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, 22:21, 4 March 2020
इस ग्रन्थमाला में बार बार प्रतिपादन किया गया है कि शिक्षा धर्म सिखाती है । ऐसा भी
सहज समज में आता है कि शिक्षा व्यक्ति के और समाज को गढने का महत्त्वपूर्ण साधन है ।
शिक्षा ज्ञान और संस्कार की परम्परा बनने का एकमेव साधन है । परन्तु ऐसा करने के लिये
शिक्षा को राष्ट्र की जीवनदृष्टि के साथ समरस होना होता है |
इस चार पंक्तियों में लिखी गई एक से अधिक संज्ञाओं के अर्थ ही आज विपरीत बन
गये हैं और विवाद के विषय बन गये हैं । उदाहरण के लिये “धर्म' संज्ञा को ही ले सकते हैं ।
आज यहाँ अज्ञान से और कहीं जानबूझकर धर्म को लेकर विवाद किया जाता है और अशान्ति
फैलाई जाती है । ऐसी ही gad संज्ञा है जीवनदृष्टि । वैश्विकता के नाम पर राष्ट्र और राष्ट्र की
जीवनदृष्टि दोनों की अपेक्षा होती है । यह जानने के उपरान्त नहीं होता, अज्ञानवश ही होता
है।
भारतीय शिक्षा के विषय में निरूपण शुरू करने से पूर्व हमें ऐसी कतिपय संज्ञाओं के
विषय में स्पष्ट होना होगा । साथ ही सहस्राब्दियों से भारत के समाजजीवन के जो मूल आधार
रहे हैं ऐसे वर्ण, आश्रम, पुरुषार्थ आदि की भी चर्चा करनी होगी । समाजजीवन की इन
आधारभूत व्यवस्थों का पुनर्विचार और पुर्रचना भी करनी होगी ।
समग्र गन््थमाला के विषय निरूपण की यह एक अर्थ में पूर्वपीठिका है । हमारी
शब्दावली को समझने का यह प्रयास है ।
इसमें शिक्षासूत्र दिये गये हैं जो वास्तव में सम्पूर्ण ग्रन्थ का सार है जिसका आकलन
ग्रन्थ पूर्ण होने पर हुआ है परन्तु प्रारम्भ में ही दिया जा रहा है ।