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→‎प्रकृतिधर्म: लेख सम्पादित किया
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धर्मानुसारिणी समाजव्यवस्था में कुटुंब संस्था का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। कुट्म्ब का केंद्रवर्ती घटक है पति पत्नी। स्त्री और पुरुष को पति पत्नी बनाने वाला विवाह संस्कार है। मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ बनाने हेतु संस्कारों की और उनमें भी नित्य द्वन्द्वात्मक स्वरूप की स्त्रीधारा और पुरुषधारा की एकात्मता सिद्ध करने वाले विवाह संस्कार की और इसकी कल्पना करने वाले ऋषियों की प्रज्ञा की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है। विवाह में स्त्री पुरुष की एकात्मता की अपेक्षा की गई है और उसके आदर्श के रूप में शिव और पार्वती के युगल की प्रतिष्ठा की गई है। उनकी एकात्मता को अर्धनारीश्वर की प्रतिमा में व्यक्त किया गया है। विवाह में लक्षित एकात्मता का ही विस्तार होते होते वसुधैव कुटुंबकम्‌ के सूत्र की सिद्धि तक पहुँचा जाता है। कुट्म्ब का भावात्मक स्वरूप है आत्मीयता। इसे ही परिवारभावना कहते हैं। सम्पूर्ण समाजव्यवस्था में कुटुंब भावना अनुस्यूत रहे ऐसी कल्पना की गई है ।
 
धर्मानुसारिणी समाजव्यवस्था में कुटुंब संस्था का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। कुट्म्ब का केंद्रवर्ती घटक है पति पत्नी। स्त्री और पुरुष को पति पत्नी बनाने वाला विवाह संस्कार है। मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ बनाने हेतु संस्कारों की और उनमें भी नित्य द्वन्द्वात्मक स्वरूप की स्त्रीधारा और पुरुषधारा की एकात्मता सिद्ध करने वाले विवाह संस्कार की और इसकी कल्पना करने वाले ऋषियों की प्रज्ञा की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है। विवाह में स्त्री पुरुष की एकात्मता की अपेक्षा की गई है और उसके आदर्श के रूप में शिव और पार्वती के युगल की प्रतिष्ठा की गई है। उनकी एकात्मता को अर्धनारीश्वर की प्रतिमा में व्यक्त किया गया है। विवाह में लक्षित एकात्मता का ही विस्तार होते होते वसुधैव कुटुंबकम्‌ के सूत्र की सिद्धि तक पहुँचा जाता है। कुट्म्ब का भावात्मक स्वरूप है आत्मीयता। इसे ही परिवारभावना कहते हैं। सम्पूर्ण समाजव्यवस्था में कुटुंब भावना अनुस्यूत रहे ऐसी कल्पना की गई है ।
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स्त्री और पुरुष के सम्बन्धों को पति पत्नी में केंद्रिय कर उसके विस्तार के रूप में भाई बहन, माता पिता और संतानों के संबंध विकसित किए गए हैं और जगत के सभी स्त्री पुरुषों के सम्बन्धों को इनमें समाहित किया गया है । जिसके साथ विवाह हुआ है उसके अलावा अन्य सभी पुरुष, स्त्री के लिए भाई, पुत्र या पिता समान हैं और पुरुष के लिए स्त्री माता, पुत्री और बहन के समान है ऐसी धर्मबुद्धि समाज को अनाचारी बनने से बचाती है। स्त्री और पुरुष के शील की रक्षा समाजधर्म का महत्वपूर्ण आयाम है। इस प्रकार आचार, व्यवसाय और विवाहव्यवस्था के
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स्त्री और पुरुष के सम्बन्धों को पति पत्नी में केंद्रिय कर उसके विस्तार के रूप में भाई बहन, माता पिता और संतानों के संबंध विकसित किए गए हैं और जगत के सभी स्त्री पुरुषों के सम्बन्धों को इनमें समाहित किया गया है । जिसके साथ विवाह हुआ है उसके अलावा अन्य सभी पुरुष, स्त्री के लिए भाई, पुत्र या पिता समान हैं और पुरुष के लिए स्त्री माता, पुत्री और बहन के समान है ऐसी धर्मबुद्धि समाज को अनाचारी बनने से बचाती है। स्त्री और पुरुष के शील की रक्षा समाजधर्म का महत्वपूर्ण आयाम है। इस प्रकार आचार, व्यवसाय और विवाहव्यवस्था के माध्यम से वर्णधर्म समाज का रक्षक है ।
माध्यम से वर्णधर्म समाज का रक्षक है ।
      
=== प्रकृतिधर्म ===
 
=== प्रकृतिधर्म ===
इस सृष्टि में सभी पदार्थों का अपना अपना स्वभाव
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इस सृष्टि में सभी पदार्थों का अपना अपना स्वभाव होता है। उसे उस पदार्थ का गुणधर्म कहते हैं। उसे उसकी प्रकृति भी कहते हैं। मनुष्य के अलावा सारे पदार्थों का केवल गुणधर्म होता है, मनुष्य का गुणकर्म होता है। उस गुणकर्म के आधार पर बनी वर्णव्यवस्था व्यावहारिक हेतु से जन्मगत बन गई है। परन्तु शेष सभी की व्यवस्था गुणधर्म के अनुसार ही बनी है। मनुष्य को शेष सृष्टि के साथ सामंजस्य बैठाना है तो इस प्रकृतिधर्म को भी जानना चाहिए। मनुष्य की अपेक्षा शेष सारे पदार्थों में भौतिक शक्ति और प्राणिक शक्ति अर्थात अन्नमय और प्राणमय कोश अनेक गुणा अधिक है। मनुष्य में विचारशक्ति, विवेकशक्ति और संस्कारशक्ति शेष सारे पदार्थों से कहीं अधिक है। इन विशिष्ट शक्तियों के प्रभाव से वह सृष्टि के संसाधनों से अपरिमित लाभ प्राप्त करता है। लाभ प्राप्त करने के साथ साथ सृष्टि के सारे पदार्थों का रक्षण करना, उसे जो प्राप्त होता है उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञ रहना, अपने सुख के लिए उनका शोषण नहीं करना, उनकी सुस्थिति बनाए रखना उसका परम धर्म है। इस धर्म का सम्यक पालन करने के लिए उसे प्रकृति को जानना आवश्यक है। साथ ही सृष्टि के सारे पदार्थ एक ही आत्मतत्व का विस्तार है यह समझकर आत्मीय सम्बन्ध भी बनाने की आवश्यकता होती है। प्रकृति धर्म का पालन समाज के लिए अभ्युदय और निःश्रेयस का बलवान साधन है ।
होता है । उसे उस पदार्थ का गुणधर्म कहते हैं । उसे उसकी
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प्रकृति भी कहते हैं । मनुष्य के अलावा सारे पदार्थों का
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केवल गुणधर्म होता है, मनुष्य का गुणकर्म होता है । उस
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गुणकर्म के आधार पर बनी वर्णव्यवस्था व्यावहारिक हेतु से
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जन्मगत बन गई है । परन्तु शेष सभी की व्यवस्था गुणधर्म
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के अनुसार ही बनी है । मनुष्य को शेष सृष्टि के साथ
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सामंजस्य बैठाना है तो इस प्रकृतिधर्म को भी जानना
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चाहिए । मनुष्य की अपेक्षा शेष सारे पदार्थों में भौतिक शक्ति
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और प्राणिक शक्ति अर्थात अन्नमय और प्राणमय कोश
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अनेक गुणा अधिक है । मनुष्य में विचारशक्ति, विवेकशक्ति
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और संस्कारशक्ति शेष सारे पदार्थों से कहीं अधिक है । इन
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विशिष्ट शक्तियों के प्रभाव से वह सृष्टि के संसाधनों से
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अपरिमित लाभ प्राप्त करता है । लाभ प्राप्त करने के साथ
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साथ सृष्टि के सारे पदार्थों का रक्षण करना, उसे जो प्राप्त
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होता है उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञ रहना, अपने सुख के
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लिए उनका शोषण नहीं करना, उनकी सुस्थिति बनाए रखना
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उसका परम धर्म है । इस धर्म का सम्यक पालन करने के
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लिए उसे प्रकृति को जानना आवश्यक है । साथ ही सृष्टि के
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सारे पदार्थ एक ही आत्मतत्व का विस्तार है यह समझकर
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आत्मीय सम्बन्ध भी बनाने की आवश्यकता होती है ।
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प्रकृतिधर्म का पालन समाज के लिए अभ्युद्य और निःश्रेयस
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का बलवान साधन है ।
      
== धर्म उपासना के रूप में ==
 
== धर्म उपासना के रूप में ==
धर्म का यह स्वरूप बड़ा अद्भुत है । साथ ही मनुष्य
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धर्म का यह स्वरूप बड़ा अद्भुत है । साथ ही मनुष्य की नवनवोन्मेषशालिनी कल्पनाशक्ति और सृजनशीलता का यह अतुलनीय आविष्कार है। सृष्टि के जिन जिन पदार्थों ने उसका जीवन सुकर और सुखद बनाया उन तत्वों में उसने देवत्व देखा। उनके प्रति एकात्मता का अनुभव कर काव्य में उसे स्थान दिया और अनेक प्रकार से उनका गुणगान किया। देवत्व की कल्पना के आधार पर मुूर्तिविधान किया। मूर्तिविधान में भावना तो थी ही साथ ही प्राकृतिक पदार्थों के स्वभाव और व्यवहार का पूर्ण ज्ञान भी था और निर्माण कौशल भी था। इस प्रकार अपनी सर्व प्रकार की क्षमताओं का विनियोग आनंदऔर कृतज्ञता के रूप में व्यक्त कर उसने लौकिक सुख का उन्नयन किया। भौतिक समृद्धि, ज्ञान, पवित्रता, स्वास्थ्य, पोषण, संयम, त्याग आदि सर्व प्रकार के तत्वों को मूर्तरूप देकर उनका पूजा विधान बनाया। इसमें से विभिन्न उपासना पद्धतियों का विकास किया। हम देखते हैं कि नाना प्रकार की पूजाविधियों में सुन्दरता है, कुशलता है, निश्चितता है, भावना है, आनंद है, कृतज्ञता है, ज्ञान है, पवित्रता है, अपने और सर्व के सुख और कल्याण की कामना है। एकात्मता और समग्रता का यह विस्मयकारक
 
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की नवनवोन्मेषशालिनी कल्पनाशक्ति
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और सृजनशीलता का यह अतुलनीय आविष्कार है । सृष्टि
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के जिन जिन पदार्थों ने उसका जीवन सुकर और सुखद
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बनाया st dal में उसने देवत्व देखा । उनके प्रति
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एकात्मता का अनुभव कर काव्य में उसे स्थान दिया और
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अनेक प्रकार से उनका गुणगान किया । देवत्व की कल्पना
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के आधार पर मुूर्तिविधान किया । मूर्तिविधान में भावना तो
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थी ही साथ ही प्राकृतिक पदार्थों के स्वभाव और व्यवहार
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का पूर्ण ज्ञान भी था और निर्माण कौशल भी था । इस
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और कृतज्ञता के रूप में व्यक्त कर उसने लौकिक सुख का
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उन्नयन किया । भौतिक समृद्धि, ज्ञान, पवित्रता, स्वास्थ्य,
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पोषण, संयम, त्याग आदि सर्व प्रकार के तत्वों को मूर्त
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रूप देकर उनका पूजा विधान बनाया । इसमें से विभिन्न
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नाना प्रकार की पूजाविधियों में सुन्दरता है, कुशलता है,
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निश्चितता है, भावना है, आनंद है, कृतज्ञता है, ज्ञान है,
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पवित्रता है, अपने और सर्व के सुख और कल्याण की
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कामना है । एकात्मता और समग्रता का यह विस्मयकारक
   
आविष्कार है। इस अनंत वैविध्यपूर्ण पूजा पद्धतियों के
 
आविष्कार है। इस अनंत वैविध्यपूर्ण पूजा पद्धतियों के
 
विधान के ही शास्त्र बने, स्तोत्र बने और सम्प्रदाय बने । ये
 
विधान के ही शास्त्र बने, स्तोत्र बने और सम्प्रदाय बने । ये

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