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| == मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए शिक्षा होती है == | | == मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए शिक्षा होती है == |
− | मनुष्य अन्य असंख्य प्राणियों की तरह एक प्राणी है । अपनी प्राकृत अवस्था में वह अन्य प्राणियों की तरह ही खातापीता है, सोताजागता है, प्राणरक्षा के लिए प्रयास करता है और अपने ही जैसे अन्य मनुष्य को जन्म देता है । अन्य सजीवों की तरह ही वह जन्मता है, वृद्धि करता है, उसका क्षय होता है और अन्त में मर जाता है । प्राणियों से अधिक उसे मन प्राप्त है । मन भी अपनी प्राकृत अवस्था में वासनापूर्ति में ही लगता है, अपनी वासनापूर्ति के लिए ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्ट्रियों को घोड़ों की तरह काम में लगाता है । मन को यदि वश में नहीं किया तो वह मनुष्य को प्राकृत अवस्था में भी नहीं रहने देता, वह विकृति की ओर घसीटकर ले जाता है । मनुष्य की यदि यह स्थिति रही तो वह तो पशुओं से भी निम्न स्तर का हो जाएगा । मनुष्य से यह अपेक्षित नहीं है क्योंकि वह विकास की अनन्त संभावनाओं को लेकर जन्मा है । उसे प्राकृत नहीं रहना है, उसे विकृति की ओर तो कदापि नहीं जाना है । उसे प्राकृत अवस्था से आगे बढ़कर, ऊपर उठकर संस्कृत बनना है। प्राकृत अवस्था से ऊपर उठकर संस्कृत बनना ही विकास है । मनुष्य को अपना विकास करना है । यही उसके जीवन का प्रयोजन है । इसी को मनुष्य बनना कहते हैं । शिक्षा मनुष्य के विकास के लिए है । | + | मनुष्य अन्य असंख्य प्राणियों की तरह एक प्राणी है । अपनी प्राकृत अवस्था में वह अन्य प्राणियों की तरह ही खातापीता है, सोताजागता है, प्राणरक्षा के लिए प्रयास करता है और अपने ही जैसे अन्य मनुष्य को जन्म देता है । अन्य सजीवों की तरह ही वह जन्मता है, वृद्धि करता है, उसका क्षय होता है और अन्त में मर जाता है । प्राणियों से अधिक उसे मन प्राप्त है । मन भी अपनी प्राकृत अवस्था में वासनापूर्ति में ही लगता है, अपनी वासनापूर्ति के लिए ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्ट्रियों को घोड़ों की तरह काम में लगाता है । मन को यदि वश में नहीं किया तो वह मनुष्य को प्राकृत अवस्था में भी नहीं रहने देता, वह विकृति की ओर घसीटकर ले जाता है । मनुष्य की यदि यह स्थिति रही तो वह तो पशुओं से भी निम्न स्तर का हो जाएगा। मनुष्य से यह अपेक्षित नहीं है क्योंकि वह विकास की अनन्त संभावनाओं को लेकर जन्मा है । उसे प्राकृत नहीं रहना है, उसे विकृति की ओर तो कदापि नहीं जाना है। उसे प्राकृत अवस्था से आगे बढ़कर, ऊपर उठकर संस्कृत बनना है। प्राकृत अवस्था से ऊपर उठकर संस्कृत बनना ही विकास है । मनुष्य को अपना विकास करना है। यही उसके जीवन का प्रयोजन है । इसी को मनुष्य बनना कहते हैं । शिक्षा मनुष्य के विकास के लिए है। |
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| == शिक्षा मनुष्य को अन्यों के साथ समायोजन सिखाने के लिए है == | | == शिक्षा मनुष्य को अन्यों के साथ समायोजन सिखाने के लिए है == |
− | मनुष्य इस सृष्टि में अकेला नहीं रहता है । वह भले ही सर्वश्रेष्ठ हो, भले ही अपने जैसा एक ही हो, भले ही अनेक विशिष्टताओं से युक्त हो,उसे रहना अन्यों के साथ ही है। इस सृष्टि में असंख्य मनुष्य हैं जो उसकी ही तरह मन, बुद्धि आदि अन्तः:करण लिए हुए हैं और उनके चलते अनेक भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों के हैं । मनुष्यों की भिन्न भिन्न प्रवृत्तियों के कारण उनमें मैत्री भी होती है और दुश्मनी भी । सृष्टि में वनस्पति है, प्राणी हैं और पंचमहाभूत भी हैं । मनुष्य को इन सबके साथ रहना है । मनुष्य सबसे श्रेष्ठ तो है परन्तु अपनी हर छोटी-मोटी आवश्यकता की पूर्ति अन्यों की सहायता के बिना नहीं कर सकता । भूमि से उसकी अन्न, वस्त्र, पानी, आवास आदि आवश्यकताओं की पूर्ति होती है । सर्व प्रकार की वनस्पति भूमि के कारण ही संभव है । प्राणी उसकी सहायता करते हैं। मनुष्य को अन्य मनुष्यों की सहायता भी चाहिए । अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति वह अपने आप ही नहीं कर सकता । उसे स्नेह, प्रेम, मैत्री भी चाहिए । अकेला रहकर वह पागल हो जाएगा । इसका अर्थ यह हुआ कि उसे सबके साथ रहना आना भी चाहिए । सबके साथ समायोजन करना सरल नहीं है । वह एक साधना है । सबके साथ रहने के लिए ही अनेक शास्त्र निर्मित हुए हैं, अनेक प्रकार के व्यवहार सिखाये गए हैं, अनेक प्रकार की साधनायें बताई गई हैं । | + | मनुष्य इस सृष्टि में अकेला नहीं रहता है । वह भले ही सर्वश्रेष्ठ हो, भले ही अपने जैसा एक ही हो, भले ही अनेक विशिष्टताओं से युक्त हो,उसे रहना अन्यों के साथ ही है। इस सृष्टि में असंख्य मनुष्य हैं जो उसकी ही तरह मन, बुद्धि आदि अन्तः:करण लिए हुए हैं और उनके चलते अनेक भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों के हैं । मनुष्यों की भिन्न भिन्न प्रवृत्तियों के कारण उनमें मैत्री भी होती है और दुश्मनी भी। सृष्टि में वनस्पति है, प्राणी हैं और पंचमहाभूत भी हैं । मनुष्य को इन सबके साथ रहना है । मनुष्य सबसे श्रेष्ठ तो है परन्तु अपनी हर छोटी-मोटी आवश्यकता की पूर्ति अन्यों की सहायता के बिना नहीं कर सकता । भूमि से उसकी अन्न, वस्त्र, पानी, आवास आदि आवश्यकताओं की पूर्ति होती है । सर्व प्रकार की वनस्पति भूमि के कारण ही संभव है। प्राणी उसकी सहायता करते हैं। मनुष्य को अन्य मनुष्यों की सहायता भी चाहिए । अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति वह अपने आप ही नहीं कर सकता। उसे स्नेह, प्रेम, मैत्री भी चाहिए । अकेला रहकर वह पागल हो जाएगा । इसका अर्थ यह हुआ कि उसे सबके साथ रहना आना भी चाहिए। सबके साथ समायोजन करना सरल नहीं है। वह एक साधना है । सबके साथ रहने के लिए ही अनेक शास्त्र निर्मित हुए हैं, अनेक प्रकार के व्यवहार सिखाये गए हैं, अनेक प्रकार की साधनायें बताई गई हैं। |
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− | शिक्षा मनुष्य को अन्य सबके साथ समायोजन सिखाती है। इस प्रकार शिक्षा का मनुष्य के जीवन में विशिष्ट स्थान है । जिस प्रकार मनुष्य श्वास लेता है उसी प्रकार मनुष्य सीखता भी है । वह चाहे तो भी जिस प्रकार श्वास लेना बन्द नहीं कर सकता उसी प्रकार सीखना भी बन्द नहीं कर सकता । | + | शिक्षा मनुष्य को अन्य सबके साथ समायोजन सिखाती है। इस प्रकार शिक्षा का मनुष्य के जीवन में विशिष्ट स्थान है। जिस प्रकार मनुष्य श्वास लेता है उसी प्रकार मनुष्य सीखता भी है। वह चाहे तो भी जिस प्रकार श्वास लेना बन्द नहीं कर सकता उसी प्रकार सीखना भी बन्द नहीं कर सकता। |
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| इस शिक्षा का मनुष्य ने अपने चिन्तन मनन, निधिध्यासन से एक बहुत ही उत्कृष्ट शास्त्र बनाया है । वही शिक्षाशास्त्र है । इसीका हम किंचित विस्तार से यहाँ विचार कर रहे हैं। | | इस शिक्षा का मनुष्य ने अपने चिन्तन मनन, निधिध्यासन से एक बहुत ही उत्कृष्ट शास्त्र बनाया है । वही शिक्षाशास्त्र है । इसीका हम किंचित विस्तार से यहाँ विचार कर रहे हैं। |
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| == आजीवन चलने वाली शिक्षा == | | == आजीवन चलने वाली शिक्षा == |
− | मनुष्य गर्भाधान के समय अपने पूर्वजन्मों के संचित | + | मनुष्य गर्भाधान के समय अपने पूर्वजन्मों के संचित कर्म लेकर इस जन्म में आता है और उसकी शिक्षा शुरू होती है । गर्भ के रूप में आने से पहले ही गर्भाधान संस्कार किए जाते हैं जो उसकी शिक्षा का प्रारम्भ है । इस जन्म के उसके प्रथम शिक्षक उसके मातापिता ही हैं जो अपने कुल में आने के लिये उसका आवाहन और स्वागत करते हैं । उसके अध्ययन के लिये आवास बनाते हैं । पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार उसे अनुवंश के नाते प्राप्त हो जाते हैं । गर्भाधान के समय भी माता और पिता से उसे सम्पूर्ण जीवन का पाथेय प्राप्त हो जाता है जिसके बल पर वह अपनी भविष्य की यात्रा करता है । उसकी प्रथम पाठशाला घर है और उसकी प्रथम कक्षा माता की कोख में है । माता के गर्भाशय में गर्भ के रूप में रहते हुए वह माता के माध्यम से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक क्षमातायें प्राप्त करता है, माता की ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही बाहर की दुनिया के अन्यान्य विषयों के अनुभव ग्रहण करता है । |
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− | कर्म लेकर इस जन्म में आता है और उसकी शिक्षा शुरू | |
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− | होती है । गर्भ के रूप में आने से पहले ही गर्भाधान संस्कार | |
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− | किए जाते हैं जो उसकी शिक्षा का प्रारम्भ है । इस जन्म के | |
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− | उसके प्रथम शिक्षक उसके मातापिता ही हैं जो अपने कुल में | |
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− | आने के लिये उसका आवाहन और स्वागत करते हैं । उसके | |
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− | अध्ययन के लिये आवास बनाते हैं । पिता की चौदह और | |
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− | माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार उसे अनुवंश के नाते प्राप्त | |
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− | पाठशाला घर है और उसकी प्रथम कक्षा माता की कोख में | |
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− | करता है, माता की ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही बाहर की | |
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− | दुनिया के अन्यान्य विषयों के अनुभव ग्रहण करता है । | |
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| आयुर्वेद के अनुसार गर्भावस्था में मातृज, figs, wa, | | आयुर्वेद के अनुसार गर्भावस्था में मातृज, figs, wa, |