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| ===विश्व में भारत की प्रतिष्ठा=== | | ===विश्व में भारत की प्रतिष्ठा=== |
− | हमें यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि घर में पलनेवाले और विद्यालय में पढ़ने वाले शिशु, बाल, किशोर, युवावस्था के विद्यार्थी भावी भारत के निर्माता है<ref>भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ३), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। शिक्षक और मातापिता भारत का भावी गढ रहे हैं। ये सब शिक्षकों के विद्यार्थी और मातापिता की सन्तानें हैं परन्तु साथ ही राष्ट्र के नागरिक हैं । राष्ट्र वैसा ही होगा जैसे ये होंगे। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा इनके कारण होगी और बदनामी भी इनके कारण ही। | + | हमें यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि घर में पलनेवाले और विद्यालय में पढ़ने वाले शिशु, बाल, किशोर, युवावस्था के विद्यार्थी भावी भारत के निर्माता है<ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व २: अध्याय ७, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। शिक्षक और मातापिता भारत का भावी गढ रहे हैं। ये सब शिक्षकों के विद्यार्थी और मातापिता की सन्तानें हैं परन्तु साथ ही राष्ट्र के नागरिक हैं । राष्ट्र वैसा ही होगा जैसे ये होंगे। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा इनके कारण होगी और बदनामी भी इनके कारण ही। |
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| भूतकाल में कभी भारत की प्रतिष्ठा अत्यन्त नीतिमान, सच्चरित्र और सत्यवादी देश की रही है । हम भारत के भव्य भूतकाल का वर्णन तो गौरवपूर्वक करते हैं परन्तु हमारा वर्तमान प्रशंसा के योग्य नहीं है। हमारा नैतिक स्तर गिरा है, गिर रहा है। यह अत्यन्त चिन्ताजनक और लज्जास्पद है । हमें इस स्थिति की चिन्ता करनी चाहिये । | | भूतकाल में कभी भारत की प्रतिष्ठा अत्यन्त नीतिमान, सच्चरित्र और सत्यवादी देश की रही है । हम भारत के भव्य भूतकाल का वर्णन तो गौरवपूर्वक करते हैं परन्तु हमारा वर्तमान प्रशंसा के योग्य नहीं है। हमारा नैतिक स्तर गिरा है, गिर रहा है। यह अत्यन्त चिन्ताजनक और लज्जास्पद है । हमें इस स्थिति की चिन्ता करनी चाहिये । |
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| विश्व में हमारी कुप्रतिष्ठा कैसी है इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार है... | | विश्व में हमारी कुप्रतिष्ठा कैसी है इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार है... |
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− | #जर्मनी के विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से भारतीय विद्यार्थियों को पुस्तक ले जाने का निषेध हुआ था क्योंकि भारतीय विद्यार्थी पुस्तक में से उपयोगी सामग्री की नकल करने के स्थान पर पुस्तक के पन्ने ही फाड लेते थे। यह आरोप झूठा नहीं है यह भारत के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के ग्रन्थालयों के ग्रन्थपाल कहेंगे। | + | #जर्मनी के विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से धार्मिक विद्यार्थियों को पुस्तक ले जाने का निषेध हुआ था क्योंकि धार्मिक विद्यार्थी पुस्तक में से उपयोगी सामग्री की नकल करने के स्थान पर पुस्तक के पन्ने ही फाड लेते थे। यह आरोप झूठा नहीं है यह भारत के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के ग्रन्थालयों के ग्रन्थपाल कहेंगे। |
− | #ऑस्ट्रेलिया में यदि आपका मोबाइल खो जाता है और आप सरकार को बताते हैं तो सरकार बिना पूछताछ किये आपको दूसरा मोबाइल देती है । सरकार अपने नागरिक का विश्वास करती है । कई भारतीय अपना मोबाइल भारत में भेज देते हैं और सरकार से चोरी हो गया कहकर दूसरा लेते हैं। सरकार उन्हें देती भी है । ऐसा दो बार, होने के बाद पूछताछ शुरू होती है ।सरकार का यह विश्वास कितने दिन चलेगा ? तब लांछन किस को लगेगा ? | + | #ऑस्ट्रेलिया में यदि आपका मोबाइल खो जाता है और आप सरकार को बताते हैं तो सरकार बिना पूछताछ किये आपको दूसरा मोबाइल देती है । सरकार अपने नागरिक का विश्वास करती है । कई धार्मिक अपना मोबाइल भारत में भेज देते हैं और सरकार से चोरी हो गया कहकर दूसरा लेते हैं। सरकार उन्हें देती भी है । ऐसा दो बार, होने के बाद पूछताछ शुरू होती है ।सरकार का यह विश्वास कितने दिन चलेगा ? तब लांछन किस को लगेगा ? |
| #विदेश में भी जो चोरी करते हैं और अनीति का आचरण करते हैं वे देश में क्या नहीं करेंगे ? यहाँ भी कानून तोडना, घूस देना और लेना, कस्वोरी करना, परीक्षा में नकल करना, पैसा लेकर मत बेचना, शराबबन्दी होने पर भी शराब बेचना और पीना, गोबधबन्दी होने पर भी गोहत्या करना, मौका मिले तो बिना टिकट यात्रा करना धूमधाम से चल रहा है । खुछ्ठम-खु्ठा चोरी, डकैती, लूट, हत्या आदि की बात तो अलग है, यह तो सारे अनीति के मामले हैं । | | #विदेश में भी जो चोरी करते हैं और अनीति का आचरण करते हैं वे देश में क्या नहीं करेंगे ? यहाँ भी कानून तोडना, घूस देना और लेना, कस्वोरी करना, परीक्षा में नकल करना, पैसा लेकर मत बेचना, शराबबन्दी होने पर भी शराब बेचना और पीना, गोबधबन्दी होने पर भी गोहत्या करना, मौका मिले तो बिना टिकट यात्रा करना धूमधाम से चल रहा है । खुछ्ठम-खु्ठा चोरी, डकैती, लूट, हत्या आदि की बात तो अलग है, यह तो सारे अनीति के मामले हैं । |
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| *ये तो सर्वविदित उदाहरण हैं, परन्तु यह तो हिमशिला का बाहर दिखनेवाला हिस्सा है । वास्तविकता अनेक गुना अधिक है । | | *ये तो सर्वविदित उदाहरण हैं, परन्तु यह तो हिमशिला का बाहर दिखनेवाला हिस्सा है । वास्तविकता अनेक गुना अधिक है । |
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− | ऐसे संचालकों के विद्यालयों में नीतिमत्ता की | + | ऐसे संचालकों के विद्यालयों में नीतिमत्ता की शिक्षा किस प्रकार दी जा सकेगी ? |
− | शिक्षा किस प्रकार दी जा सकेगी ? | |
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| 3. शिक्षकों की नीतिमत्ता के अभाव का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है: | | 3. शिक्षकों की नीतिमत्ता के अभाव का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है: |
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| ===इस स्थिति में विद्यालय क्या करें ?=== | | ===इस स्थिति में विद्यालय क्या करें ?=== |
− | कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है... | + | कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है: |
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| नीति का पक्ष लेने वाले कुछ लोग तो समाज में हैं ही । ये केवल नीति की बात ही नहीं करते, उनका आचरण भी नैतिक होता है । अक्सर ऐसे लोग अपने में ही मस्त होते हैं । दूसरों को अनीति का आचरण करना है तो करें, उनका हिसाब भगवान करेगा, हम अनीति का आचरण नहीं करेंगे । हमने दुनिया को सुधार करने का ठेका नहीं लिया है ऐसा वे कहते हैं । | | नीति का पक्ष लेने वाले कुछ लोग तो समाज में हैं ही । ये केवल नीति की बात ही नहीं करते, उनका आचरण भी नैतिक होता है । अक्सर ऐसे लोग अपने में ही मस्त होते हैं । दूसरों को अनीति का आचरण करना है तो करें, उनका हिसाब भगवान करेगा, हम अनीति का आचरण नहीं करेंगे । हमने दुनिया को सुधार करने का ठेका नहीं लिया है ऐसा वे कहते हैं । |
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| #किसी भी परीक्षा में नकल नहीं करना । | | #किसी भी परीक्षा में नकल नहीं करना । |
| #विद्यालय की सम्पत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाना । | | #विद्यालय की सम्पत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाना । |
− | #किसी भी शिक्षक की पीठ के पीछे निन््दा नहीं करना | | + | #किसी भी शिक्षक की पीठ के पीछे निन््दा नहीं करना । |
| #शिक्षक की आज्ञा की अवज्ञा नहीं करना । | | #शिक्षक की आज्ञा की अवज्ञा नहीं करना । |
| #झूठ नहीं बोलना । | | #झूठ नहीं बोलना । |
| #विद्यालय के नियमों का उल्लंघन नहीं करना । | | #विद्यालय के नियमों का उल्लंघन नहीं करना । |
| #ट्यूशन या कोचिंग क्लास में नहीं जाना । | | #ट्यूशन या कोचिंग क्लास में नहीं जाना । |
− | #घर से विद्यालय और विद्यालय से घर पैद्ल अथवा बाइसिकल से आनाजाना | | + | #घर से विद्यालय और विद्यालय से घर पैद्ल अथवा बाइसिकल से आनाजाना । |
| #कारखाने में बने कपडे और जूते नहीं पहनना, दर्जी ने और मोची ने बनाये हुए ही पहनना । | | #कारखाने में बने कपडे और जूते नहीं पहनना, दर्जी ने और मोची ने बनाये हुए ही पहनना । |
| #सूती गणवेश पहनना । | | #सूती गणवेश पहनना । |
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| ===अपनी दृष्टि व्यापक बनाना=== | | ===अपनी दृष्टि व्यापक बनाना=== |
− | बात प्रथम दृष्टि में तो ठीक लगती है, परन्तु हमें व्यापक दृष्टि से देखना होगा । दृष्टि व्यापक करने से इन बातों को भी सूची में समाविष्ट करने का तात्पर्य ध्यान में आयेगा | | + | बात प्रथम दृष्टि में तो ठीक लगती है, परन्तु हमें व्यापक दृष्टि से देखना होगा । दृष्टि व्यापक करने से इन बातों को भी सूची में समाविष्ट करने का तात्पर्य ध्यान में आयेगा । |
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| *इस कार्यक्रम को अपने अपने विद्यालयों में निश्चितता पूर्वक लागू करना चाहिये । कड़ाई से लागू करने से प्रारम्भ होगा परन्तु धीरे धीरे विद्यार्थियों और अभिभावकों को समझाकर सहमत बनाना चाहिये । सबको इन बातों के लिये अपने विद्यालय पर गर्व हो ऐसी स्थिति आनी चाहिये । | | *इस कार्यक्रम को अपने अपने विद्यालयों में निश्चितता पूर्वक लागू करना चाहिये । कड़ाई से लागू करने से प्रारम्भ होगा परन्तु धीरे धीरे विद्यार्थियों और अभिभावकों को समझाकर सहमत बनाना चाहिये । सबको इन बातों के लिये अपने विद्यालय पर गर्व हो ऐसी स्थिति आनी चाहिये । |
| *धीरे धीरे इन विद्यालयों की प्रतिष्ठा समाज में बनने लगे इस बात की और ध्यान देना चाहिये । सज्जनों को चाहिये कि वे इन्हें समाज में प्रतिष्ठा दिलने का काम करे । | | *धीरे धीरे इन विद्यालयों की प्रतिष्ठा समाज में बनने लगे इस बात की और ध्यान देना चाहिये । सज्जनों को चाहिये कि वे इन्हें समाज में प्रतिष्ठा दिलने का काम करे । |
| *अब इन विद्यालयों का सामर्थ्य केवल संचालकों और शिक्षकों तक सीमित नहीं है । विद्यार्थी और उनके परिवार भी इनके साथ जुडे हैं । | | *अब इन विद्यालयों का सामर्थ्य केवल संचालकों और शिक्षकों तक सीमित नहीं है । विद्यार्थी और उनके परिवार भी इनके साथ जुडे हैं । |
− | *अब इन विद्यालयों ने आसपास के विद्यालयों को बदलने का. अभियान छेडना होगा । विद्यार्थी विद्यार्थियों को, शिक्षक शिक्षकों को और संचालक संचालकों को परिवर्तित करने का काम करें । | + | *अब इन विद्यालयों ने आसपास के विद्यालयों को बदलने का अभियान छेडना होगा । विद्यार्थी विद्यार्थियों को, शिक्षक शिक्षकों को और संचालक संचालकों को परिवर्तित करने का काम करें । |
| *अब धमचिार्यों को भी इस अभियान में जुड़ने हेतु समझाना चाहिये । सन्त, महन्त, आचार्य, कथाकार, सत्संगी सार्वजनिक कार्यक्रमों में नीतिमत्ता के इन दस सूत्रों के पालन का आग्रह करें, अपने अनुयायियों से प्रतिज्ञा करवायें । | | *अब धमचिार्यों को भी इस अभियान में जुड़ने हेतु समझाना चाहिये । सन्त, महन्त, आचार्य, कथाकार, सत्संगी सार्वजनिक कार्यक्रमों में नीतिमत्ता के इन दस सूत्रों के पालन का आग्रह करें, अपने अनुयायियों से प्रतिज्ञा करवायें । |
| *कुछ दम्भी और भोंदू अवश्य होंगे, तथापि इसका परिणाम अवश्य होगा। | | *कुछ दम्भी और भोंदू अवश्य होंगे, तथापि इसका परिणाम अवश्य होगा। |
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| *इन अवरोधों से भयभीत हुए बिना यदि विद्यालय डटे रहते हैं तो वे अपने अभियान में यशस्वी हो सकते हैं । लोग भी इन्हें मान्यता देने लगते हैं । | | *इन अवरोधों से भयभीत हुए बिना यदि विद्यालय डटे रहते हैं तो वे अपने अभियान में यशस्वी हो सकते हैं । लोग भी इन्हें मान्यता देने लगते हैं । |
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− | विश्व में भारतीय ज्ञान की प्रतिष्ठा है । अमरिका में डॉक्टर, इन्जिनियर, संगणक निष्णात, वैज्ञानिक आदि बडी संख्या में भारतीय हैं । विश्व में भारतीय परिवार संकल्पना की प्रतिष्ठा है । भारत की कामगीरी की प्रतिष्ठा है । परन्तु अनीतिमान लोगों के रूप में अप्रतिष्ठा भी है । | + | विश्व में धार्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा है । अमरिका में डॉक्टर, इन्जिनियर, संगणक निष्णात, वैज्ञानिक आदि बडी संख्या में धार्मिक हैं । विश्व में धार्मिक परिवार संकल्पना की प्रतिष्ठा है । भारत की कामगीरी की प्रतिष्ठा है । परन्तु अनीतिमान लोगों के रूप में अप्रतिष्ठा भी है । |
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| ===स्वच्छता के विषय में अप्रतिष्ठा=== | | ===स्वच्छता के विषय में अप्रतिष्ठा=== |
− | दूसरी अप्रतिष्ठा है स्वच्छता के विषय में । विदेश जाकर आये हुए भारतीय वहाँ की स्वच्छता की प्रशंसा करते हैं । वे ही लोग भारत में स्वयं गन्दगी करते हैं । विद्यालयों और कार्यालयों की सीढियाँ और कोने थूकने से, कचरा डालने के कारण गंदी हो जाती हैं । सार्वजनिक शौचालय, स्नानगृह आदि भयंकर गन्दे होते हैं । रास्तों पर लोग कचरा फैंकते हैं । बस या रेल में से थूकते हैं । प्लास्टिक के खाली बैग, पेकिंग के डिब्बे कहीं पर भी फैके जाते हैं । तीर्थ यात्रा के स्थान, पवित्ननगर, नदियों के किनारे प्लास्टिक तथा अन्य कचरे से गन्दे हो जाते हैं । अपना घर साफ करके पडौसी के आँगन में कचरा फैकते हैं । स्वच्छता को हमने योगसूत्र में पाँच नियमों में सबसे प्रथम स्थान दिया है । परन्तु व्यवहार में हम अस्वच्छता की परिसीमा लांघते हैं । | + | दूसरी अप्रतिष्ठा है स्वच्छता के विषय में । विदेश जाकर आये हुए धार्मिक वहाँ की स्वच्छता की प्रशंसा करते हैं । वे ही लोग भारत में स्वयं गन्दगी करते हैं । विद्यालयों और कार्यालयों की सीढियाँ और कोने थूकने से, कचरा डालने के कारण गंदी हो जाती हैं । सार्वजनिक शौचालय, स्नानगृह आदि भयंकर गन्दे होते हैं । रास्तों पर लोग कचरा फैंकते हैं । बस या रेल में से थूकते हैं । प्लास्टिक के खाली बैग, पेकिंग के डिब्बे कहीं पर भी फैके जाते हैं । तीर्थ यात्रा के स्थान, पवित्ननगर, नदियों के किनारे प्लास्टिक तथा अन्य कचरे से गन्दे हो जाते हैं । अपना घर साफ करके पडौसी के आँगन में कचरा फैकते हैं । स्वच्छता को हमने योगसूत्र में पाँच नियमों में सबसे प्रथम स्थान दिया है । परन्तु व्यवहार में हम अस्वच्छता की परिसीमा लांघते हैं । |
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| विद्यालयों को इस विषय का भी विचार करना होगा । व्यक्तिगत जीवन में स्वच्छता का आग्रह अधिकांश लोग रखते हैं परन्तु सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता की दरकार कोई नहीं करता । यह भी कानून का विषय नहीं है । | | विद्यालयों को इस विषय का भी विचार करना होगा । व्यक्तिगत जीवन में स्वच्छता का आग्रह अधिकांश लोग रखते हैं परन्तु सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता की दरकार कोई नहीं करता । यह भी कानून का विषय नहीं है । |
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− | 'कचरा' हमारा अधिकार है, सफाई करना नगरनिगम का कर्तव्य है, इस सूत्र पर चलने से काम नहीं बनता | यह प्रबोधन का विषय है। वास्तव में धर्माचार्यों ने इसे भी अपना विषय बनाना चाहिये । | + | 'कचरा' हमारा अधिकार है, सफाई करना नगरनिगम का कर्तव्य है, इस सूत्र पर चलने से काम नहीं बनता । यह प्रबोधन का विषय है। वास्तव में धर्माचार्यों ने इसे भी अपना विषय बनाना चाहिये । |
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| ===एक हाथ में लेने लायक अभियान=== | | ===एक हाथ में लेने लायक अभियान=== |
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| प्र.३ मातपिता ने अपने बालक का विकास जानना, तथा विद्यार्थियों की समस्याओं का हल निकाले हेतु विद्यालय को भेट देना चाहिये यह लगभग सबका उत्तर था। | | प्र.३ मातपिता ने अपने बालक का विकास जानना, तथा विद्यार्थियों की समस्याओं का हल निकाले हेतु विद्यालय को भेट देना चाहिये यह लगभग सबका उत्तर था। |
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− | प्र.६ विद्यालय संचालन मे आर्थिक सहयोग देना, कार्यक्रमों मे सहयोग देना, स्वयं का कलाकौशल विद्यालय के काम में लगाना, समाज में विद्यालय के प्रति अच्छा दृष्टिकोण विकसित करना इस प्रकार की मदद हो सकती है। प्र. ४, ८ और ९ परस्परावलंबी प्रश्न थे उनका तथ्य इस प्रकार था । अपने बालक की शैक्षिक प्रगति अनुशासन, चारित्र्य, व्यवहार में परिवर्तन इस बातों में विद्यालय परिवार का मार्गदर्शक बने। उसके लिए अभिभावक संमेलन, बैठकें, ई-मेल, दूरध्वनि द्वारा संपर्क करना तथा चिन्तन बैठक का आयोजन करना । | + | प्र.६ विद्यालय संचालन मे आर्थिक सहयोग देना, कार्यक्रमों मे सहयोग देना, स्वयं का कलाकौशल विद्यालय के काम में लगाना, समाज में विद्यालय के प्रति अच्छा दृष्टिकोण विकसित करना इस प्रकार की मदद हो सकती है। |
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− | ===अभिमत :===
| + | प्र. ४, ८ और ९ परस्परावलंबी प्रश्न थे उनका तथ्य इस प्रकार था । अपने बालक की शैक्षिक प्रगति अनुशासन, चारित्र्य, व्यवहार में परिवर्तन इस बातों में विद्यालय परिवार का मार्गदर्शक बने। उसके लिए अभिभावक संमेलन, बैठकें, ई-मेल, दूरध्वनि द्वारा संपर्क करना तथा चिन्तन बैठक का आयोजन करना । |
− | आज विद्यालय एवं परिवार में जैसे संबंध होते हैं उसी के आधार पर जवाब मिले । छात्र का विकास विद्यालय एवं घर दोनों मे होता है। दोनों की भूमिका जब कि भिन्न हैं। घर संस्कार केन्द्र और विद्यालय बालक का ज्ञानकेन्द्र होता है। ऐसी भूमिका जब दोनों के मन में होती है तब छात्र का समग्र विकास सहजता से होता है यह भारतीय सोच है । इसलिए विद्यालय और परिवार के संबंध घनिष्ठ एवं आत्मीय होने चाहिये । बिना कहे परिवार ने विद्यालय की आवश्यकताएं जानना एवं उनकी पूर्तता करना । और विद्यालय ने परिवार को योग्य मार्गदर्शन करना । शिक्षक परिवार के एवं बालक के गुरु हैं और परिवार, समाज अपना अन्नदाता है यह भावना होनी चाहिये । फिर आपस मे विश्वास और सामंजस्य निर्माण होगा, सहयोग वृत्ति निर्माण होगी । अभिभावकों ने केवल बालक का शैक्षिक विकास देखने हेतु विद्यालय को भेंट देना अधूरा होगा, उसके साथ बालक की मानसिकता, चरित्र के संबंध में चर्चा विमर्श करना होगा । अभिभावक अपनी गायनवादन कला, लेखनकला का बिनामूल्य सहयोग करे, अपना पद, अधिकार व्यवसाय से विद्यालय संचालन में सहयोगी बने । कभी शिक्षकों की अनुपस्थिति में योग्य अभिभावक कक्षा भी ले सकते हैं । अपने सुलेख का उपयोग विद्यालय के कार्यालयीन कामों में अथवा छात्रों को व्यक्तिगत रूप से सेवा के रूप में सहायता कर सकते हैं । विद्यालय ने भी गणवेश सिलाना होता हैं । सिलाई के लिए अपने दर्जी अभिभावक, फर्निचर के लिये सुथार, भवन निर्माण के लिये बिल्डर अभिभावकों का उपयोग कर उन्हें रोजगार देना चाहिये । बाहर की एजन्सी को दूर रखे तब आत्मीयता एवं मित्रता प्रस्थापित होगी ।
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− | शिक्षक अभिभावक आपस में आशंका से नहीं अपितु परस्पर पूरक एवं विश्वासु मित्र बनेंगे तो छात्रो का भी हित होगा । आज अभिभावक विद्यालय की कहाँ कमी दिखाई देती है इस तरफ नजर रखते हैं और विद्यालय उन्हें एक आर्थिक स्रोत के रूप में उनका शोषण करते हुए दिखाई देते है । विद्यालय का चयन करते समय आज अभिभावक जहाँ अच्छे संस्कार मिलते है, जहाँ सब प्रकार के उत्सव त्योहार मनाये जाते हैं, जहाँ बहुत सुखसुविधायें बालक को प्राप्त होती हैं वहाँ एडमिशन दिलवाना ऐसा विचार करते हैं । विद्यालय भी अभिभावकों ने बच्चों की पढ़ाई में ध्यान देना, घरों में उत्सव पर्व नहीं मनाये जाते इसलिये संस्कार होने हेतु विद्यालय में करना ऐसा विचार रखते हैं, बिल्कुल इससे उल्टा विद्यालय ने शिक्षा की ओर घरों ने संस्कारों की जिम्मेदारी लेकर करना चाहिये । यह भारतीय विचार है।
| + | ===अभिमत=== |
| + | आज विद्यालय एवं परिवार में जैसे संबंध होते हैं उसी के आधार पर जवाब मिले । छात्र का विकास विद्यालय एवं घर दोनों मे होता है। दोनों की भूमिका जब कि भिन्न हैं। घर संस्कार केन्द्र और विद्यालय बालक का ज्ञानकेन्द्र होता है। ऐसी भूमिका जब दोनों के मन में होती है तब छात्र का समग्र विकास सहजता से होता है यह धार्मिक सोच है । इसलिए विद्यालय और परिवार के संबंध घनिष्ठ एवं आत्मीय होने चाहिये । बिना कहे परिवार ने विद्यालय की आवश्यकताएं जानना एवं उनकी पूर्तता करना । और विद्यालय ने परिवार को योग्य मार्गदर्शन करना । शिक्षक परिवार के एवं बालक के गुरु हैं और परिवार, समाज अपना अन्नदाता है यह भावना होनी चाहिये । फिर आपस मे विश्वास और सामंजस्य निर्माण होगा, सहयोग वृत्ति निर्माण होगी । अभिभावकों ने केवल बालक का शैक्षिक विकास देखने हेतु विद्यालय को भेंट देना अधूरा होगा, उसके साथ बालक की मानसिकता, चरित्र के संबंध में चर्चा विमर्श करना होगा । अभिभावक अपनी गायनवादन कला, लेखनकला का बिनामूल्य सहयोग करे, अपना पद, अधिकार व्यवसाय से विद्यालय संचालन में सहयोगी बने । कभी शिक्षकों की अनुपस्थिति में योग्य अभिभावक कक्षा भी ले सकते हैं । अपने सुलेख का उपयोग विद्यालय के कार्यालयीन कामों में अथवा छात्रों को व्यक्तिगत रूप से सेवा के रूप में सहायता कर सकते हैं । विद्यालय ने भी गणवेश सिलाना होता हैं । सिलाई के लिए अपने दर्जी अभिभावक, फर्निचर के लिये सुथार, भवन निर्माण के लिये बिल्डर अभिभावकों का उपयोग कर उन्हें रोजगार देना चाहिये । बाहर की एजन्सी को दूर रखे तब आत्मीयता एवं मित्रता प्रस्थापित होगी । |
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− | "जेनुं काम तेने थाय बीजा करे तो गोथा खाय' (जिसका काम है वही करेगा, अन्य करता है तो गोते लगाता है) ऐसी कहावत है। विद्यालय और परिवार दोनों ने परस्पर आशंका और स्वार्थ छोडकर आपस में विश्वास और घनिष्ठता प्रस्थापित करने से परिवार सुदृढ़ बनेंगे विद्यालय बड़ा होगा, शिक्षा का दर्जा बढ़ेगा ।) | + | शिक्षक अभिभावक आपस में आशंका से नहीं अपितु परस्पर पूरक एवं विश्वासु मित्र बनेंगे तो छात्रो का भी हित होगा । आज अभिभावक विद्यालय की कहाँ कमी दिखाई देती है इस तरफ नजर रखते हैं और विद्यालय उन्हें एक आर्थिक स्रोत के रूप में उनका शोषण करते हुए दिखाई देते है । विद्यालय का चयन करते समय आज अभिभावक जहाँ अच्छे संस्कार मिलते है, जहाँ सब प्रकार के उत्सव त्योहार मनाये जाते हैं, जहाँ बहुत सुखसुविधायें बालक को प्राप्त होती हैं वहाँ एडमिशन दिलवाना ऐसा विचार करते हैं । विद्यालय भी अभिभावकों ने बच्चों की पढ़ाई में ध्यान देना, घरों में उत्सव पर्व नहीं मनाये जाते इसलिये संस्कार होने हेतु विद्यालय में करना ऐसा विचार रखते हैं, बिल्कुल इससे उल्टा विद्यालय ने शिक्षा की ओर घरों ने संस्कारों की जिम्मेदारी लेकर करना चाहिये । यह धार्मिक विचार है। |
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| + | "जेनुं काम तेने थाय बीजा करे तो गोथा खाय' (जिसका काम है वही करेगा, अन्य करता है तो गोते लगाता है) ऐसी कहावत है। विद्यालय और परिवार दोनों ने परस्पर आशंका और स्वार्थ छोडकर आपस में विश्वास और घनिष्ठता प्रस्थापित करने से परिवार सुदृढ़ बनेंगे विद्यालय बड़ा होगा, शिक्षा का दर्जा बढ़ेगा । |
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| ===शिक्षा के तीन केन्द्र=== | | ===शिक्षा के तीन केन्द्र=== |
− | भारतीय शिक्षाविचार के अनुसार शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ अभिन्न रूप से जुडी है । वह आजीवन होती है और सर्वत्र चलती है ।
| + | धार्मिक शिक्षाविचार के अनुसार शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ अभिन्न रूप से जुडी है । वह आजीवन होती है और सर्वत्र चलती है । |
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| शिक्षा सर्वत्र चलती है तब भी वह तीन स्थानों में केन्द्रित हुई है। ये तीन केन्द्र हैं विद्यालय, परिवार और मन्दिर । विद्यालय में शिक्षक, घर में अभिभावक और मन्दिर में धर्माचार्य इस शिक्षा की योजना और व्यवस्था करने वाले होते हैं । | | शिक्षा सर्वत्र चलती है तब भी वह तीन स्थानों में केन्द्रित हुई है। ये तीन केन्द्र हैं विद्यालय, परिवार और मन्दिर । विद्यालय में शिक्षक, घर में अभिभावक और मन्दिर में धर्माचार्य इस शिक्षा की योजना और व्यवस्था करने वाले होते हैं । |
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| ===बालक की शिक्षा घर में भी होती है=== | | ===बालक की शिक्षा घर में भी होती है=== |
− | शिक्षा व्यक्ति के साथ जन्मपूर्व से ही जुडी है। | + | शिक्षा व्यक्ति के साथ जन्मपूर्व से ही जुडी है। आजन्मशिक्षा का एक स्थान विद्यालय है । जीवन के भी एक अंग की शिक्षा प्राप्त करने हेतु व्यक्ति विद्यालय जाता है। घर तो जीवन का पूर्ण रूप से केन्द्र है । व्यक्ति आजन्म घर में ही रहता है । इसलिये घर शिक्षा का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । ऐसी अनेक बातें हैं जो विद्यालयमें जाकर नहीं अपितु घर में ही सीखाई जाती हैं । ये बातें इस प्रकार हैं: |
− | आजन्मशिक्षा का एक स्थान विद्यालय है । जीवन के भी | |
− | एक अंग की शिक्षा प्राप्त करने हेतु व्यक्ति विद्यालय जाता | |
− | है । घर तो जीवन का पूर्ण रूप से केन्द्र है । व्यक्ति आजन्म
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− | घर में ही रहता है । इसलिये घर शिक्षा का भी एक महत्त्वपूर्ण | |
− | स्थान है । एसी अनेक बातें हैं जो विद्यालयमें जाकर नहीं | |
− | अपितु घर में ही सीखाई जाती हैं । ये बातें इस प्रकार हैं | |
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| ====गर्भावस्था के संस्कार :==== | | ====गर्भावस्था के संस्कार :==== |
− | बालक का इस जन्म | + | बालक का इस जन्म का जीवन गर्भाधान से शुरू होता है । इसमें निमित्त उसके मातापिता होते हैं । मातापिता के माध्यम से उसे पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार प्राप्त होते हैं। इससे वंशपरम्परा अर्थात् कुल परम्परा बनती है। वंश-परम्परा बनाये रखने की, उसे समृद्ध करने की शिक्षा का केन्द्र घर ही है । विद्यालय उसमें सहयोग और मार्गदर्शन करता है परन्तु मुख्य कार्य तो घर ही करता है । इस दृष्टि से घर को बालक का प्रथम विद्यालय कहा गया है । घर में माता प्रथम शिक्षक होती है, पिता द्वितीय और बाद में शेष सारे व्यक्ति शिक्षक की भूमिका में होते हैं । दादा, दादी, बडे भाईबहन, पिता के भाई, अर्थात् चाचाचाची, घर में समय समय पर आनेवाले सगे सम्बन्धी, अतिथि अभ्यागत बालक को सिखाने का काम करते हैं । यह विधिवत् दीक्षा देकर दी हुई शिक्षा नहीं है। यह अनौपचारिक शिक्षा है जो सहज रूप से निरन्तर चलती रहती है । अपने आसपास बालक हैं, उनपर हमारी वाणी, विचार और व्यवहार का प्रभाव पड़ेगा और वह उन बातों को सीखेगा ऐसी सजगता रही तो शिक्षा सजगता पूर्वक होती है अन्यथा बालक तो अपनी सजगता न रही तो भी सीख ही लेते हैं । |
− | का जीवन गर्भाधान से शुरू होता है । इसमें निमित्त उसके मातापिता होते हैं । मातापिता के माध्यम से उसे पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार प्राप्त होते हैं। इससे वंशपरम्परा अर्थात् कुल परम्परा बनती है। वंश-परम्परा बनाये रखने की, उसे समृद्ध करने की शिक्षा का केन्द्र घर ही है । विद्यालय उसमें सहयोग और मार्गदर्शन करता है परन्तु मुख्य कार्य तो घर ही करता है । इस दृष्टि से घर को बालक का प्रथम विद्यालय कहा गया है । | |
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− | घर में माता प्रथम शिक्षक होती है, पिता द्वितीय और बाद में शेष सारे व्यक्ति शिक्षक की भूमिका में होते हैं । दादा, दादी, बडे भाईबहन, पिता के भाई, अर्थात् चाचाचाची, घर में समय समय पर आनेवाले सगे सम्बन्धी, अतिथि अभ्यागत बालक को सिखाने का काम करते हैं । यह विधिवत् दीक्षा देकर दी हुई शिक्षा नहीं है। यह अनौपचारिक शिक्षा है जो सहज रूप से निरन्तर चलती रहती है । अपने आसपास बालक हैं, उनपर हमारी वाणी, विचार और व्यवहार का प्रभाव पड़ेगा और वह उन बातों को सीखेगा ऐसी सजगता रही तो शिक्षा सजगता पूर्वक होती है अन्यथा बालक तो अपनी सजगता न रही तो भी सीख ही लेते हैं । | |
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− | २. परिवारजनों से सीखने की कालावधि बालक बड़ा होकर अपने बालक को जन्म देता है तब तक की माननी चाहिये । यह पूरी पीढी की शिक्षा है । इसके मुख्य अंग इस प्रकार हैं
| + | परिवारजनों से सीखने की कालावधि बालक बड़ा होकर अपने बालक को जन्म देता है तब तक की माननी चाहिये । यह पूरी पीढी की शिक्षा है । इसके मुख्य अंग इस प्रकार हैं |
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− | शिशुअवस्था में कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों को सक्रिय बनाना, चलना, बोलना, खाना, सीखना, चित्त के माध्यम से संस्कार ग्रहण करना, जगतू का परिचय प्राप्त करने की शरुआत करना | | + | शिशुअवस्था में कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों को सक्रिय बनाना, चलना, बोलना, खाना, सीखना, चित्त के माध्यम से संस्कार ग्रहण करना, जगत का परिचय प्राप्त करने की शरुआत करना । |
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− | बाल और किशोर अवस्था में चरित्र के अनेक पहलुओं को सुदृढ़ बनाना, शरीर और मन को | + | बाल और किशोर अवस्था में चरित्र के अनेक पहलुओं को सुदृढ़ बनाना, शरीर और मन को साधना, बुद्धि की सक्रियता का प्रास्भ करना, घरगृहस्थी चलाने हेतु आवश्यक सारे काम सीखना, परिवार का अंग बनने हेतु नियमन और अनुशासन में रहना । शिशु अवस्था में माता की भूमिका प्रमुख होती है और शेष सभी सहयोगी होते हैं। बाल तथा किशोर अवस्था में पिता की भूमिका प्रमुख होती है और शेष सभी सहयोगी होते हैं । |
− | साधना, बुद्धि की सक्रियता का प्रास्भ करना, घरगृहस्थी चलाने हेतु आवश्यक सारे काम सीखना, परिवार का अंग बनने हेतु नियमन और अनुशासन में रहना । शिशु अवस्थामें माता की भूमिका प्रमुख होती है और शेष सभी सहयोगी होते हैं। बाल तथा किशोर अवस्था में पिता की भूमिका प्रमुख होती है | |
− | और शेष सभी सहयोगी होते हैं । | |
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− | तरुण और युवावस्था में स्वतन्त्र होने की, दायित्वबोध की और समाज के साथ समायोजित होने की शिक्षा मुख्य विषय है। इस दृष्टि से निरीक्षण, चिन्तन, विचारविमर्श, मातापिता से मार्गदर्शन और परामर्श अत्यन्त उपयोगी होते हैं। इस आयु में | + | तरुण और युवावस्था में स्वतन्त्र होने की, दायित्वबोध की और समाज के साथ समायोजित होने की शिक्षा मुख्य विषय है। इस दृष्टि से निरीक्षण, चिन्तन, विचारविमर्श, मातापिता से मार्गदर्शन और परामर्श अत्यन्त उपयोगी होते हैं। इस आयु में पुरुषत्व और स्त्रीत्व का विकास, अथर्जिन तथा गृहसंचालन की योग्यता और मातापिता के दायित्वों में सर्वप्रकार का सहभाग शिक्षा के प्रमुख अंग हैं । |
− | पुरुषत्व और सख्त्रीत्व का विकास, अथर्जिन तथा | |
− | गृहसंचालन की योग्यता और मातापिता के दायित्वों में सर्वप्रकार का सहभाग शिक्षा के प्रमुख अंग हैं । | |
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− | युवक विवाह करके गृहस्थ बनता है और घर का | + | युवक विवाह करके गृहस्थ बनता है और घर का दायित्व लेता है । अब पत्नी के साथ उसे मातापिता बनने की सिद्धता करनी है । उसे अपने मातापिता से जो मिला है उसे नई पीढ़ी तक पहुँचाने हेतु समर्थ बनना है । यह शिक्षा भी उसे मातापिता से ही प्राप्त होती है । वे पतिपत्नी बालक को जन्म देते हैं और उनकी परिवार में होनेवाली औपचारिक शिक्षा पूर्णता को प्राप्त होती है । |
− | दायित्व लेता है । अब पत्नी के साथ उसे मातापिता बनने की सिद्धता करनी है । उसे अपने मातापिता से जो मिला है उसे नई पीढ़ी तक पहुँचाने हेतु समर्थ बनना है । यह शिक्षा भी उसे मातापिता से ही प्राप्त | |
− | होती है । वे पतिपत्नी बालक को जन्म देते हैं और उनकी परिवार में होनेवाली औपचारिक शिक्षा पूर्णता को प्राप्त होती है । | |
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| श्रेष्ठ और सुसंस्कृत समाज के लिये घर में होनेवाली इस शिक्षा का महत्त्व बहुत है। आज इस बात का विस्मरण हो गया है । घर केवल भोजन और निवास की व्यवस्था के केन्द्र बन गये हैं । मकान के रूप में सम्पत्ति बन गया है। इसे पुनः संस्कृति का केन्द्र बनाना शिक्षाविषयक चिन्तन का महत्त्वपूर्ण मुद्दा है । | | श्रेष्ठ और सुसंस्कृत समाज के लिये घर में होनेवाली इस शिक्षा का महत्त्व बहुत है। आज इस बात का विस्मरण हो गया है । घर केवल भोजन और निवास की व्यवस्था के केन्द्र बन गये हैं । मकान के रूप में सम्पत्ति बन गया है। इसे पुनः संस्कृति का केन्द्र बनाना शिक्षाविषयक चिन्तन का महत्त्वपूर्ण मुद्दा है । |
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− | ===२. बालक की विद्यालयीन शिक्षा का प्रारम्भ उचित समय पर हो=== | + | ===बालक की विद्यालयीन शिक्षा का प्रारम्भ उचित समय पर हो=== |
− | समाज में आम धारणा बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में ही होती है । व्यक्ति के जीवन में शिक्षा अनिवार्य है, इसलिये उसका विद्यालय जाना भी अनिवार्य है । मातापिता को शिक्षा की इतनी जल्दी हो जाती है कि वे ढाई वर्ष की | + | समाज में आम धारणा बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में ही होती है । व्यक्ति के जीवन में शिक्षा अनिवार्य है, इसलिये उसका विद्यालय जाना भी अनिवार्य है । मातापिता को शिक्षा की इतनी जल्दी हो जाती है कि वे ढाई वर्ष की आयु में ही बालक को विद्यालय में भेज देते हैं । यह कवल बालक के साथ ही नहीं तो शिक्षा के साथ और समाज के साथ भी अन्याय है । जल्दी करने से अधिक शिक्षा नहीं होती, जल्दी करने से अच्छी शिक्षा नहीं होती । उल्टे अनेक प्रकार से हानि होती है। दुनियाभर के शिक्षाशासत्री बालक की शिक्षा कम से कम पाँच वर्ष पूर्ण होने के बाद ही शुरू होनी चाहिये यह आग्रहपूर्वक कहते हैं । परन्तु देशमें पूर्व प्राथमिक, नर्सरी, के.जी., बालवाडी, शिशुविहार, शिशुवाटिका आदि नामों से यह शिक्षा जोरशोर से चलती है । अनेक स्थानों पर तो यह एक उद्योग बन गया है और कम्पनियाँ बनी हैं । बाजार के लोभ से और मातापिता के आअज्ञान से यह शिक्षा चलती है । शिक्षाशास्त्र, मनोविज्ञान, व्यवहारशास्त्र इस बात का समर्थन नहीं करते तो भी यह चलता है । कई विद्यालय तो अपने पूर्वप्राथमिक विभाग में यदि प्रवेश नहीं लिया तो आगे की शिक्षा के लिये प्रवेश ही नहीं देते । “शिशुशिक्षा' नामक यह वस्तु महँगी भी बहुत है । शिशु शिक्षा होनी चाहिये घर में, आग्रह रखा जाता है विद्यालय में होने का । इसका एक कारण घर अब शिक्षा के केन्द्र नहीं रहे यह भी है । इस विषय को ठीक करने हेतु एक बड़ा समाजव्यापी आन्दोलन करने की आवश्यकता है । परिवार प्रबोधन अर्थात् माता- पिता की शिक्षा इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण अंग है । |
− | आयु में ही बालक को विद्यालय में भेज देते हैं । यह कवल बालक के साथ ही नहीं तो शिक्षा के साथ और समाज के साथ भी अन्याय है । जल्दी करने से अधिक शिक्षा नहीं होती, जल्दी करने से अच्छी शिक्षा नहीं होती । उल्टे अनेक प्रकार से हानि होती है। दुनियाभर के | |
− | शिक्षाशासत्री बालक की शिक्षा कम से कम पाँच वर्ष पूर्ण होने के बाद ही शुरू होनी चाहिये यह आग्रहपूर्वक कहते हैं । परन्तु देशमें पूर्व प्राथमिक, नर्सरी, के.जी., बालवाडी, शिशुविहार, शिशुवाटिका आदि नामों से यह शिक्षा जोरशोर से चलती है । अनेक स्थानों पर तो यह एक उद्योग बन गया है और कम्पनियाँ बनी हैं । बाजार के | |
− | लोभ से और मातापिता के आअज्ञान से यह शिक्षा चलती है । शिक्षाशास्त्र, मनोविज्ञान, व्यवहारशास्त्र इस बात का समर्थन नहीं करते तो भी यह चलता है । कई विद्यालय तो अपने | |
− | पूर्वप्राथमिक विभाग में यदि प्रवेश नहीं लिया तो आगे की शिक्षा के लिये प्रवेश ही नहीं देते । “शिशुशिक्षा' नामक यह वस्तु महँगी भी बहुत है । शिशु शिक्षा होनी चाहिये घर में, आग्रह रखा जाता है विद्यालय में होने का । इसका एक कारण घर अब शिक्षा के केन्द्र नहीं रहे यह भी है । इस | |
− | विषय को ठीक करने हेतु एक बड़ा समाजव्यापी आन्दोलन करने की आवश्यकता है । परिवार प्रबोधन अर्थात् माता- पिता की शिक्षा इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण अंग है । | |
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− | ===३. प्राथमिक शिक्षा क्रिया और अनुभव प्रधान हो=== | + | ===प्राथमिक शिक्षा क्रिया और अनुभव प्रधान हो=== |
| शिक्षा विषयक एक अतिशय गलत धारणा यह बन गई है कि वह पढने लिखने से होती है। पुस्तकों और बहियों को, पढने और लिखने को इतना अधिक महत्त्व दिया जाता है कि शिक्षा होती है कि नहीं इस बात की ओर ध्यान ही नहीं है । अभिभावकों का आग्रह ऐसा होता है कि वे नियमन करने लगते हैं । | | शिक्षा विषयक एक अतिशय गलत धारणा यह बन गई है कि वह पढने लिखने से होती है। पुस्तकों और बहियों को, पढने और लिखने को इतना अधिक महत्त्व दिया जाता है कि शिक्षा होती है कि नहीं इस बात की ओर ध्यान ही नहीं है । अभिभावकों का आग्रह ऐसा होता है कि वे नियमन करने लगते हैं । |
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− | प्राथमिक शिक्षा ज्ञानेन्ट्रियों और कर्मन्द्रियों का विकास करने की शिक्षा है। यह क्रिया आधारित और अनुभव आधारित होनी चाहिये । वह ऐसी हो इसलिये पुस्तकें और लेखन सामग्री कम होनी चाहिये । | + | प्राथमिक शिक्षा ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियों का विकास करने की शिक्षा है। यह क्रिया आधारित और अनुभव आधारित होनी चाहिये । वह ऐसी हो इसलिये पुस्तकें और लेखन सामग्री कम होनी चाहिये । |
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| बालक को बस्ते की विशेष आवश्यकता ही नहीं है । परन्तु इस आयु में ही बस्ता बहुत भारी हो जाता है । | | बालक को बस्ते की विशेष आवश्यकता ही नहीं है । परन्तु इस आयु में ही बस्ता बहुत भारी हो जाता है । |
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− | विभिन्न विषय सीखने की पद्धतियाँ भी भिन्न भिन्न होती हैं । भाषा बोलकर, पढकर, लिखकर सीखी जाती है, गणित गणना कर, संगीत गाकर, विज्ञान प्रयोग कर, इतिहास कहानी सुनकर सीखे जाने वाले विषय हैं । एक विषय की पद्धति दूसरे विषय को लागू नहीं हो सकती | उदाहरण के लिये संगीत पढकर नहीं सीखा जाता । गणित और विज्ञान भी पढकर नहीं सीखे जाते । शिक्षकों और अभिभावकों को यह मुद्दा समझने की अत्यन्त आवश्यकता है । यह भारतीय शिक्षा का या प्राचीन | + | विभिन्न विषय सीखने की पद्धतियाँ भी भिन्न भिन्न होती हैं । भाषा बोलकर, पढकर, लिखकर सीखी जाती है, गणित गणना कर, संगीत गाकर, विज्ञान प्रयोग कर, इतिहास कहानी सुनकर सीखे जाने वाले विषय हैं । एक विषय की पद्धति दूसरे विषय को लागू नहीं हो सकती । उदाहरण के लिये संगीत पढकर नहीं सीखा जाता । गणित और विज्ञान भी पढकर नहीं सीखे जाते । शिक्षकों और अभिभावकों को यह मुद्दा समझने की अत्यन्त आवश्यकता है । यह धार्मिक शिक्षा का या प्राचीन शिक्षा का नियम नहीं है, यह विश्वभर के मनुष्यमात्र की शिक्षा का सार्वकालीन नियम है । यह अभिभावक प्रबोधन का बहुत बड़ा विषय है । |
− | शिक्षा का नियम नहीं है, यह विश्वमर के मनुष्यमात्र की | |
− | शिक्षा का सार्वकालीन नियम है । यह अभिभावक प्रबोधन | |
− | का बहुत बड़ा विषय है । | |
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− | ===४. गृहकार्य, ट्यूशन, कोचिंग, गतिविधियाँ=== | + | ===गृहकार्य, ट्यूशन, कोचिंग, गतिविधियाँ=== |
− | शिक्षा को लेकर अभिभावकों के मनोमस्तिष्क इतने ग्रस्त और त्रस्त हैं कि कितने ही अकरणीय कार्य करने में वे | + | शिक्षा को लेकर अभिभावकों के मनोमस्तिष्क इतने ग्रस्त और त्रस्त हैं कि कितने ही अकरणीय कार्य करने में वे समय, शक्ति और पैसा खर्च करते हैं, साथ ही अपना तनाव और चिन्ता बढ़ा लेते हैं । |
− | समय, शक्ति और पैसा खर्च करते हैं, साथ ही अपना तनाव और चिन्ता बढ़ा लेते हैं । | |
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− | ऐसा एक मुद्दा गृहकार्य का है । बालकों के गृहकार्य का स्वरूप, गृहकार्य की मात्रा, गृहकार्य की पद्धति आदि सब अशाख्रीय ढंग से चलता है । गृहकार्य के रूप में विद्यालय घर में पहुँच जाता है । इसके चलते घर में सीखने लायक बातों की उपेक्षा होती है । उनके लिये समय ही | + | ऐसा एक मुद्दा गृहकार्य का है । बालकों के गृहकार्य का स्वरूप, गृहकार्य की मात्रा, गृहकार्य की पद्धति आदि सब अशास्त्रीय ढंग से चलता है । गृहकार्य के रूप में विद्यालय घर में पहुँच जाता है । इसके चलते घर में सीखने लायक बातों की उपेक्षा होती है । उनके लिये समय ही नहीं बचता है । गृहकार्य करने की पद्धति भी यान्त्रिक बन गई है। विद्यार्थी स्वयंप्रेरणासे गृहकार्य नहीं करते हैं। अभिभावकों को ध्यान देना पडता है । शिक्षकों को भय जगाना पड़ता है । |
− | नहीं बचता है । गृहकार्य करने की पद्धति भी यान्त्रिक बन | |
− | गई है। विद्यार्थी स्वयंप्रेरणासे गृहकार्य नहीं करते हैं। अभिभावकों को ध्यान देना पडता है । शिक्षकों को भय जगाना पड़ता है । | |
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− | अपने बालकों ने बहुत पढ़ना चाहिये ऐसी महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होकर मातापिता अपने बालकों को बहुत छोटी आयु में ही ट्यूशन के लिये भेजते हैं या अपने घर में शिक्षक को बुलाते हैं । कहीं कहीं तो तीन वर्ष के बालक के लिये भी स्यूशन होता है । कहीं कहीं बालक से | + | अपने बालकों ने बहुत पढ़ना चाहिये ऐसी महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होकर मातापिता अपने बालकों को बहुत छोटी आयु में ही ट्यूशन के लिये भेजते हैं या अपने घर में शिक्षक को बुलाते हैं । कहीं कहीं तो तीन वर्ष के बालक के लिये भी स्यूशन होता है । कहीं कहीं बालक से पिण्ड छुड़ाने के लिये भी उसे ट्यूशन में भेजा जाता है । कहीं कहीं गृहकार्य पूरा करवाने के लिये ट्यूशन में भेजा जाता है। यह तो बालक के साथ अन्याय है, उस पर अत्याचार है । |
− | पिण्ड छुड़ाने के लिये भी उसे ट्यूशन में भेजा जाता है | कहीं कहीं गृहकार्य पूरा करवाने के लिये ट्यूशन में भेजा | |
− | जाता है। यह तो बालक के साथ अन्याय है, उस पर अत्याचार है । | |
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| बालक थोडे बडे होते ही कोचिंग क्लास नामक प्रकरण शुरू हो जाता है । विभिन्न विषयों का कोचिंग होता है । दसवीं, बारहवीं, महाविद्यालयीन आदि सर्व स्तरों पर कोचिंग की महिमा बढ गई है । विद्यालयों से भी इनकी प्रतिष्ठा बढ गई है । इसके रूप में हम शिक्षाक्षेत्र को दूषित कर रहे हैं इसका भान शिक्षकों, अभिभावकों और कोचिंग देने वालों को नहीं है। इनके रूप में विषयों की परीक्षालक्षी शिक्षा होती है, विद्यार्थियों की शिक्षा नहीं होती यह मुद्दा विस्मृत हो गया है । शिक्षा का अग्रताक्रम ही बदल गया है । इस विषय पर अभिभावक प्रबोधन करने की आवश्यकता है । | | बालक थोडे बडे होते ही कोचिंग क्लास नामक प्रकरण शुरू हो जाता है । विभिन्न विषयों का कोचिंग होता है । दसवीं, बारहवीं, महाविद्यालयीन आदि सर्व स्तरों पर कोचिंग की महिमा बढ गई है । विद्यालयों से भी इनकी प्रतिष्ठा बढ गई है । इसके रूप में हम शिक्षाक्षेत्र को दूषित कर रहे हैं इसका भान शिक्षकों, अभिभावकों और कोचिंग देने वालों को नहीं है। इनके रूप में विषयों की परीक्षालक्षी शिक्षा होती है, विद्यार्थियों की शिक्षा नहीं होती यह मुद्दा विस्मृत हो गया है । शिक्षा का अग्रताक्रम ही बदल गया है । इस विषय पर अभिभावक प्रबोधन करने की आवश्यकता है । |
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| सर्वांगीण विकास की संकल्पना को स्पष्ट करना और उसके लिये क्या करना और विशेष रूप से क्या नहीं करना यह भी अभिभावक प्रबोधन का विषय है । | | सर्वांगीण विकास की संकल्पना को स्पष्ट करना और उसके लिये क्या करना और विशेष रूप से क्या नहीं करना यह भी अभिभावक प्रबोधन का विषय है । |
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− | ===५. अंग्रेजी माध्यम का मोह=== | + | ===अंग्रेजी माध्यम का मोह=== |
− | अभिभावकों को अंग्रेजी का इतना अधिक आकर्षण होता है कि वे अपने बालकों को मातृभाषा सिखाने से पहले ही अंग्रेजी सिखाना प्रारम्भ करते हैं । बालक को भविष्य में विदेश भेजना है इसलिये अंग्रेजी अनिवार्य है यह तर्क देकर वे दो वर्ष की आयु से अंग्रेजी सिखाना शुरु कर देते हैं और अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजते हैं । इससे न मातृभाषा आती है न वे अपनी संस्कृति से जुडते हैं । अंग्रेजी माध्यम में पढने से विचार करने की, चिन्तन की, विषय को ग्रहण करने की, अभिव्यक्ति की, मौलिकता की बौद्धिक शक्तियों का विकास नहीं होता इस बडे भारी नुकसान की ओर ध्यान ही नहीं जाता है । व्यक्तिगत रूप से या सामाजिक रूप से मौलिक और स्वतन्त्र चिन्तन का ह्रास अंग्रेजी के लिये चुकानी पड़ने वाली भारी कीमत है । परिवार प्रबोधन के बिना इसका परिहार होने वाला | + | अभिभावकों को अंग्रेजी का इतना अधिक आकर्षण होता है कि वे अपने बालकों को मातृभाषा सिखाने से पहले ही अंग्रेजी सिखाना प्रारम्भ करते हैं । बालक को भविष्य में विदेश भेजना है इसलिये अंग्रेजी अनिवार्य है यह तर्क देकर वे दो वर्ष की आयु से अंग्रेजी सिखाना शुरु कर देते हैं और अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजते हैं । इससे न मातृभाषा आती है न वे अपनी संस्कृति से जुडते हैं । अंग्रेजी माध्यम में पढने से विचार करने की, चिन्तन की, विषय को ग्रहण करने की, अभिव्यक्ति की, मौलिकता की बौद्धिक शक्तियों का विकास नहीं होता इस बडे भारी नुकसान की ओर ध्यान ही नहीं जाता है । व्यक्तिगत रूप से या सामाजिक रूप से मौलिक और स्वतन्त्र चिन्तन का ह्रास अंग्रेजी के लिये चुकानी पड़ने वाली भारी कीमत है । परिवार प्रबोधन के बिना इसका परिहार होने वाला नहीं है । |
− | नहीं है । | |
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− | ===६. सांस्कृतिक विषयों की उपेक्षा=== | + | ===सांस्कृतिक विषयों की उपेक्षा=== |
− | आजकल शिक्षा अनेक अप्राकृतिक बन्धनों में जकडी गई है । सांस्कृतिक विषयों की उपेक्षा इसमें एक है । आज | + | आजकल शिक्षा अनेक अप्राकृतिक बन्धनों में जकडी गई है । सांस्कृतिक विषयों की उपेक्षा इसमें एक है । आज शिक्षा, गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और कम्प्यूटर में सिमट गई है । इनको छोडकर सारे विषय फालतू हैं । आगे चलकर तन्त्रज्ञान, चिकित्सा, प्रबन्धन, संगणक विज्ञान, वाणिज्य महत्त्वपूर्ण विषय बन जाते हैं । इनके लिये आवश्यक हैं इसलिये प्रारम्भ में गणित और विज्ञान पढने हैं । गणित और विज्ञान में विषय के नाते रुचि नहीं है। इतिहास, समाजशास्त्र, तत्त्वज्ञान, गृहकार्य आदि सांस्कृतिक विषयों की घोर उपेक्षा हो रही है । ये सब पढने लायक विषय नहीं हैं। भाषा और साहित्य की ओर भी सुझान नहीं है। भाषाशुद्धि का आग्रह समाप्त हो गया है । इसका परिणाम यह होता है कि सामाजिकता, सभ्यता, शिष्टता, संस्कारिता, सामाजिक दायित्वबोध, देशभक्ति, मानवीय गुण आदि की शिक्षा नहीं मिलती है । मनुष्य एक यान्त्रिक, पशुतुल्य, आर्थिक प्राणी बनकर रह जाता है । यान्त्रिक शिष्टाचार और सभ्यता विकसित होती है । मानवीय सम्बन्धों को स्वार्थ की प्रेरणा होती है । अर्थात् व्यक्ति अपने सुख का विचार कर दूसरों से सम्बन्ध बनाता है । अपने लिये भी वह हित का नहीं, सुख का ही विचार करता है । भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति को ही पुरुषार्थ मानता है, शिक्षा का प्रयोजन भी वही है और वह प्राप्त कर सकने को यश मानता है । अधिक से अधिकतर की ओर गति को ही विकास मानता है और उसे ऐसा विकास ही चाहिये । |
− | शिक्षा, गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और कम्प्यूटर में सिमट गई है । इनको छोडकर सारे विषय फालतू हैं । आगे चलकर तन्त्रज्ञान, चिकित्सा, प्रबन्धन, संगणक विज्ञान, वाणिज्य | |
− | महत्त्वपूर्ण विषय बन जाते हैं । इनके लिये आवश्यक हैं इसलिये प्रारम्भ में गणित और विज्ञान पढने हैं । गणित और विज्ञान में विषय के नाते रुचि नहीं है। इतिहास, समाजशास्त्र, तत्त्वज्ञान, गृहकार्य आदि सांस्कृतिक विषयों | |
− | की घोर उपेक्षा हो रही है । ये सब पढने लायक विषय नहीं हैं। भाषा और साहित्य की ओर भी सुझान नहीं है। भाषाशुद्धि का आग्रह समाप्त हो गया है । इसका परिणाम यह होता है कि सामाजिकता, सभ्यता, शिष्टता, संस्कारिता, सामाजिक दायित्वबोध, देशभक्ति, मानवीय गुण आदि की शिक्षा नहीं मिलती है । मनुष्य एक यान्त्रिक, पशुतुल्य, आर्थिक प्राणी बनकर रह जाता है । यान्त्रिक शिष्टाचार और सभ्यता विकसित होती है । मानवीय सम्बन्धों को स्वार्थ की प्रेरणा होती है । अर्थात् व्यक्ति अपने सुख का विचार कर दूसरों से सम्बन्ध बनाता है । अपने लिये भी वह हित का नहीं, सुख का ही विचार करता है । भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति को ही पुरुषार्थ मानता है, शिक्षा का प्रयोजन भी वही है और वह प्राप्त कर सकने को यश मानता है । अधिक से अधिकतर की ओर गति को ही विकास मानता है और उसे ऐसा विकास ही चाहिये । | |
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− | ===७. वैश्विकता का आकर्षण=== | + | ===वैश्विकता का आकर्षण=== |
| शिक्षा अब स्वतः प्रमाण नहीं रही है । अर्थात् शिक्षा | | शिक्षा अब स्वतः प्रमाण नहीं रही है । अर्थात् शिक्षा |
− | अपने आपको अपने ही बल पर प्रमाणित नहीं करती | | + | अपने आपको अपने ही बल पर प्रमाणित नहीं करती । |
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− | व्यक्ति की भाषा, व्यक्ति का व्यवहार, व्यक्ति का दृष्टिकोण उसके शिक्षित होने का प्रमाण है। व्यक्ति के संस्कार, सद्गुण और सत्कार्य उसके शिक्षित होने का प्रमाण है । लिखित प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती है । किसी और ने प्रमाणित करने की बाध्यता नहीं होती । परन्तु हमने इन स्वाभाविक प्रमाणपत्रों के स्थान पर कृत्रिम और औपचारिक प्रमाणों की व्यवस्था की । सच्ची शिक्षा से विमुख होने का यह प्रारम्भ हुआ । इस व्यवस लिये संस्था और प्रक्रिया दोनों की आवश्यकता थी | इसलिये परीक्षा नामक प्रक्रिया और प्रमाणित करने वाला बोर्ड नामक संस्था बनी ।
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− | अब हमें शिक्षा से प्राप्त ज्ञान की नहीं अपितु परीक्षा के परिणाम स्वरूप मिलने वाले प्रमाणपत्र की आवश्यकता है क्योंकि नौकरी उससे मिलती है । ज्ञान की ही परीक्षा होती है और उसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रमाणपत्र मिलेगा यह
| + | व्यक्ति की भाषा, व्यक्ति का व्यवहार, व्यक्ति का दृष्टिकोण उसके शिक्षित होने का प्रमाण है। व्यक्ति के संस्कार, सद्गुण और सत्कार्य उसके शिक्षित होने का प्रमाण है । लिखित प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती है । किसी और ने प्रमाणित करने की बाध्यता नहीं होती । परन्तु हमने इन स्वाभाविक प्रमाणपत्रों के स्थान पर कृत्रिम और औपचारिक प्रमाणों की व्यवस्था की । सच्ची शिक्षा से विमुख होने का यह प्रारम्भ हुआ । इस व्यवस्था के लिये संस्था और प्रक्रिया दोनों की आवश्यकता थी । इसलिये परीक्षा नामक प्रक्रिया और प्रमाणित करने वाला बोर्ड नामक संस्था बनी । |
− | स्वाभाविक क्रम है परन्तु यह सम्बन्ध विच्छेद कब हो गया
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− | इसका पता भी नहीं चला और वह हो गया । प्रमाणपत्र के बिना भी ज्ञान होता है इसका भी विस्मरण हो गया ।
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− | इसे प्रमाणित करने वाली भी विविध प्रकार की
| + | अब हमें शिक्षा से प्राप्त ज्ञान की नहीं अपितु परीक्षा के परिणाम स्वरूप मिलने वाले प्रमाणपत्र की आवश्यकता है क्योंकि नौकरी उससे मिलती है । ज्ञान की ही परीक्षा होती है और उसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रमाणपत्र मिलेगा यह स्वाभाविक क्रम है परन्तु यह सम्बन्ध विच्छेद कब हो गया इसका पता भी नहीं चला और वह हो गया । प्रमाणपत्र के बिना भी ज्ञान होता है इसका भी विस्मरण हो गया । |
− | संस्थायें होती हैं । ये स्थानिक, प्रान्तीय, अखिल भारतीय
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− | और आर्न्तर्रष्ट्रीय होती हैं ।
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− | अब विकास की दौड में सब को अन्तरराष्ट्रीय संस्था का आकर्षण हो गया है। सब को लगता है कि आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड का प्रमाणपत्र अधिक प्रतिष्ठित है । अब ज्ञान, संस्कार, चरित्र, सामाजिकता, मानवीयता आदि अर्थहीन और अप्रासंगिक बातें हो गई हैं । वैश्विकता ही विकास है । | + | इसे प्रमाणित करने वाली भी विविध प्रकार की संस्थायें होती हैं । ये स्थानिक, प्रान्तीय, अखिल धार्मिक और अंतर्राष्ट्रीय होती हैं । अब विकास की दौड में सब को अन्तरराष्ट्रीय संस्था का आकर्षण हो गया है। सब को लगता है कि अन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड का प्रमाणपत्र अधिक प्रतिष्ठित है । अब ज्ञान, संस्कार, चरित्र, सामाजिकता, मानवीयता आदि अर्थहीन और अप्रासंगिक बातें हो गई हैं । वैश्विकता ही विकास है । |
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| यह कोई उचित दिशा नहीं है । इस विषय में प्रबोधन की आवश्यकता है । | | यह कोई उचित दिशा नहीं है । इस विषय में प्रबोधन की आवश्यकता है । |
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− | ===८. जीवनविषयक दृष्टि की विपरीतता=== | + | ===जीवनविषयक दृष्टि की विपरीतता=== |
− | जीवन को भौतिकता की दृष्टि से ही देखने का | + | जीवन को भौतिकता की दृष्टि से ही देखने का प्रभाव शिक्षा पर पड रहा है । ऐसे दृष्टिकोण का बढ़ना और सार्वत्रिक होना शिक्षा का ही परिणाम है। परन्तु अब उससे निपटना और उसमें बदल करना केवल शिक्षाक्षेत्र के बस की बात नहीं रही । अभिभावकों के सहयोग के बिना यह कार्य होना असम्भव है । इस दृष्टि से शिक्षा, जीवन, संस्कृति आदि विषयों को लेकर अभिभावक प्रबोधन की व्यापक योजना होने की आवश्यकता है । वर्तमान स्थिति ऐसी है कि अभिभावक विद्यालय के अनुकूल नहीं बनते विद्यालय अभिभावकों के अनुकूल हो ऐसा मानस अभिभावक रखते हैं । विद्यालय कभी मजबूरी में और कभी स्वाभाविक रूप में इस भूमिका को स्वीकार करते हैं क्योंकि बाजार का दृष्टिकोण सर्वत्र प्रतिष्ठित हो गया है जहाँ अभिभावक ग्राहक हैं और विद्यालय शिक्षा को बेचने वाले हैं । ग्राहकों के अनुकूल होना व्यापारी का धर्म होता है । |
− | प्रभाव शिक्षा पर पड रहा है । ऐसे दृष्टिकोण का बढ़ना और सार्वत्रिक होना शिक्षा का ही परिणाम है। परन्तु अब उससे निपटना और उसमें बदल करना केवल शिक्षाक्षेत्र के बस की बात नहीं रही । अभिभावकों के सहयोग के बिना यह कार्य होना असम्भव | |
− | है । इस दृष्टि से शिक्षा, जीवन, संस्कृति आदि विषयों को लेकर अभिभावक प्रबोधन की व्यापक योजना होने की आवश्यकता है । वर्तमान स्थिति ऐसी है कि अभिभावक विद्यालय के अनुकूल नहीं बनते विद्यालय अभिभावकों के अनुकूल हो ऐसा मानस अभिभावक रखते हैं । विद्यालय कभी मजबूरी में और कभी स्वाभाविक रूप में इस भूमिका को स्वीकार करते हैं क्योंकि बाजार का दृष्टिकोण सर्वत्र प्रतिष्ठित हो गया है जहाँ अभिभावक ग्राहक हैं और विद्यालय शिक्षा को बेचने वाले हैं । ग्राहकों के अनुकूल होना व्यापारी का धर्म होता है । | |
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− | इन विषयों की शैक्षिक दृष्टि से विस्तारपूर्वक चर्चा अन्यत्र स्वतन्त्र रूप से की गई है। यहाँ उसकी आवश्यकता नहीं । यहाँ अभिभावक प्रबोधन के विषय | + | इन विषयों की शैक्षिक दृष्टि से विस्तारपूर्वक चर्चा अन्यत्र स्वतन्त्र रूप से की गई है। यहाँ उसकी आवश्यकता नहीं । यहाँ अभिभावक प्रबोधन के विषय कौन से हैं और उनकी योजना कैसे करना इसका विचार किया है । |
− | कौन से हैं और उनकी योजना कैसे करना इसका विचार किया है । | |
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| यहाँ जिन विषयों का उल्लेख हुआ हैं उनको ठीक करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है क्योंकि ये देशव्यापी हैं, अत्यन्त प्रभावी रूप से पकड जमाये हुए हैं । सम्पूर्ण समाज कहीं न कहीं अभिभावक के रूप में ही व्यवहार करता है । सरकार भी इसका ही एक अंग है । बाजार ने इस पर पकड जमाई है । विज्ञापन मानस को प्रभावित करते हैं । | | यहाँ जिन विषयों का उल्लेख हुआ हैं उनको ठीक करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है क्योंकि ये देशव्यापी हैं, अत्यन्त प्रभावी रूप से पकड जमाये हुए हैं । सम्पूर्ण समाज कहीं न कहीं अभिभावक के रूप में ही व्यवहार करता है । सरकार भी इसका ही एक अंग है । बाजार ने इस पर पकड जमाई है । विज्ञापन मानस को प्रभावित करते हैं । |
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− | परन्तु विषय गम्भीर है। जीवन की सर्वप्रकार की गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है । मनुष्यजीवन और पशुजीवन में जो अन्तर होता है वही समाप्त होता जा रहा है । इतना ही क्यों, पशु तो फिर भी प्राकृतिक जीवन जीते हैं और अनेक प्रकार की समस्याओं से बच जाते हैं । मनुष्य सुसंस्कृत जीवन व्यतीत करे ऐसी उससे अपेक्षा होती है परन्तु संस्कृति के शिखर से च्युत होने पर वह प्राकृत नहीं होता, विकृति के गर्त में गिरता है । मनुष्य जीवन को अपने ही द्वारा निर्मित समस्याओं के परिणाम स्वरूप विकृत हो | + | परन्तु विषय गम्भीर है। जीवन की सर्वप्रकार की गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है । मनुष्यजीवन और पशुजीवन में जो अन्तर होता है वही समाप्त होता जा रहा है । इतना ही क्यों, पशु तो फिर भी प्राकृतिक जीवन जीते हैं और अनेक प्रकार की समस्याओं से बच जाते हैं । मनुष्य सुसंस्कृत जीवन व्यतीत करे ऐसी उससे अपेक्षा होती है परन्तु संस्कृति के शिखर से च्युत होने पर वह प्राकृत नहीं होता, विकृति के गर्त में गिरता है । मनुष्य जीवन को अपने ही द्वारा निर्मित समस्याओं के परिणाम स्वरूप विकृत हो जाने की स्थिति आज निर्माण हुई है । शिक्षा को लेकर अभिभावक प्रबोधन का प्रयोजन शिक्षा को और शिक्षा क माध्यम से मनुष्यजीवन को विकृति से बचाना है, विकृति के गर्त से बाहर लाना है। परिवार अभिभावक के लिये पर्यायवाची संज्ञा है अतः हम अभिभावक प्रबोधन को परिवार प्रबोधन ही कहेंगे । |
− | जाने की स्थिति आज निर्माण हुई है । शिक्षा को लेकर अभिभावक प्रबोधन का प्रयोजन शिक्षा को और शिक्षा क माध्यम से मनुष्यजीवन को विकृति से बचाना है, विकृति के गर्त से बाहर लाना है। परिवार अभिभावक के लिये पर्यायबाची संज्ञा है अतः हम अभिभावक प्रबोधन को | |
− | परिवार प्रबोधन ही कहेंगे । | |
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− | परिवार प्रबोधन की योजना का पहला अंग है परिवार प्रबोधन का पाठ्यक्रम तैयार करना जिसके आधार पर आगे | + | परिवार प्रबोधन की योजना का पहला अंग है परिवार प्रबोधन का पाठ्यक्रम तैयार करना जिसके आधार पर आगे की योजना बनेगी। पाठ्यक्रम के विषय कुछ इस प्रकार हो सकते हैं... |
− | की योजना बनेगी । पाठ्यक्रम के विषय कुछ इस प्रकार हो सकते हैं... | |
| # परिवार का अर्थ, परिवार का महत्त्व, सामाजिक, सांस्कृतिक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य | | # परिवार का अर्थ, परिवार का महत्त्व, सामाजिक, सांस्कृतिक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य |
| # परिवार की रचना, परिवार भावना एवं परिवार व्यवस्था | | # परिवार की रचना, परिवार भावना एवं परिवार व्यवस्था |
| # परिवार में शिक्षा और परिवार की शिक्षा | | # परिवार में शिक्षा और परिवार की शिक्षा |
| # वसुधैव कुट्म्बकम् | | # वसुधैव कुट्म्बकम् |
− | # भारतीय परिवार की विशेषता | + | # धार्मिक परिवार की विशेषता |
− | # परिवार की भारतीय और पश्चिमी संकल्पना की तुलना | + | # परिवार की धार्मिक और पश्चिमी संकल्पना की तुलना |
| # परिवार एक विद्यालय | | # परिवार एक विद्यालय |
| ये तो एक भूमिका बनाने के अधारभूत विषय हैं । इसके बाद व्यावहारिक विषयों की सूची बन सकती है । | | ये तो एक भूमिका बनाने के अधारभूत विषय हैं । इसके बाद व्यावहारिक विषयों की सूची बन सकती है । |
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− | परिवार रचना हेतु आवश्यक विषय | + | ==== परिवार रचना हेतु आवश्यक विषय ==== |
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| #वरवधूचयन और विवाहसंस्कार | | #वरवधूचयन और विवाहसंस्कार |
| #समर्थ राष्ट्र हेतु समर्थ बालक को जन्म देने वाले समर्थ मातापिता बनने की शिक्षा | | #समर्थ राष्ट्र हेतु समर्थ बालक को जन्म देने वाले समर्थ मातापिता बनने की शिक्षा |
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| #परिवार और कुलपरम्परा | | #परिवार और कुलपरम्परा |
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− | परिवार और समाज के अन्तर्सम्बन्ध के विषय | + | ==== परिवार और समाज के अन्तर्सम्बन्ध के विषय ==== |
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| #गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म | | #गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म |
| #परिवार और राष्ट्र, धर्म, संस्कृति | | #परिवार और राष्ट्र, धर्म, संस्कृति |
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| परिवार संचालन हेतु उपयोगी विषय : ये विषय सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों आयामों में होंगे । | | परिवार संचालन हेतु उपयोगी विषय : ये विषय सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों आयामों में होंगे । |
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− | # आहारशास्त्र जिसमें भोजन बनाना, करना और करवाना, भोजनसामग्री की शुद्धता की परख आदि बातों का समावेश होगा । | + | # आहारशास्त्र जिसमें भोजन बनाना, करना और करवाना, भोजनसामग्री की शुद्धता की परख आदि बातों का समावेश होगा। |
| # शुश्रूषा और परिचर्या करना जिसमें बच्चों की, वृद्धों की अतिथि की, बडों की और रुण्णों की परिचर्या और शुश्रूषा का समावेश होगा । | | # शुश्रूषा और परिचर्या करना जिसमें बच्चों की, वृद्धों की अतिथि की, बडों की और रुण्णों की परिचर्या और शुश्रूषा का समावेश होगा । |
| # गृहोपयोगी कार्य जिसमें कपडे, बर्तन, फर्नीचर, धान्य आदि अनेक बातों की सफाई का समावेश होगा । | | # गृहोपयोगी कार्य जिसमें कपडे, बर्तन, फर्नीचर, धान्य आदि अनेक बातों की सफाई का समावेश होगा । |
− | # इन्हीं के साथ पूजा, अतिथिसत्कार, ब्रतों, vat, उत्सवों, त्योहारों आदि को मनाना, दान-यज्ञ आदि करना, ब्रत-उपवास आदि करना इन सब का समावेश होगा । | + | # इन्हीं के साथ पूजा, अतिथिसत्कार, व्रतों, उत्सवों, त्योहारों आदि को मनाना, दान-यज्ञ आदि करना, व्रत-उपवास आदि करना इन सब का समावेश होगा । |
| # अथर्जिन की क्षमता का विकास | | # अथर्जिन की क्षमता का विकास |
| # अधिजननशास्त्र | | # अधिजननशास्त्र |
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| # अपनी सन्तान हेतु कौनसी शिक्षा उचित है यह कैसे तय को | | # अपनी सन्तान हेतु कौनसी शिक्षा उचित है यह कैसे तय को |
| # शिक्षा का प्रयोजन, शिक्षा कैसे होती है | | # शिक्षा का प्रयोजन, शिक्षा कैसे होती है |
− | # भारतीय शिक्षा और पाश्चात्य शिक्षा की तुलना | + | # धार्मिक शिक्षा और पाश्चात्य शिक्षा की तुलना |
| # शिक्षित व्यक्ति के लक्षण | | # शिक्षित व्यक्ति के लक्षण |
| # राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप | | # राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप |
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| इस पाठ्यक्रम में और भी विषय हो सकते हैं। आवश्यकता और सम्भावना के आधार पर अपनी अपनी सूची बनाई जा सकती है । | | इस पाठ्यक्रम में और भी विषय हो सकते हैं। आवश्यकता और सम्भावना के आधार पर अपनी अपनी सूची बनाई जा सकती है । |
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− | पाठ्यक्रम निर्माण करने के बाद सामग्री की | + | पाठ्यक्रम निर्माण करने के बाद सामग्री की आवश्यकता रहेगी । विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अध्ययन कर अनेक प्रकार की सामग्री तैयार करनी चाहिये । जैसे कि |
− | आवश्यकता रहेगी । विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अध्ययन कर अनेक प्रकार की सामग्री तैयार करनी चाहिये । जैसे कि | + | # पुस्तकें : छोटी छोटी पुस्तिकाओं से लेकर बडे ग्रन्थ |
− | | + | # चित्र और आलेखों की प्रदर्शनी |
− | 1. पुस्तकें : छोटी छोटी पुस्तिकाओं से लेकर बडे ग्रन्थ
| + | # दृश्यश्राव्य सामग्री : सी.डी., फिल्म आदि |
− | | + | # कहानी, गीतों, प्रेरक घटनाओं का संग्रह |
− | 2. चित्र और आलेखों की प्रदर्शनी
| + | # खिलौने, वस्त्र, खाद्य पदार्थ, सुशोभन सामग्री, पात्रसंग्रह, स्वच्छता का सामान आदि का संग्रहालय तथा प्रदर्शनी |
− | | + | # नुक्कड नाटकों के लिये छोटे छोटे नाटक |
− | 3. दृश्यश्राव्य सामग्री : सी.डी., फिल्म आदि
| + | # सभा सम्मेलनों के लिये भाषण, गीत आदि |
− | | + | # रैलियों के लिये गीत, फलक, नारे, सूत्र आदि |
− | 4. कहानी, गीतों, प्रेरक घटनाओं का संग्रह
| + | # वॉट्सएप, फेसबुक आदि के लिये विडियो क्लीप्स, सन्देश, चित्र आदि |
− | | + | # विद्यास्भ संस्कार, जन्मदिनोत्सव आदि मनाने में मार्गदर्शक सामग्री |
− | 5. खिलौने, वस्त्र, खाद्य पदार्थ, सुशोभन सामग्री, पात्रसंग्रह, स्वच्छता का सामान आदि का संग्रहालय तथा प्रदर्शनी
| + | इन्हें सिखाने की योजना करना तथा पढ़ाने की योजना करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । इस दृष्टि से कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है: |
− | | + | # शिक्षा के सर्व स्तरों पर सामान्य पाठ्यक्रम के अन्तर्गत इन विषयों का समावेश करना । |
− | 6. नुक्कड नाटकों के लिये छोटे छोटे नाटक
| + | # विद्यालय में जिस प्रकार प्राथमिक, माध्यमिक आदि विभाग होते हैं उस प्रकार परिवार शिक्षा विभाग हो सकता है । |
− | | + | # इन विषयों को सिखाने के लिये शिक्षक तैयार करने हेतु शिक्षक शिक्षा भी शुरू करनी होगी । |
− | 7. सभा सम्मेलनों के लिये भाषण, गीत आदि
| + | # विश्वविद्यालयों में गृहशास्तर, अधिजननशास्त्र जैसे विषय शुरू किये जा सकते हैं । |
− | | + | # विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक संस्था एवं संगठनों में छोटे छोटे पाठ्यक्रम, व्याख्यानमाला, कार्यशाला आदि की योजना हो सकती है । |
− | 8. रेलियों के लिये गीत, फलक, नारे, सूत्र आदि
| + | # सभाओं, सम्मेलनों, मेलों आदि में पुस्तक तथा अन्य सामग्री के वितरण की योजना बन सकती है । |
− | | + | # विद्यालय तथा अन्य संस्थायें प्रभातफेरियों, नुक्कड, नाटकों, रैलियों का आयोजन कर सकते हैं । |
− | 9. वॉट्सएप, फेसबुक आदि के लिये विडियो क्लीप्स, सन्देश, चित्र आदि
| + | # कीर्तनकारों और कथाकारों को इन विषयों को अपनी कथाओं के माध्यम से समाज तक पहुँचाने हेतु निवेदन किया जा सकता है । |
− | | + | # धारावाहिकों और फिल्मों को इन विषयों को चुनने का निवेदन भी किया जा सकता है । |
− | 10. विद्यास्भ संस्कार, जन्मदिनोत्सव आदि मनाने में
| + | # अन्तर्जाल का माध्यम भी इस विषय के प्रसार हेतु उपयोग में आ सकता है । |
− | मार्गदर्शक सामग्री | + | # गृहविद्यापीठ की रचना भी होनी चाहिये । |
− | | + | सामाजिकता की पर्यायोगिक शिक्षा: किसी भी हालत में यह विषय सरकारी मान्यता, अनुदान, प्रमाणपत्र आदि का विषय नहीं बनाना चाहिये ।यह समाज की आवश्यकता का विषय है, समाज को अपने बलबूते पर ही उसे क्रियान्वित करना चाहिये । शिक्षाक्षेत्र को इसमें अग्रसर की भूमिका लेनी चाहिये । यह ज्ञान, संस्कार, संस्कृति और धर्म का क्षेत्र है, बाजार और राज्य का नहीं । उसे उसी रूप में विकसित करना चाहिये । |
− | ३. इन्हें सिखाने की योजना करना तथा पढ़ाने की योजना करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । इस दृष्टि से कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है...
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− | १, शिक्षा के सर्व स्तरों पर सामान्य पाठ्यक्रम के
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− | अन्तर्गत इन विषयों का समावेश करना । | |
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− | २. विद्यालय में जिस प्रकार प्राथमिक, माध्यमिक आदि
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− | विभाग होते हैं उस प्रकार परिवार शिक्षा विभाग हो | |
− | सकता है । | |
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− | ३. इन विषयों को सिखाने के लिये
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− | शिक्षक तैयार करने हेतु शिक्षक शिक्षा भी शुरू करनी | |
− | होगी । | |
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− | ४. विश्वविद्यालयों में गृहशास्तर, अधिजननशास््र जैसे
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− | विषय शुरू किये जा सकते हैं । | |
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− | ५. विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक संस्था एवं संगठनों में
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− | छोटे छोटे पाठ्यक्रम, व्याख्यानमाला, कार्यशाला | |
− | आदि की योजना हो सकती है । | |
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− | ६. सभाओं, सम्मेलनों, मेलों आदि में पुस्तक तथा अन्य
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− | सामग्री के वितरण की योजना बन सकती है । | |
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− | ७. विद्यालय तथा अन्य संस्थायें प्रभातफेरियों, नुक्कड,
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− | नाटकों, रेलियों का आयोजन कर सकते हैं । | |
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− | ८. कीर्तनकारों और कथाकारों को इन विषयों को अपनी कथाओं के माध्यम से समाज तक पहुँचाने हेतु निवेदन किया जा सकता है ।
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− | ९. धारावाहिकों और फिल्मों को इन विषयों को चुनने
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− | का निवेदन भी किया जा सकता है । | |
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− | १०. अन्तर्जाल का माध्यम भी इस विषय के प्रसार हेतु
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− | उपयोग में आ सकता है । | |
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− | ११. गृहविद्यापीठ की रचना भी होनी चाहिये ।
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− | सामाजिकता की पर्यायोगिक शिक्षा | |
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− | किसी भी हालत में यह विषय सरकारी मान्यता, | |
− | अनुदान, प्रमाणपत्र आदि का विषय नहीं बनाना चाहिये । | |
− | यह समाज की आवश्यकता का विषय है, समाज को अपने
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− | बलबूते पर ही उसे क्रियान्वित करना चाहिये । शिक्षाक्षेत्र | |
− | को इसमें अग्रसर की भूमिका लेनी चाहिये । यह ज्ञान, | |
− | संस्कार, संस्कृति और धर्म का क्षेत्र है, बाजार और राज्य | |
− | का नहीं । उसे उसी रूप में विकसित करना चाहिये । | |
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− | Ro.
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− | 8.
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| === सामाजिकता की प्रायोगिक शिक्षा === | | === सामाजिकता की प्रायोगिक शिक्षा === |
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| ==== सामाजिकता क्या है ? ==== | | ==== सामाजिकता क्या है ? ==== |
− | मनुष्य समाज में रहता है । समाज मनुष्य का ही होता | + | मनुष्य समाज में रहता है । समाज मनुष्य का ही होता है। मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों का तो केवल समूह होता है । अन्य प्राणी केवल शारीरिक सुरक्षा के लिये समूह में रहते दिखाई देते हैं । मनुष्य के समूह में रहने के शारीरिक स्तर की सुरक्षा से बढहकर अनेक आयाम होते हैं । |
− | है । मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों का तो केवल समूह
| |
− | होता है । अन्य प्राणी केवल शारीरिक सुरक्षा के लिये समूह | |
− | में रहते दिखाई देते हैं । मनुष्य के समूह में रहने के शारीरिक | |
− | स्तर की सुरक्षा से बढहकर अनेक आयाम होते हैं । | |
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− | मनुष्य की आवश्यकतायें प्राणियों की आवश्यकताओं | + | मनुष्य की आवश्यकतायें प्राणियों की आवश्यकताओं से कहीं अधिक होती हैं । वह अकेला इन्हें पूरी नहीं कर सकता । उसे दूसरों पर निर्भर रहना ही पडता है। यह परस्परावलम्बन है । एकदूसरे के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाये रखे बिना परस्परावलम्बन सम्भव नहीं होता । अतः आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समूह में रहने के मनुष्य ने कुछ नियम बनाये, एक व्यवस्था बनाई, एक शास्त्र बनाया जिसे |
− | से कहीं अधिक होती हैं । वह अकेला इन्हें पूरी नहीं कर | + | समाजशास्त्र कहते हैं । यह व्यवस्था मनुष्य के व्यक्तित्व का अंग बन जाता है तब वह स्वाभाविक होता है । इसे ही सामाजिकता कहते हैं। हर व्यक्ति में इस सामाजिकता का विकास होना चाहिये । |
− | सकता । उसे दूसरों पर निर्भर रहना ही पडता है। यह | |
− | परस्परावलम्बन है । एकदूसरे के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाये | |
− | रखे बिना परस्परावलम्बन सम्भव नहीं होता । अतः | |
− | आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समूह में रहने के मनुष्य ने कुछ | |
− | नियम बनाये, एक व्यवस्था बनाई, एक शास्त्र बनाया जिसे | |
− | समाजशास्त्र कहते हैं । यह व्यवस्था मनुष्य के व्यक्तित्व का | |
− | अंग बन जाता है तब वह स्वाभाविक होता है । इसे ही | |
− | सामाजिकता कहते हैं । हर व्यक्ति में इस सामाजिकता का | |
− | विकास होना चाहिये । | |
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− | परन्तु आवश्यकताओं की पूर्ति ही सामाजिकता के | + | परन्तु आवश्यकताओं की पूर्ति ही सामाजिकता के लिये एकमेव प्रयोजन नहीं है । केवल आवश्यकताओं की पूर्ति यह तो ऊपरी और कुछ मात्रा में कृत्रिम प्रयोजन है । मूल प्रयोजन है आत्मीयता और प्रेम । सब एकदूसरे के साथ आत्मिक स्तर पर जुडे हैं और एकदूसरे के लिये प्रेम का अनुभव करते हैं इसलिये साथ रहना स्वाभाविक है, साथ रहना अच्छा लगता है यह मूल प्रयोजन है । आत्मीयता के |
− | लिये एकमेव प्रयोजन नहीं है । केवल आवश्यकताओं की | + | कारण ही सेवा, त्याग, सहयोग आदि गुण प्रकट होते हैं और व्यवहार में दिखाई देते हैं । ये बाहरी व्यवस्था के नियम नहीं हैं, लेनदेन के या लाभालाभ के हिसाब नहीं हैं, ये बिना हिसाब के देने के रूप में ही प्रकट होते हैं । यह आत्मीयता ही मनुष्य के लिये समूह में रहने हेतु प्रेरित करती है । प्रेम और आत्मीयता जिन गुणों के रूप में प्रकट होते हैं, उन गुणों का विकास ही सामाजिकता का विकास है। |
− | पूर्ति यह तो ऊपरी और कुछ मात्रा में कृत्रिम प्रयोजन है । | |
− | मूल प्रयोजन है आत्मीयता और प्रेम । सब एकदूसरे के साथ | |
− | आत्मिक स्तर पर जुडे हैं और एकदूसरे के लिये प्रेम का | |
− | अनुभव करते हैं इसलिये साथ रहना स्वाभाविक है, साथ | |
− | रहना अच्छा लगता है यह मूल प्रयोजन है । आत्मीयता के | |
− | कारण ही सेवा, त्याग, सहयोग आदि गुण प्रकट होते हैं | |
− | और व्यवहार में दिखाई देते हैं । ये बाहरी व्यवस्था के | |
− | नियम नहीं हैं, लेनदेन के या लाभालाभ के हिसाब नहीं हैं, | |
− | ये बिना हिसाब के देने के रूप में ही प्रकट होते हैं । यह | |
− | आत्मीयता ही मनुष्य के लिये समूह में रहने हेतु प्रेरित करती | |
− | है । प्रेम और आत्मीयता जिन गुणों के रूप में प्रकट होते हैं | |
− | उन गुणों का विकास ही सामाजिकता का विकास है । | |
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− | विद्यालयों के शिक्षाक्रम में सामाजिकता के गुणों का | + | विद्यालयों के शिक्षाक्रम में सामाजिकता के गुणों का विकास करने हेतु सावधानीपूर्वक अनेक प्रकार से योजना करनी चाहिये । |
− | विकास करने हेतु सावधानीपूर्वक अनेक प्रकार से योजना | |
− | करनी चाहिये । | |
| | | |
− | ==== १, देना और बॉाँट कर उपभोग करना ==== | + | ==== देना और बाँट कर उपभोग करना ==== |
− | शिशु और प्रारम्भिक बाल अवस्था में इन गुणों के | + | शिशु और प्रारम्भिक बाल अवस्था में इन गुणों के संस्कार होना आवश्यक है। इस दृष्टि से गीत, खेल, कहानी आदि का चयन होना चाहिये । बच्चे घर से अल्पाहार लाते हैं और साथ बैठकर करते हैं तब भोजन शुरू करने से पूर्व गोग्रास निकालना, भोजन के बाद बचा |
− | संस्कार होना आवश्यक है। इस दृष्टि से गीत, खेल, | + | हुआ अन्न तथा जूठन कुत्ते को डालना और अपना खाद्यपदार्थ प्रथम दूसरे को देना और फिर स्वयं खाना यह आग्रह पूर्वक सिखाने की बातें हैं । कभी भी अकेले बैठकर खाना नहीं । यहीं संस्कार आगे चलकर अनेक लोगों को घर बुलाकर भोजन कराने के, अन्नदान करने के, सदाव्रत चलाने के कार्यों में विकसित होते हैं । |
− | कहानी आदि का चयन होना चाहिये । बच्चे घर से | |
− | अल्पाहार लाते हैं और साथ बैठकर करते हैं तब भोजन | |
− | शुरू करने से पूर्व गोग्रास निकालना, भोजन के बाद बचा | |
− | हुआ अन्न तथा जूठन कुत्ते को डालना और अपना | |
− | खाद्यपदार्थ प्रथम दूसरे को देना और फिर स्वयं खाना यह | |
− | आग्रह पूर्वक सिखाने की बातें हैं । कभी भी अकेले बैठकर | |
− | खाना नहीं । यहीं संस्कार आगे चलकर अनेक लोगों को | |
− | घर बुलाकर भोजन कराने के, अन्नदान करने के, सदाब्रत | |
− | चलाने के कार्यों में विकसित होते हैं । | |
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− | ==== २. सत्कारपूर्वक देना ==== | + | ==== सत्कारपूर्वक देना ==== |
− | दूसरों को देते समय मेरे से अधिक और मेरे से अच्छी | + | दूसरों को देते समय मेरे से अधिक और मेरे से अच्छी वस्तु देना ही प्रेम और सम्मान का लक्षण है । मेरे पास दो गुलाब के फूल हैं । एक थोडा छोटा और अल्पविकसित है, दूसरा बड़ा और पूर्ण खिला हुआ । मैं मेरी सहेली को कौनसा फूल दूंगी ? जो अच्छा है वह उसे देने की वृत्ति और प्रवृत्ति बने इसकी शिक्षा देनी चाहिये । मेरे पास दो पेन्सिल हैं । कक्षा के किसी छात्र के पास लिखने हेतु आज |
− | वस्तु देना ही प्रेम और सम्मान का लक्षण है । मेरे पास दो | + | पेन्सिल नहीं है । मुझे एक पेन्सिल देनी ही चाहिये । मैं कौन सी दूंगा और मेरे लिये कौनसी रखूँगा ? निश्चित ही जो अधिक अच्छी है वही देने का मेरा मन करना चाहिये । बस में चढे तो खिडकी के पास बैठने के लिये नहीं भागूँगा अपितु मित्र को बैठने दूँगा । इन्हीं संस्कारों से आगे चलकर घर आये अतिथि को सत्कारपूर्वक हम अपने से अच्छी सुविधाओं से युक्त व्यवस्थायें देते हैं । अनेक प्रेरक घटनाओं तथा प्रत्यक्ष व्यवहार हेतु निमित्त निर्माण कर देने की, स्वयं से अधिक देने की और देकर खुश होने की वृत्ति का विकास करना चाहिये । |
− | गुलाब के फूल हैं । एक थोडा छोटा और अल्पविकसित है, | |
− | दूसरा बड़ा और पूर्ण खिला हुआ । मैं मेरी सहेली को | |
− | कौनसा फूल दूंगी ? जो अच्छा है वह उसे देने की वृत्ति | |
− | और प्रवृत्ति बने इसकी शिक्षा देनी चाहिये । मेरे पास दो | |
− | पेन्सिल हैं । कक्षा के किसी छात्र के पास लिखने हेतु आज | |
− | पेन्सिल नहीं है । मुझे एक पेन्सिल देनी ही चाहिये । मैं | |
− | कौन सी दूंगा और मेरे लिये कौनसी रखूँगा ? निश्चित ही जो | |
− | अधिक अच्छी है वही देने का मेरा मन करना चाहिये । बस | |
− | में चढे तो खिडकी के पास बैठने के लिये नहीं भागूँगा | |
− | अपितु मित्र को बैठने दूँगा । इन्हीं संस्कारों से आगे चलकर | |
− | घर आये अतिथि को सत्कारपूर्वक हम अपने से अच्छी | |
− | सुविधाओं से युक्त व्यवस्थायें देते हैं । अनेक प्रेरक घटनाओं | |
− | तथा प्रत्यक्ष व्यवहार हेतु निमित्त निर्माण कर देने की, स्वयं | |
− | से अधिक देने की और देकर खुश होने की वृत्ति का | |
− | विकास करना चाहिये । | |
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− | ==== ३. भेदों को नहीं मानना ==== | + | ==== भेदों को नहीं मानना ==== |
− | सबका स्वीकार करना असंस्कृत समाज धन, बल, | + | सबका स्वीकार करना असंस्कृत समाज धन, बल, सत्ता, वर्ण, जाति आदि के भेदों से एकदूसरे को ऊँचा और नीचा मानने की प्रवृत्ति रखता है। सुसंस्कृत समाज इन भेदों से ऊपर उठता है । भेदों से ऊपर उठना विशेष आग्रहपूर्वक सिखाना चाहिये । इस दृष्टि से गटव्यवस्था बहुत प्रभावी साधन बन सकती है । गटों की रचना में इन बातों का समावेश करना चाहिये: |
− | सत्ता, वर्ण, जाति आदि के भेदों से एकदूसरे को ऊँचा और नीचा मानने की प्रवृत्ति रखता है। | |
− | सुसंस्कृत समाज इन भेदों से ऊपर उठता है । भेदों से ऊपर उठना विशेष आग्रहपूर्वक सिखाना चाहिये । | |
| | | |
− | इस दृष्टि से गटव्यवस्था बहुत प्रभावी साधन बन सकती है । गटों की रचना में इन बातों का समावेश करना चाहिये
| |
| * गट के सभी विद्यार्थियों ने साथ बैठकर स्वाध्याय करना । इस दृष्टि से प्रतिदिन कुछ समय रखना चाहिये | | * गट के सभी विद्यार्थियों ने साथ बैठकर स्वाध्याय करना । इस दृष्टि से प्रतिदिन कुछ समय रखना चाहिये |
| * स्वाध्याय में एकदूसरे की सहायता करना । | | * स्वाध्याय में एकदूसरे की सहायता करना । |
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| * एकदूसरे के घर जाने का अवसर निर्माण करना । | | * एकदूसरे के घर जाने का अवसर निर्माण करना । |
| * एक गट के विद्यार्थियों के परिवारों में भी परिचय और आत्मीयता बढ़ाना । | | * एक गट के विद्यार्थियों के परिवारों में भी परिचय और आत्मीयता बढ़ाना । |
− | * इन गटों की रचना में अमीर गरीब, ऊँच नीच, जाति पाँति का भेद गल जाय ऐसी रचना करना | | + | * इन गटों की रचना में अमीर गरीब, ऊँच नीच, जाति पाँति का भेद गल जाय ऐसी रचना करना । |
− | * इस दृष्टि से विद्यालयीन व्यवहार में गुणों का सम्मान करने का प्रचलन बनाना चाहिये, धन, सत्ता या वर्णजाति की उच्चता का नहीं । इन आधारों पर विद्यालय से बाहर के जीवन में भी मित्रता विकसित हो सके यह देखना चाहिये । | + | * इस दृष्टि से विद्यालयीन व्यवहार में गुणों का सम्मान करने का प्रचलन बनाना चाहिये, धन, सत्ता या वर्णजाति की उच्चता का नहीं। इन आधारों पर विद्यालय से बाहर के जीवन में भी मित्रता विकसित हो सके यह देखना चाहिये । |
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− | ==== ४. कृतज्ञता और उदारता ==== | + | ==== कृतज्ञता और उदारता ==== |
| कहीं भी किसी से कुछ सहायता प्राप्त हुई तो कृतज्ञता का अनुभव करना चाहिये । आजकल कृतज्ञता बहुत कृत्रिम उपचार का विषय बन गई है । बात बात में थैन्क्यू, प्लीज और सॉरी कहने की प्रथा बन गई है । किसी बच्चे को खिडकी बन्द करने को कहा और उसने वह काम किया तो थैन्क्यू, होटेल में बैरेने पानी लाकर दिया तो थैन्क्यू, पिताजी ने खिलौना लाकर दिया तो थैन्क्यू । बात बात में थैन्क्यू कहना सिखाते हैं । इसी प्रकार से विद्यार्थी को ग्रन्थालय से कुछ लाने को कहना है तो प्लीज, प्रश्न का उत्तर देने को कहना है तो प्लीज, खडे होकर पास आने के लिये कहना है तो प्लीज । मुखर होकर सर्वत्र इन शब्दों का उच्चारण करने से वह अभिव्यक्ति सतही रह जाती है, केवल उपचार मात्र बन जाती है, भावना नहीं बनती । वास्तविक कृतज्ञता की भावना आदर, सम्मान, निःस्वार्थता, बिना स्वार्थ के सहायता, बिना स्वार्थ के दूसरों की सुरक्षा करने में प्रकट होती है । वह जीवन का स्थायी भाव बनती है। किसी का भी अपने लाभ के लिये उपयोग नहीं करने में प्रकट होती है । | | कहीं भी किसी से कुछ सहायता प्राप्त हुई तो कृतज्ञता का अनुभव करना चाहिये । आजकल कृतज्ञता बहुत कृत्रिम उपचार का विषय बन गई है । बात बात में थैन्क्यू, प्लीज और सॉरी कहने की प्रथा बन गई है । किसी बच्चे को खिडकी बन्द करने को कहा और उसने वह काम किया तो थैन्क्यू, होटेल में बैरेने पानी लाकर दिया तो थैन्क्यू, पिताजी ने खिलौना लाकर दिया तो थैन्क्यू । बात बात में थैन्क्यू कहना सिखाते हैं । इसी प्रकार से विद्यार्थी को ग्रन्थालय से कुछ लाने को कहना है तो प्लीज, प्रश्न का उत्तर देने को कहना है तो प्लीज, खडे होकर पास आने के लिये कहना है तो प्लीज । मुखर होकर सर्वत्र इन शब्दों का उच्चारण करने से वह अभिव्यक्ति सतही रह जाती है, केवल उपचार मात्र बन जाती है, भावना नहीं बनती । वास्तविक कृतज्ञता की भावना आदर, सम्मान, निःस्वार्थता, बिना स्वार्थ के सहायता, बिना स्वार्थ के दूसरों की सुरक्षा करने में प्रकट होती है । वह जीवन का स्थायी भाव बनती है। किसी का भी अपने लाभ के लिये उपयोग नहीं करने में प्रकट होती है । |
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− | इसी प्रकार से उदारता क्षमाशीलता में प्रकट होती है । दोष, गलतियाँ, अपराध, कृतघ्नता आदि को माफ कर देना उदारता है । परन्तु इसमें विवेक भी आवश्यक है । मेरे प्रति अपराध तो माफ करना चाहिये परन्तु किसी दुर्बल को परेशान किया तो उसे दण्ड भी देना चाहिये । दोषों और अवगुणों को दूर करने हेतु अवश्य प्रवृत्त होना चाहिये । परन्तु वह तिरस्कारपूर्वक नहीं अपितु उदारतापूर्वक, दयापूर्वक होना चाहिये । स्वकेन्द्री बनकर व्यवहार नहीं करना, दूसरे का विचार करना ही सामाजिकता है। विद्यालय की छोटी मोटी स्चनाओं में तथा व्यवहारों में यह | + | इसी प्रकार से उदारता क्षमाशीलता में प्रकट होती है । दोष, गलतियाँ, अपराध, कृतघ्नता आदि को माफ कर देना उदारता है । परन्तु इसमें विवेक भी आवश्यक है । मेरे प्रति अपराध तो माफ करना चाहिये परन्तु किसी दुर्बल को परेशान किया तो उसे दण्ड भी देना चाहिये । दोषों और अवगुणों को दूर करने हेतु अवश्य प्रवृत्त होना चाहिये । परन्तु वह तिरस्कारपूर्वक नहीं अपितु उदारतापूर्वक, दयापूर्वक होना चाहिये । स्वकेन्द्री बनकर व्यवहार नहीं करना, दूसरे का विचार करना ही सामाजिकता है। विद्यालय की छोटी मोटी स्चनाओं में तथा व्यवहारों में यह सब सिखाने की दक्षता बरतना चाहिये । यही नहीं तो गणित, भाषा, इतिहास आदि के पाठों में भी सामाजिकता अनुस्यूत होनी चाहिये । तत्त्वज्ञान को तो सामाजिकता का सन्दर्भ लेकर ही विकसित होना चाहिये । योग के प्रथम अंग यम के पाँच आयाम सामाजिकता की ही शिक्षा देते हैं और उन्हें सार्वभौम महाव्रत कहते हैं यह ध्यान देने योग्य बात है । |
− | सब सिखाने की दक्षता बरतना चाहिये । यही नहीं तो गणित, भाषा, इतिहास आदि के पाठों में भी सामाजिकता अनुस्यूत होनी चाहिये । तत्त्वज्ञान को तो सामाजिकता का सन्दर्भ लेकर ही विकसित होना चाहिये । योग के प्रथम अंग यम के पाँच आयाम सामाजिकता की ही शिक्षा देते हैं और | |
− | उन्हें सार्वभौम महाव्रत कहते हैं यह ध्यान देने योग्य बात है । | |
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− | ==== ५. सामाजिक समरसता ==== | + | ==== सामाजिक समरसता ==== |
− | सामाजिकता का यह परम साध्य है । हलुवा बनता है | + | सामाजिकता का यह परम साध्य है । हलुवा बनता है तब उसमें आटा, घी, गुड और पानी होते हैं, उन सबके गुण और विशेषतायें भी पहचाने जाते हैं, यहाँ तक कि घी गाय का है कि भैस का, आटा गेहूँ का है या मूँग का, गुड देशी है कि रासायणयुक्त यह सब पहचाना जाता है परन्तु ये चीजें एक दूसरे से अलग नहीं की जा सकतीं, किंबहुना एक दूसरे में उचित प्रक्रिया से समरस होने पर ही हलवा बनता है। विभिन्न पदार्थों को उचित मात्रा में, उचित प्रक्रिया अपनाकर समरस नहीं किया जाता तब तक कोई पदार्थ नहीं बनता, फिर वह खाद्य पदार्थ हो या और कोई । |
− | तब उसमें आटा, घी, गुड और पानी होते हैं, उन सबके गुण और विशेषतायें भी पहचाने जाते हैं, यहाँ तक कि घी गाय का है कि भैस का, आटा गेहूँ का है या मूँग का, गुड देशी है कि रासायणयुक्त यह सब पहचाना जाता है परन्तु ये चीजें एक दूसरे से अलग नहीं की जा सकतीं, किंबहुना एक दूसरे में उचित प्रक्रिया से समरस होने पर ही हलवा बनता है। विभिन्न पदार्थों को उचित मात्रा में, उचित प्रक्रिया अपनाकर समरस नहीं किया जाता तब तक कोई पदार्थ नहीं बनता, फिर वह खाद्य पदार्थ हो या और कोई । | |
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| समाज को भी एकसंध बनाने के लिये समरसता की आवश्यकता होती है । समाज में भेद तो होते ही हैं । भेद गुणों और विशेषताओं को दशतते हैं । इनके मिलाप से ही सामाजिक रचनायें सुन्दर बनती हैं । इन रचनाओं में सम्मान और आत्मीयता की, सुरक्षा और सम्हाल की प्रक्रिया अपनाने से समरसता निर्माण होती है । | | समाज को भी एकसंध बनाने के लिये समरसता की आवश्यकता होती है । समाज में भेद तो होते ही हैं । भेद गुणों और विशेषताओं को दशतते हैं । इनके मिलाप से ही सामाजिक रचनायें सुन्दर बनती हैं । इन रचनाओं में सम्मान और आत्मीयता की, सुरक्षा और सम्हाल की प्रक्रिया अपनाने से समरसता निर्माण होती है । |
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| उदाहरण के लिये हमारे गाँवों में जब किसी के भी घर में विवाह होता था तो मंडप के लिये सुधार का, मटकी के लिये कुम्हार का, वस्त्र के लिये दर्जी का, न्यौते के लिये नायी का, वाद्यों के लिये ढोली आदि का प्रथम सम्मान किया जाता था, उनके द्वारा निर्मित और प्रदत्त पदार्थ का पूजन किया जाता था, दानदक्षिणा वस्त्राभोजन से उन्हें सन्तुष्ट किया जाता था और बाद में अन्य कार्य किये जाते थे । किसी के घर मृत्यु हो तब ये ही सब अपने द्वारा निर्मित साधन लेकर उपस्थित हो जाते थे और उसके पैसे नहीं माँगते थे । समरसता हेतु अत्यन्त बुद्धिमानी से की गई ये रचनायें हैं । इसीसे भाईचारा बना रहता है, सबको अपनी उपयोगिता लगती है। अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव होता हैं । इससे ही वास्तविक सुख मिलता है । इसके चलते हिंसा कम होती है, दंगे फसाद कम होते हैं । व्यक्तिगत स्तर पर सृजनशीलता का विकास होता है और समाज वैभवशाली बनता है । | | उदाहरण के लिये हमारे गाँवों में जब किसी के भी घर में विवाह होता था तो मंडप के लिये सुधार का, मटकी के लिये कुम्हार का, वस्त्र के लिये दर्जी का, न्यौते के लिये नायी का, वाद्यों के लिये ढोली आदि का प्रथम सम्मान किया जाता था, उनके द्वारा निर्मित और प्रदत्त पदार्थ का पूजन किया जाता था, दानदक्षिणा वस्त्राभोजन से उन्हें सन्तुष्ट किया जाता था और बाद में अन्य कार्य किये जाते थे । किसी के घर मृत्यु हो तब ये ही सब अपने द्वारा निर्मित साधन लेकर उपस्थित हो जाते थे और उसके पैसे नहीं माँगते थे । समरसता हेतु अत्यन्त बुद्धिमानी से की गई ये रचनायें हैं । इसीसे भाईचारा बना रहता है, सबको अपनी उपयोगिता लगती है। अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव होता हैं । इससे ही वास्तविक सुख मिलता है । इसके चलते हिंसा कम होती है, दंगे फसाद कम होते हैं । व्यक्तिगत स्तर पर सृजनशीलता का विकास होता है और समाज वैभवशाली बनता है । |
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− | वर्तमान में हमने दीर्घदृष्टि और व्यापकदूष्टि के अभाव में काम करने वाले और काम करवाने वाले के दो वर्ग निर्माण किये हैं और काम करनेवालों को नीचा और करवाने वालों को ऊँचा मानना शुरू किया है । साथ ही काम करने वालों के स्थान पर यन्त्रों को अपनाना शुरू किया है। परिणाम स्वरूप लोगों के पास काम करने के अवसर भी कम हो रहे हैं, काम करवाने वाले संख्या में कम ही होते हैं और अभाव और वर्गभेद बढ़ते ही जाते हैं । किस बात के लिये किसका सम्मान करें, किस बात के लिये किसकी उपयोगिता है यही प्रश्न है । सबको टिकने के लिये स्पर्धा ही करनी पड़ती है, संघर्ष ही करना पडता है । इसमें समरसता कैसे होगी ? बिना समरसता के सुख कहाँ ? सुख की आश्वस्ति के बिना संस्कृति पनप नहीं सकती । | + | वर्तमान में हमने दीर्घदृष्टि और व्यापकदूष्टि के अभाव में काम करने वाले और काम करवाने वाले के दो वर्ग निर्माण किये हैं और काम करनेवालों को नीचा और करवाने वालों को ऊँचा मानना शुरू किया है । साथ ही काम करने वालों के स्थान पर यन्त्रों को अपनाना शुरू किया है। परिणाम स्वरूप लोगों के पास काम करने के अवसर भी कम हो रहे हैं, काम करवाने वाले संख्या में कम ही होते हैं और अभाव और वर्गभेद बढ़ते ही जाते हैं । किस बात के लिये किसका सम्मान करें, किस बात के लिये किसकी उपयोगिता है यही प्रश्न है । सबको टिकने के लिये स्पर्धा ही करनी पड़ती है, संघर्ष ही करना पडता है । इसमें समरसता कैसे होगी ? बिना समरसता के सुख कहाँ? सुख की आश्वस्ति के बिना संस्कृति पनप नहीं सकती । |
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− | इस व्यवस्था को बदलने का प्रावधान शिक्षा में होना चाहिये । यह एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । अतः परीक्षा का नहीं अपितु वातावरण, व्यवस्था और व्यवहार का विषय है । सारी बातें परीक्षाकेन्द्री कर देने से समरसता | + | इस व्यवस्था को बदलने का प्रावधान शिक्षा में होना चाहिये । यह एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । अतः परीक्षा का नहीं अपितु वातावरण, व्यवस्था और व्यवहार का विषय है । सारी बातें परीक्षाकेन्द्री कर देने से समरसता की हानि होती है । |
− | की हानि होती है । | |
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| हम शिक्षा, व्यवसाय, दैनन्दिन व्यवहार को आज है वैसा ही रखकर समरसता निर्माण नहीं कर सकते । यह तो ऐसा ही है जैसे गरम गुण का पदार्थ खाकर शीतलता की अपेक्षा करना । | | हम शिक्षा, व्यवसाय, दैनन्दिन व्यवहार को आज है वैसा ही रखकर समरसता निर्माण नहीं कर सकते । यह तो ऐसा ही है जैसे गरम गुण का पदार्थ खाकर शीतलता की अपेक्षा करना । |
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− | ==== ६. सामाजिक उत्सवों का सांस्कृतिक स्वरूप बनायें रखना ==== | + | ==== सामाजिक उत्सवों का सांस्कृतिक स्वरूप बनायें रखना ==== |
− | समरसता और सामूहिकता के लिये ही अनेक उत्सवों | + | समरसता और सामूहिकता के लिये ही अनेक उत्सवों की परस्परा बनी है । उदाहरण के लिये गुजरात में जो नवरात्रि का उत्सव है उसमें किसी भी वर्ग के, किसी भी वर्ण के, किसी भी जाति के, किसी भी आयु के, व्यक्ति को सहभागी होने का समान अधिकार है । वह सभी अर्थों में सार्वजनिक है, शक्तिपूजा का और उपवास का आलम्बन लिये है और गीतनृत्य के रूप में मूर्त होता है । आज इसका रूप अत्यन्त बीभत्स और सामाजिकता के लिये हानिकारक बन गया है । विद्यालय अपने विद्यार्थियों के माध्यम से ही इसे परिष्कृत कर सकते हैं । होली, मकरसंक्रान्ति, दीपावली भी इसी के उदाहरण हैं । |
− | की परस्परा बनी है । उदाहरण के लिये गुजरात में जो | |
− | नवरात्रि का उत्सव है उसमें किसी भी वर्ग के, किसी भी | |
− | वर्ण के, किसी भी जाति के, किसी भी आयु के, व्यक्ति को | |
− | सहभागी होने का समान अधिकार है । वह सभी अआर्थों में | |
− | सार्वजनिक है, शक्तिपूजा का और उपवास का आलम्बन | |
− | लिये है और गीतनृत्य के रूप में मूर्त होता है । आज इसका | |
− | रूप अत्यन्त बीभत्स और सामाजिकता के लिये हानिकारक | |
− | बन गया है । विद्यालय अपने विद्यार्थियों के माध्यम से ही | |
− | इसे परिष्कृत कर सकते हैं । होली, मकरसंक्रान्ति, दीपावली | |
− | भी इसी के उदाहरण हैं । | |
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− | तीर्थयात्रायें और मेले भी इसके माध्यम हैं । उदाहरण | + | तीर्थयात्रायें और मेले भी इसके माध्यम हैं । उदाहरण के लिये गाँव के लोग जब तीर्थयात्रा पर जाते थे तो गाँव की सीमा से बाहर निकलने पर जाति छोड देते थे और एक हो जाते थे । फिर ऊँचनीच, छुआछूत कुछ नहीं रहता था । जगन्नाथ भगवान के प्रसाद में जातिपाँत का कोई भेद नहीं रहता है । उक्ति है “जगन्नाथ का भात, पूछे जात न पाँत' । कुम्भ जैसे मेले में पण्डित, राजा, साधु, सामान्य मनुष्य का कोई भेद नहीं रहता था । तात्पर्य यह है कि हमने इन उत्सवों और पर्वों की रचना समरस समाज बनाने के उद्देश्य से ही की है । आज उनका रूप विकृत हो गया है । उन्हें पुनः उनके मूल रूप में ले आना विद्यालयों का काम है । इस दृष्टि से उचित शिक्षाक्रम अपनाना चाहिये । |
− | के लिये गाँव के लोग जब तीर्थयात्रा पर जाते थे तो गाँव | |
− | की सीमा से बाहर निकलने पर जाति छोड देते थे और एक | |
− | हो जाते थे । फिर ऊँचनीच, छुआछूत कुछ नहीं रहता था । | |
− | जगन्नाथ भगवान के प्रसाद में जातिपाँत का कोई भेद नहीं | |
− | रहता है । उक्ति है “जगन्नाथ का भात, पूछे जात न पाँत' । | |
− | कुम्भ जैसे मेले में पण्डित, राजा, साधु, Fed a सामान्य | |
− | मनुष्य का कोई भेद नहीं रहता था । तात्पर्य यह है कि | |
− | हमने इन उत्सवों और पर्वों की रचना समरस समाज बनाने | |
− | के उद्देश्य से ही की है । आज उनका रूप विकृत हो गया | |
− | है । उन्हें पुनः उनके मूल रूप में ले आना विद्यालयों का | |
− | काम है । इस दृष्टि से उचित शिक्षाक्रम अपनाना चाहिये । | |
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− | ==== ७. गुणों और क्षमताओं का सम्मान करना ==== | + | ==== गुणों और क्षमताओं का सम्मान करना ==== |
− | धन, सत्ता, रूप, सुविधा आदि को गुणों और क्षमताओं से अधिक महत्त्व देने से सामाजिक सन्तुलन बिगडता है । विद्यालय में जो पैदल चलकर आता है, उसके पैरों में जूते नहीं हैं, उसके कपडे सामान्य हैं परन्तु उसका स्वास्थ्य अच्छा है, जो अच्छी कबड्डी खेलता है, गणित के सवाल आसानी से हल करता है और सबकी सहायता करने हेतु तत्पर रहता है उसका सम्मान उससे अधिक होना चाहिये जो बडे बाप का बेटा है, कार में विद्यालय आता है, बस्ता, कपडे, जुते बहुत कीमती हैं परन्तु शरीर से दुर्बल है, पढने और खेलने में कमजोर है और स्वभाव से घमण्डी और असहिष्णु है । | + | धन, सत्ता, रूप, सुविधा आदि को गुणों और क्षमताओं से अधिक महत्त्व देने से सामाजिक सन्तुलन बिगडता है । विद्यालय में जो पैदल चलकर आता है, उसके पैरों में जूते नहीं हैं, उसके कपडे सामान्य हैं परन्तु उसका स्वास्थ्य अच्छा है, जो अच्छी कबड्डी खेलता है, गणित के सवाल आसानी से हल करता है और सबकी सहायता करने हेतु तत्पर रहता है उसका सम्मान उससे अधिक होना चाहिये जो बडे बाप का बेटा है, कार में विद्यालय आता है, बस्ता, कपडे, जूते बहुत कीमती हैं परन्तु शरीर से दुर्बल है, पढने और खेलने में कमजोर है और स्वभाव से घमण्डी और असहिष्णु है । |
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− | जो व्यक्ति को लागू है वही परिवारों को भी है । धनी लोग भी कृपण और स्वार्थी होते हैं, निर्धन और वंचित | + | जो व्यक्ति को लागू है वही परिवारों को भी है । धनी लोग भी कृपण और स्वार्थी होते हैं, निर्धन और वंचित लोग भी उदार और समझदार होते हैं । बडे और प्रतिष्ठित लोग अश्रद्धावान, भीरू और अनीतिमान होते हैं, सामान्य और गरीब, झॉंपडी में रहनेवाले भी श्रद्धावान, विश्वसनीय, बहादुर और नीतिमान होते हैं । विद्यार्थियों को इन गुणों का सम्मान करना और अपने में विकसित करना सिखाना चाहिये । गरीबी की, छोटे घर की, सामान्य कपडों की, मजदूरी करने वाले, कम कमाई करने वाले मातापिता की शर्म नहीं करना सिखाना चाहिये । सम्पन्नता का अहंकार नहीं करना सिखाना चाहिये । विद्यालय में सम्पन्न और सत्तावान लोगों की चाटुकारिता और विपन्न और सामान्य लोगों की उपेक्षा करने से सामाजिकता को हानि पहुँचती है। |
− | लोग भी उदार और समझदार होते हैं । बडे और प्रतिष्ठित लोग अश्रद्धावान, भीरू और अनीतिमान होते हैं, सामान्य | |
− | और गरीब, झॉंपडी में रहनेवाले भी श्रद्धावान, विश्वसनीय, | |
− | बहादुर और नीतिमान होते हैं । विद्यार्थियों को इन गुणों का सम्मान करना और अपने में विकसित करना सिखाना | |
− | चाहिये । गरीबी की, छोटे घर की, सामान्य कपडों की, मजदूरी करने वाले, कम कमाई करने वाले मातापिता की शर्म नहीं करना सिखाना चाहिये । सम्पन्नता का अहंकार नहीं करना सिखाना चाहिये । विद्यालय में सम्पन्न और सत्तावान लोगों की चाटुकारिता और विपन्न और सामान्य लोगों की उपेक्षा करने से सामाजिकता को हानि पहुँचती है। | |
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| कई तो पूरे विद्यालय ही ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसेवालों के बच्चों का ही प्रवेश हो सकता है। कुछ विद्यालय ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसे वाले ही नहीं अपितु उच्च पदों पर आसीन लोग ही प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं । ऐसे विद्यालय न तो ज्ञान की सेवा करते हैं न समाज की क्योंकि ये ऐसे लोग निर्माण करते हैं जो समाज के अपने जैसे नहीं हैं ऐसे लोगों को तुच्छ समझते हैं । ऐसे विद्यालयों में शिक्षकों का सम्मान नहीं होता, उल्टे शिक्षकों को ही बडे लोगों के बेटों की मर्जी उठानी पड़ती है। इन्हे विद्या का धाम कैसे सकते है ? ऐसे विद्यालय ज्ञान को सत्ता की दासी बना देते है। | | कई तो पूरे विद्यालय ही ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसेवालों के बच्चों का ही प्रवेश हो सकता है। कुछ विद्यालय ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसे वाले ही नहीं अपितु उच्च पदों पर आसीन लोग ही प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं । ऐसे विद्यालय न तो ज्ञान की सेवा करते हैं न समाज की क्योंकि ये ऐसे लोग निर्माण करते हैं जो समाज के अपने जैसे नहीं हैं ऐसे लोगों को तुच्छ समझते हैं । ऐसे विद्यालयों में शिक्षकों का सम्मान नहीं होता, उल्टे शिक्षकों को ही बडे लोगों के बेटों की मर्जी उठानी पड़ती है। इन्हे विद्या का धाम कैसे सकते है ? ऐसे विद्यालय ज्ञान को सत्ता की दासी बना देते है। |
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− | ==== ८. सत्य, धर्म, ज्ञान, सेवा न्याय आदि की परख होना ==== | + | ==== सत्य, धर्म, ज्ञान, सेवा न्याय आदि की परख होना ==== |
− | अपनत्व का व्यवहार करना यह सारे सामाजिक सद्गुणों का मूल है। दया, दान, क्षमा, उपकार, सहयोग आदि मूल्यों का जतन करना सद्गुण है। इनके अनुकूल आचरण करना सदाचार है। परन्तु समझ यदि कम है या स्वार्थ यदि अधिक है तो इनमे विकृति भी आती है। स्वयं तो दयावान, न्यायी, सत्यवादी आदि होना ही चाहिए, इनको पहचानने का विवेक और उसके अनुरूप व्यवहार करने का साहस भी होना चाहिए। अपने लिए इनके आचरण के साथ साथ, न्याय, ज्ञान और धर्म का पक्ष भी लेना चाहिये और अन्याय, असत्य, अधर्म और अज्ञान का त्याग, उपेक्षा, तिरस्कार या दण्ड - जहाँ जो भी आवश्यक है - भी करना चाहिये । उदाहरण के लिये स्वयं अन्याय नहीं करेंगे यह प्रथम चरण है, किसी के द्वारा किये गये अन्याय को नहीं सहेंगे परन्तु समाज में किसी छोटे, दुर्बल या दीन व्यक्ति के प्रति बड़ा, बलवान और समर्थ व्यक्ति अन्याय कर रहा है तो दीन, दुर्बल, छोटे व्यक्ति का पक्ष लेना और उसकी रक्षा करना तथा अन्याय करने वाले व्यक्ति का विरोध करना भी अपेक्षित है। सुपात्र, सद्गुणी व्यक्ति की प्रशंसा करनी ही चाहिये, भले ही वह गरीब हो, परन्तु अपने लाभ के लिये समर्थ, गुणहीन व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करना चाहिये । वह प्रशंसा नहीं चाटुकारिता है। व्यक्ति भले ही विद्वान, धनवान या सत्तावान हो, यदि वह अधर्म और अन्यायपूर्ण व्यवहार करता है तो उसकी मित्रता नहीं करनी चाहिये, भले ही वह हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार करता हो । विद्वान व्यक्ति यदि धनवान की चाटुकारिता करता है तो वह ज्ञान की अवमानना करता है यही समझना चाहिये । धर्माचार्य यदि सत्तावान व्यक्ति के अनुकूल बनने का प्रयास करता है तो वह धर्म का अनादर करता है। आततायी व्यक्ति को दण्ड नहीं देना हिंसा है, अहिंसा नहीं। शोषण करनवाले व्यक्ति के विरुद्ध आवाज नहीं उठाना अधर्म है। भूखे व्यक्ति को अन्न नहीं देना अधर्म है, जिज्ञासु व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना अधर्म है, दुर्बल की रक्षा नहीं करना अधर्म है परन्तु शत्रु के गट में अन्न नहीं जाने देना धर्म है, दुष्ट व्यक्ति को ज्ञान देना अधर्म है, गुंडे की रक्षा करने हेतु वकीली करना अधर्म है। धर्म-अधर्म, हिंसाअहिंसा, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि का विवेक नहीं किया और पक्ष लेने और विरोध करने का साहस नहीं दिखाया तो सामाजिकता घोर संकट में पड़ जाती है। ऐसे में संस्कृति की रक्षा नहीं होती। असंस्कृत समाज की समृद्धि प्रथम आसुरी बन जाती है, बाद में सबका नाश करती है और अन्त में स्वयं नष्ट हो जाती है। | + | अपनत्व का व्यवहार करना यह सारे सामाजिक सद्गुणों का मूल है। दया, दान, क्षमा, उपकार, सहयोग आदि मूल्यों का जतन करना सद्गुण है। इनके अनुकूल आचरण करना सदाचार है। परन्तु समझ यदि कम है या स्वार्थ यदि अधिक है तो इनमे विकृति भी आती है। स्वयं तो दयावान, न्यायी, सत्यवादी आदि होना ही चाहिए, इनको पहचानने का विवेक और उसके अनुरूप व्यवहार करने का साहस भी होना चाहिए। अपने लिए इनके आचरण के साथ साथ, न्याय, ज्ञान और धर्म का पक्ष भी लेना चाहिये और अन्याय, असत्य, अधर्म और अज्ञान का त्याग, उपेक्षा, तिरस्कार या दण्ड - जहाँ जो भी आवश्यक है - भी करना चाहिये । उदाहरण के लिये स्वयं अन्याय नहीं करेंगे यह प्रथम चरण है, किसी के द्वारा किये गये अन्याय को नहीं सहेंगे परन्तु समाज में किसी छोटे, दुर्बल या दीन व्यक्ति के प्रति बड़ा, बलवान और समर्थ व्यक्ति अन्याय कर रहा है तो दीन, दुर्बल, छोटे व्यक्ति का पक्ष लेना और उसकी रक्षा करना तथा अन्याय करने वाले व्यक्ति का विरोध करना भी अपेक्षित है। सुपात्र, सद्गुणी व्यक्ति की प्रशंसा करनी ही चाहिये, भले ही वह गरीब हो, परन्तु अपने लाभ के लिये समर्थ, गुणहीन व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करना चाहिये । वह प्रशंसा नहीं चाटुकारिता है। व्यक्ति भले ही विद्वान, धनवान या सत्तावान हो, यदि वह अधर्म और अन्यायपूर्ण व्यवहार करता है तो उसकी मित्रता नहीं करनी चाहिये, भले ही वह हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार करता हो । विद्वान व्यक्ति यदि धनवान की चाटुकारिता करता है तो वह ज्ञान की अवमानना करता है यही समझना चाहिये । धर्माचार्य यदि सत्तावान व्यक्ति के अनुकूल बनने का प्रयास करता है तो वह धर्म का अनादर करता है। आततायी व्यक्ति को दण्ड नहीं देना हिंसा है, अहिंसा नहीं। शोषण करनवाले व्यक्ति के विरुद्ध आवाज नहीं उठाना अधर्म है। भूखे व्यक्ति को अन्न नहीं देना अधर्म है, जिज्ञासु व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना अधर्म है, दुर्बल की रक्षा नहीं करना अधर्म है परन्तु शत्रु के गट में अन्न नहीं जाने देना धर्म है, दुष्ट व्यक्ति को ज्ञान देना अधर्म है, गुंडे की रक्षा करने हेतु वकीली करना अधर्म है। धर्म-अधर्म, हिंसा-अहिंसा, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि का विवेक नहीं किया और पक्ष लेने और विरोध करने का साहस नहीं दिखाया तो सामाजिकता घोर संकट में पड़ जाती है। ऐसे में संस्कृति की रक्षा नहीं होती। असंस्कृत समाज की समृद्धि प्रथम आसुरी बन जाती है, बाद में सबका नाश करती है और अन्त में स्वयं नष्ट हो जाती है। |
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| विद्यालयों के विषय, विषयवस्तु, अन्यान्य गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो समाजशास्त्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये सामाजिकता को हानि पहुंचाने वाला अर्थशास्त्र, टैक्नोलोजी, वाणिज्यशास्त्र, राजशास्त्र या मनोविज्ञान, खेल आदि मान्य ही नहीं होने चाहिये । समाजशास्त्र केवल धर्मशास्त्र के अनुकूल होता है । वह धर्मशास्त्र का अंग है जबकि शेष सभी शास्त्रों का अंगी है। सारे शास्त्र समाजशास्त्र के अविरोधी होने अपेक्षित है। | | विद्यालयों के विषय, विषयवस्तु, अन्यान्य गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो समाजशास्त्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये सामाजिकता को हानि पहुंचाने वाला अर्थशास्त्र, टैक्नोलोजी, वाणिज्यशास्त्र, राजशास्त्र या मनोविज्ञान, खेल आदि मान्य ही नहीं होने चाहिये । समाजशास्त्र केवल धर्मशास्त्र के अनुकूल होता है । वह धर्मशास्त्र का अंग है जबकि शेष सभी शास्त्रों का अंगी है। सारे शास्त्र समाजशास्त्र के अविरोधी होने अपेक्षित है। |
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| शिक्षा धर्म सिखाती है । धर्म का एक अंग सृष्टि धर्म है और दूसरा समष्टि धर्म है। समष्टि धर्म सृष्टि धर्म के अनुकूल होता है । समष्टि धर्म ही सामाजिकता है। अतः शिक्षा का मुख्य कार्य ही सामाजिकता सिखाना है। | | शिक्षा धर्म सिखाती है । धर्म का एक अंग सृष्टि धर्म है और दूसरा समष्टि धर्म है। समष्टि धर्म सृष्टि धर्म के अनुकूल होता है । समष्टि धर्म ही सामाजिकता है। अतः शिक्षा का मुख्य कार्य ही सामाजिकता सिखाना है। |
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− | सामाजिकता सिखाने के लिये विद्यालयों की वर्तमान रीतिनीति में बहुत परिवर्तन करना होगा यह सत्य हैं, परन्तु ऐसा परिवर्तन किये बिना शिक्षा का स्वरूप भारतीय नहीं बन सकता । भारतीयकरण केवल सिद्धान्त में नहीं होता, सिद्धान्त को व्यवहार में परिणत करने से होता है। | + | सामाजिकता सिखाने के लिये विद्यालयों की वर्तमान रीतिनीति में बहुत परिवर्तन करना होगा यह सत्य हैं, परन्तु ऐसा परिवर्तन किये बिना शिक्षा का स्वरूप धार्मिक नहीं बन सकता । धार्मिककरण केवल सिद्धान्त में नहीं होता, सिद्धान्त को व्यवहार में परिणत करने से होता है। |
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− | === घर में छात्रविकास === | + | === घर में छात्र विकास === |
| छात्रों का विकास केवल विद्यालय में ही नहीं होता, विद्यालय के बाहर, घर में भी होता है, इस दृष्टि से मातापिता को निम्न लिखित बातों में विद्यालय ने क्या मार्गदर्शन करना चाहिये ? | | छात्रों का विकास केवल विद्यालय में ही नहीं होता, विद्यालय के बाहर, घर में भी होता है, इस दृष्टि से मातापिता को निम्न लिखित बातों में विद्यालय ने क्या मार्गदर्शन करना चाहिये ? |
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| शिक्षकोने बताया यह सारे बिन्दु उनके पढ़ाई के कोर्स के बाहर है, अतिरिक्त है । यह सब बातें करवाना मातापिता का कर्तव्य है । इतना सब पढाने के लिये समय ही नहीं बचता क्योंकि पूरे वर्ष कोर्स, परीक्षा कार्यक्रम यह सारे तंत्र से फुरसत ही नहीं मिलती । | | शिक्षकोने बताया यह सारे बिन्दु उनके पढ़ाई के कोर्स के बाहर है, अतिरिक्त है । यह सब बातें करवाना मातापिता का कर्तव्य है । इतना सब पढाने के लिये समय ही नहीं बचता क्योंकि पूरे वर्ष कोर्स, परीक्षा कार्यक्रम यह सारे तंत्र से फुरसत ही नहीं मिलती । |
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− | बडे बुजुर्ग लोगों को उन बिन्दुओं मे तथ्य समझमें आता है परंतु आजकल की पिढी सुनती समझती ही नहीं अतः वे हतबल थे । | + | बडे बुजुर्ग लोगों को उन बिन्दुओं मे तथ्य समझमें आता है परंतु आजकल की पीढ़ी सुनती समझती ही नहीं अतः वे हतबल थे । |
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− | मातापिता अच्छा भोजन, व्यायाम, सेवाकार्य, योगाभ्यास, उपासना आदि का महत्व तो जानते है परंतु बच्चे सुनते नहीं, करते नही या तो विद्यालय की पढ़ाई में उनका यह सब होता नहीं है । केवल होमवर्क हम पुरा करवाते है। यह सब बातों की तरफ ध्यान देने के लिए हमे घर मे फुरसद नही मिलती दोनों नोकरी करते हैं इसलिये । इसी संबंध में कोई अच्छा क्लास होगा तो एडमिशन दिलवा देने के लिये वे तैयार है । | + | मातापिता अच्छा भोजन, व्यायाम, सेवाकार्य, योगाभ्यास, उपासना आदि का महत्व तो जानते है परंतु बच्चे सुनते नहीं, करते नही या तो विद्यालय की पढ़ाई में उनका यह सब होता नहीं है । केवल होमवर्क हम पूरा करवाते है। यह सब बातों की तरफ ध्यान देने के लिए हमे घर मे फुरसत नही मिलती, क्योंकि दोनों नौकरी करते हैं। इसी संबंध में कोई अच्छा क्लास होगा तो एडमिशन दिलवा देने के लिये वे तैयार है । |
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| ==== अभिमत ==== | | ==== अभिमत ==== |
− | प्रश्नावली के ७९ बिंदु विकास मे अत्यंत उपयुक्त है । परंतु इस संबंध में मार्गदर्शन करने हेतू शिक्षको के पास ही कोई मार्ग नहीं है। | + | प्रश्नावली के ७९ बिंदु विकास मे अत्यंत उपयुक्त है । परंतु इस संबंध में मार्गदर्शन करने हेतू शिक्षको के पास ही कोई मार्ग नहीं है। विद्यालय में अभिभावक एसे विषय चुनने के लिये आते नहीं हैं । जीवनदृष्टि, भोजन, व्यायाम आदि विषयों में शिक्षक, अभिभावक भी आज पाश्चात्य शैली का शिकार बने हैं अतः वे मार्गदर्शन तो करेंगे परंतु उनको साकार रूप नहीं देते हैं । बच्चों का मित्र परिवार उन्हे गलत मार्ग पर ही ले जाता है । अतः वह विकास का मार्ग उन्हे मान्य नहीं । घर में माता, पिता संतानो के अपने अपने व्यक्तिगत मित्र होते हैं । ये सब घर के मित्र होते तो विकास अवश्य करते । श्रम करने से पढ़ाई मे रुकावट आती है, थकान आती है, पढ़ाई कम होती है ऐसी भ्रामक मान्यताओं से अभिभावक के लिये है । शिक्षक यह दायित्व लेने समर्थ भी नहीं तैयार भी नहीं । |
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− | विद्यालय में अभिभावक एसे विषय चुनने के लिये आते नहीं हैं । जीवनदृष्टि, भोजन, व्यायाम आदि विषयों में शिक्षक, अभिभावक भी आज पाश्चात्य शैली का शिकार बने हैं अतः वे मार्गदर्शन तो करेंगे परंतु उनको साकार रूप नहीं देते हैं । बच्चों का मित्र परिवार उन्हे गलत मार्ग पर ही _ले जाता है । अतः वह विकास का मार्ग उन्हे मान्य नहीं । घर में माता, पिता संतानो के अपने अपने व्यक्तिगत मित्र होते हैं । ये सब घर के मित्र होते तो विकास अवश्य करते । श्रम करने से पढ़ाई मे रुकावट आती है, थकान आती है, पढ़ाई कम होती है ऐसी भ्रामक मान्यताओं से अभिभावक के लिये है । शिक्षक यह दायित्व लेने समर्थ भी नहीं तैयार भी नहीं । | |
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− | ==== घर में छात्रविकास ==== | + | ==== घर में छात्र विकास ==== |
| वर्तमान समय की पक्की धारणा बन गई है कि पढ़ाई केवल विद्यालय में ही होती है। विद्यालय के अलावा घर में या किसी अन्य स्थान पर जो होता है उसे पढ़ाई नहीं कहा जाता । साथ ही जीवन में मुख्य कोई कार्य है तो वह पढ़ाई ही है । यदि पढ़ाई नहीं है तो मनोरंजन है । विद्यालय की पढ़ाई से अधिक महत्त्वपूर्ण और कुछ नहीं है। | | वर्तमान समय की पक्की धारणा बन गई है कि पढ़ाई केवल विद्यालय में ही होती है। विद्यालय के अलावा घर में या किसी अन्य स्थान पर जो होता है उसे पढ़ाई नहीं कहा जाता । साथ ही जीवन में मुख्य कोई कार्य है तो वह पढ़ाई ही है । यदि पढ़ाई नहीं है तो मनोरंजन है । विद्यालय की पढ़ाई से अधिक महत्त्वपूर्ण और कुछ नहीं है। |
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− | पढ़ाई के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा विद्यालय के कक्षाकक्ष में जो होता है उसमें ही सीमित है। उसी काम को अधिक से अधिक कआस्ताव में हमें हमारी पढ़ाईविषयक धारणा बदलने की आवश्यकता है। शिक्षा केवल विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों तक सीमित नहीं होती है। विध रना यही अच्छी पढ़ाई का लक्षण है । इसलिये विद्यालय में जो पढ़ाया जाता है वही कार्य घर जाकर भी करने को कहा जाता है जिसे गृहकार्य कहा जाता है। परन्तु जीवन का गणित इतना सीधासादा नहीं है। विद्यालय की पढ़ाई ही सबकुछ नहीं होती, अन्य अनेक कामकाज ऐसे होते हैं जो विद्यालय की पढ़ाई से भी अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। वे सब विद्यालय में पढ़ाए नहीं जाते । उनकी पढ़ाई घर में ही होती | + | पढ़ाई के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा विद्यालय के कक्षाकक्ष में जो होता है उसमें ही सीमित है। उसी काम को अधिक से अधिक प्रवीणता लाने के लिए हमें हमारी पढ़ाईविषयक धारणा बदलने की आवश्यकता है। शिक्षा केवल विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों तक सीमित नहीं होती है। इसलिये विद्यालय में जो पढ़ाया जाता है वही कार्य घर जाकर भी करने को कहा जाता है जिसे गृहकार्य कहा जाता है। परन्तु जीवन का गणित इतना सीधासादा नहीं है। विद्यालय की पढ़ाई ही सबकुछ नहीं होती, अन्य अनेक कामकाज ऐसे होते हैं जो विद्यालय की पढ़ाई से भी अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। वे सब विद्यालय में पढ़ाए नहीं जाते । उनकी पढ़ाई घर में ही होती |
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| वास्तव में विद्यालय से भी अधिक घर में प्राप्त होने वाली शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में शिक्षा का एक अंश ही होता है। घर की शिक्षा की अनुपस्थिति में विद्यालय की शिक्षा को अर्थ ही प्राप्त नहीं होता है। हम यह कहने का साहस भी कर सकते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई यदि कुछ मात्रा में काम हुई तो भी बहुत हानि नहीं होती परन्तु घर में नहीं हुई तो जो हानि होती है उसकी भरपाई नहीं की जाती। | | वास्तव में विद्यालय से भी अधिक घर में प्राप्त होने वाली शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में शिक्षा का एक अंश ही होता है। घर की शिक्षा की अनुपस्थिति में विद्यालय की शिक्षा को अर्थ ही प्राप्त नहीं होता है। हम यह कहने का साहस भी कर सकते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई यदि कुछ मात्रा में काम हुई तो भी बहुत हानि नहीं होती परन्तु घर में नहीं हुई तो जो हानि होती है उसकी भरपाई नहीं की जाती। |