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| स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम । भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥१०- १५॥ | | स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम । भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥१०- १५॥ |
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| + | svayam evātmanātmānaṁ vettha tvaṁ puruṣottama bhūta-bhāvana bhūteśa deva-deva jagat-pate ॥ 10 - 15 ॥ |
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| वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः । याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥१०- १६॥ | | वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः । याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥१०- १६॥ |
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| + | vaktum arhasy aśeṣeṇa divyā hy ātma-vibhūtayaḥ yābhir vibhūtibhir lokān imāṁs tvaṁ vyāpya tiṣṭhasi ॥ 10 - 16 ॥ |
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| कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् । केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥१०- १७॥ | | कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् । केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥१०- १७॥ |
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| + | kathaṁ vidyām ahaṁ yogiṁs tvāṁ sadā paricintayan keṣu keṣu ca bhāveṣu cintyo ’si bhagavan mayā ॥ 10 - 17 ॥ |
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| विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन । भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥१०- १८॥ | | विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन । भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥१०- १८॥ |
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| + | vistareṇātmano yogaṁ vibhūtiṁ ca janārdana bhūyaḥ kathaya tṛptir hi śṛṇvato nāsti me ’mṛtam ॥ 10 - 18 ॥ |
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| श्रीभगवानुवाच | | श्रीभगवानुवाच |
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| + | śrī-bhagavān uvāca |
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| हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः । प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥१०- १९॥ | | हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः । प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥१०- १९॥ |
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| + | hanta te kathayiṣyāmi divyā hy ātma-vibhūtayaḥ prādhānyataḥ kuru-śreṣṭha nāsty anto vistarasya me ॥ 10 - 19 ॥ |
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| अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः । अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥१०- २०॥ | | अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः । अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥१०- २०॥ |
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| + | aham ātmā guḍākeśa sarva-bhūtāśaya-sthitaḥ aham ādiś ca madhyaṁ ca bhūtānām anta eva ca ॥ 10 - 20 ॥ |
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| आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् । मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥१०- २१॥ | | आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् । मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥१०- २१॥ |