Line 114: |
Line 114: |
| प्रविश्य योगं ज्ञानेन सोऽपश्यत्सर्वमन्ततः। | | प्रविश्य योगं ज्ञानेन सोऽपश्यत्सर्वमन्ततः। |
| निष्प्रभेऽस्मिन्निरालोके सर्वतस्तमसावृते॥ 1-1-35 | | निष्प्रभेऽस्मिन्निरालोके सर्वतस्तमसावृते॥ 1-1-35 |
− | [[:Category:beginning of creation|''beginning of creation'']] [[:Category:beginning|''beginning'']][[:Category:creation|''creation'']] [[:Category:Egglike structure|''Egglike structure'']] [[:Category:सृष्टि |''सृष्टि'']] [[:Category:प्रारम्भ|''प्रारम्भ'']] [[:Category:अंड|''अंड'']] [[:Category:प्रकट|''प्रकट'']] [[:Category:सृष्टी के प्रारम्भ मे अंड प्रकट,|''सृष्टी के प्रारम्भ मे अंड प्रकट'']] | + | [[:Category:beginning of creation|''beginning of creation'']] [[:Category:beginning|''beginning'']][[:Category:creation|''creation'']] [[:Category:Egglike structure|''Egglike structure'']] [[:Category:सृष्टि |''सृष्टि'']] [[:Category:प्रारम्भ|''प्रारम्भ'']] [[:Category:अंड|''अंड'']] [[:Category:प्रकट|''प्रकट'']] [[:Category:सृष्टि के प्रारम्भ मे अंड प्रकट,|''सृष्टि के प्रारम्भ मे अंड प्रकट'']] |
| | | |
| बृहदण्डमभूदेकं प्रजानां बीजमव्ययम्। | | बृहदण्डमभूदेकं प्रजानां बीजमव्ययम्। |
Line 306: |
Line 306: |
| ससदस्यैः सहासीनः श्रावयामास भारतम्। | | ससदस्यैः सहासीनः श्रावयामास भारतम्। |
| कर्मान्तरेषु यज्ञस्य चोद्यमानः पुनः पुनः॥ 1-1-106 | | कर्मान्तरेषु यज्ञस्य चोद्यमानः पुनः पुनः॥ 1-1-106 |
− | [[:Category:Vyasdev|''Vyasdev'']] [[:Category:beget|''beget'']] [[:Category:Dhrtarashtra|''Dhrtarashtra'']] | + | [[:Category:Vyasdev|''Vyasdev'']] [[:Category:beget|''beget'']] [[:Category:Dhrtarashtra|''Dhrtarashtra'']] [[:Category:Pandu|''Pandu'']] [[:Category:Vidur|''Vidur'']] [[:Category:व्यासदेव|''व्यासदेव'']] [[:Category:तीन|''तीन'']] [[:Category:पुत्र|''पुत्र'']] [[:Category:धृतराष्ट्र|''धृतराष्ट्र'']] [[:Category:पाण्डु|''पाण्डु'']] [[:Category:विदुर|''विदुर'']] |
− | [[:Category:Pandu|''Pandu'']] [[:Category:Vidur|''Vidur'']] [[:Category:व्यासदेव|''व्यासदेव'']] [[:Category:तीन|''तीन'']]
| |
− | [[:Category:पुत्र|''पुत्र'']] [[:Category:धृतराष्ट्र|''धृतराष्ट्र'']] [[:Category:पाण्डु|''पाण्डु'']] [[:Category:विदुर|''विदुर'']]
| |
| | | |
| विस्तरं कुरुवंशस्य गान्धार्या धर्मशीलताम्। | | विस्तरं कुरुवंशस्य गान्धार्या धर्मशीलताम्। |
Line 320: |
Line 318: |
| ततोऽप्यर्धशतं भूयः संक्षेपं कृतवानृषिः। | | ततोऽप्यर्धशतं भूयः संक्षेपं कृतवानृषिः। |
| अनुक्रमणिकाध्यायं वृत्तानां[न्तं] सर्वपर्वणाम्॥ 1-1-111 | | अनुक्रमणिकाध्यायं वृत्तानां[न्तं] सर्वपर्वणाम्॥ 1-1-111 |
− | [[:Category:Mahabharata|''Mahabharata'']] [[:Category:Contents|''Contents'']] [[:Category:महाभारत|''महाभारत'']] | + | [[:Category:Mahabharata|''Mahabharata'']] [[:Category:Contents|''Contents'']] [[:Category:महाभारत|''महाभारत'']] [[:Category:विषय|''विषय'']] [[:Category:महाभारतके विषय|''महाभारतके विषय'']] |
− | [[:Category:विषय|''विषय'']] [[:Category:महाभारतके विषय|''महाभारतके विषय'']]
| |
| | | |
| इदं द्वैपायनः पूर्वं पुत्रमध्यापयच्छुकम्। | | इदं द्वैपायनः पूर्वं पुत्रमध्यापयच्छुकम्। |
| ततोऽन्येभ्योऽनुरूपेभ्यः शिष्येभ्यः प्रददौ विभुः॥ 1-1-112 | | ततोऽन्येभ्योऽनुरूपेभ्यः शिष्येभ्यः प्रददौ विभुः॥ 1-1-112 |
− | [[:Category:Vyasdev|''Vyasdev'']] [[:Category:teaches|''teaches'']] [[:Category:Mahabharata|''Mahabharata'']] | + | [[:Category:Vyasdev|''Vyasdev'']] [[:Category:teaches|''teaches'']] [[:Category:Mahabharata|''Mahabharata'']] [[:Category:Sukhdev|''Sukhdev'']] [[:Category:Goswami|''Goswami'']] [[:Category:Sukhdev Goswami|''Sukhdev Goswami'']] [[:Category:व्यासदेव|''व्यासदेव'']] [[:Category:सुखदेव|''सुखदेव'']] [[:Category:गोस्वामी|''गोस्वामी'']] [[:Category:सुखदेव गोस्वामी|''सुखदेव गोस्वामी'']] |
− | [[:Category:Sukhdev|''Sukhdev'']] [[:Category:Goswami|''Goswami'']] [[:Category:Sukhdev Goswami|''Sukhdev Goswami'']] | |
− | [[:Category:व्यासदेव|''व्यासदेव'']] [[:Category:सुखदेव|''सुखदेव'']] [[:Category:गोस्वामी|''गोस्वामी'']] [[:Category:सुखदेव गोस्वामी|''सुखदेव गोस्वामी'']]
| |
| | | |
| षष्टिं शतसहस्राणि चकारान्यां स संहिताम्। | | षष्टिं शतसहस्राणि चकारान्यां स संहिताम्। |
Line 405: |
Line 400: |
| मणिकाञ्चनरत्नानि गोहस्त्यश्वरथानि च। | | मणिकाञ्चनरत्नानि गोहस्त्यश्वरथानि च। |
| विचित्राणि च वासांसि प्रावारावरणानि च॥ 1-1-139 | | विचित्राणि च वासांसि प्रावारावरणानि च॥ 1-1-139 |
− | [[:Category:Rajasuya|''Rajasuya'']] [[:Category:sacrifice|''sacrifice'']] [[:Category:Rajasuya sacrifice|''Rajasuya sacrifice'']] | + | [[:Category:Rajasuya|''Rajasuya'']] [[:Category:sacrifice|''sacrifice'']] [[:Category:Rajasuya sacrifice|''Rajasuya sacrifice'']] [[:Category:राजसूय|''राजसूय'']] [[:Category:महायज्ञ|''महायज्ञ'']] [[:Category:राजसूय महायज्ञ|''राजसूय महायज्ञ'']] |
− | [[:Category:राजसूय|''राजसूय'']] [[:Category:महायज्ञ|''महायज्ञ'']] [[:Category:राजसूय महायज्ञ|''राजसूय महायज्ञ'']]
| |
− | | |
| | | |
| कम्बलाजिनरत्नानि राङ्कवास्तरणानि च। | | कम्बलाजिनरत्नानि राङ्कवास्तरणानि च। |
Line 417: |
Line 410: |
| प्रत्यक्षं वासुदेवस्य भीमेनानभिजातवत्। | | प्रत्यक्षं वासुदेवस्य भीमेनानभिजातवत्। |
| स भोगान्विविधान्भुञ्जन्रत्नानि विविधानि च॥ 1-1-143 | | स भोगान्विविधान्भुञ्जन्रत्नानि विविधानि च॥ 1-1-143 |
| + | [[:Category:Duryodhana|''Duryodhana'']] [[:Category:Jealousy|''Jealousy'']] [[:Category:Insult|''Insult'']] [[:Category:दुर्योधन|''दुर्योधन'']] [[:Category:ईर्ष्या|''ईर्ष्या'']] [[:Category:अपमान|''अपमान'']] [[:Category:दुर्योधनकी ईर्ष्या|''दुर्योधनकी ईर्ष्या'']] |
| + | |
| कथितो धृतराष्ट्रस्य विवर्णो हरिणः कृशः। | | कथितो धृतराष्ट्रस्य विवर्णो हरिणः कृशः। |
− | [[:Category:Duryodhana|''Duryodhana'']] [[:Category:Jealousy|''Jealousy'']] [[:Category:Insult|''Insult'']] | + | अन्वजानात्ततो द्यूतं धृतराष्ट्रः सुतप्रियः॥ 1-1-144 |
− | [[:Category:दुर्योधन|''दुर्योधन'']] [[:Category:ईर्ष्या|''ईर्ष्या'']] [[:Category:अपमान|''अपमान'']] [[:Category:दुर्योधनकी ईर्ष्या|''दुर्योधनकी ईर्ष्या'']]
| + | [[:Category:gambling|''gambling'']] [[:Category:match|''match'']] [[:Category:invite|''invite'']] [[:Category:gambling match invite|''gambling match invite'']] [[:Category:पांडवोके साथ जुआ|''पांडवोके साथ जुआ'']] [[:Category:जुआ|''जुआ'']] [[:Category:मैच|''मैच'']] |
| | | |
− |
| |
− | अन्वजानात्ततो द्यूतं धृतराष्ट्रः सुतप्रियः॥ 1-1-144
| |
| तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य कोपः समभवन्महान्। | | तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य कोपः समभवन्महान्। |
− | [[:Category:gambling|''gambling'']] [[:Category:match|''match'']] [[:Category:invite|''invite'']]
| |
− | [[:Category:gambling match invite|''gambling match invite'']]
| |
− | [[:Category:पांडवोके साथ जुआ|''पांडवोके साथ जुआ'']] [[:Category:जुआ|''जुआ'']] [[:Category:मैच|''मैच'']]
| |
− |
| |
− |
| |
| नातिप्रीतमनाश्चासीद्विवादांश्चान्वमोदत॥ 1-1-145 | | नातिप्रीतमनाश्चासीद्विवादांश्चान्वमोदत॥ 1-1-145 |
| द्यूतादीननयान्घोरान्विविधांश्चाप्युपैक्षत। | | द्यूतादीननयान्घोरान्विविधांश्चाप्युपैक्षत। |
| निरस्य विदुरं भीष्मं द्रोणं शारद्वतं कृपम्॥ 1-1-146 | | निरस्य विदुरं भीष्मं द्रोणं शारद्वतं कृपम्॥ 1-1-146 |
| + | [[:Category:Krishna|''Krishna'']] [[:Category:Ignore|''Ignore'']] [[:Category:gambling|''gambling'']] [[:Category:match|''match'']] [[:Category:gambling match|''gambling match'']] [[:Category:उपेक्षा|''उपेक्षा'']] [[:Category:जुआ|''जुआ'']] [[:Category:मैच|''मैच'']] [[:Category:कृष्णने जुआकी उपेक्षा|''कृष्णने जुआकी उपेक्षा'']] |
| + | |
| विग्रहे तुमुले तस्मिन्दहन्क्षत्रं परस्परम्। | | विग्रहे तुमुले तस्मिन्दहन्क्षत्रं परस्परम्। |
− | [[:Category:Krishna|''Krishna'']] [[:Category:Ignore|''Ignore'']] [[:Category:gambling|''gambling'']] | + | जयत्सु पाण्डुपुत्रेषु श्रुत्वा सुमहदप्रियम्॥ 1-1-147 |
− | [[:Category:match|''match'']] [[:Category:gambling match|''gambling match'']] | + | दुर्योधनमतं ज्ञात्वा कर्णस्य शकुनेस्तथा। |
− | [[:Category:उपेक्षा|''उपेक्षा'']] [[:Category:जुआ|''जुआ'']] [[:Category:मैच|''मैच'']] [[:Category:कृष्णने जुआकी उपेक्षा|''कृष्णने जुआकी उपेक्षा'']] | + | धृतराष्ट्रश्चिरं ध्यात्वा संजयं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-148 |
− | | + | शृणु संजय सर्वं मे न चासूयितुमर्हसि। |
− | | + | श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसम्मतः॥ 1-1-149 |
− | जयत्सु पाण्डुपुत्रेषु श्रुत्वा सुमहदप्रियम्॥ 1-1-147
| + | न विग्रहे मम मति न च प्रीये कुलक्षये। |
− | | + | न मे विशेषः पुत्रेषु स्वेषु पाण्डुसुतेषु वा॥ 1-1-150 |
− | दुर्योधनमतं ज्ञात्वा कर्णस्य शकुनेस्तथा।
| + | वृद्धं मामभ्यसूयन्ति पुत्रा मन्युपरायणाः। |
− | | + | अहं त्वचक्षुः कार्पण्यात्पुत्रप्रीत्या सहामि तत्॥ 1-1-151 |
− | धृतराष्ट्रश्चिरं ध्यात्वा संजयं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-148
| + | मुह्यन्तं चानुमुह्यामि दुर्योधनमचेतनम्। |
− | | + | राजसूये श्रियं दृष्ट्वा पाण्डवस्य महौजसः॥ 1-1-152 |
− | शृणु संजय सर्वं मे न चासूयितुमर्हसि।
| + | तच्चावहसनं प्राप्य सभारोहणदर्शने। |
− | | + | अमर्षणः स्वयं जेतुमशक्तः पाण्डवान्रणे॥ 1-1-153 |
− | श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसम्मतः॥ 1-1-149
| + | निरुत्साहश्च सम्प्राप्तुं सुश्रियं क्षत्रियोऽपिसन्। |
− | | + | गान्धारराजसहितश्छद्मद्यूतममन्त्रयत्॥ 1-1-154 |
− | न विग्रहे मम मति न च प्रीये कुलक्षये।
| + | तत्र यद्यद्यथा ज्ञातं मया संजय तच्छृणु। |
− | | + | श्रुत्वा तु मम वाक्यानि बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः। |
− | न मे विशेषः पुत्रेषु स्वेषु पाण्डुसुतेषु वा॥ 1-1-150
| + | ततो ज्ञास्यसि मां सौते प्रज्ञाचक्षुषमित्युत॥ 1-1-155 |
− | | + | यदाश्रौषं धनुरायम्य चित्रं विद्धं लक्ष्यं पातितं वै पृथिव्याम्। |
− | वृद्धं मामभ्यसूयन्ति पुत्रा मन्युपरायणाः।
| + | कृष्णां हृतां प्रेक्षतां सर्वराज्ञां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-156 |
− | | + | यदाश्रौषं द्वारकायां सुभद्रां प्रसह्योढां माधवीमर्जुनेन। |
− | अहं त्वचक्षुः कार्पण्यात्पुत्रप्रीत्या सहामि तत्॥ 1-1-151
| + | इन्द्रप्रस्थं वृष्णिवीरौ च यातौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-157 |
− | | + | यदाश्रौषं देवराजं प्रविष्टं शरैर्दिव्यैर्वारितं चार्जुनेन। |
− | मुह्यन्तं चानुमुह्यामि दुर्योधनमचेतनम्।
| + | अग्निं तथा तर्पितं खाण्डवे च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-158 |
− | | + | यदाश्रौषं पुनरामन्त्र्य द्यूते महात्मनां प्रस्थितानां वनाय। |
− | राजसूये श्रियं दृष्ट्वा पाण्डवस्य महौजसः॥ 1-1-152
| + | ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ |
− | | + | यदाश्रौषं जातुषाद्वेश्मनस्तान्मुक्तान्पार्थान्पञ्च कुन्त्या समेतान्। |
− | तच्चावहसनं प्राप्य सभारोहणदर्शने।
| + | युक्तं चैषां विदुरं स्वार्थसिद्धौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-159 |
− | | + | यदाश्रौषं द्रौपदीं रङ्गमध्ये लक्ष्यं भित्त्वा निर्जितामर्जुनेन। |
− | अमर्षणः स्वयं जेतुमशक्तः पाण्डवान्रणे॥ 1-1-153
| + | शूरान्पञ्चालान्पाण्डवेयांश्च युक्तांस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-160 |
− | | + | यदाश्रौषं मागधानां वरिष्ठं जरासन्धं क्षत्रमध्ये ज्वलन्तम्। |
− | निरुत्साहश्च सम्प्राप्तुं सुश्रियं क्षत्रियोऽपिसन्।
| + | दोर्भ्यां हतं भीमसेनेन गत्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-161 |
− | | + | यदाश्रौषं दिग्जये पाण्डुपुत्रैर्वशीकृतान्भूमिपालान्प्रसह्य। |
− | गान्धारराजसहितश्छद्मद्यूतममन्त्रयत्॥ 1-1-154
| + | महाक्रतुं राजसूयं कृतं च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-162 |
− | | + | यदाश्रौषं द्रौपदीमश्रुकण्ठीं सभां नीतां दुःखितामेकवस्त्राम्। |
− | तत्र यद्यद्यथा ज्ञातं मया संजय तच्छृणु।
| + | रजस्वलां नाथवतीमनाथवत्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-163 |
− | | + | यदाश्रौषं वाससां तत्र राशिं समाक्षिपत्कितवो मन्दबुद्धिः। |
− | श्रुत्वा तु मम वाक्यानि बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः।
| + | दुःशासनो गतवान्नैव चान्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-164 |
− | | + | यदाश्रौषं हृतराज्यं युधिष्ठिरं पराजितं सौबलेनाक्षवत्याम्। |
− | ततो ज्ञास्यसि मां सौते प्रज्ञाचक्षुषमित्युत॥ 1-1-155
| + | अन्वागतं भ्रातृभिरप्रमेयैस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-165 |
− | | + | यदाश्रौषं विविधास्तत्र चेष्टा धर्मात्मनां प्रस्थितानां वनाय। |
− | यदाश्रौषं धनुरायम्य चित्रं विद्धं लक्ष्यं पातितं वै पृथिव्याम्। | + | ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-166 |
− | | + | यदाश्रौषं स्नातकानां सहस्रैरन्वागतं धर्मराजं वनस्थम्। |
− | कृष्णां हृतां प्रेक्षतां सर्वराज्ञां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-156
| + | भिक्षाभुजां ब्राह्मणानां महात्मनां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-167 |
− | | + | यदाश्रौषमर्जुनं देवदेवं किरातरूपं त्र्यम्बकं तोष्य युद्धे। |
− | यदाश्रौषं द्वारकायां सुभद्रां प्रसह्योढां माधवीमर्जुनेन। | + | अवाप्तवन्तं पाशुपतं महास्त्रं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-168 |
− | | + | (यदाश्रौषं वनवासे तु पार्थान्समागतान्महर्षिभिः पुगणैः। |
− | इन्द्रप्रस्थं वृष्णिवीरौ च यातौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-157
| + | उपास्यमानान्सगणैर्जातसख्यान्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥) |
− | | + | यदाश्रौषं त्रिदिवस्थं धनञ्जयं शक्रात्साक्षाद्दिव्यमस्त्रं यथावत्। |
− | यदाश्रौषं देवराजं प्रविष्टं शरैर्दिव्यैर्वारितं चार्जुनेन। | + | अधीयानं शंसितं सत्यसन्धं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-169 |
− | | + | यदाश्रौषं तीर्थयात्रानिवृत्तं पाण्डोस्सुतं सहितं रोमशेन। |
− | अग्निं तथा तर्पितं खाण्डवे च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-158
| + | तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ |
− | | + | यदाश्रौषं कालकेयाः ततस्ते पौलोमानो वरदानाच्च दृप्ताः। |
− | यदाश्रौषं पुनरामन्त्र्य द्यूते महात्मनां प्रस्थितानां वनाय। | + | देवैरजेया निर्जिताश्चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-170 |
− | | + | यदाश्रौषमसुराणां वधार्थे किरीटिनं यान्तममित्रकर्शनम्। |
− | ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥
| + | कृतार्थं चाप्यागतं शक्रलोकात् तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-171 |
− | | + | (यदाश्रौषं तीर्थयात्राप्रवृत्तं पाण्डोः सुतं सहितं लोमशेन। |
− | यदाश्रौषं जातुषाद्वेश्मनस्तान्मुक्तान्पार्थान्पञ्च कुन्त्या समेतान्। | + | तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥) |
− | | + | यदाश्रौषं वैश्रवणेन सार्धं समागतं भीममन्यांश्च पार्थान्। |
− | युक्तं चैषां विदुरं स्वार्थसिद्धौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-159
| + | तस्मिन्देशे मानुषाणामगम्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-172 |
− | | + | यदाश्रौषं घोषयात्रागतानां बन्धं गन्धर्वैर्मोक्षणं चार्जुनेन। |
− | यदाश्रौषं द्रौपदीं रङ्गमध्ये लक्ष्यं भित्त्वा निर्जितामर्जुनेन। | + | स्वेषां सुतानां कर्णबुद्धौ रतानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-173 |
− | | + | यदाश्रौषं यक्षरूपेण धर्मं समागतं धर्मराजेन सूत। |
− | शूरान्पञ्चालान्पाण्डवेयांश्च युक्तांस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-160
| + | प्रश्नान्कांश्चिद्विब्रुवाणं च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-174 |
− | | + | यदाश्रौषं न विदुर्मामकास्तान्प्रच्छन्नरूपान्वसतः पाण्डवेयान्। |
− | यदाश्रौषं मागधानां वरिष्ठं जरासन्धं क्षत्रमध्ये ज्वलन्तम्। | + | विराटराष्ट्रे सह कृष्णया च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-175 |
− | | + | यदाश्रौषं तान्यथाऽज्ञातवासेऽज्ञायमानान्मामकानां सकाशे। |
− | दोर्भ्यां हतं भीमसेनेन गत्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-161
| + | दक्षान्पार्थान्चरितश्चाग्निकल्पां स्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ |
− | | + | (यदाश्रौषं कीचकानां वरिष्ठं निषूदितं भ्रातृशतेन सार्धम्। |
− | यदाश्रौषं दिग्जये पाण्डुपुत्रैर्वशीकृतान्भूमिपालान्प्रसह्य। | + | द्रौपद्यर्थं भीमसेनेन संख्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥) |
− | | + | यदाश्रौषं मामकानां वरिष्ठान्धनञ्जयेनैकरथेन भग्नान्। |
− | महाक्रतुं राजसूयं कृतं च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-162
| + | विराटराष्ट्रे वसता महात्मना तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-176 |
− | | + | यदाश्रौषं सत्कृतां मत्स्यराज्ञा सुतां दत्तामुत्तरामर्जुनाय। |
− | यदाश्रौषं द्रौपदीमश्रुकण्ठीं सभां नीतां दुःखितामेकवस्त्राम्।
| + | तां चार्जुनः प्रत्यगृह्णात्सुतार्थे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-177 |
− | | + | यदाश्रौषं निर्जितस्याधनस्य प्रव्राजितस्य स्वजनात्प्रच्युतस्य। |
− | रजस्वलां नाथवतीमनाथवत्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-163
| + | अक्षौहिणीः सप्त युधिष्ठिरस्य तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-178 |
− | | + | यदाश्रौषं माधवं वासुदेवं सर्वात्मना पाण्डवार्थे निविष्टम्। |
− | यदाश्रौषं वाससां तत्र राशिं समाक्षिपत्कितवो मन्दबुद्धिः। | + | यस्येमां गां विक्रममेकमाहुस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-179 |
− | | + | यदाश्रौषं नरनारायणौ तौ कृष्णार्जुनौ वदतो नारदस्य। |
− | दुःशासनो गतवान्नैव चान्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-164
| + | अहं द्रष्टा ब्रह्मलोके च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-180 |
− | | + | यदाश्रौषं लोकहिताय कृष्णं शमार्थिनमुपयातं कुरूणाम्। |
− | यदाश्रौषं हृतराज्यं युधिष्ठिरं पराजितं सौबलेनाक्षवत्याम्। | + | शमं दुर्वार[कुर्वाण]मकृतार्थं च यातं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-181 |
− | | + | यदाश्रौषं कर्णदुर्योधनाभ्यां बुद्धिं कृतां निग्रहे केशवस्य। |
− | अन्वागतं भ्रातृभिरप्रमेयैस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-165
| + | तं चात्मानं बहुधा दर्शयानं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-182 |
− | | + | यदाश्रौषं वासुदेवे प्रयाते रथस्यैकामग्रतस्तिष्ठमानाम्। |
− | यदाश्रौषं विविधास्तत्र चेष्टा धर्मात्मनां प्रस्थितानां वनाय। | + | आर्तां पृथां सान्त्वितां केशवेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-183 |
− | | + | यदाश्रौषं मन्त्रिणं वासुदेवं तथा भीष्मं शान्तनवं च तेषाम्। |
− | ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-166
| + | भारद्वाजं चाशिषोऽनुब्रुवाणं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-184 |
− | | + | यदाश्रौषं कर्ण उवाच भीष्मं नाहं योत्स्ये युध्यमाने त्वयीति। |
− | यदाश्रौषं स्नातकानां सहस्रैरन्वागतं धर्मराजं वनस्थम्।
| + | हित्वा सेनामपचक्राम चापि तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-185 |
− | | + | यदाश्रौषं वासुदेवार्जुनौ तौ तथा धनुर्गाण्डीवमप्रमेयम्। |
− | भिक्षाभुजां ब्राह्मणानां महात्मनां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-167
| + | त्रीण्युग्रवीर्याणि समागतानि तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-186 |
− | | + | यदाश्रौषं कश्मलेनाभिपन्ने रथोपस्थे सीदमानेऽर्जुने वै। |
− | यदाश्रौषमर्जुनं देवदेवं किरातरूपं त्र्यम्बकं तोष्य युद्धे।
| + | कृष्णं लोकान्दर्शयानं शरीरे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-187 |
− | | + | यदाश्रौषं भीष्मममित्रकर्शनं निघ्नन्तमाजावयुतं रथानाम्। |
− | अवाप्तवन्तं पाशुपतं महास्त्रं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-168
| + | नैषां कश्चिद्विद्यते[बध्यते] ख्यातरूपस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-188 |
− | | + | यदाश्रौषं चापगेयेन संख्ये स्वयं मृत्युं विहितं धार्मिकेण। |
− | (यदाश्रौषं वनवासे तु पार्थान्समागतान्महर्षिभिः पुगणैः।
| + | तञ्चा[च्चा]कार्षुः पाण्डवेयाः प्रहृष्टास्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-189 |
− | | + | यदाश्रौषं भीष्ममत्यन्तशूरं विहत्य[हतं] पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्। |
− | उपास्यमानान्सगणैर्जातसख्यान्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥)
| + | शिखण्डिनं पुरतः स्थापयित्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-190 |
− | | + | यदाश्रौषं शरतल्पे शयानं वृद्धं वीरं सादितं चित्रपुङ्खैः। |
− | यदाश्रौषं त्रिदिवस्थं धनञ्जयं शक्रात्साक्षाद्दिव्यमस्त्रं यथावत्।
| + | भीष्मं कृत्वा सोमक अनल्पशेषांस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-191 |
− | | + | यदाश्रौषं शान्तनवे शयाने पानीयार्थे चोदितेनार्जुनेन। |
− | अधीयानं शंसितं सत्यसन्धं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-169
| + | भूमिं भित्त्वा तर्पितं तत्र भीष्मं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-192 |
− | | + | यदा वायुश्शक्र[श्चन्द्र]सूर्यौ च युक्तौ कौन्तेयानामनुलोमा जयाय। |
− | यदाश्रौषं तीर्थयात्रानिवृत्तं पाण्डोस्सुतं सहितं रोमशेन। | + | नित्यं चास्माञ्श्वापदा भीषयन्ति तदा नाशंसे बिजयाय संजय॥ 1-1-193 |
− | | + | यदा द्रोणो विविधानस्त्रमार्गान्निदर्शयन्समरे चित्रयोधी। |
− | तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥
| + | न पाण्डवाञ्श्रेष्ठतरान्निहन्ति तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-194 |
− | | + | यदाश्रौषं चास्मदीयान्महारथान्व्यवस्थितानर्जुनस्यान्तकाय। |
− | यदाश्रौषं कालकेयाः ततस्ते पौलोमानो वरदानाच्च दृप्ताः।
| + | संशप्तक अन्निहतानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-195 |
− | | + | यदाश्रौषं व्यूहमभेद्यमन्यैर्भारद्वाजेनात्तशस्त्रेण गुप्तम्। |
− | देवैरजेया निर्जिताश्चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-170
| + | भित्त्वा सौभद्रं वीरमेकं प्रविष्टं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-196 |
− | | + | यदाभिमन्युं परिवार्य बालं सर्वे हत्वा हृष्टरूपा बभूवुः। |
− | यदाश्रौषमसुराणां वधार्थे किरीटिनं यान्तममित्रकर्शनम्।
| + | महारथाः पार्थमशक्नुवन्तस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-197 |
− | | + | यदाश्रौषमभिमन्युं निहत्य हर्षान्मूढान्क्रोशतो धार्तराष्ट्रान्। |
− | कृतार्थं चाप्यागतं शक्रलोकात् तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-171
| + | क्रोधादुक्तं सैन्धवे चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-198 |
− | | + | यदाश्रौषं सैन्धवार्थे प्रतिज्ञां प्रतिज्ञातां तद्वधायार्जुनेन। |
− | (यदाश्रौषं तीर्थयात्राप्रवृत्तं पाण्डोः सुतं सहितं लोमशेन।
| + | सत्यां तीर्णां शत्रुमध्ये च तेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-199 |
− | | + | यदाश्रौषं श्रान्तहये धनञ्जये मुक्त्वाहयान्पाययित्वोपवृत्तान्। |
− | तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥)
| + | पुनर्युक्त्वा वासुदेवं प्रयातं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-200 |
− | | + | यदाश्रौषं वाहनेष्वक्षमेषु रथोपस्थे तिष्ठता पाण्डवेन। |
− | यदाश्रौषं वैश्रवणेन सार्धं समागतं भीममन्यांश्च पार्थान्। | + | सर्वान्योधान्वारितानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-201 |
− | | + | यदाश्रौषं नागबलैः सुदुःसहं द्रोणानीकं युयुधानं प्रमथ्य। |
− | तस्मिन्देशे मानुषाणामगम्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-172
| + | यातं वार्ष्णेयं यत्र तौ कृष्णपार्थौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-202 |
− | | + | यदाश्रौषं कर्णमासाद्य मुक्तं वधाद्भीमं कुत्सयित्वा वचोभिः। |
− | यदाश्रौषं घोषयात्रागतानां बन्धं गन्धर्वैर्मोक्षणं चार्जुनेन। | + | धनुष्कोट्याऽऽतुद्य कर्णेन वीरं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-203 |
− | | + | यदा द्रोणः कृतवर्मा कृपश्च कर्णो द्रौणिर्मद्रराजश्च शूरः। |
− | स्वेषां सुतानां कर्णबुद्धौ रतानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-173
| + | अमर्षयन्सैन्धवं वध्यमानं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-204 |
− | | + | यदाश्रौषं देवराजेन दत्तां दिव्यां शक्तिं व्यंसितां माधवेन। |
− | यदाश्रौषं यक्षरूपेण धर्मं समागतं धर्मराजेन सूत। | + | घटोत्कचे राक्षसे घोररूपे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-205 |
− | | + | यदाश्रौषं कर्णघटोत्कचाभ्यां युद्धे मुक्तां सूतपुत्रेण शक्तिम्। |
− | प्रश्नान्कांश्चिद्विब्रुवाणं च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-174
| + | यया वध्यः समरे सव्यसाची तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-206 |
− | | + | यदाश्रौषं द्रोणमाचार्यमेकं धृष्टद्युम्नेनाभ्यतिक्रम्य धर्मम्। |
− | यदाश्रौषं न विदुर्मामकास्तान्प्रच्छन्नरूपान्वसतः पाण्डवेयान्। | + | रथोपस्थे प्रायगतं विशस्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-207 |
− | | + | यदाश्रौषं द्रौणिना द्वैरथस्थं माद्रीसुतं नकुलं लोकमध्ये। |
− | विराटराष्ट्रे सह कृष्णया च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-175
| + | समं युद्धे मण्डलश[लेभ्य]श्चरन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-208 |
− | | + | यदा द्रोणे निहते द्रोणपुत्रो नारायणं दिव्यमस्त्रं विकुर्वन्। |
− | यदाश्रौषं तान्यथाऽज्ञातवासेऽज्ञायमानान्मामकानां सकाशे। | + | नैषामन्तं गतवान्पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-209 |
− | | + | यदाश्रौषं भीमसेनेन पीतं रक्तं भ्रातुर्युधि दुःशासनस्य। |
− | दक्षान्पार्थान्चरितश्चाग्निकल्पां स्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥
| + | निवारितं नान्यतमेन भीमं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-210 |
− | | + | यदाश्रौषं कर्णमत्यन्तशूरं हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्। |
− | (यदाश्रौषं कीचकानां वरिष्ठं निषूदितं भ्रातृशतेन सार्धम्।
| + | तस्मिन्भ्रातॄणां विग्रहे देवगुह्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-211 |
− | | + | यदाश्रौषं द्रोणपुत्रं च शूरं दुःशासनं कृतवर्माणमुग्रम्। |
− | द्रौपद्यर्थं भीमसेनेन संख्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥)
| + | युधिष्ठिरं धर्मराजं जयन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-212 |
− | | + | यदाश्रौषं निहतं मद्रराजं रणे शूरं धर्मराजेन सूत। |
− | यदाश्रौषं मामकानां वरिष्ठान्धनञ्जयेनैकरथेन भग्नान्। | + | सदा संग्रामे स्पर्धते यस्तु कृष्णं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-213 |
− | | + | यदाश्रौषं कलहद्यूतमूलं मायाबलं सौबलं पाण्डवेन। |
− | विराटराष्ट्रे वसता महात्मना तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-176
| + | हतं संग्रामे सहदेवेन पापं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-214 |
− | | + | यदाश्रौषं श्रान्तमेकं शयानं ह्रदं गत्वा स्तम्भयित्वा तदम्भः। |
− | यदाश्रौषं सत्कृतां मत्स्यराज्ञा सुतां दत्तामुत्तरामर्जुनाय। | + | दुर्योधनं विरतं भग्नशक्तिं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-215 |
− | | + | यदाश्रोषं पाण्डवांस्तिष्ठमानान्गत्वा ह्रदे वासुदेवेन सार्धम्। |
− | तां चार्जुनः प्रत्यगृह्णात्सुतार्थे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-177
| + | अमर्षणं धर्षयतः सुतं मे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-216 |
− | | + | यदाश्रौषं विविधांश्चित्रमार्गान्गदायुद्धे मण्डलशश्चरन्तम्। |
− | यदाश्रौषं निर्जितस्याधनस्य प्रव्राजितस्य स्वजनात्प्रच्युतस्य। | + | मिथ्याहतं वासुदेवस्य बुद्ध्या तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-217 |
− | | + | यदाश्रौषं द्रोणपुत्रादिभिस्तैहृतान्पञ्चालान्द्रौपदेयांश्चसुप्तान्। |
− | अक्षौहिणीः सप्त युधिष्ठिरस्य तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-178
| + | कृतं बीभत्समयशस्यं च कर्म तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-218 |
− | | + | यदाश्रौषं भीमसेनानुयातेनाश्वत्थाम्ना परमास्त्रं प्रयुक्तम्। |
− | यदाश्रौषं माधवं वासुदेवं सर्वात्मना पाण्डवार्थे निविष्टम्। | + | क्रुद्धेनैषीकमवधीद्येन गर्भं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-219 |
− | | + | यदाश्रौषं ब्रह्मशिरोऽर्जुनेन स्वस्तीत्युक्त्वास्त्रमस्त्रेण शान्तम्। |
− | यस्येमां गां विक्रममेकमाहुस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-179
| + | अश्वत्थाम्ना मणिरत्नं च दत्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-220 |
− | | + | यदाश्रौषं द्रोणपुत्रेण गर्भे वैराट्या वै पात्यमाने महास्त्रैः। |
− | यदाश्रौषं नरनारायणौ तौ कृष्णार्जुनौ वदतो नारदस्य। | + | द्वैपायनः केशवो द्रोणपुत्रं परस्परेणाभिशापैः शशाप॥ 1-1-221 |
− | | + | शोच्या गान्धारी पुत्रपौत्रैविहीना तथा बन्धुभिः पितृभिर्भ्रातृभिश्च। |
− | अहं द्रष्टा ब्रह्मलोके च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-180
| + | कृतं कार्यं दुष्करं पाण्डवेयैः प्राप्तं राज्यमसपत्नं पुनस्तैः॥ 1-1-222 |
− | | + | कष्टं युद्धे दश शेषाः श्रुता मे त्रयोऽस्माकं पाण्डवानां च सप्त। |
− | यदाश्रौषं लोकहिताय कृष्णं शमार्थिनमुपयातं कुरूणाम्। | + | द्व्यूना विंशतिराहताक्षौहिणीनां तस्मिन्संग्रामे भैरवे क्षत्रियाणाम्॥ 1-1-223 |
− | | + | तमस्त्वतीव विस्तीर्णं मोह आविशतीव माम्। |
− | शमं दुर्वार[कुर्वाण]मकृतार्थं च यातं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-181
| + | संज्ञां नोपलभे सूत मनो विह्वलतीव मे॥ 1-1-224 |
− | | + | [[:Category:Dhrtarashtra|''Dhrtarashtra'']] [[:Category:Discussion|''Discussion'']] [[:Category:Sanjay|''Sanjay'']] [[:Category:reasons|''reasons'']] [[:Category:hope|''hope'']] [[:Category:loss of hope|''loss of hope'']] [[:Category:victory|''victory'']] [[:Category:धृतराष्ट्र|''धृतराष्ट्र'']] [[:Category:वार्तालाप|''वार्तालाप'']] [[:Category:संजय|''संजय'']] [[:Category:कारण|''कारण'']] [[:Category:विजय|''विजय'']] [[:Category:आशा|''आशा'']] [[:Category:ध्रतराष्ट्रका संजयके साथ वार्तालाप|''ध्रतराष्ट्रका संजयके साथ वार्तालाप'']] [[:Category:ध्रतराष्ट्रने विजयकी आशा छोड़ने के कारण|''ध्रतराष्ट्रने विजयकी आशा छोड़ने के कारण'']] |
− | यदाश्रौषं कर्णदुर्योधनाभ्यां बुद्धिं कृतां निग्रहे केशवस्य। | |
− | | |
− | तं चात्मानं बहुधा दर्शयानं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-182
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं वासुदेवे प्रयाते रथस्यैकामग्रतस्तिष्ठमानाम्। | |
− | | |
− | आर्तां पृथां सान्त्वितां केशवेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-183
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं मन्त्रिणं वासुदेवं तथा भीष्मं शान्तनवं च तेषाम्। | |
− | | |
− | भारद्वाजं चाशिषोऽनुब्रुवाणं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-184
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं कर्ण उवाच भीष्मं नाहं योत्स्ये युध्यमाने त्वयीति। | |
− | | |
− | हित्वा सेनामपचक्राम चापि तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-185
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं वासुदेवार्जुनौ तौ तथा धनुर्गाण्डीवमप्रमेयम्। | |
− | | |
− | त्रीण्युग्रवीर्याणि समागतानि तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-186
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं कश्मलेनाभिपन्ने रथोपस्थे सीदमानेऽर्जुने वै। | |
− | | |
− | कृष्णं लोकान्दर्शयानं शरीरे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-187
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं भीष्मममित्रकर्शनं निघ्नन्तमाजावयुतं रथानाम्।
| |
− | | |
− | नैषां कश्चिद्विद्यते[बध्यते] ख्यातरूपस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-188
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं चापगेयेन संख्ये स्वयं मृत्युं विहितं धार्मिकेण।
| |
− | | |
− | तञ्चा[च्चा]कार्षुः पाण्डवेयाः प्रहृष्टास्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-189
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं भीष्ममत्यन्तशूरं विहत्य[हतं] पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्।
| |
− | | |
− | शिखण्डिनं पुरतः स्थापयित्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-190
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं शरतल्पे शयानं वृद्धं वीरं सादितं चित्रपुङ्खैः। | |
− | | |
− | भीष्मं कृत्वा सोमक अनल्पशेषांस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-191
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं शान्तनवे शयाने पानीयार्थे चोदितेनार्जुनेन।
| |
− | | |
− | भूमिं भित्त्वा तर्पितं तत्र भीष्मं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-192
| |
− | | |
− | यदा वायुश्शक्र[श्चन्द्र]सूर्यौ च युक्तौ कौन्तेयानामनुलोमा जयाय।
| |
− | | |
− | नित्यं चास्माञ्श्वापदा भीषयन्ति तदा नाशंसे बिजयाय संजय॥ 1-1-193
| |
− | | |
− | यदा द्रोणो विविधानस्त्रमार्गान्निदर्शयन्समरे चित्रयोधी।
| |
− | | |
− | न पाण्डवाञ्श्रेष्ठतरान्निहन्ति तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-194
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं चास्मदीयान्महारथान्व्यवस्थितानर्जुनस्यान्तकाय। | |
− | | |
− | संशप्तक अन्निहतानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-195
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं व्यूहमभेद्यमन्यैर्भारद्वाजेनात्तशस्त्रेण गुप्तम्। | |
− | | |
− | भित्त्वा सौभद्रं वीरमेकं प्रविष्टं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-196
| |
− | | |
− | यदाभिमन्युं परिवार्य बालं सर्वे हत्वा हृष्टरूपा बभूवुः।
| |
− | | |
− | महारथाः पार्थमशक्नुवन्तस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-197
| |
− | | |
− | यदाश्रौषमभिमन्युं निहत्य हर्षान्मूढान्क्रोशतो धार्तराष्ट्रान्।
| |
− | | |
− | क्रोधादुक्तं सैन्धवे चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-198
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं सैन्धवार्थे प्रतिज्ञां प्रतिज्ञातां तद्वधायार्जुनेन।
| |
− | | |
− | सत्यां तीर्णां शत्रुमध्ये च तेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-199
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं श्रान्तहये धनञ्जये मुक्त्वाहयान्पाययित्वोपवृत्तान्। | |
− | | |
− | पुनर्युक्त्वा वासुदेवं प्रयातं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-200
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं वाहनेष्वक्षमेषु रथोपस्थे तिष्ठता पाण्डवेन। | |
− | | |
− | सर्वान्योधान्वारितानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-201
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं नागबलैः सुदुःसहं द्रोणानीकं युयुधानं प्रमथ्य। | |
− | | |
− | यातं वार्ष्णेयं यत्र तौ कृष्णपार्थौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-202
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं कर्णमासाद्य मुक्तं वधाद्भीमं कुत्सयित्वा वचोभिः। | |
− | | |
− | धनुष्कोट्याऽऽतुद्य कर्णेन वीरं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-203
| |
− | | |
− | यदा द्रोणः कृतवर्मा कृपश्च कर्णो द्रौणिर्मद्रराजश्च शूरः। | |
− | | |
− | अमर्षयन्सैन्धवं वध्यमानं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-204
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं देवराजेन दत्तां दिव्यां शक्तिं व्यंसितां माधवेन।
| |
− | | |
− | घटोत्कचे राक्षसे घोररूपे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-205
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं कर्णघटोत्कचाभ्यां युद्धे मुक्तां सूतपुत्रेण शक्तिम्। | |
− | | |
− | यया वध्यः समरे सव्यसाची तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-206
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं द्रोणमाचार्यमेकं धृष्टद्युम्नेनाभ्यतिक्रम्य धर्मम्। | |
− | | |
− | रथोपस्थे प्रायगतं विशस्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-207
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं द्रौणिना द्वैरथस्थं माद्रीसुतं नकुलं लोकमध्ये। | |
− | | |
− | समं युद्धे मण्डलश[लेभ्य]श्चरन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-208
| |
− | | |
− | यदा द्रोणे निहते द्रोणपुत्रो नारायणं दिव्यमस्त्रं विकुर्वन्।
| |
− | | |
− | नैषामन्तं गतवान्पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-209
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं भीमसेनेन पीतं रक्तं भ्रातुर्युधि दुःशासनस्य।
| |
− | | |
− | निवारितं नान्यतमेन भीमं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-210
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं कर्णमत्यन्तशूरं हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्। | |
− | | |
− | तस्मिन्भ्रातॄणां विग्रहे देवगुह्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-211
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं द्रोणपुत्रं च शूरं दुःशासनं कृतवर्माणमुग्रम्।
| |
− | | |
− | युधिष्ठिरं धर्मराजं जयन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-212
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं निहतं मद्रराजं रणे शूरं धर्मराजेन सूत। | |
− | | |
− | सदा संग्रामे स्पर्धते यस्तु कृष्णं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-213
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं कलहद्यूतमूलं मायाबलं सौबलं पाण्डवेन। | |
− | | |
− | हतं संग्रामे सहदेवेन पापं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-214
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं श्रान्तमेकं शयानं ह्रदं गत्वा स्तम्भयित्वा तदम्भः। | |
− | | |
− | दुर्योधनं विरतं भग्नशक्तिं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-215
| |
− | | |
− | यदाश्रोषं पाण्डवांस्तिष्ठमानान्गत्वा ह्रदे वासुदेवेन सार्धम्।
| |
− | | |
− | अमर्षणं धर्षयतः सुतं मे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-216
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं विविधांश्चित्रमार्गान्गदायुद्धे मण्डलशश्चरन्तम्।
| |
− | | |
− | मिथ्याहतं वासुदेवस्य बुद्ध्या तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-217
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं द्रोणपुत्रादिभिस्तैहृतान्पञ्चालान्द्रौपदेयांश्चसुप्तान्।
| |
− | | |
− | कृतं बीभत्समयशस्यं च कर्म तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-218
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं भीमसेनानुयातेनाश्वत्थाम्ना परमास्त्रं प्रयुक्तम्।
| |
− | | |
− | क्रुद्धेनैषीकमवधीद्येन गर्भं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-219
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं ब्रह्मशिरोऽर्जुनेन स्वस्तीत्युक्त्वास्त्रमस्त्रेण शान्तम्।
| |
− | | |
− | अश्वत्थाम्ना मणिरत्नं च दत्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-220
| |
− | | |
− | यदाश्रौषं द्रोणपुत्रेण गर्भे वैराट्या वै पात्यमाने महास्त्रैः।
| |
− | | |
− | द्वैपायनः केशवो द्रोणपुत्रं परस्परेणाभिशापैः शशाप॥ 1-1-221
| |
− | | |
− | शोच्या गान्धारी पुत्रपौत्रैविहीना तथा बन्धुभिः पितृभिर्भ्रातृभिश्च।
| |
− | | |
− | कृतं कार्यं दुष्करं पाण्डवेयैः प्राप्तं राज्यमसपत्नं पुनस्तैः॥ 1-1-222
| |
− | | |
− | कष्टं युद्धे दश शेषाः श्रुता मे त्रयोऽस्माकं पाण्डवानां च सप्त।
| |
− | | |
− | द्व्यूना विंशतिराहताक्षौहिणीनां तस्मिन्संग्रामे भैरवे क्षत्रियाणाम्॥ 1-1-223
| |
− | | |
− | तमस्त्वतीव विस्तीर्णं मोह आविशतीव माम्।
| |
− | | |
− | संज्ञां नोपलभे सूत मनो विह्वलतीव मे॥ 1-1-224
| |
− | | |
− | सौतिरुवाच इत्युक्त्वा धृतराष्ट्रोऽथ विलप्य बहुदुःखितः।
| |
− | | |
− | मूर्च्छितः पुनराश्वस्तः संजयं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-225
| |
− | | |
− | धृतराष्ट्र उवाच संजयैवं गते प्राणांस्त्यक्तुमिच्छामि मा चिरम्।
| |
− | | |
− | स्तोकं ह्यपि न पश्यामि फलं जीवितधारणे॥ 1-1-226
| |
− | | |
− | सौतिरुवाच तं तथावादिनं दीनं विलपन्तं महीपतिम्।
| |
− | | |
− | निःश्वसन्तं यथा नागं मुह्यमानं पुनः पुनः।
| |
− | | |
− | गावल्गणिरिदं धीमान्महार्थं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-227
| |
− | | |
− | संजय उवाच श्रुतवानसि वै राजन्महोत्साहान्महाबलान्।
| |
− | | |
− | द्वैपायनस्य वदतो नारदस्य च धीमतः॥ 1-1-228
| |
− | | |
− | महत्सु राजवंशेषु गुणैः समुदितेषु च।
| |
− | | |
− | जातान्दिव्यास्त्रविदुषः शक्रप्रतिमतेजसः॥ 1-1-229
| |
− | | |
− | धर्मेण पृथिवीं जित्वा यज्ञैरिष्ट्वाप्तदक्षिणैः।
| |
− | | |
− | अस्मिँल्लोके यशः प्राप्य ततः कालवशंगतान्॥ 1-1-230
| |
− | | |
− | शैब्यं महारथं वीरं सृञ्जयं जयतां वरम्।
| |
− | | |
− | सुहोत्रं रन्तिदेवं च काक्षीवन्तम्महाद्युतिम्[मथौशिजम्]॥ 1-1-231
| |
− | | |
− | बाह्लीकं दमनं चैव[द्यं] शर्यातिमजितं नलम्।
| |
− | | |
− | विश्वामित्रममित्रघ्नमम्बरीषं महाबलम्॥ 1-1-232
| |
− | | |
− | मरुत्तं मनुमिक्ष्वाकुं गयं भरतमेव च।
| |
− | | |
− | रामं दाशरथिं चैव शशबिन्दुं भगीरथम्॥ 1-1-233
| |
− | | |
− | कृतवीर्यं महाभागं तथैव जनमेजयम्।
| |
− | | |
− | ययातिं शुभकर्माणं देवैर्यो याजितः स्वयम्॥ 1-1-234
| |
− | | |
− | चैत्ययूपाङ्किता भूमिर्यस्येयं सवनाकरा।
| |
− | | |
− | इति राज्ञां चतुर्विंशन्नारदेन सुरर्षिणा॥ 1-1-235
| |
− | | |
− | पुत्रशोकाभितप्ताय पुरा श्यैब्या[श्वैत्या]य कीर्तितम्।
| |
− | | |
− | तेभ्यश्चान्ये गताः पूर्वं राजानो बलवत्तराः॥ 1-1-236
| |
− | | |
− | महारथा महात्मानः सर्वैः समुदिता गुणैः।
| |
− | | |
− | पूरुः कुरुर्यदुः शूरो विष्वगश्वो महाद्युतिः॥ 1-1-237
| |
− | | |
− | अणुहो युवनाश्वश्च ककुत्स्थो विक्रमी रघुः।
| |
− | | |
− | विजयो वीतिहोत्रोऽङ्गो भवः श्वेतो बृहद्गुरुः॥ 1-1-238
| |
− | | |
− | उशीनरः शतरथः कङ्को दुलिदुहो द्रुमः।
| |
− | | |
− | दम्भोद्भवः परो वेनः सगरः संकृतिर्निमिः॥ 1-1-239
| |
− | | |
− | अजेयः परशुः पुण्ड्रः शम्भुर्देवावृधोऽनघः।
| |
− | | |
− | देवाह्वयः सुप्रतिमः सुप्रतीको बृहद्रथः॥ 1-1-240
| |
− | | |
− | महोत्साहो विनीतात्मा सुक्रतुः नैषधो नलः।
| |
− | | |
− | सत्यव्रतः शान्तभयः सुमित्रः सुबलः प्रभुः॥ 1-1-241
| |
− | | |
− | जानुजङ्घोऽनरण्योऽर्कः प्रियभृत्यः शुभ[चि]व्रतः।
| |
− | | |
− | बलबन्धुर्निरामर्दः केतुशृङ्गो बृहद्बलः।
| |
− | | |
− | धृष्टकेतुर्बृहत्केतुर्दीप्तकेतुर्निरामयः॥ 1-1-242
| |
− | | |
− | अवीक्षिच्चपलो धूर्तः कृतबन्धुर्दृढेषुधिः।
| |
− | | |
− | महापुराणसम्भाव्यः प्रत्यङ्गः परहा श्रुतिः॥ 1-1-243
| |
− | | |
− | एते चान्ये च राजानः शतशोऽथ सहस्रशः।
| |
− | | |
− | श्रूयन्ते शतशश्चान्ये संख्याताश्चैव पद्मशः॥ 1-1-244
| |
− | | |
− | हित्वा सुविपुलान्भोगान्बुद्धिमन्तोमहाबलाः।
| |
− | | |
− | राजानो निधनं प्राप्तास्तव पुत्रा इव प्रभो॥ 1-1-245
| |
− | | |
− | येषां दिव्यानि कर्माणि विक्रमस्त्याग एव च।
| |
− | | |
− | माहात्म्यमपि चास्तिक्यंसत्यंशौचं दयार्जवम्॥ 1-1-246
| |
− | | |
− | विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः।
| |
− | | |
− | सर्वर्द्धिगुणसम्पन्नास्ते चापि निधनं गताः॥ 1-1-247
| |
− | | |
− | तव पुत्रा दुरात्मानः प्रतप्ताश्चैव मन्युना।
| |
− | | |
− | लुब्धा दुर्वृत्तभूयिष्ठा न ताञ्छोचितुमर्हसि॥ 1-1-248
| |
− | | |
− | श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसम्मतः।
| |
− | | |
− | येषां शास्त्रानुगा बुद्धिर्न ते मुह्यन्ति भारत॥ 1-1-249
| |
− | | |
− | निग्रहानुग्रहौ चापि विदितौ ते नराधिप।
| |
− | | |
− | नात्यन्तमेवानुवृत्तिः कार्या ते पुत्ररक्षणे॥ 1-1-250
| |
− | | |
− | भवितव्यं तथा तच्च नानुशोचितुमर्हसि।
| |
− | | |
− | दैवं प्रज्ञाविशेषेण को निवर्तितुमर्हति॥ 1-1-251
| |
− | | |
− | विधातृविहितं मार्गं न कश्चिदतिवर्तते।
| |
− | | |
− | कालमूलमिदं सर्वं भावाभावौ सुखासुखे॥ 1-1-252
| |
− | | |
− | कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।
| |
− | | |
− | कालः प्रजाः निर्दहति[संहरन्तं प्रजाः कालं] कालः शमयते पुनः॥ 1-1-253
| |
− | | |
− | कालो हि कुरुते भावान्सर्वलोके शुभाशुभान्।
| |
− | | |
− | कालः संक्षिपते सर्वाः प्रजा विसृजते पुनः॥ 1-1-254
| |
− | | |
− | कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः।
| |
− | | |
− | कालः सर्वेषु भूतेषु चरत्यविधृतः समः॥ 1-1-255
| |
− | | |
− | अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति साम्प्रतम्।
| |
− | | |
− | तान्कालनिर्मितान्बुद्धवा न संज्ञां हातुमर्हसि॥ 1-1-256
| |
− | | |
− | सौतिरुवाच इत्येवं पुत्रशोकार्तं धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्।
| |
− | | |
− | आश्वास्य स्वस्थमकरोत्सूतो गावल्गणिस्तदा॥ 1-1-257
| |
− | | |
− | अत्रोपनिषदं पुण्यां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्।
| |
− | | |
− | विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः॥ 1-1-258
| |
− | | |
− | भारताध्ययनं पुण्यमपि पादमधीयतः।
| |
− | | |
− | श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषतः॥ 1-1-259
| |
− | | |
− | देवा देवर्षयो ह्यत्र तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः।
| |
− | | |
− | कीर्त्यन्ते शुभकर्माणस्तथा यक्षा महोरगाः॥ 1-1-260
| |
− | | |
− | भगवान्वासुदेवश्च कीर्त्यतेऽत्र सनातनः।
| |
− | | |
− | स हि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च॥ 1-1-261
| |
− | | |
− | शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योतिः सनातनम्।
| |
− | | |
− | यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिणः॥ 1-1-262
| |
− | | |
− | असच्च सदसच्चैव यस्माद्विश्वं प्रवर्तते।
| |
− | | |
− | संततिश्च प्रवृत्तिश्च जन्ममृत्युपुनर्भवाः॥ 1-1-263
| |
− | | |
− | अध्यात्मं श्रूयते यच्च पञ्चभूतगुणात्मकम्।
| |
− | | |
− | अव्यक्तादि परं यच्च स एव परिगीयते॥ 1-1-264
| |
− | | |
− | यत्तद्यतिवरा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विताः।
| |
− | | |
− | प्रतिबिम्बमिवादर्शे पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्॥ 1-1-265
| |
− | | |
− | श्रद्दधानः सदा युक्तः सदा धर्मपरायणः।
| |
− | | |
− | आसेवन्निममध्यायं नरः पापात्प्रमुच्यते॥ 1-1-266
| |
− | | |
− | अनुक्रमणिकाध्यायं भारतस्येममादितः।
| |
− | | |
− | आस्तिकः सततं शृण्वन्न कृच्छ्रेष्ववसीदति॥ 1-1-267
| |
− | | |
− | उभे संध्ये जपन्किंचित्सद्यो मुच्येत किल्बिषात्।
| |
− | | |
− | अनुक्रमण्या यावत्स्यादह्ना रात्र्या च संचितम्॥ 1-1-268
| |
− | | |
− | भारतस्य वपुर्ह्येतत्सत्यं चामृतमेव च।
| |
− | | |
− | नवनीतं यथा दध्नो द्विपदां ब्राह्मणो यथा॥ 1-1-269
| |
− | | |
− | आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्योऽमृतं यथा।
| |
− | | |
− | ह्रदानामुदधिः श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम्॥ 1-1-270
| |
− | | |
− | यथैतानीतिहासानां तथा भारतमुच्यते।
| |
− | | |
− | यश्चैनं श्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान्पादमन्ततः॥ 1-1-271
| |
− | | |
− | अक्षय्यमन्नपानं वै पितॄंस्तस्योपतिष्ठते।
| |
− | | |
− | इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्॥ 1-1-272
| |
− | | |
− | बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रत[ह]रिष्यति।
| |
− | | |
− | कार्ष्णं वेदमिमं विद्वान्श्रावयित्वार्थमश्नुते॥ 1-1-273
| |
− | | |
− | भ्रूणहत्यादिकं चापि पापं जह्यादसंशयम्।
| |
− | | |
− | य इमं शुचिरध्यायं पठेत्पर्वणि पर्वणि॥ 1-1-274
| |
− | | |
− | अधीतं भारतं तेन कृत्स्नं स्यादिति मे मतिः।
| |
− | | |
− | यश्यैनं शृणुयान्नित्यमार्षं श्रद्धासमन्वितः॥ 1-1-275
| |
− | | |
− | स दीर्घमायुः कीर्तिं च स्वर्गतिं चाप्नुयान्नरः।
| |
− | | |
− | एकतश्चतुरो वेदान्भारतं चैतदेकतः॥ 1-1-276
| |
− | | |
− | पुरा किल सुरैः सर्वैः समेत्य तुलया धृतम्।
| |
− | | |
− | चतुर्भ्यः सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो ह्यधिकं यदा॥ 1-1-277
| |
− | | |
− | तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन्महाभारतमुच्यते।
| |
− | | |
− | महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं यतोऽधिकम्॥ 1-1-278
| |
− | | |
− | महत्त्वाद्भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते।
| |
− | | |
− | निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ 1-1-279
| |
− | | |
− | तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः।
| |
| | | |
− | प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्कस्तान्येव भावोपहतानि कल्कः॥ 1-1-280
| + | सौतिरुवाच इत्युक्त्वा धृतराष्ट्रोऽथ विलप्य बहुदुःखितः। |
| + | मूर्च्छितः पुनराश्वस्तः संजयं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-225 |
| + | धृतराष्ट्र उवाच संजयैवं गते प्राणांस्त्यक्तुमिच्छामि मा चिरम्। |
| + | स्तोकं ह्यपि न पश्यामि फलं जीवितधारणे॥ 1-1-226 |
| + | सौतिरुवाच तं तथावादिनं दीनं विलपन्तं महीपतिम्। |
| + | निःश्वसन्तं यथा नागं मुह्यमानं पुनः पुनः। |
| + | गावल्गणिरिदं धीमान्महार्थं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-227 |
| + | संजय उवाच श्रुतवानसि वै राजन्महोत्साहान्महाबलान्। |
| + | द्वैपायनस्य वदतो नारदस्य च धीमतः॥ 1-1-228 |
| + | महत्सु राजवंशेषु गुणैः समुदितेषु च। |
| + | जातान्दिव्यास्त्रविदुषः शक्रप्रतिमतेजसः॥ 1-1-229 |
| + | धर्मेण पृथिवीं जित्वा यज्ञैरिष्ट्वाप्तदक्षिणैः। |
| + | अस्मिँल्लोके यशः प्राप्य ततः कालवशंगतान्॥ 1-1-230 |
| + | शैब्यं महारथं वीरं सृञ्जयं जयतां वरम्। |
| + | सुहोत्रं रन्तिदेवं च काक्षीवन्तम्महाद्युतिम्[मथौशिजम्]॥ 1-1-231 |
| + | बाह्लीकं दमनं चैव[द्यं] शर्यातिमजितं नलम्। |
| + | विश्वामित्रममित्रघ्नमम्बरीषं महाबलम्॥ 1-1-232 |
| + | मरुत्तं मनुमिक्ष्वाकुं गयं भरतमेव च। |
| + | रामं दाशरथिं चैव शशबिन्दुं भगीरथम्॥ 1-1-233 |
| + | कृतवीर्यं महाभागं तथैव जनमेजयम्। |
| + | ययातिं शुभकर्माणं देवैर्यो याजितः स्वयम्॥ 1-1-234 |
| + | चैत्ययूपाङ्किता भूमिर्यस्येयं सवनाकरा। |
| + | इति राज्ञां चतुर्विंशन्नारदेन सुरर्षिणा॥ 1-1-235 |
| + | पुत्रशोकाभितप्ताय पुरा श्यैब्या[श्वैत्या]य कीर्तितम्। |
| + | तेभ्यश्चान्ये गताः पूर्वं राजानो बलवत्तराः॥ 1-1-236 |
| + | महारथा महात्मानः सर्वैः समुदिता गुणैः। |
| + | पूरुः कुरुर्यदुः शूरो विष्वगश्वो महाद्युतिः॥ 1-1-237 |
| + | अणुहो युवनाश्वश्च ककुत्स्थो विक्रमी रघुः। |
| + | विजयो वीतिहोत्रोऽङ्गो भवः श्वेतो बृहद्गुरुः॥ 1-1-238 |
| + | उशीनरः शतरथः कङ्को दुलिदुहो द्रुमः। |
| + | दम्भोद्भवः परो वेनः सगरः संकृतिर्निमिः॥ 1-1-239 |
| + | अजेयः परशुः पुण्ड्रः शम्भुर्देवावृधोऽनघः। |
| + | देवाह्वयः सुप्रतिमः सुप्रतीको बृहद्रथः॥ 1-1-240 |
| + | महोत्साहो विनीतात्मा सुक्रतुः नैषधो नलः। |
| + | सत्यव्रतः शान्तभयः सुमित्रः सुबलः प्रभुः॥ 1-1-241 |
| + | जानुजङ्घोऽनरण्योऽर्कः प्रियभृत्यः शुभ[चि]व्रतः। |
| + | बलबन्धुर्निरामर्दः केतुशृङ्गो बृहद्बलः। |
| + | धृष्टकेतुर्बृहत्केतुर्दीप्तकेतुर्निरामयः॥ 1-1-242 |
| + | अवीक्षिच्चपलो धूर्तः कृतबन्धुर्दृढेषुधिः। |
| + | महापुराणसम्भाव्यः प्रत्यङ्गः परहा श्रुतिः॥ 1-1-243 |
| + | एते चान्ये च राजानः शतशोऽथ सहस्रशः। |
| + | श्रूयन्ते शतशश्चान्ये संख्याताश्चैव पद्मशः॥ 1-1-244 |
| + | हित्वा सुविपुलान्भोगान्बुद्धिमन्तोमहाबलाः। |
| + | राजानो निधनं प्राप्तास्तव पुत्रा इव प्रभो॥ 1-1-245 |
| + | येषां दिव्यानि कर्माणि विक्रमस्त्याग एव च। |
| + | माहात्म्यमपि चास्तिक्यंसत्यंशौचं दयार्जवम्॥ 1-1-246 |
| + | विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः। |
| + | सर्वर्द्धिगुणसम्पन्नास्ते चापि निधनं गताः॥ 1-1-247 |
| + | तव पुत्रा दुरात्मानः प्रतप्ताश्चैव मन्युना। |
| + | लुब्धा दुर्वृत्तभूयिष्ठा न ताञ्छोचितुमर्हसि॥ 1-1-248 |
| + | श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसम्मतः। |
| + | येषां शास्त्रानुगा बुद्धिर्न ते मुह्यन्ति भारत॥ 1-1-249 |
| + | निग्रहानुग्रहौ चापि विदितौ ते नराधिप। |
| + | नात्यन्तमेवानुवृत्तिः कार्या ते पुत्ररक्षणे॥ 1-1-250 |
| + | भवितव्यं तथा तच्च नानुशोचितुमर्हसि। |
| + | दैवं प्रज्ञाविशेषेण को निवर्तितुमर्हति॥ 1-1-251 |
| + | विधातृविहितं मार्गं न कश्चिदतिवर्तते। |
| + | कालमूलमिदं सर्वं भावाभावौ सुखासुखे॥ 1-1-252 |
| + | कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः। |
| + | कालः प्रजाः निर्दहति[संहरन्तं प्रजाः कालं] कालः शमयते पुनः॥ 1-1-253 |
| + | कालो हि कुरुते भावान्सर्वलोके शुभाशुभान्। |
| + | कालः संक्षिपते सर्वाः प्रजा विसृजते पुनः॥ 1-1-254 |
| + | कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः। |
| + | कालः सर्वेषु भूतेषु चरत्यविधृतः समः॥ 1-1-255 |
| + | अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति साम्प्रतम्। |
| + | तान्कालनिर्मितान्बुद्धवा न संज्ञां हातुमर्हसि॥ 1-1-256 |
| + | सौतिरुवाच इत्येवं पुत्रशोकार्तं धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्। |
| + | आश्वास्य स्वस्थमकरोत्सूतो गावल्गणिस्तदा॥ 1-1-257 |
| + | अत्रोपनिषदं पुण्यां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्। |
| + | विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः॥ 1-1-258 |
| + | [[:Category:Sanjay|''Sanjay'']] [[:Category:Consoles|''Consoles'']] [[:Category:grieving|''grieving'']] [[:Category:Dhrtarashtra|''Dhrtarashtra'']] [[:Category:grief|''grief'']] [[:Category:Dhrtarashtra|''Dhrtarashtra'']][[:Category:पुत्रशोक|''पुत्रशोक'']] [[:Category:पुत्रशोक|''पुत्रशोक'']] [[:Category:व्याकुल|''व्याकुल'']] [[:Category:संजय|''संजय'']][[:Category:समजाना|''समजाना'']] |
| | | |
− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अनुक्रमणिकापर्वणि ग्रन्थारम्भे प्रथमोऽध्यायः॥ 1 ॥ | + | भारताध्ययनं पुण्यमपि पादमधीयतः। |
| + | श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषतः॥ 1-1-259 |
| + | देवा देवर्षयो ह्यत्र तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः। |
| + | कीर्त्यन्ते शुभकर्माणस्तथा यक्षा महोरगाः॥ 1-1-260 |
| + | भगवान्वासुदेवश्च कीर्त्यतेऽत्र सनातनः। |
| + | स हि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च॥ 1-1-261 |
| + | शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योतिः सनातनम्। |
| + | यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिणः॥ 1-1-262 |
| + | असच्च सदसच्चैव यस्माद्विश्वं प्रवर्तते। |
| + | संततिश्च प्रवृत्तिश्च जन्ममृत्युपुनर्भवाः॥ 1-1-263 |
| + | अध्यात्मं श्रूयते यच्च पञ्चभूतगुणात्मकम्। |
| + | अव्यक्तादि परं यच्च स एव परिगीयते॥ 1-1-264 |
| + | यत्तद्यतिवरा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विताः। |
| + | प्रतिबिम्बमिवादर्शे पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्॥ 1-1-265 |
| + | श्रद्दधानः सदा युक्तः सदा धर्मपरायणः। |
| + | आसेवन्निममध्यायं नरः पापात्प्रमुच्यते॥ 1-1-266 |
| + | अनुक्रमणिकाध्यायं भारतस्येममादितः। |
| + | आस्तिकः सततं शृण्वन्न कृच्छ्रेष्ववसीदति॥ 1-1-267 |
| + | उभे संध्ये जपन्किंचित्सद्यो मुच्येत किल्बिषात्। |
| + | अनुक्रमण्या यावत्स्यादह्ना रात्र्या च संचितम्॥ 1-1-268 |
| + | भारतस्य वपुर्ह्येतत्सत्यं चामृतमेव च। |
| + | नवनीतं यथा दध्नो द्विपदां ब्राह्मणो यथा॥ 1-1-269 |
| + | आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्योऽमृतं यथा। |
| + | ह्रदानामुदधिः श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम्॥ 1-1-270 |
| + | यथैतानीतिहासानां तथा भारतमुच्यते। |
| + | यश्चैनं श्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान्पादमन्ततः॥ 1-1-271 |
| + | अक्षय्यमन्नपानं वै पितॄंस्तस्योपतिष्ठते। |
| + | इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्॥ 1-1-272 |
| + | बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रत[ह]रिष्यति। |
| + | कार्ष्णं वेदमिमं विद्वान्श्रावयित्वार्थमश्नुते॥ 1-1-273 |
| + | भ्रूणहत्यादिकं चापि पापं जह्यादसंशयम्। |
| + | य इमं शुचिरध्यायं पठेत्पर्वणि पर्वणि॥ 1-1-274 |
| + | अधीतं भारतं तेन कृत्स्नं स्यादिति मे मतिः। |
| + | यश्यैनं शृणुयान्नित्यमार्षं श्रद्धासमन्वितः॥ 1-1-275 |
| + | स दीर्घमायुः कीर्तिं च स्वर्गतिं चाप्नुयान्नरः। |
| + | एकतश्चतुरो वेदान्भारतं चैतदेकतः॥ 1-1-276 |
| + | पुरा किल सुरैः सर्वैः समेत्य तुलया धृतम्। |
| + | चतुर्भ्यः सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो ह्यधिकं यदा॥ 1-1-277 |
| + | तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन्महाभारतमुच्यते। |
| + | महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं यतोऽधिकम्॥ 1-1-278 |
| + | महत्त्वाद्भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते। |
| + | निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ 1-1-279 |
| + | तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः। |
| + | प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्कस्तान्येव भावोपहतानि कल्कः॥ 1-1-280 |
| + | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अनुक्रमणिकापर्वणि ग्रन्थारम्भे प्रथमोऽध्यायः॥ 1 ॥ |
| + | [[:Category:significance of Mahabharat|''significance of Mahabharat'']] [[:Category:importance of Mahabharat|''importance of Mahabharat'']] [[:Category:importance|''importance'']] [[:Category:significance|''significance'']] [[:Category:significance of first chapter of Mahabharat|''Category:significance of first chapter of Mahabharat'']] [[:Category:Significance of anukramanika adhyaya of Mahabharat|''Category:Significance of anukramanika adhyaya of Mahabharat'']] [[:Category:first|''first'']] [[:Category:chapter|''chapter'']] [[:Category:anukramanika|''anukramanika'']] [[:Category:adhyaya|''adhyaya'']] [[:Category:महाभारत का महत्व|''महाभारत का महत्व'']] [[:Category:अनुक्रमाणिका अध्याय का महत्व|''अनुक्रमाणिका अध्याय का महत्व'']] [[:Category:महाभारत|''महाभारत'']] [[:Category:महत्त्व|''महत्त्व'']] [[:Category:अनुक्रमाणिका|''अनुक्रमाणिका'']] [[:Category:अध्याय|''अध्याय'']] |