Line 49: |
Line 49: |
| | | |
| == शिक्षा की भूमिका == | | == शिक्षा की भूमिका == |
− | <nowiki>##</nowiki>
| + | काम पुरुषार्थ अभ्युदय का स्रोत है। सर्व प्रकार की भौतिक समृद्धि का क्षेत्र है। इसे व्यवस्थित करने हेतु शिक्षा का नियोजन होना चाहिये । काम पुरुषार्थ की शिक्षा के आयाम इस प्रकार हैं: |
− | | + | # जीवन में अनेक प्रकार से हम प्रवृत्त होते हैं। | मन और शरीर हमेशा क्रियाशील रहते हैं। इन क्रियाओं के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है। स्वस्थ दृष्टिकोण का विकास करना शिक्षा का मुख्य काम है। स्वस्थ दृष्टिकोण के विकास हेतु मन की शिक्षा आवश्यक है। मन हमेशा उत्तेजना की अवस्था में रहता है, अशान्त रहता है। अशान्त मन को बातें सही ढंग से | समज में नहीं आती हैं। अशान्त मन चिंताग्रस्त होता है। | वह न तो किसी अनुभव का ठीक से आस्वाद ले सकता है, न ठीक से विचार कर पाता है। इसलिये मन को शांत बनाने की शिक्षा देना अत्यन्त आवश्यक है। मन को शान्त बनाने के लिये बहुत छोटी आयु से प्रयास करने होते हैं। बालक जब माता की कोख में होता है तबसे मधुर संगीत, शुभ विचार, प्रेमपूर्ण मनोभाव के संस्कार होने चाहिये। अच्छे भावों से युक्त लोरियाँ और कहानियाँ मन को शान्त एवं उदार बनाने में बहुत सहयोग करती हैं। बालक जब कोख में होता है तब माता ने जो विचार किये हैं, जो आहार लिया है, बालक के विषय में जो कल्पनायें की हैं, बालक से जो अपेक्षायें की हैं, जिन लोगों का संग किया है, उसका बालक के चरित्र पर गहरा प्रभाव होता है। इसलिये हमारी परम्परा में गर्भवती की परिचर्या को बहुत महत्व दिया गया है। घर में अच्छे बालक का जन्म हो इस दृष्टि से होने वाले माता पिता को सम्यक् मार्गदर्शन दिया जाता रहा है, माता की शिक्षा का भी ध्यान रखा जाता रहा है और गर्भवती महिला की बहुत संभाल रखी जाती रही है। जन्म लेने वाला शिशु केवल शारीरिक दृष्टि से ही स्वस्थ हो, यह पर्याप्त नहीं है, वह जन्म से ही अच्छा चरित्र लेकर आये ऐसी व्यवस्था की जाती रही है। आज इस विषय में घोर अनवस्था दिखाई देती है। विकासोन्मुख और विकसित समाज का यह महत्वपूर्ण लक्षण है कि वह अपनी नई पीढ़ी को उचित समय पर ही काम पुरुषार्थ की शिक्षा दे। यह उचित समय निस्सन्देह गर्भावस्था और शिशु अवस्था ही है। शिशु अवस्था में घर का वातावरण और व्यवहार शिशु के मन को ठीक करने के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। मानसिक शान्ति, तृप्ति, सन्तोष, उदारता, सख्यभाव आदि वातावरण और व्यवहार से ही ग्रहण किये जाते हैं। वे उपदेश से या अनुशासन से नहीं सिखाये जाते । शिशु संगोपन इस विषय में बड़ा विषय है जिसका विचार स्वतन्त्र रूप से करना चाहिये । बालक जब विद्यालय में जाता है तब वहाँ विषयों की रचना, गतिविधियों का आयोजन मानसिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये । उदाहरण के लिये आजकल सभी विद्यालयों में हर गतिविधि के साथ स्पर्धा जुड़ गई है। हर उपलब्धि के साथ स्पर्धा के आधार पर चयन की प्रक्रिया जुड़ी हुई है। स्पर्धा से संघर्ष और संघर्ष से हिंसा जन्म लेने वाली ही है। इससे काम ही भड़कने वाला है। दुर्दैव से स्पर्धा हमारे समग्र जीवन, फिर चाहे व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक, का हिस्सा बन गई है। हमारी विचारप्रक्रिया का वह अंग बन गई है। हमारे विकास के लिये वह उत्प्रेरक का काम करती है, ऐसा हमें लगता है। इस विचार को बदलना चाहिये। प्रारंभ विद्यालय से हो सकता है। विद्यालय से स्पर्धा का तत्व पूर्ण रूप से निकाल देना चाहिये । छोटे बच्चों में एकदूसरे को सहायता करने की प्रवृत्ति सहज रूप से होती है। बड़े होते होते हमारी व्यवस्थाओं के चलते वह नष्ट होती है और स्वार्थ, ईष्य, लोभ आदि बढ़ने लगते हैं। पाठ्यपुस्तकों के पाठों की विषयवस्तु के माध्यम से तथा वार्तालाप के माध्यम से इन्हें पनपने से रोकना चाहिये । आजकल यह बात सर्वथा विस्मृत हो गई है परन्तु यह विस्मरण बहुत भारी पड़ने वाला है क्योंकि यह विस्मरण हमें पशुता ही नहीं अपितु आसुरी वृत्ति की ओर ले जा रहा है। साथ ही संगीत मन को शान्त और सात्त्विक बनाने में बहुत उपयोगी होता है। आजकल जिस प्रकार का संगीत सुनाई देता है वैसा संगीत किसी काम का नहीं है। वह तो भड़काऊ संगीत है। भारतीय शास्त्रीय संगीत और भारतीय वाद्य मन को शान्त बनाने में बहुत सहायक होते हैं। इनका प्रयोग करना चाहिये । |
− | विकासोन्मुख और विकसित समाज का यह महत्वपूर्ण
| |
− | काम पुरुषार्थ अभ्युद्य का स्रोत है । सर्व प्रकार की... लक्षण है कि वह अपनी नई पीढ़ी को उचित समय पर ही | |
− | भौतिक समृद्धि का क्षेत्र है। इसे व्यवस्थित करने हेतु काम पुरुषार्थ की शिक्षा दे । यह उचित समय frees | |
− | शिक्षा का नियोजन होना चाहिये । काम पुरुषार्थ की शिक्षा... गर्भावस्था और शिशुअवस्था ही है । शिशु अवस्था में घर | |
− | के आयाम इस प्रकार हैं ... का वातावरण और व्यवहार शिशु के मन को ठीक करने | |
− | (१) जीवन में अनेक प्रकार से हम प्रवृत्त होते हैं। के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है । मानसिक शान्ति,
| |
− | | |
− | मन और शरीर हमेशा क्रियाशील रहते हैं । इन क्रियाओं के. तृप्ति, सन्तोष, उदारता, सख्यभाव आदि वातावरण और | |
− | प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है ।.. व्यवहार से ही ग्रहण किये जाते हैं। वे उपदेश से या | |
− | स्वस्थ दृष्टिकोण का विकास करना शिक्षा का मुख्य काम... अनुशासन से नहीं सिखाये जाते । शिशु संगोपन इस विषय | |
− | है। स्वस्थ दृष्टिकोण के विकास हेतु मन की शिक्षा. में बड़ा विषय है जिसका विचार स्वतन्त्र रूप से करना | |
− | आवश्यक है । मन हमेशा उत्तेजना की अवस्था में रहता... चाहिये । बालक जब विद्यालय में जाता है तब वहाँ | |
− | है, अशान्त रहता है । अशान्त मन को बातें सही ढंग से. विषयों की रचना, गतिविधियों का आयोजन मानसिक | |
− | समज में नहीं आती हैं । अशान्त मन चिंताग्रस्त होता है। . स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये । | |
− | वह न तो किसी अनुभव का ठीक से आस्वाद ले सकता... उदाहरण के लिये आजकल सभी विद्यालयों में हर | |
− | है, न ठीक से विचार कर पाता है । इसलिये मन को शांत. गतिविधि के साथ स्पर्धा जुड़ गई है। हर उपलब्धि के | |
− | बनाने की शिक्षा देना अत्यन्त आवश्यक है। मन को. साथ स्पर्धा के आधार पर चयन की प्रक्रिया जुड़ी हुई है । | |
− | शान्त बनाने के लिये बहुत छोटी आयु से प्रयास करने. स्पर्धा से संघर्ष और संघर्ष से हिंसा जन्म लेने वाली ही | |
− | होते हैं । बालक जब माता की कोख में होता है तबसे . है । इससे काम ही भड़कने वाला है । दुर्दैव से स्पर्धा हमारे | |
− | मधुर संगीत, शुभ विचार, प्रेमपूर्ण मनोभाव के संस्कार होने. समग्र जीवन, फिर चाहे व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक, | |
− | चाहिये । अच्छे भावों से युक्त लोरियाँ और कहानियाँ मन... का हिस्सा बन गई है । हमारी विचारप्रक्रिया का वह अंग
| |
− | को शान्त एवं उदार बनाने में बहुत सहयोग करती हैं ।. बन गई है । हमारे विकास के लिये वह उत्प्रसरेक का काम | |
− | बालक जब कोख में होता है तब माता ने जो विचार किये करती है ऐसा हमें लगता है । इस विचार को बदलना | |
− | हैं, जो आहार लिया है, बालक के विषय में जो कल्पनायें .. चाहिये । प्रारंभ विद्यालय से हो सकता है । विद्यालय से | |
− | की हैं, बालक से जो अपेक्षायें की हैं;जिन लोगों का संग. स्पर्धा का तत्व पूर्ण रूप से निकाल देना चाहिये । छोटे | |
− | किया है, उसका बालक के चरित्र पर गहरा प्रभाव होता... बच्चों में एकदूसरे को सहायता करने की प्रवृत्ति सहज रूप | |
− | है । इसलिये हमारी परम्परा में गर्भवती की परिचर्या को. .. से होती है। बड़े होते होते हमारी व्यवस्थाओं के चलते
| |
− | बहुत महत्व दिया गया है । घर में अच्छे बालक का जन्म... वह नष्ट होती है और स्वार्थ, इंष्या, लोभ आदि बढ़ने | |
− | हो इस दृष्टि से होने वाले माता पिता को सम्यक् मार्गदर्शन. लगते हैं। पाठ्यपुस्तकों के पाठों की विषयवस्तु के | |
− | दिया जाता रहा है, माता की शिक्षा का भी ध्यान रखा... माध्यम से तथा वार्तालाप के माध्यम से इन्हें पनपने से | |
− | जाता रहा है और गर्भवती महिला की बहुत संभाल रखी... रोकना चाहिये । आजकल यह बात सर्वथा विस्मृत हो गई
| |
− | जाती रही है । जन्म लेने वाला शिशु केवल शारीरिक दृष्टि है परन्तु यह विस्मरण बहुत भारी पड़ने वाला है क्योंकि
| |
− | | |
− | <nowiki>##</nowiki>
| |
− | # यह विस्मरण हमें पशुता ही नहीं अपितु आसुरी वृत्ति की ओर ले जा रहा है। साथ ही संगीत मन को शान्त और सात्त्विक बनाने में बहुत उपयोगी होता है। आजकल जिस प्रकार का संगीत सुनाई देता है वैसा संगीत किसी काम का नहीं है। वह तो भड़काऊ संगीत है। भारतीय शास्त्रीय संगीत और भारतीय वाद्य मन को शान्त बनाने में बहुत सहायक होते हैं। इनका प्रयोग करना चाहिये ।
| |
| # मन को शान्त और सदगुणी बनाने में योग अत्यन्त उपयोगी है । विशेष रूप से यम, नियम, प्रत्याहार और ध्यान का विशेष महत्व है। आजकल योग विषय का भी विपर्यास हो गया है। योग को आसनों और शारीरिक व्यायाम का रूप दिया गया है, इसे एक चिकित्सा पद्धति बना दिया गया है और स्पर्धा का तथा प्रदर्शन का विषय बना दिया गया है। इस व्यवस्था को पूर्ण रूप से बदलना होगा। वातावरण में, व्यवस्था में और व्यवहार में सादगी, सुन्दरता, सात्विकता लाना आवश्यक है। यह मुद्दा गणवेश, बस्ता, बैठक व्यवस्था, भवनव्यवस्था आदि सभी आयामों को लागू है। साथ ही खानपान में सात्विकता अत्यन्त आवश्यक है । आजकल सात्विक भोजन बिना स्वाद का होता है, केवल बीमार लोग उसे खाते हैं ऐसा माना जाता है। बच्चों की खाने पीने की आदतों की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता है। बच्चे तो क्या बड़े भी आरोग्य और संस्कार दोनों के लिये अत्यन्त हानिकारक आहार पसन्द करते हैं। केवल आहार ही नहीं, दिनचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है। जिस समय जो काम करना चाहिये, जो काम जिस प्रकार से करना चाहिये उस समय पर और उस प्रकार से करने का कोई आग्रह नहीं होता। इस बात का घोर अआज्ञान है । केवल अज्ञान ही नहीं यह तो विपरीत ज्ञान है। इसे ठीक करना चाहिये । | | # मन को शान्त और सदगुणी बनाने में योग अत्यन्त उपयोगी है । विशेष रूप से यम, नियम, प्रत्याहार और ध्यान का विशेष महत्व है। आजकल योग विषय का भी विपर्यास हो गया है। योग को आसनों और शारीरिक व्यायाम का रूप दिया गया है, इसे एक चिकित्सा पद्धति बना दिया गया है और स्पर्धा का तथा प्रदर्शन का विषय बना दिया गया है। इस व्यवस्था को पूर्ण रूप से बदलना होगा। वातावरण में, व्यवस्था में और व्यवहार में सादगी, सुन्दरता, सात्विकता लाना आवश्यक है। यह मुद्दा गणवेश, बस्ता, बैठक व्यवस्था, भवनव्यवस्था आदि सभी आयामों को लागू है। साथ ही खानपान में सात्विकता अत्यन्त आवश्यक है । आजकल सात्विक भोजन बिना स्वाद का होता है, केवल बीमार लोग उसे खाते हैं ऐसा माना जाता है। बच्चों की खाने पीने की आदतों की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता है। बच्चे तो क्या बड़े भी आरोग्य और संस्कार दोनों के लिये अत्यन्त हानिकारक आहार पसन्द करते हैं। केवल आहार ही नहीं, दिनचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है। जिस समय जो काम करना चाहिये, जो काम जिस प्रकार से करना चाहिये उस समय पर और उस प्रकार से करने का कोई आग्रह नहीं होता। इस बात का घोर अआज्ञान है । केवल अज्ञान ही नहीं यह तो विपरीत ज्ञान है। इसे ठीक करना चाहिये । |
| # मनोरंजन का क्षेत्र भीषण संकट निर्माण करने वाला बन गया है। फिल्म, धारावाहिक, नाच गाने के कार्यक्रम और विज्ञापन एक साथ मन के निम्नतर भावों को भड़काने वाले और वासनाओं को बढ़ाने वाले ही होते हैं। संयम को आवश्यक माना ही नहीं जाता है इसलिये उसकी शिक्षा भी किसी माध्यम से होती नहीं है। इस क्षेत्र पर आज साधु संतों, संन्यासियों, धर्माचार्यों, शिक्षकों या किसी भी समझदार लोगों का नियंत्रण या निर्देशन नहीं है। यह क्षेत्र केवल बाजार से निर्देशित होता है और कामोपभोग के लिये लोगों को भड़काकर पैसे बनाने का ही विचार करता है। इसका उपाय करने की आवश्यकता है। | | # मनोरंजन का क्षेत्र भीषण संकट निर्माण करने वाला बन गया है। फिल्म, धारावाहिक, नाच गाने के कार्यक्रम और विज्ञापन एक साथ मन के निम्नतर भावों को भड़काने वाले और वासनाओं को बढ़ाने वाले ही होते हैं। संयम को आवश्यक माना ही नहीं जाता है इसलिये उसकी शिक्षा भी किसी माध्यम से होती नहीं है। इस क्षेत्र पर आज साधु संतों, संन्यासियों, धर्माचार्यों, शिक्षकों या किसी भी समझदार लोगों का नियंत्रण या निर्देशन नहीं है। यह क्षेत्र केवल बाजार से निर्देशित होता है और कामोपभोग के लिये लोगों को भड़काकर पैसे बनाने का ही विचार करता है। इसका उपाय करने की आवश्यकता है। |
| # कामजीवन के स्वास्थ्य हेतु केवल त्याग औरसंयम ही नहीं है। आनंद प्रमोद के सारे क्रियाकलाप हैं। शिशुअवस्था से शुरू कर बड़ी आयु तक रसिकता, सौन्दर्यबोध, उच्च और संस्कारपूर्ण रुचि और आभिजात्य का विकास करना चाहिये। आज देखा जाता है कि नृत्य, गीत, खेल आदि का रस केवल अक्रिय श्रोता या दर्शक बनकर लिया जाता है। लोग गायन सुनते हैं, गाते नहीं हैं। नाटक या खेल देखते हैं, स्वयं खेलते नहीं हैं। नृत्य देखते हैं, करते नहीं। स्वादिष्ट आहार खाते हैं, बनाते नहीं हैं। ये जब भी वे गाते या नाचते हैं तब वह अत्यन्त कुरूप और भोंडा होता है। मनोरंजन के इन क्रियाकलापों में सक्रिय होने से ही सच्ची रसिकता का विकास होता है। कल्पनाशीलता और सृजनशीलता का भी विकास होता है। मन स्वच्छ और स्वस्थ होता है और काम का उन्नयन होता है। आहार, वस्त्र, अलंकार, संगीत, नृत्य, नाटक, पर्यटन आदि में संस्कारिता होनी चाहिये। इसकी शिक्षा, सम्पूर्ण शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह शिक्षा घर में भी देनी चाहिये और विद्यालय में भी। वास्तव में इसका मुख्य केन्द्र घर है परन्तु आज घर इस शिक्षा के लिये सक्षम नहीं होने के कारण विद्यालय को घर का भी मार्गदर्शन करने का दायित्व निभाने की आवश्यकता है । | | # कामजीवन के स्वास्थ्य हेतु केवल त्याग औरसंयम ही नहीं है। आनंद प्रमोद के सारे क्रियाकलाप हैं। शिशुअवस्था से शुरू कर बड़ी आयु तक रसिकता, सौन्दर्यबोध, उच्च और संस्कारपूर्ण रुचि और आभिजात्य का विकास करना चाहिये। आज देखा जाता है कि नृत्य, गीत, खेल आदि का रस केवल अक्रिय श्रोता या दर्शक बनकर लिया जाता है। लोग गायन सुनते हैं, गाते नहीं हैं। नाटक या खेल देखते हैं, स्वयं खेलते नहीं हैं। नृत्य देखते हैं, करते नहीं। स्वादिष्ट आहार खाते हैं, बनाते नहीं हैं। ये जब भी वे गाते या नाचते हैं तब वह अत्यन्त कुरूप और भोंडा होता है। मनोरंजन के इन क्रियाकलापों में सक्रिय होने से ही सच्ची रसिकता का विकास होता है। कल्पनाशीलता और सृजनशीलता का भी विकास होता है। मन स्वच्छ और स्वस्थ होता है और काम का उन्नयन होता है। आहार, वस्त्र, अलंकार, संगीत, नृत्य, नाटक, पर्यटन आदि में संस्कारिता होनी चाहिये। इसकी शिक्षा, सम्पूर्ण शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह शिक्षा घर में भी देनी चाहिये और विद्यालय में भी। वास्तव में इसका मुख्य केन्द्र घर है परन्तु आज घर इस शिक्षा के लिये सक्षम नहीं होने के कारण विद्यालय को घर का भी मार्गदर्शन करने का दायित्व निभाने की आवश्यकता है । |
− | # कला और कारीगरी का रक्षण और संवर्धन करने की महती आवश्यकता है । इस दृष्टि से छात्रों को हाथ से काम करना सिखाना और हर काम को उत्तम पद्धति से कर उत्कृष्टता के स्तर तक ले जाना सिखाना चाहिये। शिक्षा केवल पढने लिखने की और लिखित परीक्षा की नहीं होती। वह हर स्तर पर प्रायोगिक होनी चाहिये। | + | # कला और कारीगरी का रक्षण और संवर्धन करने की महती आवश्यकता है । इस दृष्टि से छात्रों को हाथ से काम करना सिखाना और हर काम को उत्तम पद्धति से कर उत्कृष्टता के स्तर तक ले जाना सिखाना चाहिये। शिक्षा केवल पढने लिखने की और लिखित परीक्षा की नहीं होती। वह हर स्तर पर प्रायोगिक होनी चाहिये। हर व्यक्ति के हाथ कुशल कारीगर होने चाहिये। हर व्यक्ति का मन सेवाभाव से युक्त होना चाहिये । चित्तशुद्धि के लिये सेवाभाव अत्यन्त आवश्यक है। | सृजनशीलता का विकास, उत्कृष्ट निर्माणशीलता, सेवाभाव, | सृजन से प्राप्त होने वाला आनन्द काम का उन्नयन करते हैं। इसका असर समाज जीवन पर भी पड़ता है। समाज में एक प्रकार की शान्ति और सुरक्षा प्रस्थापित होती है। श्रेष्ठ समाज में संस्कारितापूर्ण समृद्धि होती है। काम पुरुषार्थ समाज को निर्धन या दरिद्र नहीं रहने देता। काम पुरुषार्थ समाज को आलसी भी नहीं रहने देता । परन्तु नियमन में रखा गया काम, समाज को संस्कारित समृद्धि और उद्यम को विनय से अलंकृत करता है। |
− | # ###
| + | # स्त्री पुरुष सम्बन्ध का क्षेत्र बहुत ध्यान देने योग्य है। आज यह विशेष चिन्ता का विषय बन गया है। बलात्कार और अनाचार की मात्रा बढ़ गई हैं। स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं और पुरुष लज्जाहीन हो गए हैं। स्त्रियाँ भी लज्जा का त्याग कर रही है। वस्त्रालंकार, प्रसाधन, अंगविन्यास, वेषभूषा, बोलचाल आदि में मर्यादा नहीं दिखाई देती है। उन्मुक्तता और स्वैराचार को ही स्वतन्त्रता कहा जाता है। इस स्थिति में मर्यादापूर्ण व्यवहार सिखाने की आवश्यकता है। स्त्रियों के प्रति देखने का पुरुषों का दृष्टिकोण और पुरुर्षों के प्रति देखने का स्त्रियों का दृष्टिकोण स्वस्थ बनाने की आवश्यकता है। समाज को टीवी चैनलों | के माध्यम से प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। बालक बालिकाओं, किशोर | किशोरियों, युवक युवतियों के परस्पर संपर्क को स्वस्थ कैसे बनाया जाये, इसकी शिक्षा उस उस स्तर के विद्यालयों और घरों में आग्रहपूर्वक देनी चाहिये । आज इस विषय में सर्वत्र उदासीनता दिखाई देती है। उसका त्याग करना चाहिये। उसके स्थान पर विनय, श्रीदाक्षिण्य (स्त्रियों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार) मर्यादा आदि की शिक्षा छात्रों को प्राप्त होनी चाहिये । पतिपत्नी के सम्बन्धों को कामुकता से मुक्त कर एकात्मता की ओर विकसित करना चाहिये। इसके अनुकूल व्यवस्थाएँ कैसी होंगी, यह भी शिक्षा का विषय है। महाविद्यालयीन शिक्षा का यह महत्त्वपूर्ण विषय बनना चाहिये । |
− | # इसके अनुकूल व्यवस्थाएँ कैसी होंगी, यह भी चाहिये । हर व्यक्ति के हाथ कुशल कारीगर होने चाहिये । शिक्षा का विषय है । महाविद्यालयीन शिक्षा का यह हर व्यक्ति का मन सेवाभाव से युक्त होना चाहिये ।.... महत्वपूर्ण विषय बनना चाहिये । चित्तशुद्धि के लिये सेवाभाव अत्यन्त आवश्यक है। (७) यौनशिक्षा भी तरुणों की शिक्षा का महत्वपूर्ण सृजनशीलता का विकास, उत्कृष्ट निर्माणशीलता, सेवाभाव, fee है । परन्तु यह सामूहिक शिक्षा का विषय नहीं है । सृजन से प्राप्त होने वाला आनन्द काम का उन्नयन करते... वह व्यक्तिगत शिक्षा का विषय है । वह शास्त्रीय रूप में हैं । इसका असर समाजजीवन पर भी पड़ता है । समाज में... विद्यालय में और व्यावहारिक रूप में परिवार में देने की एक प्रकार की शान्ति और सुरक्षा प्रस्थापित होती है । श्रेष्ठ. अनिवार्य व्यवस्था होनी चाहिये । इसके अभाव में ही समाज में संस्कारितापूर्ण समृद्धि होती है । काम gerd लोगों का कामजीवन भटक जाता है । समाज को निर्धन या दृ्रिद्र नहीं रहने देता । काम पुरुषार्थ (८) विवाह होने तक ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य समाज को आलसी भी नहीं रहने देता । परन्तु नियमन में... बनाना चाहिये । इसे नकारने वाला समाज अत्यन्त रखा गया काम, समाज को संस्कारित समृद्धि और उद्यम... असंस्कारी होता है । ब्रह्मचर्य पालन को सहज बनाने वाले को विनय से अलंकृत करता है । आहार विहार की चिन्ता करनी चाहिये । इसे आग्रहपूर्वक (६) स्त्रीपुरुष सम्बन्ध का क्षेत्र बहुत ध्यान देने योग्य. समाज की तथा छात्रों की मानसिकता में प्रतिष्ठित करना है। आज यह विशेष चिन्ता का विषय बन गया है।.. चाहिये । सामाजिक शिष्टाचार का यह एक महत्वपूर्ण अंग बलात्कार और अनाचार की मात्रा बढ़ गई है । feat .. बनना चाहिये । सुरक्षित नहीं हैं और पुरुष लज्जाहीन हो गए हैं । खियाँ भी (९) काम पुरुषार्थ के लिये शिक्षा कैसी हो इसका लजा का त्याग कर रही हैं। वसख्त्रालंकार, प्रसाधन, यहाँ अत्यन्त संक्षिप्त विवेचन किया गया है । इसके एक अंगविन्यास, वेषभूषा, बोलचाल आदि में मर्यादा नहीं. एक बिन्दु का अधिक विवेचन स्वतन्त्र रूप से करने की दिखाई देती है । उन्मुक्तता और स्वैराचार को ही स्वतन्त्रता... आवश्यकता है । शिक्षा में सर्वथा उपेक्षित यह विषय पुन: कहा जाता है । इस स्थिति में मर्यादापूर्ण व्यवहार सिखाने. स्थान प्राप्त करे इस दृष्टि से शिक्षाविदों और कि आवश्यकता है । ख्रियों के प्रति देखने का पुरुषों का... समाजहितर्चितकों को प्रयास करने चाहिये । धर्माचार्यों को दृष्टिकोण और पुरुषों के प्रति देखने का खियों का दृष्टिकोण. इस विषय को अपने उपदेश का विषय बनाना चाहिये । स्वस्थ बनाने की आवश्यकता है । समाज को टीवी चैनलों. कला, साहित्य, खेल आदि क्षेत्रों में भी इस विषय की के माध्यम से प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री को नियंत्रित. चर्चा होनी चाहिये । सबसे मुख्य स्थान घर है। करने की आवश्यकता है । बालक बालिकाओं, किशोर. परिवारशिक्षा को एक स्वतन्त्र विषय बनाने से और उसमें किशोरियों, युवक युवतियों के परस्पर संपर्क को स्वस्थ इसे महत्वपूर्ण स्थान देने से कुछ परिणाम मिल सकता 2 | कैसे बनाया जाय इसकी शिक्षा उस उस स्तर के विद्यालयों. उच्चशिक्षा के क्षेत्र में अध्ययन और अनुसन्धान की योजना और घरों में आग्रहपूर्वक देनी चाहिये । आज इस विषय में... बनना भी आवश्यक है । लेखकों ने इस विषय को लेकर सर्वत्र उदासीनता दिखाई देती है। उसका त्याग करना... युगानुकूल स्वरूप का. साहित्य निर्माण करने की चाहिये । उसके स्थान पर विनय, सख्त्रीदाक्षिण्य (खियों के... आवश्यकता है । काम पुरुषार्थ ठीक होने से अर्थ पुरुषार्थ प्रति सम्मानजनक व्यवहार) मर्यादा आदि की शिक्षा छात्रों. भी ठीक होता है । काम और अर्थ ठीक होने से समृद्धि को प्राप्त होनी चाहिये । पतिपत्नी के सम्बन्धों को. प्राप्त होती है। सुख और आनन्द प्राप्त होते हैं। कामुकता से मुक्त कर एकात्मता की ओर विकसित करना. इहलौकिक जीवन अच्छा बनता है ।
| + | # यौनशिक्षा भी तरुणों की शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। परन्तु यह सामूहिक शिक्षा का विषय नहीं है। वह व्यक्तिगत शिक्षा का विषय है। वह शास्त्रीय रूप में विद्यालय में और व्यावहारिक रूप में परिवार में देने की अनिवार्य व्यवस्था होनी चाहिये । इसके अभाव में ही लोगों का कामजीवन भटक जाता है। |
− | # ####
| + | # विवाह होने तक ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य | बनाना चाहिये। इसे नकारने वाला समाज अत्यन्त असंस्कारी होता है। ब्रह्मचर्य पालन को सहज बनाने वाले आहार विहार की चिन्ता करनी चाहिये । इसे आग्रहपूर्वक समाज की तथा छात्रों की मानसिकता में प्रतिष्ठित करना चाहिये । सामाजिक शिष्टाचार का यह एक महत्वपूर्ण अंग बनना चाहिये । |
| + | # काम पुरुषार्थ के लिये शिक्षा कैसी हो इसका यहाँ अत्यन्त संक्षिप्त विवेचन किया गया है। इसके एक एक बिन्दु का अधिक विवेचन स्वतन्त्र रूप से करने की आवश्यकता है। शिक्षा में सर्वथा उपेक्षित यह विषय पुनः स्थान प्राप्त करे, इस दृष्टि से शिक्षाविदों और समाजहितचिंतकों को प्रयास करने चाहिये । धर्माचार्यो को इस विषय को अपने उपदेश का विषय बनाना चाहिये। कला, साहित्य, खेल आदि क्षेत्रों में भी इस विषय की चर्चा होनी चाहिये। सबसे मुख्य स्थान घर है। परिवारशिक्षा को एक स्वतन्त्र विषय बनाने से और उसमें इसे महत्त्वपूर्ण स्थान देने से कुछ परिणाम मिल सकता है। उच्चशिक्षा के क्षेत्र में अध्ययन और अनुसन्धान की योजना बनना भी आवश्यक है। लेखकों ने इस विषय को लेकर युगानुकूल स्वरूप को साहित्य निर्माण करने की आवश्यकता है। काम पुरुषार्थ ठीक होने से अर्थ पुरुषार्थ भी ठीक होता है। काम और अर्थ ठीक होने से समृद्धि प्राप्त होती है। सुख और आनन्द प्राप्त होते हैं। इहलौकिक जीवन अच्छा बनता है। |
| + | |
| ==References== | | ==References== |
| <references /> | | <references /> |