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| ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥५- १०॥ | | ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥५- १०॥ |
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| + | brahmaṇy ādhāya karmāṇi saṅgaṁ tyaktvā karoti yaḥ lipyate na sa pāpena padma-patram ivāmbhasā ॥ 5- 10 ॥ |
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| कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥५- ११॥ | | कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥५- ११॥ |
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| + | kāyena manasā buddhyā kevalair indriyair api yoginaḥ karma kurvanti saṅgaṁ tyaktvātma-śuddhaye ॥ 5- 11 ॥ |
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| युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥५- १२॥ | | युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥५- १२॥ |
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| + | yuktaḥ karma-phalaṁ tyaktvā śāntim āpnoti naiṣṭhikīm ayuktaḥ kāma-kāreṇa phale sakto nibadhyate ॥ 5- 12 ॥ |
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| सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी । नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥५- १३॥ | | सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी । नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥५- १३॥ |
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| + | sarva-karmāṇi manasā sannyasyāste sukhaṁ vaśī nava-dvāre pure dehī naiva kurvan na kārayan ॥ 5- 13 ॥ |
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| न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥५- १४॥ | | न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥५- १४॥ |
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| + | na kartṛtvaṁ na karmāṇi lokasya sṛjati prabhuḥ na karma-phala-saṁyogaṁ svabhāvas tu pravartate ॥ 5- 14 ॥ |
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| नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥५- १५॥ | | नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥५- १५॥ |
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| + | nādatte kasyacit pāpaṁ na caiva sukṛtaṁ vibhuḥ ajñānenāvṛtaṁ jñānaṁ tena muhyanti jantavaḥ ॥ 5- 15 ॥ |
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| ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥५- १६॥ | | ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥५- १६॥ |