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अध्याय २
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अध्याय २
 
अध्याय २
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युगानुकूल और देशानुकूल
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तत्त्व एवं व्यवहार में अन्तर क्यों
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SEM APT के आठ अंगों में पहला अंग है यम । यम
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पाँच हैं, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य । इनके
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विषय में कहा गया है कि वे सार्वभोम महाब्रत हैं । इसका अर्थ
 +
है कि वह समय के प्रवाह में और स्थान के बदलने से परिवर्तित
 +
नहीं होते, वे हमेशा किसी भी परिस्थिति में और किसी भी
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समय में लागू हैं । इनका आचरण करना ही है । फिर भी उनका
 +
स्वरूप परिवर्तित होते रहता है । तत्त्व की अहिंसा और व्यवहार
 +
की अहिंसा का स्वरूप अलग होता है । तत्त्व के रूप में वे
 +
अमूर्त है परंतु व्यवहार के रूप में वे मूर्त हैं । हम सब जानते
 +
हैं कि मन, कर्म, वचन से किसी को भी दुःख नहीं पहुँचाना,
 +
किसी का भी अहित नहीं करना अहिंसा है । किसी चींटी को
 +
भी मारना हिंसा है । किसी को कठोर वचन कहना हिंसा है ।
 +
परंतु न्यायालय में न्यायाधीश अपराधी को कोड़े लगाने की सजा
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देते ही हैं । किसी अपराधी को फाँसी की सजा भी दी जाती
 +
है । इतना ही क्यों भगवान कृष्ण ने अर्जुन को बार-बार युद्ध
 +
करने का उपदेश दिया । युद्ध में हिंसा होती है । श्री कृष्ण
 +
योगेश्वर थे, इसका अर्थ है कि वे योगसाधना करते ही थे । योग
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का उपदेश भी वे देते ही हैं । फिर उन्होंने हिंसा का उपदेश
 +
क्यों दिया ? क्या यह सार्वभौम महाव्रत का उल्लंघन नहीं है,
 +
ऐसा प्रश्न कोई भी पूछ सकता है । अनेक लोगों ने पूछा भी
 +
है । यही तो रहस्य है । किसी को भी दुःख पहुँचाना, किसी
 +
को भी हानि पहुँचाना हिंसा ही है । फिर भी भगवान कृष्ण
 +
की दिखने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है । क्यों कि धर्म की रक्षा
 +
के लिए की जाने वाली तथा दिखाई देने वाली हिंसा, हिंसा
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नहीं है । धर्म की रक्षा करना विश्व का कल्याण करना ही है ।
 +
विश्व का कल्याण करने के लिए एक व्यक्ति को या उस व्यक्ति
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के पक्ष में युद्ध करने वाले अनेक व्यक्तियों को मारना आवश्यक
 +
है । यदि उन्हें नहीं मारेंगे तो व्यापक हिंसा होगी इस अर्थ में
 +
वह कल्याण होगा । इसलिए उनको मार कर व्यापक रूप में
 +
विश्व की रक्षा करना अहिंसा है । अधर्म के पक्ष के लोगों को
 +
मारने पर या मरवाने पर भी भगवान कृष्ण के हृदय में सबके
 +
लिए प्रेम की ही भावना थी और सब के कल्याण की ही इच्छा
 +
थी । इसलिए उन्होंने करवाई हुई हिंसा, अहिंसा ही है । तत्त्व
 +
की और व्यवहार की अहिंसा का यही अंतर है । यही बात
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सत्य के विषय में भी सही है, सत्य सार्वभौमक वैश्विक नियमों
 +
की वाचिक अभिव्यक्ति है । वह भी सार्वभौम महाब्रत है परंतु
 +
विभिन्न परिस्थितियों में यह अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न होती है,
 +
यह तो हमारा सब का अनुभव है । एक महात्मा वृक्ष के नीचे
 +
ध्यान लगा कर बैठे थे । उस समय एक घबराई हुई महिला
 +
भागती-भागती आई और उसने महात्मा से छिपने का उपाय
 +
पूछा । महात्मा ने उसे कुछ दूरी पर स्थित अपने आश्रम में छिप
 +
जाने के लिए बताया । वह महिला वहाँ जाकर छिप गई कुछ
 +
देर पश्चात एक मनुष्य आया । उसने महात्मा को उस महिला
 +
के बारे में पूछा । महात्मा को पता चल गया की वह उस
 +
महिला को परेशान करना चाहता था । महात्मा ने उस महिला
 +
को बचाने की दृष्टि से झूठ बोला और कहा कि वह महिला
 +
यहाँ नहीं आई । उस मनुष्य ने महात्मा पर विश्वास कर लिया
 +
और वह दूसरी दिशा में चला गया । यह तो सरासर झूठ है ।
 +
महात्मा ने झूठ बोला ही है, फिर भी महिला को बचाने की
 +
दृष्टि से वह एकमात्र मार्ग था, इसलिए उन्होंने असत्य कहा ।
 +
व्यापक अर्थ में या व्यापक संदर्भ में यह असत्य नहीं कहा
 +
जाएगा । यही बात सभी महाब्रतों को लागू है । जो स्वार्थी
 +
के लिए सत्य है, जो केवल अपनी ही दृष्टि से या अनिष्ट हेतु
 +
 +
............. page-23 .............
 +
पर्व १ : विषय प्रवेश
 +
सिद्ध करने के लिए बोला जाता है, वह दिखने में सत्य होने
 +
पर भी असत्य है, दिखने में अहिंसा होने पर भी हिंसा है ।
 +
अपराधी के पक्ष में लाभ हो और निरपराधी को हानि हो ऐसा
 +
सत्य भी असत्य ही होता है या ऐसी अहिंसा भी हिंसा ही होती
 +
है । अन्याय का पक्ष लेना असत्य है, अपराधी का पक्ष लेना
 +
हिंसा है, फिर हम चाहे कितने ही सत्यवादी हैं या अहिंसावादी
 +
हैं । अन्याय होते हुए देखकर मौन रहना भी असत्य भाषण
 +
है । शक्तिमान के आगे निष्क्रिय रहना, दुर्बल को नहीं बचाना
 +
और अपनी सुरक्षा कर लेना हिंसा है । इस प्रकार सभी बातों
 +
के लिए तत्त्व और व्यवहार का स्वरूप अलग अलग होता
 +
है । तत्त्व अमूर्त है इसलिए भिन्नता दिखती नहीं है परंतु व्यवहार
 +
दिखते हैं, इसलिए यह भिन्नता दिखाई देती है । कहाँ क्या
 +
करना इसके विवेक से और मनोभाव प्रेमपूर्ण होने से विभिन्न
 +
परिस्थितियों में कौन सा अच्छा है, कौन सा व्यवहार सत्य
 +
और अहिंसा का होगा इसका निर्णय होता है । कहने का तात्पर्य
 +
यह है कि व्यवहार करते समय हमें अनेक बातों का विचार
 +
करना होता है । व्यवहार का मूल्यांकन करते समय भी हमें
 +
अनेक बातों का विचार करना होता है । सत्य और असत्य
 +
का, हिंसा और अहिंसा का, इसी प्रकार अच्छे और बुरे का
 +
विवेक करना आवश्यक होता है । इसका अर्थ यह है कि
 +
शास्त्रों में और स्मृतियों में भिन्न-भिन्न बातें कही हुई होती हैं
 +
परंतु वह निरपेक्ष रूप से हमारे लिए प्रमाण नहीं हो सकती,
 +
हमें या तो विवेक सीखना है या फिर महाजनों के उदाहरण
 +
देखकर अपना आचरण निश्चित करना है ।
 +
युग क्या है
 +
आजकल हम युग के अनुकूल ऐसी संज्ञा बार-बार सुनते
 +
हैं । लोग कहते हैं कि हमें आज के जमाने के अनुसार चलना
 +
चाहिए । प्राचीन काल का सिद्धांत आज लागू नहीं हो
 +
सकता । हमें समय के अनुसार परिवर्तन करना ही चाहिए, यही
 +
व्यावहारिक है । इस बात में कितना तथ्य है ? इस कथन में
 +
तो सत्यता है, परंतु इसे ठीक से समझा नहीं जाता है । युग के
 +
अनुकूल होना, इसका अर्थ है, समय के साथ परिवर्तन करना ।
 +
यह तो बिल्कुल सत्य है । यह तो सर्वथा व्यावहारिक है । जरा
 +
ठीक से इसे समझें । सत्य युग में समाज व्यवस्था में धर्म
 +
स्वाभाविक रूप से प्रतिष्ठित था । इसलिए
 +
वहाँ राज्य की, राजा की या दंड की आवश्यकता नहीं थी ।
 +
धर्म से ही प्रजा अपने आप नियंत्रित होती थी । परंतु त्रेता युग
 +
में धर्म के ट्वारा नियंत्रित होना इतना संभव नहीं रहा । यह काल
 +
का प्रभाव था । इसलिए राज्य की और राजा की व्यवस्था
 +
निर्माण हुई । इसी प्रकार त्रेता से द्वापर में और ट्रापर से कलियुग
 +
में मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक क्षमता कम हुई ।
 +
प्रकृति में भी क्षरण हुआ । इसलिए नियंत्रण की अधिक
 +
आवश्यकता पड़ने लगी । इस प्रकार कलियुग की व्यवस्थाएँ
 +
सत्ययुग की अपेक्षा अथवा अन्य तीनों युगों की अपेक्षा भिन्न
 +
प्रकार की होना स्वाभाविक है । जीवन के मूल तत्त्वों के
 +
सिद्धांत सत्ययुग में और कलियुग में तो एक ही रहेंगे परंतु उनके
 +
आविष्कार में और उनकी व्यवस्था में उनका स्वरूप भिन्न
 +
होगा । इसे ही युगों की व्यवस्थाएँ कहते हैं । यह बात केवल
 +
कलियुग, दट्वापरयुग आदि युगों को ही लागू नहीं होती अपितु
 +
दो-तीन पीढ़ियों में भी लागू होती है । ५००० वर्ष पहले जो
 +
स्थिति थी, वह आज नहीं है । तीन पीढ़ियों पहले जो स्थिति
 +
थी वह भी आज नहीं है, इस बात को ध्यान में रखकर हमें
 +
अपनी अपेक्षाओं में और अपनी व्यवस्थाओं में परिवर्तन
 +
करना होता है, इसे युग के अनुकूल परिवर्तन कहते हैं । इतना
 +
ही क्यों समय के परिवर्तन के साथ हम छोटी मोटी बातों में
 +
परिवर्तन करते ही हैं । ठंड के दिनों में जो कपड़े पहनते हैं,
 +
वह गर्मी के दिनों में नहीं पहनते । वर्षा की तु में जो आहार
 +
लेते हैं, वह गर्मी की क्रतु में नहीं लेते । दो पीढ़ियों पहले
 +
मनुष्य की आकलन शक्ति और स्मरण शक्ति अधिक थी ।
 +
उसकी श्रवण शक्ति और दर्शन शक्ति भी अधिक थी । इसलिए
 +
उनकी शिक्षा योजना में अधिक उपकरणों की और अधिक
 +
परिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती थी । आज उस पीढ़ी की
 +
अपेक्षा यह सारी शक्तियाँ और साथ साथ संयम शक्ति, एकाग्रता
 +
की शक्ति आदि भी कम हुई हैं । मनुष्य की भावना शक्ति और
 +
संवेदना शक्ति भी कम हुई है । इस बात को ध्यान में रखकर
 +
ही आज शिक्षा व्यवस्था और कानून व्यवस्था करनी होगी ।
 +
इसे ही युग के अनुकूल परिवर्तन कहते हैं ।
 +
तत्त्व के अनुकूल युग, युग के अनुकूल व्यवहार
 +
फिर भी एक बात का स्मरण रखना आवश्यक है ।
 +
 +
............. page-24 .............
 +
कुछ बातों में जमाने के अनुसार परिवर्तन
 +
करना होता है और कुछ बातों में जमाने का परिवर्तन करना
 +
होता है। इसका विवेक करना अत्यंत आवश्यक है।
 +
उदाहरण के लिए छात्रों के अध्ययन की क्षमताएँ कम हुई हैं,
 +
इस बात को स्वीकार कर अध्यापन पद्धति का निरूपण करना
 +
चाहिए । यह नहीं किया तो छात्रों के लिए अध्ययन असंभव
 +
हो जाएगा । उस समय में क्या या आज के समय में क्या ज्ञान
 +
कभी बेचा नहीं जा सकता । अर्थ और काम धर्मानुसार होने
 +
ही चाहिए । इस बात में समझौता नहीं हो सकता । इसलिए
 +
ज्ञान की सर्वोपरिता के विषय में आज के जमाने को परिवर्तित
 +
करना चाहिए । यह बात सभी व्यवस्थाओं को और सभी
 +
विषयों को लागू होती है । यही व्यवहार का नियम है ।
 +
तत्त्वानुसारी व्यवहार की यही विशेषता है ।
 +
आज के समय में शब्दों के अर्थ बहुत बदल गए हैं
 +
इसलिए उनके स्वाभाविक अर्थों को हम जल्दी से और
 +
सरलता से समझ नहीं सकते हैं । इसलिए युग के अनुकूल
 +
परिवर्तन के मामले में हम उलझ जाते हैं । युग के अनुकूल
 +
परिवर्तन केवल हमारे करने से ही नहीं होता । हमारी इच्छा
 +
से भी नहीं होता । वह प्रकृति के नियमों के अनुसार होता
 +
है । प्रकृति स्वभाव से नित्य परिवर्तनशील है । हमें प्रकृति के
 +
परिवर्तन को समझ कर उसके अनुसार हमारी व्यवस्था और
 +
व्यवहार में भी परिवर्तन करना होता है । इसे ही युगानुकूल
 +
परिवर्तन कहते हैं । आज हम जिसे युगानुकूल परिवर्तन कहते
 +
हैं उसके लिए प्रचलित शब्द है, आधुनिक काल के अनुसार
 +
परिवर्तन । आधुनिक काल का अर्थ है आज का समय । वह
 +
भी स्वाभाविक है परंतु हम उसे अपने आसपास के लोगों के
 +
विचार और व्यवहार के साथ जोड़ते हैं । इसलिए वह कृत्रिम
 +
अर्थात्‌ अप्राकृतिक हो जाता है । जो भी कृत्रिम है वह
 +
हानिकारक होता है, वह या तो अपने स्वास्थ्य के लिए या
 +
तो प्रकृति के पर्यावरण के लिए हानिकारक होता है।
 +
इसलिए लोगों की मानसिकता के अनुसार या लोगों के
 +
व्यवहार के अनुसार परिवर्तन करना अनुकूल परिवर्तन नहीं
 +
है । प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार किया जाने
 +
वाला परिवर्तन युगानुकूल परिवर्तन है । और तभी हमारी
 +
सारी व्यवस्थाएँ स्वाभाविक बनेंगी ।
 +
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 +
देशानुकूल संकल्पना क्या है
 +
देशानुकूल का अर्थ है, देश के अनुकूल । इसे समझना
 +
तो सरल है । विश्व में अनेक देश हैं, अनेक प्रजाएँ हैं । इन
 +
सब का खानपान, वेशभूषा, दिनचर्या आदि सब अलग
 +
अलग ही होते हैं । यह सारी तो बाहरी बातें हैं । एक दूसरे के
 +
साथ के संबंध, उनकी घटनाओं के प्रति देखने की दृष्टि,
 +
जीवन को समझने की पद्धति, सुविधाओं की आवश्यकता
 +
आदि सभी भिन्न-भिन्न होते हैं । जब यह प्रजा एक दूसरे के
 +
साथ संपर्क में आती है तब वह एक दूसरे को प्रभावित करती
 +
है और एक दूसरे से प्रभावित होती है । इससे अनेक बातों
 +
का. आदान-प्रदान होता है। यह आदान-प्रदान भी
 +
स्वाभाविक है । जब तक यह स्वाभाविक है, वह उचित है
 +
परंतु जब वह अस्वाभाविक होता है, तब विचित्रता निर्माण
 +
करता है । उदाहरण के लिए विश्व के सभी देशों में लोग वस्त्र
 +
पहनते हैं । अफ्रीका के जंगलों में रहने वाले लोग वृक्षों के
 +
छाल के वख््र पहनते हैं । पशुओं की हड्डियों के अलंकार
 +
बनाकर पहनते हैं । यूरोप-अमेरिका के लोग सूट-बूट का
 +
वेश पहनते हैं । भारत में धोती कुर्ता, साड़ी व पगड़ी आदि
 +
पहनते हैं । जापान के लोग किमोनो पहनते हैं । यह सब
 +
अपने-अपने देश की जलवायु के अनुकूल और प्राप्त सामग्री
 +
के अनुकूल होते हैं, इसलिए वह उन-उन देशों में
 +
स्वाभाविक है । यूरोप के या भारत के नगरवासी लोग वृक्षों
 +
के छाल के वस्त्र पहनने लगे तो अस्वाभाविक लगेगा । भारत
 +
की गृहिणियाँ किमोनो पहनने लगेंगी तो वह अस्वाभाविक
 +
लगेगा । इसी प्रकार बड़ी आयु के लोग बच्चों जैसे कपड़े
 +
पहनेंगे तो अस्वाभाविक लगेगा । आज हम देखते हैं कि
 +
भारत में लोग यूरोपीय वेशभूषा पहनते हैं । ख्ियों ने पुरुषों
 +
जैसे कपड़े पहनना शुरु किया है । भारत के लोगों का यह
 +
अनुकरण स्वाभाविक नहीं है, क्योंकि वह देशानुकूल नहीं
 +
है । इसी प्रकार भारत के लोग जब यूरोपीय जीवन दृष्टि
 +
अपनाते हैं तो वह भी देशानुकूल नहीं है क्योंकि वह भारत
 +
की संस्कृति और परंपरा से मेल नहीं खाता । इसलिए
 +
विवेकशील लोग कहते हैं कि विश्वभर में जहाँ कहीं जो कुछ
 +
भी अच्छा है, लाभकारी है, शुभ है उसे खुले मन से अपनाना
 +
चाहिए, जो इससे विपरीत है उसे नहीं अपनाना चाहिए ।
 +
 +
............. page-25 .............
 +
पर्व १ : विषय प्रवेश
 +
देशानुकूल परिवर्तन क्या है
 +
दूसरों से कुछ भी अपनाने पर जो परिवर्तन होता है,
 +
वह देशानुकूल होना चाहिए । उदाहरण के लिए हम
 +
अमेरिकन या ऑस्ट्रेलियन प्रजा से कानून का पालन करने का
 +
नागरिक धर्म अपना सकते हैं परंतु समाज व्यवस्था को करार
 +
मानना स्वीकार नहीं कर सकते । आज के समय में हम देखते
 +
हैं कि हमने जो अपनाना चाहिए, वह नहीं अपनाया है और
 +
जो नहीं अपनाना चाहिए, उसे अपना लिया है और हमारे
 +
स्वयं के लिए बहुत बड़े संकट मोल ले लिए हैं ।
 +
हम ऐसा करते हैं इसका कारण हमारा हीनताबोध है ।
 +
ब्रिटिशों के आक्रमण का प्रभाव हमारे मानस पर कुछ ऐसा हुआ
 +
है कि हमें यूरोप अमेरिका का सब कुछ अच्छा और श्रेष्ठ लगने
 +
लगा है । जब कोई भी व्यक्ति हीनताबोध से ग्रस्त हो जाता है
 +
तब उसका विवेक नष्ट हो जाता है । हमारी संपूर्ण प्रजा की
 +
आज यही स्थिति हो गई है । अन्यथा हम
 +
तो ऋग्वेद काल से कहते ही आए हैं कि विश्वभर में जहाँ कहीं
 +
भी कुछ भी कल्याणकारी हो, हम उसे अपनाएँगे । इस
 +
हीनताबोध को समाप्त करने का उपाय शिक्षा और धर्म में है ।
 +
धर्माचार्य ने प्रजा को धर्मनिष्ठ बनाने के और शिक्षाविदों ने प्रजा
 +
को ज्ञाननिष्ठ बनाने के प्रयास करने चाहिए । धर्म और ज्ञान
 +
ही आत्मबोध और स्वाभिमान निर्माण करते हैं । इन दोनों से
 +
ही विवेक जाग्रत होता है । जब तत्त्व का विवेक आता है,
 +
तब व्यवहार में भी विवेक आता है । उसके बाद हम दूसरों से
 +
अनेक बातें ग्रहण करते हैं और अपनी जीवन पद्धति के अनुसार
 +
उनको ढालकर लाभान्वित होते हैं । यही देशानुकूल परिवर्तन
 +
है । किसी भी विषय की चर्चा करते समय हम देश-काल-
 +
परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करें, ऐसा ही कहते हैं । यह
 +
सर्व स्वीकृत प्रचलन है ।
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