Changes

Jump to navigation Jump to search
→‎ब्रहमचर्याश्रम: लेख सम्पादित किया
Line 41: Line 41:  
* अनुशासन और नियमपालन : कठोर अनुशासन का और आश्रम के नियमों का पालन अनिवार्य है। यदि प्रमाद होता है तो प्रायश्चित्त करना है। गुरु जो प्रायश्चित  या दंड बताएं, उसको अच्छे मन से स्वीकार करना है। गुरु का द्रोह करना अतिशय निंदनीय है।
 
* अनुशासन और नियमपालन : कठोर अनुशासन का और आश्रम के नियमों का पालन अनिवार्य है। यदि प्रमाद होता है तो प्रायश्चित्त करना है। गुरु जो प्रायश्चित  या दंड बताएं, उसको अच्छे मन से स्वीकार करना है। गुरु का द्रोह करना अतिशय निंदनीय है।
 
*  
 
*  
इस प्रकार ब्रह्मचर्याश्रम यह कठोर व्रत, तप और विद्याध्ययन का काल है । यह चरित्र और क्षमताओं के अर्जन का काल है। सामान्य रूप से बारह वर्ष का काल विद्याध्ययन का काल माना जाता है। बारह वर्षों में वह गुरु ने नियत किया हुआ अध्ययन कर लेता है। अध्ययन समाप्त होने के बाद गुरु अपनी पद्धति से परीक्षा करते हैं। उसमें उत्तीर्ण होने पर वे घर जाने की अनुज्ञा देते हैं। यदि उत्तीर्ण नहीं हुआ तो गुरु की आज्ञा के अनुसार आगे भी अध्ययन करना है। अध्ययन समाप्त होने पर समावर्तन संस्कार होते है। ब्रह्मचारी स्नान करता है, नये वस्त्र और आभूषण धारण करता है और गुरु की आज्ञा से गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर गुरुकुल छोड़कर अपने पिता के घर जाने हेतु प्रस्थान करता है। उस समय वह विशेष स्नान करता है इसलिये उसे स्नातक कहते हैं। वह व्रतस्नातक और विद्यास्नातक होता है। केवल व्रतस्नातक भी नहीं और केवल विद्यास्नातक भी नहीं। ऐसे स्नातक का समाज में अतिशय मान और गौरव है। यदि रास्ते में राजा और स्नातक आमने सामने पड़ जाय तो
+
इस प्रकार ब्रह्मचर्याश्रम यह कठोर व्रत, तप और विद्याध्ययन का काल है । यह चरित्र और क्षमताओं के अर्जन का काल है। सामान्य रूप से बारह वर्ष का काल विद्याध्ययन का काल माना जाता है। बारह वर्षों में वह गुरु ने नियत किया हुआ अध्ययन कर लेता है। अध्ययन समाप्त होने के बाद गुरु अपनी पद्धति से परीक्षा करते हैं। उसमें उत्तीर्ण होने पर वे घर जाने की अनुज्ञा देते हैं। यदि उत्तीर्ण नहीं हुआ तो गुरु की आज्ञा के अनुसार आगे भी अध्ययन करना है। अध्ययन समाप्त होने पर समावर्तन संस्कार होते है। ब्रह्मचारी स्नान करता है, नये वस्त्र और आभूषण धारण करता है और गुरु की आज्ञा से गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर गुरुकुल छोड़कर अपने पिता के घर जाने हेतु प्रस्थान करता है। उस समय वह विशेष स्नान करता है इसलिये उसे स्नातक कहते हैं। वह व्रतस्नातक और विद्यास्नातक होता है। केवल व्रतस्नातक भी नहीं और केवल विद्यास्नातक भी नहीं। ऐसे स्नातक का समाज में अतिशय मान और गौरव है।  
 +
 
 +
स्नातक आमने सामने पड़ जाय तो राजा ही स्नातक को मार्ग देता है। ब्रह्मचर्याश्रम, व्यक्ति की हर प्रकार की क्षमताओं का विकास करने के लिये होता है। उसका शरीर बलवान, स्वस्थ, लचीला बनना चाहिये । उसकी कर्मेन्द्रियाँ काम करने में कुशल बननी चाहिये। उसका शरीर कष्ट सहने के लिये सक्षम बनना चाहिये। उसकी ज्ञानेंद्रियाँ अपने अपने अनुभव लेने के लिये सक्षम बननी चाहिये। उसका शरीर हर प्रकार के शारीरिक श्रम के और कुशलता के काम करने के लिये सिद्ध बनना चाहिये। उसका मन सदाचारी, संयमी, एकाग्र बनना चाहिये। मन को उत्तेजना से मुक्त शान्त बनाने का अभ्यास उसे करना चाहिये। विनयशीलता, आज्ञाकारिता, नियमपालन, अनुशासन, श्रमनिष्ठा आदि गुणों का विकास करना चाहिये। सेवा, श्रद्धा, समर्पण आदि गुणों को अपनाना चाहिये। गुरुसेवा, गुरुपत्नी की सहायता, वृद्धपरिचर्या, शिष्टाचार, दैनन्दिन कामों में कुशलता आदि में प्रवीणता प्राप्त करनी चाहिये। भविष्य में उस पर गृहस्थाश्रम के पूरे दायित्व आने वाले हैं, इसे ध्यान में रखकर अभी ब्रह्मचर्याश्रम में पूर्ण सिद्धता करनी चाहिये। इस दृष्टि से आहार, निद्रा, व्यायाम, स्वाध्याय, सत्संग, जप, योगाभ्यास, घरेलू काम, स्तोत्रपाठ, यज्ञ, पूजा, स्वच्छता आदि का औचित्य साधना चाहिये। व्रत, अनुष्ठान आदि भी करने चाहिये। सादगी अपनाना चाहिये। रसवृत्ति का त्याग करना चाहिये। अपनी इन्द्रियों को वश में करना चाहिये। कठोर ब्रह्मचर्य अपनाना चाहिये। ऐसा करने से उसमें ओज, तेज, बल, कौशल, मेधा, प्रज्ञा, प्रतिभा के गुण प्रकट होते हैं। वह ज्ञानसम्पादन और कर्मसम्पादन के लायक बनता है। इस दृष्टि से ब्रह्मचर्याश्रम का बहुत महत्व है। वह सम्पूर्ण जीवन का आधार है।
   −
... आश्रम है। स्नातक अब गृहस्थ बनता है । गृहस्थ की
  −
राजा ही स्नातक को मार्ग देता है । परिभाषा है, गृहेषु दारेषु तिष्ठति अभिरमते इति गृहस्थ:
  −
ब्रह्मचर्याश्रम व्यक्ति की हर प्रकार की क्षमताओं का... अर्थात्‌ जो घर में रहता है और पत्नी में रमण करता है वह
  −
विकास करने के लिये होता है । उसका शरीर बलवान, ... गृहस्थ है । अब उसका गुरुगृह में नहीं अपितु अपने स्वयं
  −
स्वस्थ, लचीला बनना चाहिये । उसकी कर्मन्ट्रियाँ काम... के घर में वास होता है ।
  −
करने में कुशल बननी चाहिये । उसका शरीर कष्ट सहने के
  −
लिये सक्षम बनना चाहिये । उसकी ज्ञानेंद्रियाँ अपने अपने
  −
अनुभव लेने के लिये सक्षम बननी चाहिये । उसका शरीर विवाह : गृहस्थाश्रम का प्रथम संस्कार है विवाह ।
  −
हर प्रकार के शारीरिक श्रम के और कुशलता के काम करने... गृहस्थाश्रम कभी भी अकेले नहीं होता है । वह पत्नी के
  −
के लिये सिद्ध बनना चाहिये । उसका मन सदाचारी, संयमी, ... साथ ही होता है । गृहस्थाश्रम धर्माचरण के लिये है और
  −
एकाग्र बनना चाहिये | मन को उत्तेजना से मुक्त शान्त बनाने... पतिपत्नी दोनों को मिलकर सहधर्माचरण करना है ।
  −
का. अभ्यास उसे. करना. चाहिये ।. विनयशीलता, .... गृहस्थाश्रम के सभी दायित्व निभाने के लिये उसे पत्नी का
  −
आज्ञाकारिता, नियमपालन, अनुशासन, श्रमनिष्ठा आदि गुणों... साथ अनिवार्य है क्योंकि वंशपरम्परा बनाये रखने के लिये
  −
का विकास करना चाहिये । सेवा, श्रद्धा, समर्पण आदि... उसे सन्तान को जन्म देना है और वह कार्य पति और पत्नी
  −
Tot को अपनाना चाहिये । गुरुसेवा, गुरुपत्नी की सहायता, .... दोनों मिलकर ही कर सकते हैं । इसलिये वह योग्य कन्या
  −
वृद्धपरिचर्या, शिष्टाचार, दैनन्दिन कामों में कुशलता आदि में... से विवाह करता है । कुल, गोत्र, वर्ण, जाति आदि की
  −
प्रवीणता प्राप्त करनी चाहिये । भविष्य में उस पर गृहस्थाश्रम .... विशेषतायें देखकर वर और कन्या का एकदूसरे से विवाह
  −
के पूरे दायित्व आने वाले हैं इसे ध्यान में रखकर अभी... सम्पन्न होता है । ये दोनों पतिपत्नी सुयोग्य सन्तान को जन्म
  −
ब्रह्मचर्याश्रम में पूर्ण सिद्धता करनी चाहिये । इस दृष्टि से .. देते हैं । सन्तान को जन्म देने के उपरान्त भी सभी कर्तव्यों
  −
आहार, fig, Se, wea, aan, wa, में वे एकदूसरे के साथ रहते हैं ।
  −
योगाभ्यास, घरेलू काम, स्तोन्रपाठ, यज्ञ, पूजा, स्वच्छता क्रणत्रय से मुक्ति : व्यक्ति को जन्म के साथ ही तीन
  −
आदि का औचित्य साधना चाहिये । ब्रत, अनुष्ठान आदि... प्रकार के ऋण होते हैं । एक है पितूऋण, दूसरा है देवकऋण
  −
भी करने चाहिये । सादगी अपनाना चाहिये । रसवृत्ति का... और तीसरा है ऋषिकऋण । ऋषि ज्ञान के क्षेत्र के, देव
  −
त्याग करना चाहिये । अपनी इन्द्रियों को वश में करना... प्रकृति के क्षेत्र के और पितृ अनुवंश के क्षेत्र के ऐसे तत्व हैं
  −
चाहिये । कठोर ब्रह्मचर्य अपनाना चाहिये । जिनके कारण मनुष्य का इस जन्म का जीवन सम्भव होता
  −
ऐसा करने से उसमें ओज, तेज, बल, कौशल, मेधा, है । ज्ञान के कारण मनुष्य का जीवन सुसंस्कृत बनता है,
  −
प्रज्ञा, प्रतिभा के गुण प्रकट होते हैं । वह ज्ञानसम्पादन और... प्रकृति के कारण उसका जीवन समृद्ध, स्वस्थ और सुखी
  −
कर्मसम्पादन के लायक बनता है । इस दृष्टि से ब्रह्मचर्याश्रम ... बनता है, और पितृओं के कारण तो जन्म ही होता है तथा
  −
का बहुत महत्व है । वह सम्पूर्ण जीवन का आधार है । सर्व प्रकार की परम्परायें प्राप्त होती हैं । इसलिये इन तीनों
  −
के प्रति उसे कृतज्ञ रहना है और उनके ऋण से मुक्त होना
  −
है । वह अध्ययन करके ऋषिक्रण से, यज्ञ करके देवऋण से
  −
समावर्तन संस्कार और समावर्तन उपदेश के बाद. और सन्तान को जन्म देकर पितृऋण से मुक्त होता है ।
  −
गृहस्थाश्रम में किस प्रकार रहना इसका मार्गदर्शन प्राप्त पंचयज्ञ : गृहस्थ को पाँच प्रकार के यज्ञ करने हैं ।
  −
कर व्यक्ति गृहस्थाश्रम के लिये सिद्ध होता है । Teese . एक ऋ्षियज्ञ, दूसरा देवयज्ञ, तीसरा भूतयज्ञ, चौथा
  −
अपने सर्व प्रकार के सांसारिक दायित्वों को पूर्ण करने का... मनुष्ययज्ञ और पाँचवाँ पितृयज्ञ । यज्ञ का अर्थ है दूसरों के
   
=== गृहस्थाश्रम ===
 
=== गृहस्थाश्रम ===
 +
समावर्तन संस्कार और समावर्तन उपदेश के बाद गृहस्थाश्रम में किस प्रकार रहना. इसका मार्गदर्शन प्राप्त कर व्यक्ति गृहस्थाश्रम के लिये सिद्ध होता है। गृहस्थाश्रम अपने सर्व प्रकार के सांसारिक दायित्वों को पूर्ण करने का आश्रम है। स्नातक अब गृहस्थ बनता है। गृहस्थ की परिभाषा है, गृहेषु दारेषु तिष्ठति अभिरमते इति गृहस्थः अर्थात् जो घर में रहता है और पत्नी में रमण करता है वह गृहस्थ है। अब उसका गुरूगृह में नहीं अपितु अपने स्वयं के घर में वास होता है।
    
==== गृहस्थाश्रम के दायित्व ====
 
==== गृहस्थाश्रम के दायित्व ====
 
+
* विवाह : गृहस्थाश्रम का प्रथम संस्कार है विवाह। गृहस्थाश्रम कभी भी अकेले नहीं होता है। वह पत्नी के साथ ही होता है। गृहस्थाश्रम धर्माचरण के लिये है और पतिपत्नी दोनों को मिलकर सहधर्माचरण करना है। गृहस्थाश्रम के सभी दायित्व निभाने के लिये उसे पत्नी का साथ अनिवार्य है क्योंकि वंशपरम्परा बनाये रखने के लिये उसे सन्तान को जन्म देना है और वह कार्य पति और पत्नी दोनों मिलकर ही कर सकते हैं। इसलिये वह योग्य कन्या से विवाह करता है। कुल, गोत्र, वर्ण, जाति आदि की विशेषतायें देखकर वर और कन्या का एकदूसरे से विवाह सम्पन्न होता है। ये दोनों पतिपत्नी सुयोग्य सन्तान को जन्म देते हैं। सन्तान को जन्म देने के उपरान्त भी सभी कर्तव्यों में वे एक दूसरे के साथ रहते हैं।
 
+
* ऋणत्रय से मुक्ति : व्यक्ति को जन्म के साथ ही तीन प्रकार के ऋण होते हैं। एक है पितृऋण, दूसरा है देवऋण और तीसरा है ऋषिऋण। ऋषि ज्ञान के क्षेत्र के, देव प्रकृति के क्षेत्र के और पितृ अनुवंश के क्षेत्र के ऐसे तत्त्व हैं, जिनके कारण मनुष्य का इस जन्म का जीवन सम्भव होता है। ज्ञान के कारण मनुष्य का जीवन सुसंस्कृत बनता है, प्रकृति के कारण उसका जीवन समृद्ध, स्वस्थ और सुखी बनता है, और पितृओं के कारण तो जन्म ही होता है तथा सर्व प्रकार की परम्परायें प्राप्त होती हैं। इसलिये इन तीनों के प्रति उसे कृतज्ञ रहना है और उनके ऋण से मुक्त होना है । वह अध्ययन करके ऋषिऋण से, यज्ञ करके देवऋण से और सन्तान को जन्म देकर पितृऋण से मुक्त होता है।
लिये अपने पदार्थ की आहुति देना अर्थात्‌ त्याग करना। प्रकृति का, समाज का और अपने व्यक्तिगत जीवन का सन्तुलन बनाये रखने के लिये और सबका मिलकर जीवन सुखी, समृद्ध, सुसंस्कारित एवं स्वस्थ हो इस, दृष्टि से इन यज्ञों की रचना की गई है ।
+
* पंचयज्ञ : गृहस्थ को पाँच प्रकार के यज्ञ करने हैं। एक ऋषियज्ञ, दूसरा देवयज्ञ, तीसरा भूतयज्ञ, चौथा मनुष्ययज्ञ और पाँचवाँ पितृयज्ञ । यज्ञ का अर्थ है दूसरों के लिये अपने पदार्थ की आहुति देना अर्थात्‌ त्याग करना। प्रकृति का, समाज का और अपने व्यक्तिगत जीवन का सन्तुलन बनाये रखने के लिये और सबका मिलकर जीवन सुखी, समृद्ध, सुसंस्कारित एवं स्वस्थ हो इस, दृष्टि से इन यज्ञों की रचना की गई है ।
 
   
महाभारत में उत्तम गृहस्थधर्म का वर्णन इस प्रकार किया गया है{{Citation needed}} :  
 
महाभारत में उत्तम गृहस्थधर्म का वर्णन इस प्रकार किया गया है{{Citation needed}} :  
  

Navigation menu