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| श्री अरविंद ने प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति के मूलाधारों की खोज का प्रयास शुरू किया । इस खोज के परिणामस्वरूप उन्होंने पाया कि केवल जानकारी देना शिक्षा का मुख्य अथवा प्रथम लक्ष्य नहीं है । उनके मतानुसार “जो शिक्षा केवल जानकारी देने तक अपने को सीमित रखती है वह सिक्षा कहलाने योग्य नहीं है ।' उन्होंने कहा कि 'हिंदू धारणा के अनुसार समस्त ज्ञान मनुष्य के भीतर विद्यमान है । शिक्षा का काम यह है कि वह ज्ञान को बाहर से ठूसने के बजाय अंदर से ज्ञान के जागरण की स्थिति उत्पन्न at | और इसका उपाय है - ज्ञान को आच्छादित करनेवाले तमोभाव का क्रमशः शमन करते हुए सतोगुण का उद्रेक करते जाना । सत्य का उद्रेक करने के लिए आवृत्ति, मनन और तत््व-चर्चा की त्रिविध प्रक्रिया को अपनाया जाना चाहिए । इसकी चरम परिणति योग-शक्ति में होती है। यह योग-शक्ति ही अध्यात्म का दूसरा नाम है। पार्थिव शरीर को इस शक्ति का उपयुक्त आधार ब्रह्मचर्य के पालन से ही बनाया जा सकता है। इसीलिए प्राचीन शिक्षा-पद्धति में ब्रह्मचर्य पर अत्यधिक बल दिया गया था । ब्रह्मचर्य के पालन से ही उस ऊर्जा का जागरण संभव है जो शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की सब आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकती है । ब्रह्मचर्य-पालन के फलस्वरूप मनुष्य शरीर के भीतर जो ऊर्जा उत्पन्न होती थी वह समस्त शारीरिक कर्मों को पूरा करके मस्तिष्क और आत्मा के उन्नयन में लग जाती थी । श्री अरविंद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ब्रह्मचर्य और सात्तविक विकास में से ही भारत के मस्तिष्क का गठन हुआ है, जो योग-साधना के द्वारा पूर्णता को पा सका । उन्होंने कहा कि प्राचीन शिक्षा-प्रणाली में एक साथ अनेक विषयों की जानकारी को छात्र के मस्तिष्क में दूसने का प्रयास नहीं किया जाता था अपितु एक ही विषय को एक बार पुख्ता ढंग से पढ़ाया जाता था, जिसके फलस्वरूप छात्र की जानकारी का क्षेत्र सीमित रहते हुए भी उसकी नींव गहरी व मजबूत होती थी और उसकी स्मरण- शक्ति दृढ़ होती थी । उन्होंने कहा कि इन्हीं मुख्य मनोवैज्ञानिक सिद्धांती के आधार पर प्राचीन भारतीय मनीषा ने अपनी शिक्षा-प्रणाली का ढाँचा खड़ा किया था । बाहर से जानकारी ढूसने के बजाय छात्र की आंतरिक शक्तियों का जागरण ही इस शिक्षा-प्रणाली का मुख्य लक्ष्य था । | | श्री अरविंद ने प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति के मूलाधारों की खोज का प्रयास शुरू किया । इस खोज के परिणामस्वरूप उन्होंने पाया कि केवल जानकारी देना शिक्षा का मुख्य अथवा प्रथम लक्ष्य नहीं है । उनके मतानुसार “जो शिक्षा केवल जानकारी देने तक अपने को सीमित रखती है वह सिक्षा कहलाने योग्य नहीं है ।' उन्होंने कहा कि 'हिंदू धारणा के अनुसार समस्त ज्ञान मनुष्य के भीतर विद्यमान है । शिक्षा का काम यह है कि वह ज्ञान को बाहर से ठूसने के बजाय अंदर से ज्ञान के जागरण की स्थिति उत्पन्न at | और इसका उपाय है - ज्ञान को आच्छादित करनेवाले तमोभाव का क्रमशः शमन करते हुए सतोगुण का उद्रेक करते जाना । सत्य का उद्रेक करने के लिए आवृत्ति, मनन और तत््व-चर्चा की त्रिविध प्रक्रिया को अपनाया जाना चाहिए । इसकी चरम परिणति योग-शक्ति में होती है। यह योग-शक्ति ही अध्यात्म का दूसरा नाम है। पार्थिव शरीर को इस शक्ति का उपयुक्त आधार ब्रह्मचर्य के पालन से ही बनाया जा सकता है। इसीलिए प्राचीन शिक्षा-पद्धति में ब्रह्मचर्य पर अत्यधिक बल दिया गया था । ब्रह्मचर्य के पालन से ही उस ऊर्जा का जागरण संभव है जो शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की सब आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकती है । ब्रह्मचर्य-पालन के फलस्वरूप मनुष्य शरीर के भीतर जो ऊर्जा उत्पन्न होती थी वह समस्त शारीरिक कर्मों को पूरा करके मस्तिष्क और आत्मा के उन्नयन में लग जाती थी । श्री अरविंद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ब्रह्मचर्य और सात्तविक विकास में से ही भारत के मस्तिष्क का गठन हुआ है, जो योग-साधना के द्वारा पूर्णता को पा सका । उन्होंने कहा कि प्राचीन शिक्षा-प्रणाली में एक साथ अनेक विषयों की जानकारी को छात्र के मस्तिष्क में दूसने का प्रयास नहीं किया जाता था अपितु एक ही विषय को एक बार पुख्ता ढंग से पढ़ाया जाता था, जिसके फलस्वरूप छात्र की जानकारी का क्षेत्र सीमित रहते हुए भी उसकी नींव गहरी व मजबूत होती थी और उसकी स्मरण- शक्ति दृढ़ होती थी । उन्होंने कहा कि इन्हीं मुख्य मनोवैज्ञानिक सिद्धांती के आधार पर प्राचीन भारतीय मनीषा ने अपनी शिक्षा-प्रणाली का ढाँचा खड़ा किया था । बाहर से जानकारी ढूसने के बजाय छात्र की आंतरिक शक्तियों का जागरण ही इस शिक्षा-प्रणाली का मुख्य लक्ष्य था । |
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− | नई शिक्षा-प्रणाली असफल क्यों ? | + | ==== नई शिक्षा-प्रणाली असफल क्यों ? ==== |
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| इस विश्लेषण के पश्चात् श्री अरविंद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि नई शिक्षा-प्रणाली सफल नहीं हो सकी तो उसका एक कारण तो यह था कि उसके अध्यापकों को नई प्रणाली की आवश्यकताओं का सम्यक् बोध नहीं था, दूसरा यह था कि “उसके नियंत्रणकर्ता एवं निर्देशकगण पुरानी (अंग्रेजी) शिक्षा-प्रणाली की मान्यताओं से चिपके हुए थे ।' उन्होंने कहा कि “इस प्रयोग ने अपने लिए ‘usta’ नाम धारण तो कर लिया, किंतु इसमें पूर्वजों की महान् उपलब्धियों की आधारशिला अर्थात् ज्ञान के उपकरणों के चरम विकास के सिद्धांत की पूर्ण उपेक्षा की गई ।' श्री अरविंद ने अंत में लिखा - “हमारा यह कहना कदापि नहीं है कि प्राचीन शिक्षा-प्रणाली के बाह्य रूप को ज्यों-का- त्यों पुनरुज्जीवित किया जाए, जैसा कि अतीत के अनेक भावुक भक्त माँग करते देखे जाते हैं, क्योंकि प्राचीन शिक्षा- पद्धति की अनेक बातें आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं हैं; किंतु उसके मूलभूत सिद्धांत सब कालों के लिए समान रूप से लागू होते हैं और जब तक उससे अधिक प्रभावकारी शिक्षा-पद्धति का आविष्कार नहीं होता तब तक उसे त्यागना उचित नहीं है । निश्चय ही यूरोपीय शिक्षा-पद्धति हमें वह विकल्प प्रदान नहीं करती ।' | | इस विश्लेषण के पश्चात् श्री अरविंद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि नई शिक्षा-प्रणाली सफल नहीं हो सकी तो उसका एक कारण तो यह था कि उसके अध्यापकों को नई प्रणाली की आवश्यकताओं का सम्यक् बोध नहीं था, दूसरा यह था कि “उसके नियंत्रणकर्ता एवं निर्देशकगण पुरानी (अंग्रेजी) शिक्षा-प्रणाली की मान्यताओं से चिपके हुए थे ।' उन्होंने कहा कि “इस प्रयोग ने अपने लिए ‘usta’ नाम धारण तो कर लिया, किंतु इसमें पूर्वजों की महान् उपलब्धियों की आधारशिला अर्थात् ज्ञान के उपकरणों के चरम विकास के सिद्धांत की पूर्ण उपेक्षा की गई ।' श्री अरविंद ने अंत में लिखा - “हमारा यह कहना कदापि नहीं है कि प्राचीन शिक्षा-प्रणाली के बाह्य रूप को ज्यों-का- त्यों पुनरुज्जीवित किया जाए, जैसा कि अतीत के अनेक भावुक भक्त माँग करते देखे जाते हैं, क्योंकि प्राचीन शिक्षा- पद्धति की अनेक बातें आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं हैं; किंतु उसके मूलभूत सिद्धांत सब कालों के लिए समान रूप से लागू होते हैं और जब तक उससे अधिक प्रभावकारी शिक्षा-पद्धति का आविष्कार नहीं होता तब तक उसे त्यागना उचित नहीं है । निश्चय ही यूरोपीय शिक्षा-पद्धति हमें वह विकल्प प्रदान नहीं करती ।' |
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| शिक्षा स्वरूप और भावना में पूर्णतया आधुनिक होगी । | | शिक्षा स्वरूप और भावना में पूर्णतया आधुनिक होगी । |
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− | क्या शिक्षा 'राष्ट्रीय' हो सकती है ? | + | ==== क्या शिक्षा 'राष्ट्रीय' हो सकती है ? ==== |
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| अब श्री अरविंद के सामने प्रश्न खड़ा हो जाता है कि यदि सबकुछ नया ही बनाना है, आधुनिकतम ज्ञान-विज्ञान को भी शिक्षा में समाविष्ट करना है तो नई शिक्षा-पद्धति में “राष्ट्रीय क्या रह जाता है ? इससे भी अगला प्रश्न खड़ा होता है कि क्या “शिक्षा' का कोई राष्ट्रीय संस्करण हो सकता है ? राष्ट्रीय शिक्षा के अब तक के प्रयोगों की असफलता से हताश व भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग अब तक तर्क का आश्रय लेने लगा था कि “राष्ट्रीय शिक्षा की अवधारणा ही मिथ्या है और संकीर्ण देशप्रेम का एक ऐसे क्षेत्र में अवांछनीय, अहितकर व अनधिकार प्रवेश है, जहाँ उसके लिए कोई वैध स्थान नहीं । यहां देश-प्रेम का बस इतना ही स्थान हो सकता है कि अच्छे नागरिक होने की शिक्षा दी जाए । और इस उद्देश्य के लिए अलग-अलग प्रकार की शिक्षा देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अच्छा नागरिक बनाने के शिक्षा के मूल तत्त्व सभी जगह एक से होंगे, चाहे वह पूर्व हो या पश्चिम, इंग्लैंड हो या जर्मनी, जापान हो या हिंदुस्तान ।' | | अब श्री अरविंद के सामने प्रश्न खड़ा हो जाता है कि यदि सबकुछ नया ही बनाना है, आधुनिकतम ज्ञान-विज्ञान को भी शिक्षा में समाविष्ट करना है तो नई शिक्षा-पद्धति में “राष्ट्रीय क्या रह जाता है ? इससे भी अगला प्रश्न खड़ा होता है कि क्या “शिक्षा' का कोई राष्ट्रीय संस्करण हो सकता है ? राष्ट्रीय शिक्षा के अब तक के प्रयोगों की असफलता से हताश व भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग अब तक तर्क का आश्रय लेने लगा था कि “राष्ट्रीय शिक्षा की अवधारणा ही मिथ्या है और संकीर्ण देशप्रेम का एक ऐसे क्षेत्र में अवांछनीय, अहितकर व अनधिकार प्रवेश है, जहाँ उसके लिए कोई वैध स्थान नहीं । यहां देश-प्रेम का बस इतना ही स्थान हो सकता है कि अच्छे नागरिक होने की शिक्षा दी जाए । और इस उद्देश्य के लिए अलग-अलग प्रकार की शिक्षा देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अच्छा नागरिक बनाने के शिक्षा के मूल तत्त्व सभी जगह एक से होंगे, चाहे वह पूर्व हो या पश्चिम, इंग्लैंड हो या जर्मनी, जापान हो या हिंदुस्तान ।' |
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| राष्ट्रीय शिक्षा की अवधारणा के विरुद्ध दूसरा तर्क यह दिया गया कि “मानव जाति और उसकी आवश्यकताएँ सब जगह एक हैं । सत्य और ज्ञान एक ही है, उनका कोई देश नहीं होता । अतः ज्ञान देने का साधन होने के कारण शिक्षा भी सार्वभौम होनी चाहिए, जिसकी कोई राष्ट्रीयता न हो, कोई सीमों न हों । उदाहरणार्थ, भौतिक विज्ञान में राष्ट्रीय शिक्षा का भला क्या अर्थ हो सकता है !' | | राष्ट्रीय शिक्षा की अवधारणा के विरुद्ध दूसरा तर्क यह दिया गया कि “मानव जाति और उसकी आवश्यकताएँ सब जगह एक हैं । सत्य और ज्ञान एक ही है, उनका कोई देश नहीं होता । अतः ज्ञान देने का साधन होने के कारण शिक्षा भी सार्वभौम होनी चाहिए, जिसकी कोई राष्ट्रीयता न हो, कोई सीमों न हों । उदाहरणार्थ, भौतिक विज्ञान में राष्ट्रीय शिक्षा का भला क्या अर्थ हो सकता है !' |
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− | आधुनिक विज्ञान बनाम राष्ट्रीय शिक्षा | + | ==== आधुनिक विज्ञान बनाम राष्ट्रीय शिक्षा ==== |
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| इन तर्कों की धज्जियाँ उड़ाते हुए श्री अरविंद ने लिखा कि “राष्ट्रीय शिक्षा के विरुद्ध यह तर्क-वितर्क इस निर्जीव शैक्षिक धारणा में से शुरू होता है कि शिक्षा का एकमात्र अथवा मुख्य उद्देस्य कुछ विषयों को पढ़ाना एवं इस या उस प्रकार की जानकारी प्रदान करना भर है । लेकिन विभिन्न प्रकार के जानकारियाँ प्राप्त करना शिक्षा के उद्देश्य एवं आवश्यकताओं में से केवल एक है और वह भी केंद्रीय नहीं । शिक्षा का केंद्रीय उद्देश्य है मानव मन और आत्मा को शक्तिशाली बनाना । मैं अपने शब्दों में कहना चाहूँ तो वह उद्देश्य है ज्ञान, चरित्र और संस्कृति : तीनों का प्रबोधन ।' | | इन तर्कों की धज्जियाँ उड़ाते हुए श्री अरविंद ने लिखा कि “राष्ट्रीय शिक्षा के विरुद्ध यह तर्क-वितर्क इस निर्जीव शैक्षिक धारणा में से शुरू होता है कि शिक्षा का एकमात्र अथवा मुख्य उद्देस्य कुछ विषयों को पढ़ाना एवं इस या उस प्रकार की जानकारी प्रदान करना भर है । लेकिन विभिन्न प्रकार के जानकारियाँ प्राप्त करना शिक्षा के उद्देश्य एवं आवश्यकताओं में से केवल एक है और वह भी केंद्रीय नहीं । शिक्षा का केंद्रीय उद्देश्य है मानव मन और आत्मा को शक्तिशाली बनाना । मैं अपने शब्दों में कहना चाहूँ तो वह उद्देश्य है ज्ञान, चरित्र और संस्कृति : तीनों का प्रबोधन ।' |
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− | व्यक्ति, राष्ट्र और मानव जाति | + | ==== व्यक्ति, राष्ट्र और मानव जाति ==== |
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| राष्ट्रीय शिक्षा के विरोधियों का तीसरा तर्क यह है कि “मानव मन सब जगह एक ही है और उसे हर जगह एक जैसी मशीन में से गुजारकर एक जैसा ही गढ़ा जा सकता है ।' इस तर्क को धराशायी करते हुए श्री अरविंद ने कहा कि “यह तर्क बुद्दि का पुराना और घिसा-पिटा अंधविश्वास है, जिसे तिलांजलि देने का अब समय आ गया है । मानव जाति के समष्टित मन और आत्मा के अंदर अनंत विभिन्ननाओं को लिये हुए असंख्य व्यक्तिगत मन और आत्मा भी होते हैं । हम आत्माओं के कुछ सामान्य लक्षण होते हैं और कुछ विशिष्ट । इन दोनों के बीच एक मध्यवर्ती सत्ता होती है, जिसे कहते हैं राष्ट्रीय मानस या जन-चेतना । और अगर शिक्षा को मशीन निर्मित साँचा बनने के बजाय मानवीय मन और चेतना की शक्तियों के जीवंत प्रबोधन की प्रक्रिया बनना है तो इसे इन तीनों सत्ताओं का ख्याल रखना होगा ।' | | राष्ट्रीय शिक्षा के विरोधियों का तीसरा तर्क यह है कि “मानव मन सब जगह एक ही है और उसे हर जगह एक जैसी मशीन में से गुजारकर एक जैसा ही गढ़ा जा सकता है ।' इस तर्क को धराशायी करते हुए श्री अरविंद ने कहा कि “यह तर्क बुद्दि का पुराना और घिसा-पिटा अंधविश्वास है, जिसे तिलांजलि देने का अब समय आ गया है । मानव जाति के समष्टित मन और आत्मा के अंदर अनंत विभिन्ननाओं को लिये हुए असंख्य व्यक्तिगत मन और आत्मा भी होते हैं । हम आत्माओं के कुछ सामान्य लक्षण होते हैं और कुछ विशिष्ट । इन दोनों के बीच एक मध्यवर्ती सत्ता होती है, जिसे कहते हैं राष्ट्रीय मानस या जन-चेतना । और अगर शिक्षा को मशीन निर्मित साँचा बनने के बजाय मानवीय मन और चेतना की शक्तियों के जीवंत प्रबोधन की प्रक्रिया बनना है तो इसे इन तीनों सत्ताओं का ख्याल रखना होगा ।' |
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| === ३. स्वामी विवेकानन्द का शिक्षा दर्शन === | | === ३. स्वामी विवेकानन्द का शिक्षा दर्शन === |
− | शिक्षा क्या है ?
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| + | ==== शिक्षा क्या है ? ==== |
| मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। समस्त ज्ञान, चाहे वह लौकिक हो अथवा आध्यात्मिक, मनुष्य के मन में है । बहुधा वह प्रकाशित न होकर ढ़का रहता है और जब आवरण धीरे-धीरे हटता जाता है तो हम कहते हैं कि हम सीख रहे हैं ।' ज्यों -ज्यों इस आविष्करण की क्रिया बढ़ती जाती है त्यों त्यों हमारे ज्ञान की वृद्धि होती जाती है । जिस मनुष्य पर से यह आवरण उठता जा रहा है, वह अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक ज्ञानी है और जिस पर यह आवरण तह-पर-तह पड़ा हुआ है, वह आज्ञानी है । | | मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। समस्त ज्ञान, चाहे वह लौकिक हो अथवा आध्यात्मिक, मनुष्य के मन में है । बहुधा वह प्रकाशित न होकर ढ़का रहता है और जब आवरण धीरे-धीरे हटता जाता है तो हम कहते हैं कि हम सीख रहे हैं ।' ज्यों -ज्यों इस आविष्करण की क्रिया बढ़ती जाती है त्यों त्यों हमारे ज्ञान की वृद्धि होती जाती है । जिस मनुष्य पर से यह आवरण उठता जा रहा है, वह अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक ज्ञानी है और जिस पर यह आवरण तह-पर-तह पड़ा हुआ है, वह आज्ञानी है । |
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| वास्तव में कभी किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे को नहीं सिखाया । हममें से प्रत्येक को अपने आपको सिखाना होगा । बाहर के गुरु तो केवल सुझाव या प्रेरणा देनेवाले कारण मात्र हैं, जो हमारे अतंधस्थ गुरु को सब विषयों का मर्म समझने के लिए उद्बोधित कर देते हैं । | | वास्तव में कभी किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे को नहीं सिखाया । हममें से प्रत्येक को अपने आपको सिखाना होगा । बाहर के गुरु तो केवल सुझाव या प्रेरणा देनेवाले कारण मात्र हैं, जो हमारे अतंधस्थ गुरु को सब विषयों का मर्म समझने के लिए उद्बोधित कर देते हैं । |
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− | शिक्षा कया नहीं है ? | + | ==== शिक्षा कया नहीं है ? ==== |
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| शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो तुम्हारे मास्तिष्क में दूस दिया गया है और जो आत्मसात् हुए बिना वहाँ आजन्म पड़ा रहकर गड़बड़ मचाया करता है । हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है, जो जीवन-निर्माण, “मनुष्य -निर्माण तथा चखिन-निर्माण में सहायक हों । | | शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो तुम्हारे मास्तिष्क में दूस दिया गया है और जो आत्मसात् हुए बिना वहाँ आजन्म पड़ा रहकर गड़बड़ मचाया करता है । हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है, जो जीवन-निर्माण, “मनुष्य -निर्माण तथा चखिन-निर्माण में सहायक हों । |
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| सभी प्रकार की शिक्षा और अभ्यास का उद्देश्य “मनुष्य-निर्माण' ही हो । सारे प्रशिक्षणों का अंतिम ध्येय मनुष्य का विकास करना ही है । जिस प्रक्रिया से मनुष्य की इच्छा-शक्ति का प्रवाह और प्रकाश संयमित होकर फलदायी बन सके, उसी का नाम है शिक्षा । | | सभी प्रकार की शिक्षा और अभ्यास का उद्देश्य “मनुष्य-निर्माण' ही हो । सारे प्रशिक्षणों का अंतिम ध्येय मनुष्य का विकास करना ही है । जिस प्रक्रिया से मनुष्य की इच्छा-शक्ति का प्रवाह और प्रकाश संयमित होकर फलदायी बन सके, उसी का नाम है शिक्षा । |
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− | शिक्षा का लक्ष्य - चरित्र-निर्माण | + | ==== शिक्षा का लक्ष्य - चरित्र-निर्माण ==== |
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| मनुष्य का चरित्र उसकी विभिन्न प्रवृत्तियों की समष्टि है, उसके मन के समस्त झुकावों का योग है । | | मनुष्य का चरित्र उसकी विभिन्न प्रवृत्तियों की समष्टि है, उसके मन के समस्त झुकावों का योग है । |
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| ही बन गया है । कारण क्या है ? - शारीरिक दुर्बलता । इस प्रकार के दुर्बल मस्तिष्क से कोई काम नहीं हो सकता । हमें उसे सबल बनाना होगा । सर्वप्रथम हमें नवयुवकों को बलवान बनाना चाहिए । धर्म पीछे आ जाएगा । मेरे नवयुवक मित्रो ! बलवान् बनो । तुमको मेरी यह सलाह है । गीता के अभ्यास की अपेक्षा फुटबॉल खेल के द्वारा तुम स्वर्ग के अधिक निकट पहुँच जाओगे । तुम्हारी कलाई और भुजाएँ अधिक मजबूत होने पर तुम गीता को अधिक अच्छी तरह समझोगे । | | ही बन गया है । कारण क्या है ? - शारीरिक दुर्बलता । इस प्रकार के दुर्बल मस्तिष्क से कोई काम नहीं हो सकता । हमें उसे सबल बनाना होगा । सर्वप्रथम हमें नवयुवकों को बलवान बनाना चाहिए । धर्म पीछे आ जाएगा । मेरे नवयुवक मित्रो ! बलवान् बनो । तुमको मेरी यह सलाह है । गीता के अभ्यास की अपेक्षा फुटबॉल खेल के द्वारा तुम स्वर्ग के अधिक निकट पहुँच जाओगे । तुम्हारी कलाई और भुजाएँ अधिक मजबूत होने पर तुम गीता को अधिक अच्छी तरह समझोगे । |
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− | एकाग्रता व ब्रह्मचर्य | + | ==== एकाग्रता व ब्रह्मचर्य ==== |
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| एकाग्रता की शक्ति जितनी अधिक होगी, ज्ञान की प्राप्ति भी उतनी ही अधिक होगी । ९० प्रतिशत विचार- शक्ति को साधारण मनुष्य व्यर्थ खो देता है और इसी कारण वह सदा बड़ी-बड़ी भूलें किया करता है । अभ्यस्त मन कभी भूल नहीं करता । मनुष्यों और पशुओं में मुख्य भेद केवल चित्त की एकाग्रता-शक्ति का तारतम्य ही है । पशु में एकाग्रता की शक्ति बहुत कम होती है । | | एकाग्रता की शक्ति जितनी अधिक होगी, ज्ञान की प्राप्ति भी उतनी ही अधिक होगी । ९० प्रतिशत विचार- शक्ति को साधारण मनुष्य व्यर्थ खो देता है और इसी कारण वह सदा बड़ी-बड़ी भूलें किया करता है । अभ्यस्त मन कभी भूल नहीं करता । मनुष्यों और पशुओं में मुख्य भेद केवल चित्त की एकाग्रता-शक्ति का तारतम्य ही है । पशु में एकाग्रता की शक्ति बहुत कम होती है । |
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Line 114: |
Line 107: |
| इस ब्रह्मचर्य के अभाव के कारण हमारे देश में प्रत्येक वस्तु नष्टप्राय हो रही है । कड़े ब्रह्मचर्य के पालन से कोई भी विद्या अल्पकाल में ही अवगत की जा सकती है, एक ही बार सुनी या जानी हुई बात को याद रखने की अचूक स्मृति-शक्ति आ जाती है । | | इस ब्रह्मचर्य के अभाव के कारण हमारे देश में प्रत्येक वस्तु नष्टप्राय हो रही है । कड़े ब्रह्मचर्य के पालन से कोई भी विद्या अल्पकाल में ही अवगत की जा सकती है, एक ही बार सुनी या जानी हुई बात को याद रखने की अचूक स्मृति-शक्ति आ जाती है । |
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− | शिक्षक और शिष्य | + | ==== शिक्षक और शिष्य ==== |
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| मेरे विचार के अनुसार शिक्षा का अर्थ है - 'गुरुगृह- वास' । शिक्षक अर्थात् गुरु के व्यक्तिगत जीवन के बिना कोई शिक्षा नहीं हो सकती । शिष्य को बाल्यावस्था से ऐसे व्यक्ति (गुरु) के साथ रहना चाहिए, जिनका चरित्र जाज्वल्यमान् अधि के समान हो, जिससे उच्चतम शिक्षा का सजीव आदर्श शिष्य के समान रहे । हमारे देश में ज्ञान का दान सदा त्यागी पुरुषों द्वारा ही होता आया है । ज्ञान-दान का भार पुनः त्यागियों के कंधों पर पड़ना चाहिए । | | मेरे विचार के अनुसार शिक्षा का अर्थ है - 'गुरुगृह- वास' । शिक्षक अर्थात् गुरु के व्यक्तिगत जीवन के बिना कोई शिक्षा नहीं हो सकती । शिष्य को बाल्यावस्था से ऐसे व्यक्ति (गुरु) के साथ रहना चाहिए, जिनका चरित्र जाज्वल्यमान् अधि के समान हो, जिससे उच्चतम शिक्षा का सजीव आदर्श शिष्य के समान रहे । हमारे देश में ज्ञान का दान सदा त्यागी पुरुषों द्वारा ही होता आया है । ज्ञान-दान का भार पुनः त्यागियों के कंधों पर पड़ना चाहिए । |
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Line 122: |
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| गुरु को शिष्य की प्रवृत्ति में अपनी सारी शक्ति लगा देनी चाहिए । सच्ची सहानुभूति के बिना हम अच्छी शिक्षा कभी नहीं दे सकते । | | गुरु को शिष्य की प्रवृत्ति में अपनी सारी शक्ति लगा देनी चाहिए । सच्ची सहानुभूति के बिना हम अच्छी शिक्षा कभी नहीं दे सकते । |
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− | ताड़ना नहीं, सहानुभूति | + | ==== ताड़ना नहीं, सहानुभूति ==== |
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| हमें विधायक विचार सामने रखने चाहिये । निषेधात्मक विचार लोगों को दुर्बल बना देते हैं । क्या तुमने यह नहीं देखा कि जहाँ माता-पिता पढ़ने-लिखने के लिए अपने बालकों के सदा पीछे लगे रहते हैं और कहा करते हैं कि तुम कभी कुछ सीख नहीं सकते, तुम गधे बने रहोगे - वहाँ बालक यथार्थ में वैसे ही बन जाते हैं । यदि तुम उनसे सहानुभूति भरी बातें करो और उन्हें उत्साह दो तो समय पाकर उनकी उन्नति होना निश्चित है । यदि तुम उनके सामने विधायक विचार रखो तो उनमें मनुषत्व आएगा और वे अपने पैरों पर खड़ा होना सीखेंगे । भाषा और साहित्य, | | हमें विधायक विचार सामने रखने चाहिये । निषेधात्मक विचार लोगों को दुर्बल बना देते हैं । क्या तुमने यह नहीं देखा कि जहाँ माता-पिता पढ़ने-लिखने के लिए अपने बालकों के सदा पीछे लगे रहते हैं और कहा करते हैं कि तुम कभी कुछ सीख नहीं सकते, तुम गधे बने रहोगे - वहाँ बालक यथार्थ में वैसे ही बन जाते हैं । यदि तुम उनसे सहानुभूति भरी बातें करो और उन्हें उत्साह दो तो समय पाकर उनकी उन्नति होना निश्चित है । यदि तुम उनके सामने विधायक विचार रखो तो उनमें मनुषत्व आएगा और वे अपने पैरों पर खड़ा होना सीखेंगे । भाषा और साहित्य, |
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