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''विभिन्न प्रकार की शिक्षायोजना से व्यक्ति की... किस प्रकार किया जा सकता है यह अब देखेंगे'' <ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>''।''
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विभिन्न प्रकार की शिक्षायोजना से व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमताओं का विकास करना चाहिए यह हमने पूर्व के अध्याय में देखा। अब प्रश्न यह है कि अपनी विकसित क्षमताओं का व्यक्ति क्या करेगा? इस विषय में यदि कोई निश्चित विचार नहीं रहा तो वह भटक जायेगा। वैसे भी अपनी प्राकृतिक अवस्था में जिस प्रकार पानी नीचे की ओर ही बहता है, उसे ऊपर की ओर उठाने के लिए विशेष प्रयास करने होते हैं उसी प्रकार बिना किसी प्रयास के बलवान और जिद्दी मन विकृति की ओर ही खींच कर ले जाता है । अत: क्षमताओं के विकास के साथ साथ उन क्षमताओं के सम्यक् उपयोग के मार्ग भी विचार में लेने चाहिए। यह शिक्षा का दूसरा पहलू है। अथवा यह भी कह सकते हैं कि मनुष्य के व्यक्तित्व विकास का यह दूसरा आयाम है।
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''अंतर्निहित क्षमताओं का विकास करना चाहिए यह हमने''
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इस दूसरे आयाम को हम व्यक्ति का सृष्टि के साथ समायोजन कह सकते हैं। सृष्टि में जैसे पूर्व के अध्याय में बताया है, मनुष्य के साथ साथ प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत हैं। हमने यह भी देखा कि इन चार सत्ताओं के दो वर्ग होते हैं , एक वर्ग में मनुष्य है और दूसरे में शेष तीनों। हम सुविधा के लिए इन्हें क्रमश: समष्टि और सृष्टि कहेंगे । इस सृष्टि को निसर्ग भी कह सकते हैं । अत: मनुष्य को दो स्तरों पर समायोजन करना है, एक समष्टि के स्तर पर अर्थात अपने जैसे अन्य मनुष्यों के साथ और दूसरा निसर्ग के साथ । इस समायोजन के लिए शिक्षा का विचार किस प्रकार किया जा सकता है यह अब देखेंगे।
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''पूर्व के अध्याय में देखा अब प्रश्न यह है कि अपनी''
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== '''समष्टि के साथ समायोजन''' ==
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मनुष्य अकेला नहीं रह सकता । अपनी अनेक प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे अन्य मनुष्यों की सहायता की आवश्यकता होती है। मनुष्य की अल्पतम आवश्यकताओं की अर्थात् अन्न, वस्त्र और आवास की ही बात करें तो कोई भी अकेला व्यक्ति अपने लिए अनाज उगाना, वस्त्र बनाना और आवास निर्माण करना स्वयं नहीं कर सकता फिर मनुष्य की इतनी कम आवश्यकताएँ भी तो नहीं होतीं । इन तीनों के अलावा उसे औषधि चाहिए, वाहन चाहिए, परिवहन चाहिए। जैसे जैसे सभ्यता का विकास होता जाता है उसकी दैनंदिन आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उसे कुछ व्यवस्था बिठानी होती है।
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''विकसित क्षमताओं का व्यक्ति क्या करेगा ? इस विषय में मनुष्य अकेला नहीं रह सकता अपनी अनेक प्रकार''
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दूसरा भी एक विचार है। कदाचित अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति वह अकेला कर भी ले, अथवा अपनी आवश्यकताएँ इतनी कम कर दे कि उसे अन्य किसीकी सहायता लेने की नौबत ही न आये तो भी वह अकेला नहीं रह सकता । उसे बात करने के लिए, खेलने के लिए,सैर करने के लिए दूसरा व्यक्ति चाहिए । सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा को भी अकेला रहना अच्छा नहीं लगता था इसलिए तो उसने सृष्टि बनाई । जब उसे ही अकेले रहना अच्छा नहीं लगता तो उसके ही प्रतिरूप मनुष्य को कैसे लगेगा ? अतः: केवल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही नहीं तो संवाद के लिए भी मनुष्य को अन्य मनुष्यों की आवश्यकता होती है । इन दोनों बातों का एक साथ विचार कर हमारे आर्षद्रष्टा मनीषियों ने मनुष्यों के लिए एक रचना बनाई । इस रचना को भी हम चार चरण में विभाजित कर समझ सकते हैं
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''यदि कोई निश्चित विचार नहीं रहा तो वह भटक जायेगा । ... की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे अन्य मनुष्यों की''
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=== परिवार ===
 
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''वैसे भी अपनी प्राकृतिक अवस्था में जिस प्रकार पानी नीचे... सहायता की आवश्यकता होती है । मनुष्य की अल्पतम''
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''की ओर ही बहता है, उसे ऊपर की ओर उठाने के लिए... आवश्यकताओं की अर्थात्‌ अन्न, वस््र और आवास की ही''
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''विशेष प्रयास करने होते हैं उसी प्रकार बिना किसी प्रयास... बात करें तो कोई भी अकेला व्यक्ति अपने लिए अनाज''
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''के बलवान और जिद्दी मन विकृति की ओर ही खींच कर... उगाना, वस्त्र बनाना और आवास निर्माण करना स्वयं नहीं''
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''ले जाता है । अत: क्षमताओं के विकास के साथ साथ उन... कर सकता । फिर मनुष्य की इतनी कम आवश्यकताएँ भी''
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''क्षमताओं के सम्यकू उपयोग के मार्ग भी विचार में लेने... तो नहीं होतीं । इन तीनों के अलावा उसे औषधि चाहिए,''
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''चाहिए । यह शिक्षा का दूसरा पहलू है । अथवा यह भी कह... वाहन चाहिए, परिवहन चाहिए। जैसे जैसे सभ्यता का''
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''सकते हैं कि मनुष्य के व्यक्तित्व विकास का यह दूसरा... विकास होता जाता है उसकी दैनंदिन आवश्यकताएँ बढ़ती''
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== ''समष्टि के साथ समायोजन'' ==
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''आयाम है । जाती हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उसे कुछ''
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''इस दूसरे आयाम को हम व्यक्ति का सृष्टि के साथ... व्यवस्था बिठानी होती है ।''
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''समायोजन कह सकते हैं । सृष्टि में जैसे पूर्व के अध्याय में दूसरा भी एक विचार है। कदाचित अपनी''
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''बताया है मनुष्य के साथ साथ प्राणी, वनस्पति और आवश्यकताओं की पूर्ति वह अकेला कर भी ले, अथवा''
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''पंचमहाभूत हैं । हमने यह भी देखा कि इन चार सत्ताओं के. अपनी आवश्यकताएँ इतनी कम कर दे कि उसे अन्य''
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''दो वर्ग होते हैं , एक वर्ग में मनुष्य है और दूसरे में शेष. किसीकी सहायता लेने की नौबत ही न आये तो भी वह''
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''तीनों । हम सुविधा के लिए इन्हें क्रमश: समष्टि और सृष्टि _ अकेला नहीं रह सकता । उसे बात करने के लिए, खेलने''
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''कहेंगे । इस सृष्टि को निसर्ग भी कह सकते हैं । अत: मनुष्य... के लिए,सैर करने के लिए दूसरा व्यक्ति चाहिए । सृष्टि के''
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''को दो स्तरों पर समायोजन करना है, एक समष्टि के स्तर. प्रारम्भ में परमात्मा को भी अकेला रहना अच्छा नहीं''
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''पर अर्थात अपने जैसे अन्य मनुष्यों के साथ और दूसरा. लगता था इसलिए तो उसने सृष्टि बनाई । जब उसे ही''
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''निसर्ग के साथ । इस समायोजन के लिए शिक्षा का विचार... अकेले रहना अच्छा नहीं लगता तो उसके ही प्रतिरूप''
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मनुष्य को कैसे लगेगा ? अतः: केवल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही नहीं तो संवाद के लिए भी मनुष्य को अन्य मनुष्यों की आवश्यकता होती है । इन दोनों बातों का एक साथ विचार कर हमारे आर्षद्रष्टा मनीषियों ने मनुष्यों के लिए एक स्चना बनाई । इस स्वना को भी हम चार चरण में विभाजित कर समझ सकते हैं ।
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== परिवार ==
   
मनुष्य का मनुष्य के साथ समायोजन का प्रथम चरण है स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध । स्त्रीधारा और पुरुषधारा इस सृष्टि की मूल दो धाराएँ हैं । इनका ही परस्पर समायोजन होने से शेष के लिए सुविधा होती है । इसलिए सर्वप्रथम दोनों को साथ रहने हेतु विवाह संस्कार की योजना हुई और उन्हें दंपती बनाकर कुटुम्ब का केंद्र बिंदु  बनाया। विवाह के परिणामस्वरूप बच्चों का जन्म हुआ और कुटुम्ब का विस्तार होने लगा । प्रथम चरण में मातापिता और संतानों का सम्बन्ध बना और दूसरे क्रम में सहोदरों का अर्थात भाई बहनों का सम्बन्ध बनता गया । इन दोनों आयामों को लेकर लंब और क्षैतिज दोनों प्रकार के सम्बन्ध बनते गए । पहली बात यह है कि कुटुम्ब रक्तसंबंध से बनता है।  परंतु रक्तसंबंध के साथ साथ भावात्मक सम्बन्ध भी होता है। केवल मनुष्य ही अन्नमय और प्राणमय के साथ साथ मनोमय से आनंदमय तक और उससे भी परे आत्मिक स्तर पर भी पहुँचता है यह हमने विकास के प्रथम आयाम में देखा ही है । अत: स्त्रीपुरुष के वैवाहिक सम्बन्ध को केवल जैविक स्तर पर सीमित न करते हुए आत्मिक स्तर तक पहुंचाने की मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति बनी । पति-पत्नी के सम्बन्ध का आदर्श एकात्म सम्बन्ध बना । सम्बन्ध की इसी एकात्मता का विस्तार सर्वत्र स्थापित किया गया | अपने अंतः:करण को इतना उदार बनाना कि सम्पूर्ण वसुधा एक ही कुटुम्ब लगे, यह मनुष्य का आदर्श बना ।
 
मनुष्य का मनुष्य के साथ समायोजन का प्रथम चरण है स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध । स्त्रीधारा और पुरुषधारा इस सृष्टि की मूल दो धाराएँ हैं । इनका ही परस्पर समायोजन होने से शेष के लिए सुविधा होती है । इसलिए सर्वप्रथम दोनों को साथ रहने हेतु विवाह संस्कार की योजना हुई और उन्हें दंपती बनाकर कुटुम्ब का केंद्र बिंदु  बनाया। विवाह के परिणामस्वरूप बच्चों का जन्म हुआ और कुटुम्ब का विस्तार होने लगा । प्रथम चरण में मातापिता और संतानों का सम्बन्ध बना और दूसरे क्रम में सहोदरों का अर्थात भाई बहनों का सम्बन्ध बनता गया । इन दोनों आयामों को लेकर लंब और क्षैतिज दोनों प्रकार के सम्बन्ध बनते गए । पहली बात यह है कि कुटुम्ब रक्तसंबंध से बनता है।  परंतु रक्तसंबंध के साथ साथ भावात्मक सम्बन्ध भी होता है। केवल मनुष्य ही अन्नमय और प्राणमय के साथ साथ मनोमय से आनंदमय तक और उससे भी परे आत्मिक स्तर पर भी पहुँचता है यह हमने विकास के प्रथम आयाम में देखा ही है । अत: स्त्रीपुरुष के वैवाहिक सम्बन्ध को केवल जैविक स्तर पर सीमित न करते हुए आत्मिक स्तर तक पहुंचाने की मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति बनी । पति-पत्नी के सम्बन्ध का आदर्श एकात्म सम्बन्ध बना । सम्बन्ध की इसी एकात्मता का विस्तार सर्वत्र स्थापित किया गया | अपने अंतः:करण को इतना उदार बनाना कि सम्पूर्ण वसुधा एक ही कुटुम्ब लगे, यह मनुष्य का आदर्श बना ।
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कुटुम्ब समाज जीवन की लघुतम इकाई है, व्यक्ति नहीं यह प्रथम सूत्र है। इस इकाई का संचालन करना सीखने का प्रथम चरण है । कुटुम्ब उत्तम पद्धति से चले इस दृष्टि से कुटुम्ब के सभी सदस्यों को मिलकर कुछ इस प्रकार की बातों का ध्यान रखना होता है।
 
कुटुम्ब समाज जीवन की लघुतम इकाई है, व्यक्ति नहीं यह प्रथम सूत्र है। इस इकाई का संचालन करना सीखने का प्रथम चरण है । कुटुम्ब उत्तम पद्धति से चले इस दृष्टि से कुटुम्ब के सभी सदस्यों को मिलकर कुछ इस प्रकार की बातों का ध्यान रखना होता है।
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== सब के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार ==
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=== सब के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार ===
 
* बड़ों का छोटों के प्रति वात्सल्यभाव और छोटों का बड़ों के प्रति आदर का भाव होना मुख्य बात है। अपने से छोटों का रक्षण करना, उपभोग के समय छोटों का अधिकार प्रथम मानना, कष्ट सहने के समय बड़ों का क्रम प्रथम होना, अन्यों की सुविधा का हमेशा ध्यान रखना, कुटुम्बीजनों की सुविधा हेतु अपनी सुविधा का त्याग करना, बड़ों की आज्ञा का पालन करना, बड़ों की सेवा करना, कुटुम्ब के नियमों का पालन करना, अपने पूर्वजों की रीतियों का पालन करना, सबने मिलकर कुटुम्ब का गौरव बढ़ाना आदि सब कुटुम्ब के सदस्यों के लिए सीखने की और आचरण में लाने की बातें हैं।
 
* बड़ों का छोटों के प्रति वात्सल्यभाव और छोटों का बड़ों के प्रति आदर का भाव होना मुख्य बात है। अपने से छोटों का रक्षण करना, उपभोग के समय छोटों का अधिकार प्रथम मानना, कष्ट सहने के समय बड़ों का क्रम प्रथम होना, अन्यों की सुविधा का हमेशा ध्यान रखना, कुटुम्बीजनों की सुविधा हेतु अपनी सुविधा का त्याग करना, बड़ों की आज्ञा का पालन करना, बड़ों की सेवा करना, कुटुम्ब के नियमों का पालन करना, अपने पूर्वजों की रीतियों का पालन करना, सबने मिलकर कुटुम्ब का गौरव बढ़ाना आदि सब कुटुम्ब के सदस्यों के लिए सीखने की और आचरण में लाने की बातें हैं।
 
* कुटुम्ब में साथ रहने के लिए अनेक काम सीखने होते हैं। भोजन बनाना, घर की स्वच्छता करना, साज सज्जा करना, पूजा, उत्सव, ब्रत, यज्ञ, अतिथिसत्कार, परिचर्या, शिशुसंगोपन, आवश्यक वस्तुओं की खरीदी आदि अनेक बातें ऐसी हैं जो कुटुम्बीजनों को आनी चाहिए। ये सारी बातें शिक्षा से ही आती हैं।
 
* कुटुम्ब में साथ रहने के लिए अनेक काम सीखने होते हैं। भोजन बनाना, घर की स्वच्छता करना, साज सज्जा करना, पूजा, उत्सव, ब्रत, यज्ञ, अतिथिसत्कार, परिचर्या, शिशुसंगोपन, आवश्यक वस्तुओं की खरीदी आदि अनेक बातें ऐसी हैं जो कुटुम्बीजनों को आनी चाहिए। ये सारी बातें शिक्षा से ही आती हैं।
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* खानपान, वेशभूषा, भाषा, कुलधर्म, नाकनक्शा, इष्टदेवता, कुलदेवता, सम्प्रदाय, व्यवसाय, कौशल, आचार विचार, सद्गुण, दुर्गुण आदि मिलकर कुटुंब की एक विशिष्ट पहचान बनती है । कुटुम्ब की इस विशिष्ट पहचान को बनाए रखना, बढ़ाना, उत्तरोत्तर उससे प्राप्त होने वाली सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि करना कुटुम्ब के हर सदस्य का कर्तव्य है और पूर्व पीढ़ी ने नई पीढ़ी को इसके लायक बनने हेतु शिक्षित और दीक्षित करना उसका दायित्व है । शिक्षा का यह बहुत बड़ा क्षेत्र है जिसकी आज अत्यधिक उपेक्षा हो रही है। अनौपचारिक शिक्षा का यह एक बहुत बड़ा क्षेत्र है।
 
* खानपान, वेशभूषा, भाषा, कुलधर्म, नाकनक्शा, इष्टदेवता, कुलदेवता, सम्प्रदाय, व्यवसाय, कौशल, आचार विचार, सद्गुण, दुर्गुण आदि मिलकर कुटुंब की एक विशिष्ट पहचान बनती है । कुटुम्ब की इस विशिष्ट पहचान को बनाए रखना, बढ़ाना, उत्तरोत्तर उससे प्राप्त होने वाली सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि करना कुटुम्ब के हर सदस्य का कर्तव्य है और पूर्व पीढ़ी ने नई पीढ़ी को इसके लायक बनने हेतु शिक्षित और दीक्षित करना उसका दायित्व है । शिक्षा का यह बहुत बड़ा क्षेत्र है जिसकी आज अत्यधिक उपेक्षा हो रही है। अनौपचारिक शिक्षा का यह एक बहुत बड़ा क्षेत्र है।
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== समुदाय ==
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=== समुदाय ===
 
सम्पूर्ण समाज व्यवस्था में कुटुम्ब एक इकाई होता है। ऐसे अनेक कुटुम्ब मिलकर समुदाय बनाता है । समुदाय राष्ट्रजीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। मुख्य रूप से समुदाय समाज की आर्थिक इकाई है, समान आचार, समान सम्प्रदाय, अर्थार्जन हेतु समान व्यवसाय, समान शिक्षा आदि समानताओं के आधार पर समुदाय बनाते हैं । उदाहरण के लिए वर्णव्यवस्था जब अपने श्रेष्ठ स्वरूप में भारत में प्रतिष्ठित थी तब ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों के समाज बनते थे, सुथार, कृषक, धोबी, वैद्य आदि व्यवसायों के समुदाय बनते थे । इन समुदायों में विवाह सम्बन्ध होते थे। समुदाय के बाहर कोई विवाह सम्बन्ध नहीं जोड़ता था । आज वर्णव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो गई है, जाति व्यवस्था की उससे भी अधिक दुर्गति हुई है तब भी समुदाय तो बनेंगे ही । उदाहरण के लिए चिकित्सकों का एक समुदाय, उद्योजकों का एक समुदाय, संप्रदायों का एक समुदाय आदि । इन समुदायों में भी उपसमुदाय बनेंगे। उदाहरण के लिए शिक्षकों का एक समुदाय जिसमें विश्वविद्यालयीन शिक्षकों का एक, माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों का दूसरा, प्राथमिक शिक्षकों का तीसरा ऐसे उपसमुदाय बनेंगे। पूर्व में वर्ण और जाति के विवाह और व्यवसाय के नियम और कानून जितने आग्रहपूर्वक पालन किये जाते थे उतने इन व्यवसायों के नहीं हैं यह ठीक है परंतु समुदाय बनते अवश्य हैं। इन समुदायों में विचारपद्धति, व्यावसायिक कौशल, व्यवसाय के अनुरूप वेषभूषा आदि का अन्तर थोड़ी बहुत मात्रा में आज भी देखने को मिलता है, जैसे कि राजकीय क्षेत्र का, उद्योग क्षेत्र का या शिक्षा क्षेत्र का व्यक्ति उसकी बोलचाल से और कभी कभी तो अंगविन्यास से भी पहचाना जाता है।
 
सम्पूर्ण समाज व्यवस्था में कुटुम्ब एक इकाई होता है। ऐसे अनेक कुटुम्ब मिलकर समुदाय बनाता है । समुदाय राष्ट्रजीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। मुख्य रूप से समुदाय समाज की आर्थिक इकाई है, समान आचार, समान सम्प्रदाय, अर्थार्जन हेतु समान व्यवसाय, समान शिक्षा आदि समानताओं के आधार पर समुदाय बनाते हैं । उदाहरण के लिए वर्णव्यवस्था जब अपने श्रेष्ठ स्वरूप में भारत में प्रतिष्ठित थी तब ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों के समाज बनते थे, सुथार, कृषक, धोबी, वैद्य आदि व्यवसायों के समुदाय बनते थे । इन समुदायों में विवाह सम्बन्ध होते थे। समुदाय के बाहर कोई विवाह सम्बन्ध नहीं जोड़ता था । आज वर्णव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो गई है, जाति व्यवस्था की उससे भी अधिक दुर्गति हुई है तब भी समुदाय तो बनेंगे ही । उदाहरण के लिए चिकित्सकों का एक समुदाय, उद्योजकों का एक समुदाय, संप्रदायों का एक समुदाय आदि । इन समुदायों में भी उपसमुदाय बनेंगे। उदाहरण के लिए शिक्षकों का एक समुदाय जिसमें विश्वविद्यालयीन शिक्षकों का एक, माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों का दूसरा, प्राथमिक शिक्षकों का तीसरा ऐसे उपसमुदाय बनेंगे। पूर्व में वर्ण और जाति के विवाह और व्यवसाय के नियम और कानून जितने आग्रहपूर्वक पालन किये जाते थे उतने इन व्यवसायों के नहीं हैं यह ठीक है परंतु समुदाय बनते अवश्य हैं। इन समुदायों में विचारपद्धति, व्यावसायिक कौशल, व्यवसाय के अनुरूप वेषभूषा आदि का अन्तर थोड़ी बहुत मात्रा में आज भी देखने को मिलता है, जैसे कि राजकीय क्षेत्र का, उद्योग क्षेत्र का या शिक्षा क्षेत्र का व्यक्ति उसकी बोलचाल से और कभी कभी तो अंगविन्यास से भी पहचाना जाता है।
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इस प्रकार व्यक्ति के कुटुम्ब में और कुटुम्ब के समुदाय में समायोजन का हमने विचार किया। आगे व्यक्ति की राष्ट्रीता होती है। इसका विचार अब करेंगे।
 
इस प्रकार व्यक्ति के कुटुम्ब में और कुटुम्ब के समुदाय में समायोजन का हमने विचार किया। आगे व्यक्ति की राष्ट्रीता होती है। इसका विचार अब करेंगे।
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== राष्ट्र ==
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=== राष्ट्र ===
 
हर व्यक्ति जिस प्रकार अपने परिवार और समुदाय का सदस्य होता है उसी प्रकार वह एक राष्ट्र का अंश होता है । परिवार सामाजिक इकाई है, समुदाय मुख्य रूप से आर्थिक इकाई है और राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है । राष्ट्र एक ऐसी प्रजा का समूह है जिसकी एक भूमि होती है, उस भूमि के साथ उसका मातृवत सम्बन्ध होता है और जिसका एक जीवनदर्शन होता है । एक राष्ट्र के नाते वह विश्वसमुदाय का सदस्य होता है ।
 
हर व्यक्ति जिस प्रकार अपने परिवार और समुदाय का सदस्य होता है उसी प्रकार वह एक राष्ट्र का अंश होता है । परिवार सामाजिक इकाई है, समुदाय मुख्य रूप से आर्थिक इकाई है और राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है । राष्ट्र एक ऐसी प्रजा का समूह है जिसकी एक भूमि होती है, उस भूमि के साथ उसका मातृवत सम्बन्ध होता है और जिसका एक जीवनदर्शन होता है । एक राष्ट्र के नाते वह विश्वसमुदाय का सदस्य होता है ।
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* और एक बात की स्पष्टता करने की आवश्यकता है । हमने राष्ट्र और देश इन दो संज्ञाओं को एक मान लिया है । ऐसा अँग्रेजी के नेशन शब्द के अनुवाद से हुआ है । वास्तव में देश एक सांविधानिक राजकीय भौगोलिक संकल्पना है जबकि राष्ट्र सांस्कृतिक, आध्यात्मिक। दोनों में कोई विरोध नहीं है । देश राज्यव्यवस्था है, राष्ट्र जीवनदर्शन है। राज्य संविधान के आधार पर चलता है, राष्ट्र धर्म के आधार पर। राष्ट्र राज्य का भी आधार है, राज्य का भी निकष है। हम राज्यव्यवस्था में नागरिक हैं, राष्ट्रव्यवस्था में राष्ट्रीय हैं। आज इस भेद को भी ध्यान में नहीं लिया जाता है इसलिए राष्ट्रीय बनाने की शिक्षा भी नहीं दी जाती है । भारतीय शिक्षा में इसका समावेश अनिवार्य रूप से होना चाहिए ।
 
* और एक बात की स्पष्टता करने की आवश्यकता है । हमने राष्ट्र और देश इन दो संज्ञाओं को एक मान लिया है । ऐसा अँग्रेजी के नेशन शब्द के अनुवाद से हुआ है । वास्तव में देश एक सांविधानिक राजकीय भौगोलिक संकल्पना है जबकि राष्ट्र सांस्कृतिक, आध्यात्मिक। दोनों में कोई विरोध नहीं है । देश राज्यव्यवस्था है, राष्ट्र जीवनदर्शन है। राज्य संविधान के आधार पर चलता है, राष्ट्र धर्म के आधार पर। राष्ट्र राज्य का भी आधार है, राज्य का भी निकष है। हम राज्यव्यवस्था में नागरिक हैं, राष्ट्रव्यवस्था में राष्ट्रीय हैं। आज इस भेद को भी ध्यान में नहीं लिया जाता है इसलिए राष्ट्रीय बनाने की शिक्षा भी नहीं दी जाती है । भारतीय शिक्षा में इसका समावेश अनिवार्य रूप से होना चाहिए ।
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== विश्व ==
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=== विश्व ===
 
विश्व से तात्पर्य है दुनिया के सभी राष्ट्रों का मानव समुदाय। हमारा सामंजस्य विश्व के सभी मानव समुदायों के साथ होना अपेक्षित है । यह सामंजस्य हम कैसे स्थापित कर सकते हैं ? आज कहा जाता है कि संचार माध्यमों के प्रभाव से विश्व बहुत छोटा हो गया है इसलिए अब एक देश की नागरिकता के स्थान पर विश्वनागरिकता का ही विचार करना चाहिए। राष्ट्रवाद संकुचित कल्पना है, अब विश्ववाद को स्वीकार करना चाहिए। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता । एक तो यह समुचित तर्क नहीं है । हम समुदाय के सदस्य होने पर भी परिवार के सदस्य होते ही हैं। परिवार के सदस्य होते हुए भी व्यक्ति होते ही हैं। उसी प्रकार हम विश्व के अंग होने पर भी राष्ट्रीय हो ही सकते हैं। हम अच्छे राष्ट्रीय होने पर ही विश्वनागरिक बन सकते हैं।
 
विश्व से तात्पर्य है दुनिया के सभी राष्ट्रों का मानव समुदाय। हमारा सामंजस्य विश्व के सभी मानव समुदायों के साथ होना अपेक्षित है । यह सामंजस्य हम कैसे स्थापित कर सकते हैं ? आज कहा जाता है कि संचार माध्यमों के प्रभाव से विश्व बहुत छोटा हो गया है इसलिए अब एक देश की नागरिकता के स्थान पर विश्वनागरिकता का ही विचार करना चाहिए। राष्ट्रवाद संकुचित कल्पना है, अब विश्ववाद को स्वीकार करना चाहिए। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता । एक तो यह समुचित तर्क नहीं है । हम समुदाय के सदस्य होने पर भी परिवार के सदस्य होते ही हैं। परिवार के सदस्य होते हुए भी व्यक्ति होते ही हैं। उसी प्रकार हम विश्व के अंग होने पर भी राष्ट्रीय हो ही सकते हैं। हम अच्छे राष्ट्रीय होने पर ही विश्वनागरिक बन सकते हैं।
  

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