Ashvini Kumaras (अश्विनीकुमारौ)|अश्विनीकुमारों]] ने उन्हें अश्व का शिर लगा दिया और उन्होंने उसी से मधुविद्या का उपदेश अश्विनीकुमारों को दिया। अश्व का शिर गिर जाने पर अश्विनीकुमारों की भिषक्विद्या से उन्हें अपना मूल शिर पुनः पूर्ववत् मिल गया।
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