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| शिक्षा का तीसरा महत्त्वपूर्ण सूत्र होगा, 'शिक्षा राष्ट्रीय होती है। | | शिक्षा का तीसरा महत्त्वपूर्ण सूत्र होगा, 'शिक्षा राष्ट्रीय होती है। |
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− | आज वैश्विकता के सन्दर्भ में हमारा मानस बहुत उलझ गया है । हमें वैश्विकता का मोह हो गया है, यहाँ तक कि हम प्राथमिक शिक्षा भी आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड से संलग्न होकर लेना चाहते हैं। परन्तु यह व्यावहारिक नहीं है। हमें अपनी समझ को ठीक करने की आवश्यकता है। तात्त्विक दृष्टि से हमें वैश्विक बनना है परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से हमें परिवेश के सन्दर्भो से ही जुड़ना होगा । जैसे कि हमें विश्व की सभी स्त्रियों के प्रति माता और बहन जैसा आदर और स्नेह हो सकता है, किंबहुना होना ही चाहिये परन्तु जैविक दृष्टि से हम जन्म देने वाली स्त्री को ही माता और उस माता की कोख से जन्मी लडकी को ही बहन कह सकते हैं। उस माता और बहन के प्रति जो भावना है उसका विस्तार जगत की त्रियों के प्रति हो सकता है। इसी प्रकार हम | + | आज वैश्विकता के सन्दर्भ में हमारा मानस बहुत उलझ गया है । हमें वैश्विकता का मोह हो गया है, यहाँ तक कि हम प्राथमिक शिक्षा भी आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड से संलग्न होकर लेना चाहते हैं। परन्तु यह व्यावहारिक नहीं है। हमें अपनी समझ को ठीक करने की आवश्यकता है। तात्त्विक दृष्टि से हमें वैश्विक बनना है परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से हमें परिवेश के सन्दर्भो से ही जुड़ना होगा । जैसे कि हमें विश्व की सभी स्त्रियों के प्रति माता और बहन जैसा आदर और स्नेह हो सकता है, किंबहुना होना ही चाहिये परन्तु जैविक दृष्टि से हम जन्म देने वाली स्त्री को ही माता और उस माता की कोख से जन्मी लडकी को ही बहन कह सकते हैं। उस माता और बहन के प्रति जो भावना है उसका विस्तार जगत की त्रियों के प्रति हो सकता है। इसी प्रकार हम सामाजिक सम्बन्धों में कुल, गोत्र जैसे रक्तसम्बन्धों से जुड़े हैं। इसी प्रकार हम विश्वमानस होने पर भी राजकीय दृष्टि से भारत के ही नागरिक हो सकते हैं और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के राष्ट्रीय । हमारा विश्वनागरिकत्व राष्ट्र के माध्यम से ही सिद्ध होता है। यदि हम भारतीय नहीं हैं तो वैश्विक भी नहीं हो सकते । विश्वनागरिकता आर्थिक या राजकीय विषय नहीं है, आध्यात्मिक विषय है और संस्कृति और राष्ट्र को पार करके ही हम वैश्विक हो सकते हैं। इसिलिये सर्व प्रकार के व्यावहारिक सन्दर्भो के लिये राष्ट्रीयता ही हमारे लिये अन्तिम सन्दर्भ है। |
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| + | राष्ट्र का सम्बन्ध स्वभाव से है, धर्म से हैं, संस्कृति से हैं। इन सब को एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित करने का एकमात्र साधन शिक्षा है। इसलिये भी शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये इस विषय में हमें कोई सन्देह नहीं होना चाहिये। |
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| + | ५. आजीवन शिक्षा, सार्वत्रिक (घर, विद्यालय और समाज में) शिक्षा और राष्ट्रीय शिक्षा के सूत्रों को लेकर हमें शिक्षा की एक व्यापक और सर्वसमावेशक योजना बनाने की आवश्यकता होगी। इस योजना के कुछ आयाम इस प्रकार हो सकते हैं... |
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| + | विश्वविद्यालयों का एक ऐसा प्रारूप तैयार करना जो भारत की, भारतीय शिक्षा की आवश्यकताओं को समझकर शिक्षा का स्वरूप विकसित कर सके। भारत के वर्तमान विश्वविद्यालयों का प्रारम्भिक ढाँचा लन्दन युनिवर्सिटी के ढाँचे के नमूने पर बना था। सन १८५७ में शुरू हुए कोलकोता, मद्रास और बॉम्बे विश्वविद्यालय उस प्रकार के थे । वे देश में चल रही शिक्षा व्यवस्था का संयोजन, नियमन और निर्देश करने के तथा प्रमाणपत्र देने के लिये बने थे। धीरे धीरे वे ऑक्सफर्ड और कैम्ब्रिज के समान अध्यापन भी करने लगे । वर्तमान में वे हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालयों को भी आदर्श के रूप में मानने की स्थिति में पहुँचे हैं । परन्तु भारतीय विश्वविद्यालय का आदर्श लन्दन, ऑक्सफर्ड या हार्वर्ड तो नहीं हो विकास अवरुद्ध हो जाता है। अतः इस शिक्षा का महत्त्व समझाना होगा, आकर्षण बढाना होगा। |
| + | * वर्तमान में भौतिक विज्ञान, तन्त्रज्ञान, प्रबन्धन, प्रौद्योगिकी, संगणक आदि विद्याशाखाओं का महत्त्व बढ गया है। व्यक्ति के और समाज के जीवन पर इसका गहरा विपरीत प्रभाव होता है। हमें समझना चाहिये कि आज जिन्हें हम सामाजिक विज्ञान कहते हैं, परन्तु भारत की भाषा में जिन्हें सांस्कृतिक कहा जाना चाहिये, ऐसे विषयों का अध्ययन केन्द्रवर्ती बनना चाहिये, विज्ञान आदि सांस्कृतिक अध्ययन के अंग के रूप में ही हो सकते हैं । उदाहरण के लिये भारत में आयुर्विज्ञान (मेडिकल सायन्स) आयुर्वेद है और आत्मा की चर्चा के बिना उसका अध्ययन नहीं होता । राजनीति की चर्चा धर्म के बिना नहीं होती, तन्त्रज्ञान संस्कृति और समाज के अविरोधी होता है । इस प्रकार संस्कृति को केन्द्रस्थान में रखकर समस्त ज्ञानक्षेत्र की रचना करनी होगी। |
| + | एक अत्यन्त विचित्र और हास्यास्पद बात को हमें तुरन्त बदलना होगा। वाणिज्य विज्ञान या तन्त्रज्ञान पढने वाले को संस्कृत की गन्ध भी नहीं होती। भारतीय जीवनदृष्टि, संस्कृति, इतिहास, वेद, धर्म, भगवद्गीता, ज्ञान और पराक्रमी पूर्वज आदि के बारे में लेशमात्र जानकारी नहीं होती। वे पूर्णरूप से संस्कृति के कटे हुए रहते हैं। अतः आज का विनयन अथवा कलाशाखा, वाणिज्य, तन्त्रज्ञान, विज्ञान आदि विभाजनों को मिटाकर सभी विषयों का सांस्कृतिक आधार पक्का बनाकर, एकदूसरे के साथ उचित समायोजन कर पुनर्रचना करनी होगी। |
| + | * ऐसा करते समय हमें पश्चिम की शिक्षाक्षेत्र की शब्दावलियों से भी मुक्त होना होगा। उदाहरण के लिये हम क्रमशः प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चशिक्षा ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं। इन की आयु सीमा भी लगभग निश्चित है । परन्तु ऐसी शब्दावली का क्या प्रयोजन है ? क्या अर्थ है ? कभी कभी |
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