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→‎वनवासी क्षेत्र और शिक्षा: लेख सम्पादित किया
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#* ऐसा अध्ययन वनवासी क्षेत्र में रहकर, उनके साथ समरस होकर, उन्हें हमारे साथ सहभागी बनाकर होना चाहिए । आज तो उनके मन में हमारे लिये विश्वास नहीं है। यह विश्वास जागृत करने का काम प्रथम करना चाहिए । वनवासी संस्कृति का अध्ययन हमें भी करना चाहिए और उनके लिये भी योजना बनानी चाहिए ।
 
#* ऐसा अध्ययन वनवासी क्षेत्र में रहकर, उनके साथ समरस होकर, उन्हें हमारे साथ सहभागी बनाकर होना चाहिए । आज तो उनके मन में हमारे लिये विश्वास नहीं है। यह विश्वास जागृत करने का काम प्रथम करना चाहिए । वनवासी संस्कृति का अध्ययन हमें भी करना चाहिए और उनके लिये भी योजना बनानी चाहिए ।
 
#* इस अध्ययन का केन्द्र अनिवार्य रूप से वनवासी क्षेत्र में ही होना चाहिए । वनवासी परिवेश में ही होना चाहिए । वहाँ अध्ययन करने वाले लोगों ने वहाँ की जीवनशैली अपनानी चाहिए । हम यदि नगरों में आने वाले वनवासियों को नगरों के खानपान और वस्त्र परिधान के लिये बाध्य कर सकते हैं तो हम भी उनकी शैली अपना सकते हैं ।
 
#* इस अध्ययन का केन्द्र अनिवार्य रूप से वनवासी क्षेत्र में ही होना चाहिए । वनवासी परिवेश में ही होना चाहिए । वहाँ अध्ययन करने वाले लोगों ने वहाँ की जीवनशैली अपनानी चाहिए । हम यदि नगरों में आने वाले वनवासियों को नगरों के खानपान और वस्त्र परिधान के लिये बाध्य कर सकते हैं तो हम भी उनकी शैली अपना सकते हैं ।
#* वनवासियों के पास जो ज्ञान है उसका अध्ययन करना चाहिए । अभी उनके पास जो ज्ञान है वह शास्त्रीय नहीं है, पारम्परिक है । परन्तु अनुभव यह आता है कि शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किए हुए अनेक लोगों की तुलना में वह अधिक पक्का और परिणामकारी है । उसका बहुत बड़ा कारण तो यह है कि उनका पारम्परिक ज्ञान भारतीयता की बैठक लिये हुए है और हमारे विश्वविद्यालयों में दिया जाने वाला ज्ञान यूरोअमेरिकी अधिष्ठान लिए हुए है । ऊपर से हमारे विश्वविद्यालयों में निष्ठापूर्वक अध्ययन भी नहीं होता है। इन दो कारणों से वनवासियों के ज्ञान का और हमारे विश्वविद्यालयों के ज्ञान का कोई मेल नहीं है । इस परिप्रेक्ष्य में उनके ज्ञान को हमने ठीक से अध्ययन कर उसे प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करना चाहिए ।
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#* वनवासियों के पास जो ज्ञान है उसका अध्ययन करना चाहिए । अभी उनके पास जो ज्ञान है वह शास्त्रीय नहीं है, पारम्परिक है । परन्तु अनुभव यह आता है कि शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किए हुए अनेक लोगों की तुलना में वह अधिक पक्का और परिणामकारी है । उसका बहुत बड़ा कारण तो यह है कि उनका पारम्परिक ज्ञान भारतीयता की बैठक लिये हुए है और हमारे विश्वविद्यालयों में दिया जाने वाला ज्ञान यूरोअमेरिकी अधिष्ठान लिए हुए है । ऊपर से हमारे विश्वविद्यालयों में निष्ठापूर्वक अध्ययन भी नहीं होता है। इन दो कारणों से वनवासियों के ज्ञान का और हमारे विश्वविद्यालयों के ज्ञान का कोई मेल नहीं है । इस परिप्रेक्ष्य में उनके ज्ञान को हमने ठीक से अध्ययन कर उसे प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करना चाहिए।
''हमारी सरकारी नीतियाँ आज तो इसके विपरीत हैं अध्ययन के प्रतिकूल होता है ''
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#* हमारी सरकारी नीतियाँ आज तो इसके विपरीत हैं परन्तु हमें इसका भी ठीक से अध्ययन कर समस्या सुलझाने का प्रयास करना चाहिए।
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#* वनवासियों को नगर में लाने का प्रयास हम सोचते हैं उतना उचित नहीं है। वे वन में रहकर खुश हैं तो उन्हें नगरों में लाने की या नगरों को वनो में ले जाने की क्या आवश्यकता है?
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#* उनके शिक्षा क्रम में हुनर की नई नई तकनीकी और राष्ट्रदर्शन ये दो महत्त्वपूर्ण अंग होने चाहिए । राष्ट्रजीवन को समृद्ध बनाने में वनवासियों का कितना अधिक योगदान है इसकी अनुभूति करवानी चाहिए। यह जानकारी हमारे नगरों में पढ़ने वाले छात्रों को भी उचित स्वरूप में मिलनी चाहिए।
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#* नगरों के छात्रों को वनवासी संस्कृति का अध्ययन सामान्य शिक्षा में होना चाहिए । शिक्षा के सभी स्तरों पर विशेष योजना बनाकर ऐसा शिक्षाक्रम बनाया जा सकता है।
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#* नागरी क्षेत्र और वनवासी क्षेत्र की समरसता दोनों क्षेत्रों की शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए । वनों को नष्ट करना और सर्वत्र नगर ही नगर बना देना किसी भी प्रकार से वांछनीय नहीं है।
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#* एक बात विशेष रूप से सबके शिक्षाक्रम में समाविष्ट होनी चाहिए। भारत का ज्ञान, भारत के गुरुकुल, भारत की श्रेष्ठ शिक्षा तपोवनों में खिली है। ऋषि अरण्यवासी थे। वानप्रस्थी वनों में निवास करते थे। तपस्वियों का तप वनों में होता था। आज भी पहाड़ों और वनों में अनेक सिद्ध योगी तपश्चर्या कर रहे हैं। हजारों वर्षों की तपश्चर्या और ज्ञान वनों में आज भी सुरक्षित है। इस तपश्चर्या के कारण वन पवित्र वातावरण से युक्त हैं । इस पवित्रता की कथाओं को पाठयक्रमों में स्थान देना चाहिए।
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#* इन वनों में आज भी विश्वविद्यालय स्थापित किए जा सकते हैं जो वनों के वातावरण से अनुप्राणित होकर नागरी जीवन के लिए अध्ययन और अनुसन्धान करें। नगरों का वातावरण तो वैसे भी कलुषित और अध्ययन के प्रतिकूल होता है।
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#* नगरों और बनों को एकदूसरे की सहायता की आवश्यकता है। नगर वनों के ज्ञान को प्रतिष्ठा दें वन नगरों को ज्ञान के भारतीय अधिष्ठान की प्रेरणा दे। परस्पर लाभान्वित होकर दोनों समरसता स्थापित कर सकते हैं।
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''परन्तु हमें इसका भी ठीक से अध्ययन कर समस्या... *... नगरों और बनों को एकदूसरे की सहायता की''
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== ग्रामशिक्षा ==
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भारतमाता ग्रामवासिनी है। ग्राम देश की ग्रामलक्ष्मी है। देश की समृद्धि का स्रोत ग्राम है । भारत में लगभग सात लाख ग्राम हैं। इतनी बड़ी संख्या में यदि ग्राम हैं तो देश अत्यन्त समृद्ध होना चाहिये और देश में किसी भी वस्तु का अभाव नहीं होना चाहिये । परन्तु भारत की स्थिति को देखते हुए या तो यह कथन असत्य लगता है अथवा भारत वास्तव में समृद्ध है परन्तु हम उस समृद्धि को देख नहीं सकते हैं।
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''सुलझाने का प्रयास करना चाहिए । आवश्यकता है । नगर वनों के ज्ञान को प्रतिष्ठा दें ''
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ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे ग्रामविषयक चिन्तन में और उसके आधार पर किये जा रहे व्यवहार में कहीं गड़बड़ है । इस सन्दर्भ को ध्यान में रखकर हम कुछ बातों का विचार करेंगे
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''०... वनवासियों को नगर में लाने का प्रयास हम सोचते हैं वन नगरों को ज्ञान के भारतीय अधिष्ठान की प्रेरणा''
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ग्राम और ग्रामीण क्षेत्र की शिक्षा के सन्दर्भ में कुछ इस प्रकार की बातें विचारणीय हैं ।
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* ग्राम किसे कहते हैं ? केवल जनसंख्या के आधार पर ग्राम नहीं होता । हमने जनसंख्या का आधार लेकर भूप्रदेश को ग्राम कहा है और उसके लिए प्रशासन के लिये ग्रामपंचायतों की व्यवस्था की है। सामान्य बातचीत में तो हम कह देते हैं की जहां ग्रामपंचायत होती है वह ग्राम होता है। ऐसा नहीं है, जहां ग्राम होता है वहाँ ग्रामपंचायत होती है । वास्तव में ग्राम की यह परिभाषा ठीक नहीं है।
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* ग्राम की भारतीय पारम्परिक परिभाषा आर्थिक है। जिस प्रकार कुटुम्ब सामाजिक लघुतम इकाई है उस प्रकार गाँव लघुतम आर्थिक इकाई है। मनुष्य का दैनंदिन जीवन की सारी आवश्यकताओं का उत्पादन हो जाता है और बाहर से कुछ भी लाना नहीं पड़ता वह गाँव है।
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''उतना उचित नहीं है । वे वन में रहकर खुश हैं तो उन्हें दे । परस्पर लाभान्वित होकर दोनों समरसता स्थापित''
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''नगरों में लाने की या नगरों को वनो में ले जाने की कर सकते हैं । ..''
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''क्या आवश्यकता है ?''
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''०... उनके शिक्षा क्रम में हुनर की नई नई तकनीकी और ग्रामशिक्षा''
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''राष्ट्रदर्शन ये दो महत्त्वपूर्ण अंग होने चाहिए । राष्ट्रजीवन''
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''भारतमाता ग्रामवासिनी है । ग्राम देश की ग्रामलक्ष्मी''
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''को समृद्ध बनाने में वनवासियों का कितना अधिक... है| देश की समृद्धि का स्रोत ग्राम है । भारत में लगभग सात''
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''योगदान है इसकी अनुभूति करवानी चाहिए । यह... लाख ग्राम हैं । इतनी बड़ी संख्या में यदि ग्राम हैं तो देश''
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''जानकारी हमारे नगरों में पढ़ने वाले छात्रों को भी... अत्यन्त समृद्ध होना चाहिये और देश में किसी भी वस्तु का''
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''उचित स्वरूप में मिलनी चाहिए । अभाव नहीं होना चाहिये । परन्तु भारत की स्थिति को देखते''
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''०... नगरों के छात्रों को वनवासी संस्कृति का अध्ययन... हुए या तो यह कथन असत्य लगता है अथवा भारत वास्तव''
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''सामान्य शिक्षा में होना चाहिए । शिक्षा के सभी स्तरों... में समृद्ध है परन्तु हम उस समृद्धि को देख नहीं सकते हैं ।''
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''पर विशेष योजना बनाकर ऐसा शिक्षाक्रम बनाया जा ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे''
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''सकता है । ग्रामविषयक चिन्तन में और उसके आधार पर किये जा रहे''
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''०... नागरी क्षेत्र और वनवासी क्षेत्र की समरसता दोनों क्षेत्रों... व्यवहार में कहीं गड़बड़ है । इस सन्दर्भ को ध्यान में रखकर''
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''की शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। वनों को नष्ट ... हम कुछ बातों का विचार करेंगे ।''
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''करना और सर्वत्र नगर ही नगर बना देना किसी भी ग्राम और ग्रामीण क्षेत्र की शिक्षा के सन्दर्भ में कुछ''
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''प्रकार से वांछनीय नहीं है । इस प्रकार की बातें विचारणीय हैं ।''
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''०... एक बात विशेष रूप से सबके शिक्षाक्रम में समाविष्ट .. *... ग्राम किसे कहते हैं ? केवल जनसंख्या के आधार पर''
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''होनी चाहिए । भारत का ज्ञान, भारत के गुरुकुल, ग्राम नहीं होता । हमने जनसंख्या का आधार लेकर''
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''भारत की श्रेष्ठ शिक्षा तपोवनों में खिली है । ऋषि भूप्रदेश को ग्राम कहा है और उसके लिए प्रशासन के''
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''अरण्यवासी थे । वानप्रस्थी वनों में निवास करते थे । लिये ग्रामपंचायतों की व्यवस्था की है । सामान्य''
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''तपस्वियों का तप वनों में होता था । आज भी पहाड़ों बातचीत में तो हम कह देते हैं की जहां ग्रामपंचायत''
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''और वनों में अनेक सिद्ध योगी तपश्चर्या कर रहे हैं । होती है वह ग्राम होता है । ऐसा नहीं है, जहां ग्राम''
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''हजारों वर्षों की तपश्चर्या और ज्ञान वनों में आज भी होता है वहाँ ग्रामपंचायत होती है । वास्तव में ग्राम''
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''सुरक्षित है। इस तपश्चर्या के कारण वन पतित्र की यह परिभाषा ठीक नहीं है ।''
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''वातावरण से युक्त हैं । इस पवित्रता की कथाओं को... *... ग्राम की भारतीय पारम्परिक परिभाषा आर्थिक है ।''
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''पाठयक्र्मों में स्थान देना चाहिए । जिस प्रकार कुट्म्ब सामाजिक लघुतम इकाई है उस''
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''०. इन वनों में आज भी विश्वविद्यालय स्थापित किए जा प्रकार गाँव लघुतम आर्थिक इकाई है । मनुष्य का''
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''सकते हैं जो वनों के वातावरण से अनुप्राणित होकर दैनंदिन जीवन की सारी आवश्यकताओं का उत्पादन''
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''नागरी जीवन के लिए अध्ययन और अनुसन्धान करें । हो जाता है और बाहर से कुछ भी लाना नहीं पड़ता''
  −
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''नगरों का वातावरण तो वैसे भी कलुषित और वह गाँव है ।''
   
* गाँव उद्योगकेन्द्र होते हैं। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना गाँव का काम है। उद्योग का अर्थ है उत्पादनकेन्द्र । गाँव में सभी भौतिक वस्तुओं का उत्पादन होता है।
 
* गाँव उद्योगकेन्द्र होते हैं। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना गाँव का काम है। उद्योग का अर्थ है उत्पादनकेन्द्र । गाँव में सभी भौतिक वस्तुओं का उत्पादन होता है।
 
* गाँव का मुख्य उद्योग कृषि है । वह मनुष्य की अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । कृषक केवल अपने अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता नहीं है, सारे गाँव की अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है ।
 
* गाँव का मुख्य उद्योग कृषि है । वह मनुष्य की अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । कृषक केवल अपने अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता नहीं है, सारे गाँव की अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है ।
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=== सामाजिक समरसता ===
 
=== सामाजिक समरसता ===
समाज की स्चना, समाज की व्यवस्था बहुत जटिल और अटपटी होती है । कितने भिन्न भिन्न स्वभाव वाले लोग होते हैं । सबका अपना अपना स्वार्थ, अपनी अपनी महत्त्वाकांक्षायें, इच्छायें होती हैं । सब अपने अपने तरीके से इन्हें प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं । कोई सज्जन तो कोई दुर्जन, कोई चतुर तो कोई भोले, कोई गरीब तो कोई अमीर, कोई सीधे तो कोई टेढ़े, कोई बलशाली तो कोई दुर्बल, कोई सत्ताधीश तो कोई मजदूर, कोई बुद्धिमान तो कोई बुद्ध, ऐसे अनेक प्रकार के लोग समाज में रहते हैं । ये तो केवल व्यक्तिगत भेद हुए । सामुदायिक भेद भी तो कम नहीं होते हैं। अमीरों का एक वर्ग है तो गरीबों का दूसरा, शिक्षितों का एक वर्ग तो अशिक्षितों का दूसरा, राजनेताओं का एक वर्ग तो कर्मचारियों का दूसरा ऐसे अनेक वर्ग होते हैं। मजहबी संप्रदाय तो अनेक होते हैं । अलग अलग जातियाँ, अलग अलग भाषायें, अलग अलग राजकीय पक्ष ऐसे अनेक वर्ग समाज में होते हैं । इन सबके हित एकदूसरे से टकराते हैं । संस्कारों के अभाव में, समझ के अभाव में, कभी जानबूझकर, कभी अज्ञानवनश, कभी भय से कभी विवशता से, कभी स्वार्थ से कभी लालच से लोग एकदूसरे को, एक समुदाय दूसरे समुदाय को परेशान करता है और संघर्ष होता है । समाज में विद्वेष फैलता है । दंगे होते हैं, मारामारी होती है, खून भी होते हैं । भ्रष्टाचार और बलात्कार होते हैं। सही या गलत हेतुओं से प्रेरित होकर विभिन्न  
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समाज की स्चना, समाज की व्यवस्था बहुत जटिल और अटपटी होती है । कितने भिन्न भिन्न स्वभाव वाले लोग होते हैं । सबका अपना अपना स्वार्थ, अपनी अपनी महत्त्वाकांक्षायें, इच्छायें होती हैं। सब अपने अपने तरीके से इन्हें प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं । कोई सज्जन तो कोई दुर्जन, कोई चतुर तो कोई भोले, कोई गरीब तो कोई अमीर, कोई सीधे तो कोई टेढ़े, कोई बलशाली तो कोई दुर्बल, कोई सत्ताधीश तो कोई मजदूर, कोई बुद्धिमान तो कोई बुद्ध, ऐसे अनेक प्रकार के लोग समाज में रहते हैं। ये तो केवल व्यक्तिगत भेद हुए। सामुदायिक भेद भी तो कम नहीं होते हैं। अमीरों का एक वर्ग है तो गरीबों का दूसरा, शिक्षितों का एक वर्ग तो अशिक्षितों का दूसरा, राजनेताओं का एक वर्ग तो कर्मचारियों का दूसरा ऐसे अनेक वर्ग होते हैं। मजहबी संप्रदाय तो अनेक होते हैं । अलग अलग जातियाँ, अलग अलग भाषायें, अलग अलग राजकीय पक्ष ऐसे अनेक वर्ग समाज में होते हैं। इन सबके हित एकदूसरे से टकराते हैं। संस्कारों के अभाव में, समझ के अभाव में, कभी जानबूझकर, कभी अज्ञानवनश, कभी भय से कभी विवशता से, कभी स्वार्थ से कभी लालच से लोग एकदूसरे को, एक समुदाय दूसरे समुदाय को परेशान करता है और संघर्ष होता है । समाज में विद्वेष फैलता है। दंगे होते हैं, मारामारी होती है, खून भी होते हैं । भ्रष्टाचार और बलात्कार होते हैं। सही या गलत हेतुओं से प्रेरित होकर विभिन्न आन्दोलन होते हैं जो हिंसक और अहिंसक दोनों प्रकार के होते हैं। समाज में असुरक्षा का वातावरण फैलता है।  
 
  −
''आन्दोलन होते हैं जो हिंसक और अहिंसक दोनों प्रकार के''
  −
 
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''... सीमा से बाहर सब एक हो जाते थे,''
  −
 
  −
''होते हैं । समाज में असुरक्षा का वातावरण फैलता है । जातिरहित हो जाते थे, एक ही जाती के हो जाते थे । वह''
  −
 
  −
''ऐसे मामलों को निपटाने के लिये कानून, न्यायालय, जाती होती थी तीर्थयात्रियों की । सौ वर्ष पूर्व के भारतीय''
  −
 
  −
''पुलिस आदि व्यवस्थायें होती हैं । परंतु ये मामले कानून से... समाज की यह स्थिति थी । आज जातिभेद रोटीबेटी का''
  −
 
  −
''निपटने वाले होते नहीं हैं ऐसा हमारा सबका अनुभव है ।... निषेध और अस्पृश्यता के रूप में कदाचित दिखाई नहीं देता''
  −
 
  −
''भावात्मक बातें कानून से सुलझती ही नहीं हैं । मन के. है, परंतु वह कानून, नौकरियाँ, होटल, सिनेमा, वाहनों से''
  −
 
  −
''कारण से निर्मित समस्‍यायें मन के स्तर पर उपाय करने से ही... यात्रा आदि के कारण विवशता हो जाने के कारण से है ।''
  −
 
  −
''सुलझती हैं । वास्तव में इन सब विद्वेषों का मूल भेदभाव. मन में से वह गया नहीं है । शिक्षा के कारण जाती, वर्ण,''
  −
 
  −
''को बढ़ावा देने में ही होता है । इसलिए उसका उपाय... व्यवसाय आदि की अज्ञानजनित उपेक्षा के कारण भेद नहीं''
  −
 
  −
''समरसता निर्माण करना ही होता है । दिखाता है परंतु मन में से भेद्भाव गया नहीं है, वह भिन्न''
  −
 
  −
=== ''समरसता का स्वरूप'' ===
  −
''स्वरूपों में प्रकट होता है । इसको मिटाने के लिये शिक्षा को''
  −
 
  −
''समाज में भेद तो रहेंगे ही । एक पदार्थ दूसरे से भिन्न... उहुँत गम्भीर प्रयास करने चाहिए । शिक्षित समाज समरस''
  −
 
  −
''होता है । यह हकीकत है की एक वृक्ष के असंख्य पत्तों में... समाज होता है इसलिए समरसता के अभाव को एक चुनौती''
  −
 
  −
''भी एक पत्ता दूसरे पत्ते जैसा नहीं होता । अतः समाज में हर के रूप में स्वीकार करना चाहिए ।''
  −
 
  −
''प्रकार की भिन्नता तो रहने ही वाली है । समरसता के अभाव के दो सबसे भीषण कारक आज''
  −
 
  −
''भिन्नना को भेदभाव का कारण नहीं बनाना अपितु. प्रवर्तमान हैं । एक है अस्पृश्यता और दूसरा है साम्प्रदायिक''
  −
 
  −
''उसका स्वीकार करना यह पहली शिक्षा है। भेद अथवा... संकुचितता । अस्पृश्यता सभ्य समाज का कलंक है|''
  −
 
  −
''भिन्नता होना स्वाभाविक है, भेद विविधता है, विविधता... वास्तव में विगत दो तीन सौ वर्षों में अस्पृश्यता ने समाज पर''
  −
 
  −
''सुन्दरता की जनक है ऐसी दृष्टि विकसित करना महत्त्वपूर्ण... कहर ढाया है । वास्तव में भारत की परंपरागत वर्णव्यवस्था''
  −
 
  −
''शिक्षा है । मन को इसके लिये साधना होता है । जीवन की... में शूद्र वर्ण कभी अस्पृश्य नहीं रहा है । उल्टे समाज की''
  −
 
  −
''सर्व अवस्थाओं में भेद को, अलगता को स्वीकार करने की .... आर्थिक समृद्धि कृषकों और कारीगरों पर ही निर्भर थी ।''
  −
 
  −
''शिक्षा मन की शिक्षा का अंग होना चाहिए । भिन्नता को न... कृषक वैश्य और कारीगर शूद्र वर्ण के थे । अस्पृश्य माने भी''
  −
 
  −
''केवल सहना अपितु उसका आदर करना सिखाना चाहिए । ... जाते थे तो केवल सफाई करने वाले लोग थे । चांडाल''
  −
 
  −
''किसी भी व्यवसाय को a नहीं मानना, गरीबी की शरम अस्पृश्य थे ऐसा भगवान शंकराचार्य के समय का भी उल्लेख''
  −
 
  −
''नहीं मानना, धन, बल, सत्ता, शिक्षा आदि के मद में आकर... है । परंतु यह अस्पृश्यता विट्रेष का कारण नहीं बनती थी''
  −
 
  −
''किसी की अवमानना नहीं करनी चाहिए । किसीकी इन बातों .... क्योंकि वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों को भी था, तपश्चर्या''
  −
 
  −
''को देखकर दबना भी नहीं चाहिए | के परिणामस्वरूप वे उच्च वर्ण के भी हो सकते थे । शूटर''
  −
 
  −
''हमारी गाँव की परंपरा में जातिगत भेद भुलाने की... और अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों में सन्त भी हुए हैं''
  −
 
  −
''बहुत अच्छी व्यवस्था थी । लोग जबतक गाँव के अन्दर. जिन्हें सर्व वर्ण के लोग आदर देते हैं । आत्मसाक्षात्कारी''
  −
 
  −
''होते थे और अपने अपने व्यवसाय करते थे तबतक तो... महात्मा सभी वर्णों में थे । ऐसा होते हुए भी विगत तीन सौ''
  −
 
  −
''जातियाँ भिन्नता रखती थीं, परंतु जब वे तीर्थयात्रा पर जाते... वर्षों में अस्पृश्यो को दलित, पीडीत, पीछड़े आदि कहा''
  −
 
  −
''थे तब गाँव की सीमा से बाहर निकलते ही सब जातिभेद्‌ .. गया, उन पर अमानुषी अत्याचार किये गए और उन्हें अनेक''
  −
 
  −
''भुला देते थे अर्थात मानते नहीं थे । गाँव में जातिभेद के... अच्छी बातों से वंचित रखा गया । समाज के तथाकथित''
  −
 
  −
''कारण वे एकदूसरे की रोटी नहीं खाते थे या पानी भी नहीं. उच्च वर्णों के मद के कारण ही यह सब हुआ । अब आज''
  −
 
  −
''पीते थे, कदाचित अस्पृश्यता भी मानते थे परंतु गाँव की... कानून के कारण, नीतियों के कारण और ऊपर वर्णित की''
  −
 
  −
''गई है ऐसी व्यावहारिक विवशताओं के... व्यावसायिकों को निमंत्रित किया जाता था । उनकी वस्तु''
  −
 
  −
''कारण अस्पृश्यता ऊपर से तो दिखाई नहीं देती है परंतु लोगों... केवल खरीदी नहीं जाती थी, उनका प्रथम सम्मान किया''
  −
 
  −
''के मनों में वह है । शिक्षा में अस्पृश्यता को मिटाने का, .... जाता था । जिसके घर में विवाह होता था उसके घर की''
  −
 
  −
''वर्णद्वेष मिटाने का, जातिगत ट्रेष मिटाने का प्रावधान होना... स्थिति के हिसाब से सम्मानित किया जाता था । बाद में''
  −
 
  −
''चाहिए । मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, धर्मशिक्षा, अध्यात्मशिक्षा .. वस्तु ली जाती थी । रिवाज तो ऐसा था की विवाह के''
  −
 
  −
''आदि विषयों में इसके संबंध में पाठ्यविषय होने चाहिए । ये... अवसर पर गाँव के कम से कम पाँच व्यावसायिकों का तो''
  −
 
  −
''केवल बौद्धिक स्वरूप के होना पर्याप्त नहीं है, वे. सम्मान होना ही चाहिए । तात्पर्य यह है की गाँव में''
  −
 
  −
''व्यावहारिक स्वरूप के भी होने चाहिए | व्यवसाय कितना भी छोटा हो सब सम्मान के अधिकारी थे ।''
  −
 
  −
''साम्प्रदायिक संकुचितता असहिष्णुता का रूप लेती we सामाजिक सम्मान मनुष्य की. मानसिक''
  −
 
  −
''है । अपने संप्रदाय का अनुसरण तो आग्रहपूर्वक करना... आवश्यकता है । समाज में हमारी प्रतिष्ठा है, लोग हमें''
  −
 
  −
''चाहिए परन्तु दूसरे संप्रदायों को हेय नहीं मानना चाहिए, बुलाते हैं, याद करते हैं, अपने कार्यक्रमों में सहभागी बनाते''
  −
 
  −
''उनका भी आदर करना चाहिए । यह मुद्दा संस्कृति विषयक... हैं यह सबके लिये संतोष देने वाली बात होती है । इससे जो''
  −
 
  −
''पाठ्यक्रम का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए । सद्धाव निर्माण होता है उसमें से सामाजिक लज्जा का जन्म''
  −
 
  −
''अस्पृश्यता और जातिगत विट्रेषों को मिटाने के लिये होता है । यह लज्जा अनेक अनिष्टों को पैदा ही नहीं होने''
  −
 
  −
''कभी कभी जाती और वर्ण को मिटाने का आग्रह किया... देती । अनेक अनाचार इससे रुक जाते हैं और समाज की''
  −
 
  −
''जाता है । परन्तु भेदभाव मिटाने के लिये भेद मिटाये नहीं. संस्कारिता बनी रहती है ।''
  −
 
  −
''जाते , विद्रेष मिटाने के लिये जाती और वर्णों को मिटाया इसका एक लाभ और होता है । किसी भी प्रकार के''
  −
 
  −
''नहीं जा सकता क्योंकि ये स्वभावगत होते हैं परन्तु व्यवस्था. व्यवसाय को करने वाले के मन में अपने व्यवसाय के प्रति''
  −
 
  −
''अवश्य बदलनी चाहिए | धर्मशास्त्र और समाजशास््र के. हीनता का भाव नहीं आता । अपना व्यवसाय छोड़ने का भी''
  −
 
  −
''आचार्यों ने इस विषय पर अध्ययन और अनुसंधान कर नई. मन नहीं करता । अपने ही व्यवसाय में महारत प्राप्त करने के''
  −
 
  −
''स्मृति का निर्माण करना चाहिए । विश्वविद्यालयों का काम... लिये वह प्रयासरत रहता है और अपने काम में उत्कृष्टता''
  −
 
  −
''ही यह है । धर्माचार्यों और प्राध्यापकों ने मिलकर यह कार्य... लाने का प्रयास करता है । इसका लाभ समाज को होता है ।''
  −
 
  −
''करने की आवश्यकता है । हमारे देश का कारीगरी का इतिहास बताता है कि कारीगरी''
  −
 
  −
=== ''सामाजिक सम्मान'' ===
  −
''के अनेक क्षेत्रों में भारत ने उत्कृष्टता के जो नमूने दीये हैं वे''
  −
 
  −
''भारतीय समाज में सामाजिक सम्मान की बहुत अच्छी... आज भी विश्व में कहीं देखने को नहीं मिलते हैं । ढाका की''
     −
''व्यवस्था की गई थी यह सम्मान केवल व्यवसाय के प्रकार. मलमल की या दिली के लोहस्तम्भ की बराबरी आज के''
+
ऐसे मामलों को निपटाने के लिये कानून, न्यायालय, पुलिस आदि व्यवस्थायें होती हैं परंतु ये मामले कानून से निपटने वाले होते नहीं हैं ऐसा हमारा सबका अनुभव है। भावात्मक बातें कानून से सुलझती ही नहीं हैं। मन के कारण से निर्मित समस्यायें मन के स्तर पर उपाय करने से ही सुलझती हैं। वास्तव में इन सब विद्वेषों का मूल भेदभाव को बढ़ावा देने में ही होता है। इसलिए उसका उपाय समरसता निर्माण करना ही होता है ।
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''और अथर्जिन की अधिकता के कारण नहीं था सामाजिक... विश्व के सर्वश्रेष्ठ यन्त्र भी नहीं कर सकते हैं शिल्प,''
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== समरसता का स्वरूप ==
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समाज में भेद तो रहेंगे ही । एक पदार्थ दूसरे से भिन्न होता है । यह हकीकत है की एक वृक्ष के असंख्य पत्तों में भी एक पत्ता दूसरे पत्ते जैसा नहीं होता अतः समाज में हर प्रकार की भिन्नता तो रहने ही वाली है
   −
''ढांचे में स्वीकार्यता के कारण था उदाहरण के लिये गाँव में... स्थापत्य, मीनाकारी के अद्भुत नमूने आज भी भारत के''
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भिन्नता को भेदभाव का कारण नहीं बनाना अपितु उसका स्वीकार करना यह पहली शिक्षा है। भेद अथवा भिन्नता होना स्वाभाविक है, भेद विविधता है, विविधता सुन्दरता की जनक है ऐसी दृष्टि विकसित करना महत्त्वपूर्ण शिक्षा है मन को इसके लिये साधना होता है । जीवन की सर्व अवस्थाओं में भेद को, अलगता को स्वीकार करने की शिक्षा मन की शिक्षा का अंग होना चाहिए । भिन्नता को न केवल सहना अपितु उसका आदर करना सिखाना चाहिए । किसी भी व्यवसाय को हीन नहीं मानना, गरीबी की शरम नहीं मानना, धन, बल, सत्ता, शिक्षा आदि के मद में आकर किसी की अवमानना नहीं करनी चाहिए । किसी की इन बातों को देखकर दबना भी नहीं चाहिए ।
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''किसी व्यक्ति के घर विवाह का अवसर है तो गाँव के... अलावा अन्यत्र मिलना कठिन है । इस उत्कृष्टता के मूल में''
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हमारी गाँव की परंपरा में जातिगत भेद भुलाने की बहुत अच्छी व्यवस्था थी। लोग जबतक गाँव के अन्दर होते थे और अपने अपने व्यवसाय करते थे तबतक तो जातियाँ भिन्नता रखती थीं, परंतु जब वे तीर्थयात्रा पर जाते थे तब गाँव की सीमा से बाहर निकलते ही सब जातिभेद भुला देते थे अर्थात मानते नहीं थे। गाँव में जातिभेद के कारण वे एकदूसरे की रोटी नहीं खाते थे या पानी भी नहीं पीते थे, कदाचित अस्पृश्यता भी मानते थे परंतु गाँव की सीमा से बाहर सब एक हो जाते थे, जातिरहित हो जाते थे, एक ही जाति के हो जाते थे । वह जाति होती थी तीर्थयात्रियों की । सौ वर्ष पूर्व के भारतीय समाज की यह स्थिति थी। आज जातिभेद रोटीबेटी का निषेध और अस्पृश्यता के रूप में कदाचित दिखाई नहीं देता है, परंतु वह कानून, नौकरियाँ, होटल, सिनेमा, वाहनों से यात्रा आदि के कारण विवशता हो जाने के कारण से है। मन में से वह गया नहीं है। शिक्षा के कारण जाती, वर्ण, व्यवसाय आदि की अज्ञानजनित उपेक्षा के कारण भेद नहीं दिखाता है परंतु मन में से भेदभाव गया नहीं है, वह भिन्न स्वरूपों में प्रकट होता है । इसको मिटाने के लिये शिक्षा को बहुत गम्भीर प्रयास करने चाहिए। शिक्षित समाज समरस समाज होता है इसलिए समरसता के अभाव को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करना चाहिए ।
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''FIR व्यवसाय करने वाले लोग अपने अपने व्यवसाय के... सामाजिक सम्मान एवं उसमें से सहज निष्पन्न होने वाली''
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समरसता के अभाव के दो सबसे भीषण कारक आज प्रवर्तमान हैं । एक है अस्पृश्यता और दूसरा है साम्प्रदायिक संकुचितता। अस्पृश्यता सभ्य समाज का कलंक है। वास्तव में विगत दो तीन सौ वर्षों में अस्पृश्यता ने समाज पर कहर ढाया है । वास्तव में भारत की परंपरागत वर्णव्यवस्था में शूद्र वर्ण कभी अस्पृश्य नहीं रहा है। उल्टे समाज की आर्थिक समृद्धि कृषकों और कारीगरों पर ही निर्भर थी। कृषक वैश्य और कारीगर शूद्र वर्ण के थे । अस्पृश्य माने भी जाते थे तो केवल सफाई करने वाले लोग थे। चांडाल अस्पृश्य थे ऐसा भगवान शंकराचार्य के समय का भी उल्लेख है। परंतु यह अस्पृश्यता विद्वेष का कारण नहीं बनती थी क्योंकि वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों को भी था, तपश्चर्या के परिणामस्वरूप वे उच्च वर्ण के भी हो सकते थे। शूद्र और अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों में सन्त भी हुए हैं जिन्हें सर्व वर्ण के लोग आदर देते हैं। आत्मसाक्षात्कारी महात्मा सभी वर्गों में थे । ऐसा होते हुए भी विगत तीन सौ वर्षों में अस्पृश्यो को दलित, पीडीत, पीछड़े आदि कहा गया, उन पर अमानुषी अत्याचार किये गए और उन्हें अनेक अच्छी बातों से वंचित रखा गया । समाज के तथाकथित उच्च वर्गों के मद के कारण ही यह सब हुआ । अब आज कानून के कारण, नीतियों के कारण और ऊपर वर्णित की गई है ऐसी व्यावहारिक विवशताओं के कारण अस्पृश्यता ऊपर से तो दिखाई नहीं देती है परंतु लोगों के मनों में वह है। शिक्षा में अस्पृश्यता को मिटाने का, वर्णद्वेष मिटाने का, जातिगत द्वेष मिटाने का प्रावधान होना चाहिए । मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, धर्मशिक्षा, अध्यात्मशिक्षा आदि विषयों में इसके संबंध में पाठ्यविषय होने चाहिए । ये केवल बौद्धिक स्वरूप के होना पर्याप्त नहीं है, वे व्यावहारिक स्वरूप के भी होने चाहिए।
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''कारण ही उसमें निमंत्रित किये जाते थे पूरे गाँव में विवाह... आश्चस्ति है और इसका परिणाम काम करने में आनन्द है ''
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साम्प्रदायिक संकुचितता असहिष्णुता का रूप लेती है। अपने संप्रदाय का अनुसरण तो आग्रहपूर्वक करना चाहिए परन्तु दूसरे संप्रदायों को हेय नहीं मानना चाहिए, उनका भी आदर करना चाहिए यह मुद्दा संस्कृति विषयक पाठ्यक्रम का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए
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''का न्यौता देना गाँव के नाई का काम था निमंत्रण पत्र. समाज का मानसिक स्वास्थ्य इससे बना रहता है । सभ्यता''
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अस्पृश्यता और जातिगत विद्वेषों को मिटाने के लिये कभी कभी जाती और वर्ण को मिटाने का आग्रह किया जाता है। परन्तु भेदभाव मिटाने के लिये भेद मिटाये नहीं जाते , विद्वेष मिटाने के लिये जाती और वर्गों को मिटाया नहीं जा सकता क्योंकि ये स्वभावगत होते हैं परन्तु व्यवस्था अवश्य बदलनी चाहिए। धर्मशास्त्र और समाजशास्त्र के आचार्यों ने इस विषय पर अध्ययन और अनुसंधान कर नई स्मृति का निर्माण करना चाहिए विश्वविद्यालयों का काम ही यह है । धर्माचार्यों और प्राध्यापकों ने मिलकर यह कार्य करने की आवश्यकता है।
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''छपवाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी । विवाह के... के विकास के लिये यह बहुत ही आवश्यक बात है ।''
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== सामाजिक सम्मान ==
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भारतीय समाज में सामाजिक सम्मान की बहुत अच्छी व्यवस्था की गई थी। यह सम्मान केवल व्यवसाय के प्रकार और अर्थार्जन की अधिकता के कारण नहीं था । सामाजिक ढांचे में स्वीकार्यता के कारण था । उदाहरण के लिये गाँव में किसी व्यक्ति के घर विवाह का अवसर है तो गाँव के अन्यान्य व्यवसाय करने वाले लोग अपने अपने व्यवसाय के कारण ही उसमें निमंत्रित किये जाते थे। पूरे गाँव में विवाह का न्यौता देना गाँव के नाई का काम था । निमंत्रण पत्र छपवाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। विवाह के समय मंडप बांधने के लिये सुथार को, मटकी के लिये कुम्हार को तथा ऐसे ही अन्यान्य कामों के लिये अन्यान्य व्यावसायिकों को निमंत्रित किया जाता था। उनकी वस्तु केवल खरीदी नहीं जाती थी, उनका प्रथम सम्मान किया जाता था जिसके घर में विवाह होता था उसके घर की स्थिति के हिसाब से सम्मानित किया जाता था। बाद में वस्तु ली जाती थी। रिवाज तो ऐसा था की विवाह के अवसर पर गाँव के कम से कम पाँच व्यावसायिकों का तो सम्मान होना ही चाहिए। तात्पर्य यह है की गाँव में व्यवसाय कितना भी छोटा हो सब सम्मान के अधिकारी थे
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''समय मंडप बांधने के लिये सुथार को, मटकी के लिये''
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यह सामाजिक सम्मान मनुष्य की मानसिक आवश्यकता है। समाज में हमारी प्रतिष्ठा है, लोग हमें बुलाते हैं, याद करते हैं, अपने कार्यक्रमों में सहभागी बनाते हैं यह सबके लिये संतोष देने वाली बात होती है। इससे जो सद्भाव निर्माण होता है उसमें से सामाजिक लज्जा का जन्म होता है । यह लज्जा अनेक अनिष्टों को पैदा ही नहीं होने देती। अनेक अनाचार इससे रुक जाते हैं और समाज की संस्कारिता बनी रहती है।
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''कुम्हार को तथा ऐसे ही अन्यान्य कामों के लिये अन्यान्य''
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इसका एक लाभ और होता है। किसी भी प्रकार के व्यवसाय को करने वाले के मन में अपने व्यवसाय के प्रति हीनता का भाव नहीं आता । अपना व्यवसाय छोड़ने का भी मन नहीं करता । अपने ही व्यवसाय में महारत प्राप्त करने के लिये वह प्रयासरत रहता है और अपने काम में उत्कृष्टता लाने का प्रयास करता है । इसका लाभ समाज को होता है । हमारे देश का कारीगरी का इतिहास बताता है कि कारीगरी के अनेक क्षेत्रों में भारत ने उत्कृष्टता के जो नमूने दीये हैं वे आज भी विश्व में कहीं देखने को नहीं मिलते हैं । ढाका की मलमल की या दिली के लोहस्तम्भ की बराबरी आज के विश्व के सर्वश्रेष्ठ यन्त्र भी नहीं कर सकते हैं। शिल्प, स्थापत्य, मीनाकारी के अद्भुत नमूने आज भी भारत के अलावा अन्यत्र मिलना कठिन है । इस उत्कृष्टता के मूल में सामाजिक सम्मान एवं उसमें से सहज निष्पन्न होने वाली आश्वस्ति है और इसका परिणाम काम करने में आनन्द है । समाज का मानसिक स्वास्थ्य इससे बना रहता है । सभ्यता के विकास के लिये यह बहुत ही आवश्यक बात है।
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=== ''सामाजिक सुरक्षा'' ===
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== सामाजिक सुरक्षा ==
 
जिस समाज में लोगों को अपने अपने हित की रक्षा के लिये हमेशा सावध नहीं रहना पड़ता वह समाज संस्कारी समाज कहा जाता है । जहां अपने हित की रक्षा के लिये हमेशा सावध रहना पड़ता है वह असंस्कारी समाज है । जिस समाज में स्त्री सुरक्षित है, छोटे बच्चे सुरक्षित हैं, दुर्बल सुरक्षित हैं वह समाज संस्कारी समाज है । सामाजिक सुरक्षा के लिये कानून, पुलिस और न्यायालय की व्यवस्था होती है। परन्तु यह व्यवस्था पर्याप्त नहीं है । इसके साथ यदि अच्छाई की शिक्षा न दी जाय और लोगों के मन सद्धावपूर्ण और नीतिमात्तायुक्त न बनाए जाय तो केवल कानून किसी की रक्षा नहीं कर सकता । मनोविज्ञान के ज्ञाता एक सुभाषितकार का कथन है:{{Citation needed}}<blockquote>कामातुराणां न भयं न लज्जा</blockquote><blockquote>अर्थातुराणाम्‌ न गुरुर्न बंधु: ।।</blockquote><blockquote>अर्थात जिसके मन पर वासना छा गई है उसे भय अथवा लज्जा रोक नहीं सकते तथा जिन्हें अर्थ का लोभ लग गया है उसे गुरु अथवा भाई की भी परवाह नहीं होती ।</blockquote>इसलिए मनुष्य का मन जब तक ठीक नहीं होता तब तक कानून किसी की सुरक्षा नहीं कर सकता । आजकल हम देखते हैं कि बलात्कार के किस्से बढ़ गए हैं । लोग कहते हैं कि कानून महिलाओं की सुरक्षा नहीं करता और अपराधी को फांसी जैसा कठोर दंड नहीं दिया जाता इसलिए ऐसे किस्से बढ़ते हैं। परन्तु मनोविज्ञान इसे मान्य नहीं करेगा क्योंकि एक को फांसी हुई इसलिए दूसरा उस दुष्कृत्य से परावृत्त होगा ऐसा नहीं है। मनोविज्ञान और समाजशास्त्र दोनों को सम्यक रूप में जानने वाला तो कहेगा कि बलात्कारी को बलात्कार करने से और महिलाओं को अपने ऊपर होने वाले बलात्कार से बचाने के लिये परिवारजनों ने उनकी सुरक्षा की चिन्ता स्वयं भी करनी चाहिए, तभी कानून भी उनकी सहायता कर सकता है। लोगों के जानमाल की सुरक्षा के लिये, अपराधियों को दंड देने के लिये पुलिस, कानून और न्यायालय होने पर भी लोग अपनी सुरक्षा के लिये घरों को ताले लगाते हैं, बेंक में लॉकर रखते हैं और साथ में धन लेकर अकेले यात्रा नहीं करते उसी प्रकार बलात्कार के संबंध में भी करना चाहिये। यह जो कानून के साथ साथ दूसरी सुरक्षा है वह शिक्षा का क्षेत्र है। बाल अवस्था से ही धर्म और नीतिमत्ता के संस्कार दिए बिना, संयम और सदाचार सिखाये बिना सामाजिक सुरक्षा स्थापित नहीं हो सकती। पराया धन मिट्टी के समान और पराई स्त्री माता के समान यह आग्रहपूर्वक सिखाने का विषय है।
 
जिस समाज में लोगों को अपने अपने हित की रक्षा के लिये हमेशा सावध नहीं रहना पड़ता वह समाज संस्कारी समाज कहा जाता है । जहां अपने हित की रक्षा के लिये हमेशा सावध रहना पड़ता है वह असंस्कारी समाज है । जिस समाज में स्त्री सुरक्षित है, छोटे बच्चे सुरक्षित हैं, दुर्बल सुरक्षित हैं वह समाज संस्कारी समाज है । सामाजिक सुरक्षा के लिये कानून, पुलिस और न्यायालय की व्यवस्था होती है। परन्तु यह व्यवस्था पर्याप्त नहीं है । इसके साथ यदि अच्छाई की शिक्षा न दी जाय और लोगों के मन सद्धावपूर्ण और नीतिमात्तायुक्त न बनाए जाय तो केवल कानून किसी की रक्षा नहीं कर सकता । मनोविज्ञान के ज्ञाता एक सुभाषितकार का कथन है:{{Citation needed}}<blockquote>कामातुराणां न भयं न लज्जा</blockquote><blockquote>अर्थातुराणाम्‌ न गुरुर्न बंधु: ।।</blockquote><blockquote>अर्थात जिसके मन पर वासना छा गई है उसे भय अथवा लज्जा रोक नहीं सकते तथा जिन्हें अर्थ का लोभ लग गया है उसे गुरु अथवा भाई की भी परवाह नहीं होती ।</blockquote>इसलिए मनुष्य का मन जब तक ठीक नहीं होता तब तक कानून किसी की सुरक्षा नहीं कर सकता । आजकल हम देखते हैं कि बलात्कार के किस्से बढ़ गए हैं । लोग कहते हैं कि कानून महिलाओं की सुरक्षा नहीं करता और अपराधी को फांसी जैसा कठोर दंड नहीं दिया जाता इसलिए ऐसे किस्से बढ़ते हैं। परन्तु मनोविज्ञान इसे मान्य नहीं करेगा क्योंकि एक को फांसी हुई इसलिए दूसरा उस दुष्कृत्य से परावृत्त होगा ऐसा नहीं है। मनोविज्ञान और समाजशास्त्र दोनों को सम्यक रूप में जानने वाला तो कहेगा कि बलात्कारी को बलात्कार करने से और महिलाओं को अपने ऊपर होने वाले बलात्कार से बचाने के लिये परिवारजनों ने उनकी सुरक्षा की चिन्ता स्वयं भी करनी चाहिए, तभी कानून भी उनकी सहायता कर सकता है। लोगों के जानमाल की सुरक्षा के लिये, अपराधियों को दंड देने के लिये पुलिस, कानून और न्यायालय होने पर भी लोग अपनी सुरक्षा के लिये घरों को ताले लगाते हैं, बेंक में लॉकर रखते हैं और साथ में धन लेकर अकेले यात्रा नहीं करते उसी प्रकार बलात्कार के संबंध में भी करना चाहिये। यह जो कानून के साथ साथ दूसरी सुरक्षा है वह शिक्षा का क्षेत्र है। बाल अवस्था से ही धर्म और नीतिमत्ता के संस्कार दिए बिना, संयम और सदाचार सिखाये बिना सामाजिक सुरक्षा स्थापित नहीं हो सकती। पराया धन मिट्टी के समान और पराई स्त्री माता के समान यह आग्रहपूर्वक सिखाने का विषय है।
  

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