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== संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध ==
 
== संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध ==
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नेपोलियन १५३ से.मी. का नाटा नर था। अपनी | पहुँच से ऊँचे स्थान पर स्थित किसी चीज को उन्होंने देखा; उन्होंने उस ओर नजर डाल दी। इरादा समझकर पीछे खड़े तगड़े चौड़े सेनानी सहायक ने तुरन्त उस चीज
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नेपोलियन १५३ से.मी. का नाटा नर था। अपनी पहुँच से ऊँचे स्थान पर स्थित किसी चीज को उन्होंने देखा; उन्होंने उस ओर नजर डाल दी। इरादा समझकर पीछे खड़े तगड़े चौड़े सेनानी सहायक ने तुरन्त उस चीज को लाकर उनको दिया और मजाक में कहा आपसे तो ऊँचा हैं। झट से बन्दूक की गोली जैसा उत्तर निकल पड़ा, ‘लम्बा कहो, ऊँचा मत कहो।' संस्कृति और सभ्यता दोनों का विवेचन करते समय इस छोटे से प्रसंग की याद आती है। तात्पर्य यही है कि संस्कृति ऊँची है और सभ्यता लम्बी है। आद्य शंकराचार्य के निर्वाणाष्टक में विरोधाभास का एक शब्द है 'निराकार रूपः'। निराकार का आकार कैसे हो सकता है ? किन्तु निराकारिता ही जिसका आकार है उसको दूसरे शब्द में कैसे कहें? संस्कृति इस श्रेणी में आती है। वह निराकार रूपी है। अतः स्थूल दृष्टि से देखना परखना सम्भव नहीं हो पाता। किन्तु सभ्यता उसके परिचायक छोटी बड़ी वस्तुओं के रूप में दृष्टिगत होती है। यह भी मानव की प्रकृति है। सामान्य मानव को सूक्ष्मदृक् होना कठिन है और स्थूलदृक् होना सरल है। इसीलिए मापदण्ड संस्कृति पर कम लगता है। इसके विपरीत सभ्यता पर अधिक लगता है। रामेश्वरं, चिदंबरं, श्रीरंग, मदुरै जैसे प्राचीन मन्दिरों की बात सोचें। सर्वत्र वहाँ के गगनचुंबी गोपुर, स्वर्ण मंडित शिखर, सहस्र स्तम्भ मण्डप आदि का चकाचौंध वर्णन होता है। किन्तु मन्दिर की मूर्ति का वर्णन थोड़ा ही मिलता है। उस छोटी सी मूर्ति के बिना मन्दिर की कल्पना सम्भव नहीं। किन्तु इसका विस्मरण होता है और वर्णन शिखर का रहता है।
को लाकर उनको दिया और मजाक में कहा आपसे तो | ऊँचा हैं। झट से बन्दूक की गोली जैसा उत्तर निकल पड़ा, ‘लम्बा कहो, ऊँचा मत कहो।' संस्कृति और सभ्यता दोनों का विवेचन करते समय इस छोटे से प्रसंग की याद आती है। तात्पर्य यही है कि संस्कृति ऊँची है और सभ्यता लम्बी है। | आद्य शंकराचार्य के निर्वाणाष्टक में विरोधाभास का एक शब्द है 'निराकार रूपः'। निराकार का आकार कैसे हो सकता है ? किन्तु निराकारिता ही जिसका आकार है उसको दूसरे शब्द में कैसे कहें ? संस्कृति इस श्रेणी में | आती है। वह निराकार रूपी है। अतः स्थूल दृष्टि से देखना परखना सम्भव नहीं हो पाता। किन्तु सभ्यता उसके
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परिचायक छोटी बड़ी वस्तुओं के रूप में दृष्टिगत होती है। | यह भी मानव की प्रकृति है। सामान्य मानव को सूक्ष्मदृक् | होना कठिन है और स्थूलदृक् होना सरल है। इसीलिए | मापदण्ड संस्कृति पर कम लगता है। इसके विपरीत सभ्यता पर अधिक लगता है।
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रामेश्वरं, चिदंबरं, श्रीरंग, मदुरै जैसे प्राचीन मन्दिरों की | बात सोचें। सर्वत्र वहाँ के गगनचुंबी गोपुर, स्वर्ण मंडित शिखर, सहस्र स्तम्भ मण्डप आदि का चकाचौंध वर्णन होता
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है। किन्तु मन्दिर की मूर्ति का वर्णन थोड़ा ही मिलता है। उस छोटी सी मूर्ति के बिना मन्दिर की कल्पना सम्भव नहीं। किन्तु इसका विस्मरण होता है और बर्णन शिखर का रहता है। वास्तव में संस्कृति का स्थान मूर्ति का है और सभ्यता का स्थान शिखर का है। जैसे मूर्ति के बिना मन्दिर का शिखर अचिन्त्य है वैसे ही संस्कृति के बिना सभ्यता असम्भव है। संस्कृति विहीन सभ्यता को असभ्यता कहना पड़ेगा। वह मानव को विकृत दिशा में ले जायेगी और उसको निरंकुश बनायेगी।
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वास्तव में संस्कृति का स्थान मूर्ति का है और सभ्यता का स्थान शिखर का है। जैसे मूर्ति के बिना मन्दिर का शिखर अचिन्त्य है वैसे ही संस्कृति के बिना सभ्यता असम्भव है। संस्कृति विहीन सभ्यता को असभ्यता कहना पड़ेगा। वह मानव को विकृत दिशा में ले जायेगी और उसको निरंकुश बनायेगी। सभ्यता का विकास कैसे होता है? सभ्यता का बीज संस्कृति है। साधारणतः मानव संस्कृति की प्रेरणा से ऊँचा जाना चाहता है, नीचे गिरना नहीं चाहता। ऊँचा जाने का काम पहाड़ चढ़ने का काम है। स्वयं सँभलकर सावधानी से एक एक कदम ऊपर चढ़ना होगा। उसके लिए मानव ध्यान देकर अपने पास जितनी साधन सामग्री है उससे सुविधाजनक व्यवस्था करता है। धीरे धीरे वह चट्टानों पर सीढ़ियाँ बनाता है। सीढ़ियों के दोनों ओर दीवारें खड़ी करता है। पकड़कर चढ़ने के लिए हथधरी लगाता है। इसी प्रकार संस्कृति के मूल्यों को पकड़कर उत्कृष्टता की ओर जाने के लिए मनुष्य नाना प्रकार के प्रयास करता है। उससे सभ्यता जन्म लेती है।
| सभ्यता का विकास कैसे होता है ? सभ्यता का बीज संस्कृति है। साधारणतः मानव संस्कृति की प्रेरणा से ऊँचा जाना चाहता है, नीचे गिरना नहीं चाहता। ऊँचा जाने का काम पहाड़ चढ़ने का काम है। स्वयं सँभलकर सावधानी से एक एक कदम ऊपर चढ़ना होगा। उसके लिए मानव ध्यान देकर अपने पास जितनी साधन सामग्री है उससे सुविधाजनक व्यवस्था करता है। धीरे धीरे वह चट्टानों पर सीढ़ियाँ बनाता है। सीढ़ियों के दोनों ओर दीवारें खड़ी करता है। पकड़कर चढ़ने के लिए हथधरी (प) लगाता है। इसी प्रकार संस्कृति के मूल्यों को पकड़कर उत्कृष्टता की ओर जाने के लिए मनुष्य नाना प्रकार के प्रयास करता है। उससे सभ्यता जन्म लेती है।
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संस्कृति, जो निराकार रूपी है, को प्रकट करने के लिए कोई माध्यम चाहिए; जैसे बिजली को प्रकट करने के लिए किसी धातु की तार। उसी प्रकार जीवन में संस्कृति
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को प्रगट और प्रयोजक बनाने के लिए अन्यान्य माध्यमों
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संस्कृति, जो निराकार रूपी है, को प्रकट करने के लिए कोई माध्यम चाहिए; जैसे बिजली को प्रकट करने के लिए किसी धातु की तार। उसी प्रकार जीवन में संस्कृति को प्रगट और प्रयोजक बनाने के लिए अन्यान्य माध्यमों की जरूरत पड़ती है। वे माध्यम दो प्रकार के हैं - गुणात्मक और रूपात्मक। आचार, अनुष्ठान, धरोहर, परम्परा, रीति रिवाज, शिक्षा आदि गुणात्मक माध्यम हैं। उनका कोई स्थूल रूप नहीं है फिर भी वे प्रभावकारी माध्यम हैं। उनको प्रयोग में लाने के लिए प्राणवानू साधन हैं आचार्य, दार्शनिक, महापुरुष, नेतागण, चरित्रवान्‌ सज्जनगण आदि तथा वस्तु निर्माण, वस्तु संग्रह आदि दूसरे प्रकार के माध्यम हैं। उनके कर्मेन्द्रिय हैं विज्ञान, शिल्पशास्त्र, वास्तुकला, हस्तकौशल, सृष्टिशीलता आदि।
की जरूरत पड़ती है। वे माध्यम दो प्रकार के हैं -
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गुणात्मक और रूपात्मक। आचार, अनुष्ठान, धरोहर,
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परम्परा, रीति रिवाज, शिक्षा आदि गुणात्मक माध्यम हैं।
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उनका कोई स्थूल रूप नहीं है फिर भी वे प्रभावकारी
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माध्यम हैं। उनको प्रयोग में लाने के लिए प्राणवानू साधन
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हैं आचार्य, दार्शनिक, veges, नेतागण, चरित्रवान्‌
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सज्जनगण आदि तथा वस्तु निर्माण, वस्तु संग्रह आदि दूसरे
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प्रकार के माध्यम हैं। उनके कर्मेन्द्रिय हैं विज्ञान,
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शिल्पशास्त्र, वास्तुकला, हस्तकौशल, सृष्टिशीलता आदि।
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उपर्युक्त माध्यमों द्वारा उनके कर्मशील सहायकों के
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उपर्युक्त माध्यमों द्वारा उनके कर्मशील सहायकों के सहयोग से जब संस्कृति अधिकाधिक प्रगट हो जाती है, तब उस विशेष स्थिति को सभ्यता कहते हैं। शुचिता सांस्कृतिक मूल्यों में एक है। वह मानव का अनिवार्य गुण है। उसके लिए अपना निवास स्थान स्वच्छ रहना आवश्यक है। उसके लिए मानव ने आद्य दिनों में घोड़े जैसे जानवरों की पूँछ से जमीन झाड़ दी होगी। अथवा जंगल के पेड़ों की छालों से या पुराने फटे कपड़ों से जमीन पोंछ दी होगी। शनैः शनै: उसने केवल उस काम के लिए एक साधन का आविष्कार किया और जमीन झाड़कर साफ करने के लिए झाड़ू नाम का साधन प्रकट हुआ। जंगल में या अपने गाँव में उपलब्ध योग्य चीज से मानव ने झाड़ू बनाना शुरू किया। शुचिता को बनाए रखने के लिए एक विशेष साधन मानव के लौकिक जीवन में प्रविष्ट हुआ।
सहयोग से जब संस्कृति अधिकाधिक प्रगट हो जाती है,
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तब उस विशेष स्थिति को सभ्यता कहते हैं। शुचिता
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सांस्कृतिक मूल्यों में एक है। वह मानव का अनिवार्य गुण
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है। उसके लिए अपना निवास स्थान स्वच्छ रहना
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आवश्यक है। उसके लिए मानव के आय दिनों में घोड़े
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जैसे जानवरों Al ds से जमीन are दी होगी। अथवा
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जंगल के पेड़ों की छालों से या पुराने फटे कपड़ों से जमीन
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पोंछ दी होगी। शनैः शनै:उसने केवल उस काम के लिए
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एक साधन का आविष्कार किया और जमीन झाड़कर साफ
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करने के लिए झाड़ू नाम का साधन प्रकट हुआ। जंगल में
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या अपने गाँव में उपलब्ध योग्य चीज से मानव ने झाड़ू
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बनाना शुरू किया। शुचिता को बनाए रखने के लिए एक
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विशेष साधन मानव के लौकिक जीवन में प्रविष्ट हुआ।
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बिजली आयी, विज्ञान आगे बढ़ा, और झाड़ू के बदले
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आया “डस्टर'। घोड़े की पूँढ से “डस्टर'ं तक की यात्रा
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सभ्यता की है। इस सभ्यता का प्राणरूपी सांस्कृतिक मूल्य
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शुचिता है जो कभी नहीं बदला, स्थिर रहा।
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शुचिता को ही आगे बढ़ाएँ। व्यक्तिगत जीवन में
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बिजली आयी, विज्ञान आगे बढ़ा, और झाड़ू के बदले आया “डस्टर'। घोड़े की पूँढ से "डस्टर" तक की यात्रा सभ्यता की है। इस सभ्यता का प्राणरूपी सांस्कृतिक मूल्य शुचिता है जो कभी नहीं बदला, स्थिर रहा।
शुचिता की माँग है स्नान। पशु पक्षी भी स्नान करते हैं।
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किन्तु मानव ने स्नान को विशेष स्थान दिया और नियमित
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स्नान उसके जीवन की चर्या बन गयी। प्रारम्भ के दिनों में
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उसने भी जानवर जैसा, जहाँ जहाँ पहुँचा वहाँ स्नान किया
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होगा। जब जब सूझा उस समय किया होगा। स्नान के
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समय की नियमितता नहीं रही होगी। जीवन सुल्यवस्थित
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करने AL Sea A OMA: BA:
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शुचिता को ही आगे बढ़ाएँ। व्यक्तिगत जीवन में शुचिता की माँग है स्नान। पशु पक्षी भी स्नान करते हैं। किन्तु मानव ने स्नान को विशेष स्थान दिया और नियमित स्नान उसके जीवन की चर्या बन गयी। प्रारम्भ के दिनों में उसने भी जानवर जैसा, जहाँ जहाँ पहुँचा वहाँ स्नान किया होगा। जब जब सूझा उस समय किया होगा। स्नान के समय की नियमितता नहीं रही होगी।
उसने उसकी व्यवस्था की। वह नदी के किनारे जाने लगा |
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धीरे धीरे व्यवस्था में सुधार लाते उसने घाट बनाये, घाट
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पर सीढ़ियाँ बनायीं। इसकी नितांत आवश्यकता को
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मानकर लोकोपकार के नाते लोकप्रिय उदारमतियों ने अपने
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महल के बहुत दूर क्‍यों न हो लम्बे लम्बे घाट बनवाये।
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वास्तुकला का विकास होते होते उसने स्नान करने की
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अलग व्यवस्था घर के पास बनवायी। तालाब अस्तित्व में
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आया। कुँआ अस्तित्व में आया। विज्ञान आगे बढ़ते बंद
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कमरे में स्नान करने के लिए मकान के अन्दर नल का पानी
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आने लगा। अब गंगाजी से सौ मील दूर के नगर में
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आदमी अपने शयन कमरे से सटे हुए स्नानघर में गंगाजल
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से स्नान करता है !
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यहाँ अपरिवर्तित मूल्य है शुचिता। उसके लिए जो
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जीवन सुव्यवस्थित करने की अन्तः प्रेरणा से शनैः शनैः उसने उसकी व्यवस्था की। वह नदी के किनारे जाने लगा, धीरे धीरे व्यवस्था में सुधार लाते उसने घाट बनाये, घाट पर सीढ़ियाँ बनायीं। इसकी नितांत आवश्यकता को मानकर लोकोपकार के नाते लोकप्रिय उदारमतियों ने अपने महल के बहुत दूर क्‍यों न हो लम्बे लम्बे घाट बनवाये।
व्यवस्थाएँ समय समय पर बनायी गयीं, वे बदलती गयीं।
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इस बदलाव का हेतु अनुसंधान व आविष्कार और मूलतः
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मानव की कल्पकता है। उसके कारण नया नया निर्माण
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होता गया, नयी नयी व्यवस्था आती रहीं। वह
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समाजव्यापी होती गयीं। आम जनता उसमें अधिक सुविधा
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महसूस करने लगी। उस मानवी प्रयास की परिणति दृष्टिगत
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हुई। इस प्रक्रिया को सभ्यता कहते हैं।
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शुचिता के समान और दो गुण हैं दया और दान।
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वास्तुकला का विकास होते होते उसने स्नान करने की अलग व्यवस्था घर के पास बनवायी। तालाब अस्तित्व में आया। कुँआ अस्तित्व में आया। विज्ञान आगे बढ़ते बंद कमरे में स्नान करने के लिए मकान के अन्दर नल का पानी आने लगा। अब गंगाजी से सौ मील दूर के नगर में आदमी अपने शयन कमरे से सटे हुए स्नानघर में गंगाजल से स्नान करता है !
भिखारी को भीख देना, भूखे को खाना देना, मरीज की सेवा
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करना आदि मानवीयता से सम्पन्न सुसंस्कृत मानव के कर्तव्य
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हैं। भारत का हर गृहस्थ उन कर्तव्यों को वैयक्तिक तौर पर
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निभाता गया। धीरे धीरे वह समविचारी साथियों के सहयोग
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से अधिक लोगों को उनकी सेवा का लाभ मिले इस दृष्टि से
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योग्य व्यवस्थाएँ और संस्थाएँ बनाता गया। उससे सार्वजनिक
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कुँआ, प्याऊ, लंगरखाना, चिकित्सालय, अनाथालय,
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धर्मशाला आदि का निर्माण हुआ। भारत के इस पुरातन देश
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में प्राचीन काल से ही यह चलता आया। आचार्य चाणक्य
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के ग्रंथ में इसका स्पष्ट उद्लेख है। उसी प्रकार यहाँ आये
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विदेशी यात्रियों के अनुभव कथनों में भी इसका विवरण पर्याप्त
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मात्रा में है। उससे उनका निष्कर्ष था कि भारत की सभ्यता
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उच्च कोटि की थी।
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इसी प्रकार का है विद्यादान का | गुण। उसके लिए आदिम स्थान था आचार्य का घर।
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यहाँ अपरिवर्तित मूल्य है शुचिता। उसके लिए जो व्यवस्थाएँ समय समय पर बनायी गयीं, वे बदलती गयीं। इस बदलाव का हेतु अनुसंधान व आविष्कार और मूलतः मानव की कल्पकता है। उसके कारण नया नया निर्माण होता गया, नयी नयी व्यवस्था आती रहीं। वह समाजव्यापी होती गयीं। आम जनता उसमें अधिक सुविधा महसूस करने लगी। उस मानवी प्रयास की परिणति दृष्टिगत हुई। इस प्रक्रिया को सभ्यता कहते हैं।
क्रमशः गुरुकुल विकसित हुआ। बड़े बड़े विद्यालय निर्मित हुए। आगे चलकर समाज से प्राप्त धन से शताधिक आचार्यों द्वारा अध्यापित नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला, काशीपुरम् जैसे विश्वविद्यालयों का उदय हुआ। उनका उल्लेख करते हुए विश्व के सभी इतिहासकारों का अभिप्राय है। कि तत्कालीन भारतीय सभ्यता अप्रतिम थी।
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दृष्टान्त के नाते हमने ऊपर केवल चार गुणों का विचार किया। इसी प्रकार का सभी सांस्कृतिक गुणों का सभ्यता की ओर विकास होता रहा है।
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सभ्यता का यह विकास संस्कृति को भी विकसित | करता है। जब दान, दया, शुचिता, विद्यादान गुण मात्र
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वैयक्तिक रहते हैं तब उस व्यक्ति का दृष्टिकोण परोपकार से पुण्य कमाने का रहता है। दान देकर स्वर्ग में पहुँचने का रहता है। किन्तु उसके लिए किया जाता प्रबन्ध जब वृहदाकार का होता है, सामूहिक सहकारिता का होता है। तब भागीदारों का दृष्टिकोण वैयक्तिक पुण्य से ऊपर उठकर व्यक्ति निरपेक्ष समष्टि पुण्य का हो जाता है। तब उद्धार समष्टि का होता है।
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शुचिता के समान और दो गुण हैं दया और दान। भिखारी को भीख देना, भूखे को खाना देना, मरीज की सेवा करना आदि मानवीयता से सम्पन्न सुसंस्कृत मानव के कर्तव्य हैं। भारत का हर गृहस्थ उन कर्तव्यों को वैयक्तिक तौर पर निभाता गया। धीरे धीरे वह समविचारी साथियों के सहयोग से अधिक लोगों को उनकी सेवा का लाभ मिले इस दृष्टि से योग्य व्यवस्थाएँ और संस्थाएँ बनाता गया। उससे सार्वजनिक कुँआ, प्याऊ, लंगरखाना, चिकित्सालय, अनाथालय, धर्मशाला आदि का निर्माण हुआ। भारत के इस पुरातन देश में प्राचीन काल से ही यह चलता आया। आचार्य चाणक्य के ग्रंथ में इसका स्पष्ट उल्लेख है। उसी प्रकार यहाँ आये विदेशी यात्रियों के अनुभव कथनों में भी इसका विवरण पर्याप्त मात्रा में है। उससे उनका निष्कर्ष था कि भारत की सभ्यता उच्च कोटि की थी।
वास्तव में यही है संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध। संस्कृति के कारण वृद्धिंगत ज्ञान के भरोसे सभ्यता लोकोपकारी दिशा में विकसित हो जाती है और विकसित सभ्यता के कारण चिरन्तन मूल्यों से संस्कृति सर्वसमावेशी हो जाती है।
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== आधुनिकता ==
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इसी प्रकार का है विद्यादान का गुण। उसके लिए आदिम स्थान था आचार्य का घर। क्रमशः गुरुकुल विकसित हुआ। बड़े बड़े विद्यालय निर्मित हुए। आगे चलकर समाज से प्राप्त धन से शताधिक आचार्यों द्वारा अध्यापित नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला, काशीपुरम् जैसे विश्वविद्यालयों का उदय हुआ। उनका उल्लेख करते हुए विश्व के सभी इतिहासकारों का अभिप्राय है कि तत्कालीन भारतीय सभ्यता अप्रतिम थी। दृष्टान्त के नाते हमने ऊपर केवल चार गुणों का विचार किया। इसी प्रकार का सभी सांस्कृतिक गुणों का सभ्यता की ओर विकास होता रहा है। सभ्यता का यह विकास संस्कृति को भी विकसित करता है। जब दान, दया, शुचिता, विद्यादान गुण मात्र वैयक्तिक रहते हैं तब उस व्यक्ति का दृष्टिकोण परोपकार से पुण्य कमाने का रहता है। दान देकर स्वर्ग में पहुँचने का रहता है। किन्तु उसके लिए किया जाता प्रबन्ध जब वृहदाकार का होता है, सामूहिक सहकारिता का होता है। तब भागीदारों का दृष्टिकोण वैयक्तिक पुण्य से ऊपर उठकर व्यक्ति निरपेक्ष समष्टि पुण्य का हो जाता है। तब उद्धार समष्टि का होता है। वास्तव में यही है संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध। संस्कृति के कारण वृद्धिगत ज्ञान के भरोसे सभ्यता लोकोपकारी दिशा में विकसित हो जाती है और विकसित सभ्यता के कारण चिरन्तन मूल्यों से संस्कृति सर्वसमावेशी हो जाती है।
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‘आधुनिक' मात्र एक कालवाचक पद नहीं है, यह गुणवाचक पद भी है। ‘आधुनिक' एक काल खंड है और ‘आधुनिकता' जीवन और जगत के प्रति एक विचार दृष्टि। सोलहवीं सदी के इटली के लोरेंस आदि नगर राज्यों के | ‘पुनर्जागरण' (Renaissance) से आधुनिकता का प्रारम्भ माना जाता है। यह ईसाई धर्म एवं परम्परा के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी जिसने लगभग बारह सौ वर्षों तक यूरोपीय देशों पर अपना धार्मिक, वैचारिक एवं राजनीतिक वर्चस्व
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== आधुनिकता<ref>यह आलेख लखनऊ के डॉ. राकेश मिश्रा द्वारा प्रस्तुत है</ref> ==
बनाए रखा। वैसे आधुनिक विचार दृष्टि का बीजारोपण | चौदहवीं एवं पन्द्रहवीं शताब्दियों में ही हो गया था। विलियम ऑफ ओकम, मार्सिलियो ऑफ पेडुया, बाइक्लिफ आदि दार्शनिकों ने चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार का सुधार करने का जो मार्ग बताया उसने व्यक्तिवादी, बुद्धिवादी और इहलोकवादी मान्यताओं को पुष्ट किया। यहीं मान्यताएं आधुनिकता का आधार स्तम्भ बनीं। इन दार्शनिकों ने लौकिक एवं पारलौकिक के मध्य भेद करते। हुए लौकिक मामलों में चर्च के हस्तक्षेप तथा धार्मिक एवं नैतिक सिद्धांतों के अनुशासन को अनुचित बताया और इस प्रकार धर्मसत्ता की सर्वोच्चता एवं व्यापकता को चुनौती दी।
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सोलहवीं सदी के पुनर्जागरण ने यूनानी एवं रोमन सभ्यता की दुहाई देते हुए जिस “मानववाद' (Humanism) को पुनर्प्रतिष्ठित किया वह एक स्वयंभू मनुष्य (Masterless Man), एक स्वत्वसंपन्न मनुष्य (Possessive Individual) की प्रतिष्ठा थी। इस मानववाद की अन्य
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‘आधुनिक' मात्र एक कालवाचक पद नहीं है, यह गुणवाचक पद भी है। ‘आधुनिक' एक काल खंड है और ‘आधुनिकता' जीवन और जगत के प्रति एक विचार दृष्टि। सोलहवीं सदी के इटली के लोरेंस आदि नगर राज्यों के ‘पुनर्जागरण' (Renaissance) से आधुनिकता का प्रारम्भ माना जाता है। यह ईसाई धर्म एवं परम्परा के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी, जिसने लगभग बारह सौ वर्षों तक यूरोपीय देशों पर अपना धार्मिक, वैचारिक एवं राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखा। वैसे आधुनिक विचार दृष्टि का बीजारोपण चौदहवीं एवं पन्द्रहवीं शताब्दियों में ही हो गया था। विलियम ऑफ ओकम, मार्सिलियो ऑफ पेडुया, बाइक्लिफ आदि दार्शनिकों ने चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार का सुधार करने का जो मार्ग बताया उसने व्यक्तिवादी, बुद्धिवादी और इहलोकवादी मान्यताओं को पुष्ट किया। यहीं मान्यताएं आधुनिकता का आधार स्तम्भ बनीं। इन दार्शनिकों ने लौकिक एवं पारलौकिक के मध्य भेद करते हुए लौकिक मामलों में चर्च के हस्तक्षेप तथा धार्मिक एवं नैतिक सिद्धांतों के अनुशासन को अनुचित बताया और इस प्रकार धर्मसत्ता की सर्वोच्चता एवं व्यापकता को चुनौती दी।
अभिव्यक्तियाँ नामवाद (Nominalism), व्यक्तिवाद (Individualism), इहलोकवाद (Secularism) एवं वैज्ञानिक बुद्धिवाद (Scientieic Rationalism) हैं जिन्होंने
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आधुनिक विचार दृष्टि को बौद्धिक पोषण दिया है। प्रोटेस्टेन्ट सुधार आन्दोलन के जनक मार्टिन लूथर ने प्रोटेस्टेन्ट ईसाईयत के जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया वे ईसाई धर्म परम्परा की साकल्यवादी (Holistic) दृष्टि को नकार कर धर्म के क्षेत्र में भी व्यक्तिवाद' की स्थापना करते हैं। यूं तो मार्टिन लूथर तथा अन्यान्य धर्म सुधारकों का उद्देश्य चर्च में व्याप्त नैतिक अध:पतन को दूर कर ईसाईयत को परिशुद्ध करना था, परन्तु वास्तव में इस धर्म सुधार आन्दोलन ने ईसाई धर्म परम्परा पर ही कुठाराघात किया और धर्म तत्व का ही तिरस्कार किया। धर्मसुधार
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आन्दोलन ने पहले संशय और कालान्तर में अनास्था को
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बल प्रदान किया। अत: जिस मानववाद का प्रतिपादन
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सोलहवीं सदी के पुनर्जागरण ने यूनानी एवं रोमन सभ्यता की दुहाई देते हुए जिस “मानववाद' (Humanism) को पुनर्प्रतिष्ठित किया वह एक स्वयंभू मनुष्य (Masterless Man), एक स्वत्वसंपन्न मनुष्य (Possessive Individual) की प्रतिष्ठा थी। इस मानववाद की अन्य अभिव्यक्तियाँ नामवाद (Nominalism), व्यक्तिवाद (Individualism), इहलोकवाद (Secularism) एवं वैज्ञानिक बुद्धिवाद (Scientific Rationalism) हैं जिन्होंने आधुनिक विचार दृष्टि को बौद्धिक पोषण दिया है।  
पुनर्जागरण काल के दार्शनिकों ने किया था, उसी प्रकार की
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विचार दृष्टि को मार्टिन लूथर आदि सुधारकों ने अंगीकार
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किया। इसीलिए पाश्चात्य विद्वान आधुनिकता के दो स्रोत
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- पुनर्जागरण एवं धर्म सुधार मानते हैं। पुनर्जागरण एवं धर्म
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सुधार दोनों ने ही धर्माधिष्ठित सभ्यता को छिनन भिन्न करने
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का कार्य किया और अन्तत: भैतिक इहलोकवादी जीवन
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दृष्टि को आधिकारिक बनाने में सफल रहे। अठारहवीं सदी
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के wre & ‘fagaalerant’ (Encyclopaedist) & a4
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से प्रसिद्ध दार्शनिकों जैसे दिदरो, वाल्तेयर, हॉलबाक आदि
  −
ने इस चिन्तन धारा को और तीव्र किया और कहा कि यदि
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मानव अपनी बुद्धि को धर्म व परम्परा के अधोगामी प्रभाव
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से मुक्त कर ले तो वह प्रगति का अन्तहीन मार्ग प्रशस्त कर
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सकता है। उन्‍नीसवीं सदी में आगस्त काम्त नामक फ्रेंच
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दार्शनिक ने इन्ट्रियजन्य अनुभव व तर्क बुद्धि की सर्वोपरिता
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पर आधारित प्रत्यक्षवादी (०50५5) दर्शन का प्रतिपादन
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किया। उसका दावा था कि प्रत्यक्षवादी दर्शन में सम्पूर्ण
  −
मानव जीवन की पुर्नरचना के सूत्र प्रदान किए गए हैं जो
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एक कालजयी आधुनिक सभ्यता का निर्माण करेंगे।
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आधुनिकता मनुष्य को स्वयंभू (5616€-हा०५ा0९)
  −
मानती है। इसके अनुसार मनुष्य इन्ट्रियजन्य अनुभव एवं
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बुद्धिबल के संयोग से सृष्टि के सभी रहस्यों का ज्ञान प्राप्त
  −
करने में सक्षम है और मानव इतिहास इसी दिशा में गतिमान
  −
है। आधुनिक विचारदृष्टि मनुष्य की सर्वज्ञता की प्रतिपादक
  −
रही है। आधुनिक ज्ञान विज्ञान यह मानता है कि मनुष्य
  −
अनुभव, प्रयोग और तर्क शक्ति के बल पर प्रकृति व
  −
समाज के सभी पक्षों को प्रकाशित कर सकता है और इस
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प्रकार अभूतपूर्व भौतिक एवं आर्थिक उपलब्धियाँ हासिल
  −
कर सकता है। आधुनिक ज्ञान मीमांसा में ऋतम्भरा प्रज्ञा व
  −
आत्मानुभूति के लिए कोई स्थान नहीं है। आधुनिक काल
  −
की तीन प्रमुख फ्रांतियाँ -१७७६ की. अमेरिकी
  −
क्रान्ति, १७८९ की फ्रांसीसी क्रान्ति और १९१७ की
  −
बोल्शेविक क्रान्ति के द्वारा प्रत्यक्षवादी सिद्धांतों के आधार
  −
पर राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक व्यवस्थाओं का
  −
कायाकल्प करने का प्रयास किया गया। इन फ्रान्तियों ने
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एक ऐसे “सेक्युलर यूटोपिया' की खोज
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प्रोटेस्टेन्ट सुधार आन्दोलन के जनक मार्टिन लूथर ने प्रोटेस्टेन्ट ईसाईयत के जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया वे ईसाई धर्म परम्परा की साकल्यवादी (Holistic) दृष्टि को नकार कर धर्म के क्षेत्र में भी व्यक्तिवाद' की स्थापना करते हैं। यूं तो मार्टिन लूथर तथा अन्यान्य धर्म सुधारकों का उद्देश्य चर्च में व्याप्त नैतिक अध:पतन को दूर कर ईसाईयत को परिशुद्ध करना था, परन्तु वास्तव में इस धर्म सुधार आन्दोलन ने ईसाई धर्म परम्परा पर ही कुठाराघात किया और धर्म तत्व का ही तिरस्कार किया। धर्मसुधार आन्दोलन ने पहले संशय और कालान्तर में अनास्था को बल प्रदान किया। अत: जिस मानववाद का प्रतिपादन पुनर्जागरण काल के दार्शनिकों ने किया था, उसी प्रकार की विचार दृष्टि को मार्टिन लूथर आदि सुधारकों ने अंगीकार किया। इसीलिए पाश्चात्य विद्वान आधुनिकता के दो स्रोत- पुनर्जागरण एवं धर्म सुधार मानते हैं। पुनर्जागरण एवं धर्मसुधार दोनों ने ही धर्माधिष्ठित सभ्यता को छिन्न भिन्न करने का कार्य किया और अन्तत: भौतिक इहलोकवादी जीवनदृष्टि को आधिकारिक बनाने में सफल रहे। अठारहवीं सदी के फ्रांस के विश्वकोशकारों (Encyclopedist) के नाम से प्रसिद्ध दार्शनिकों जैसे दिदरो, वाल्तेयर, हॉलबाक आदि ने इस चिन्तन धारा को और तीव्र किया और कहा कि यदि मानव अपनी बुद्धि को धर्म परम्परा के अधोगामी प्रभाव से मुक्त कर ले तो वह प्रगति का अन्तहीन मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
का प्रयास किया जिसमें मनुष्य को पृथ्वी पर ही स्वर्गीय
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सुखों की प्राप्ति हो सके और परलोकवाद अप्रासंगिक हो
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जाए। प्रसिद्ध चिन्तक एरिक वोगलिन ने “नया यथार्थ'
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(Second Reality) Tet की इस महत्वाकांक्षा को
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आधुनिकता का मिशन बताते हुए टिप्पणी की है कि
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परम्परागत समाज की मान्यताएं सत्य का प्रतिबिम्ब होती हैं
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जबकि आधुनिक विचार दृष्टि सत्य को मान्यताओं की
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उपज मानती है। प्रत्यक्षबादी दृष्टिकोण ने किसी लोकोत्तर
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सत्ता व विधान को अस्वीकार किया. और aan:
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आधुनिक विचारकों (विशेशत: नीत्शे) ने “ईश्वर की मृत्यु'
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(Death of God) की घोषणा कर दी। बीसवीं सदी के
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परम्परावादी फ्रेंच विचारक रेने गेनों ने उचित ही कहा है कि
  −
आधुनिक मानववाद में किसी आधिभौतिक, आधिदैविक
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एवं आध्यात्मिक सत्य सत्ता के लिए कोई स्थान नहीं हो
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सकता। आधुनिक मनुष्य अपने को विराटू पुरुष के अंग के
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रूप में नहीं देखता। वह सत्य का शिल्पी बनना चाहता है,
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अन्वेशक बने रहना उसे संतुष्ट नहीं करता।
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आधुनिक विचार दृष्टि व्यक्ति, समाज एवं ब्रहमाण्ड
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उन्‍नीसवीं सदी में आगस्त काम्त नामक फ्रेंच दार्शनिक ने इन्द्रियजन्य अनुभव तर्क बुद्धि की सर्वोपरिता पर आधारित प्रत्यक्षवादी (Positivist) दर्शन का प्रतिपादन किया। उसका दावा था कि प्रत्यक्षवादी दर्शन में सम्पूर्ण मानव जीवन की पुर्नरचना के सूत्र प्रदान किए गए हैं जो एक कालजयी आधुनिक सभ्यता का निर्माण करेंगे।
को यंत्र के रूप में देखती है। उसके लिए व्यक्ति कुछ
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रासायनिक एवं जैविक क्रियाओं इच्छाओं, भावनाओं
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एवं तर्कबुद्धि का योग (888९88६९€) है; समाज व्यक्तियों
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व उनके द्वारा गढ़ी गई संस्थाओं का योग एवं ब्रह्माण्ड
  −
परमाणुओं व उनमें निहित ऊर्जा को योग है। इस विचारदृष्टि
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में किसी साकल्यवादी एवं सावयविक परिप्रेकष्य का अभाव
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है। इसमें एक के अनेक होने की मान्यता के लिए कोई
  −
गुंजाइश नहीं। यह स्वायत्त, असम्बद्ध अनेक को एक कृत्रिम
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एकता व संदेहास्पद्‌ स्थिरता प्रदान करने का प्रयास करती
  −
है। यूनानी, रोमन व ईसाई सभ्यताओं ने जिस ईश्वर केन्द्रित
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(06०८९) ब्रहमाण्ड की मान्यता को प्रतिपादित
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किया, आधुनिकता उसे अस्वीकार कर मानव केंद्रित
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(Homocentric) Seams Al aT al sfeafer
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करती है। ज्ञान एवं पुरुषार्थ के उच्चतर सोपानों के प्रति
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उपेक्षा या अस्वीकृति का भाव उसकी विशेषता है। समग्र
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जीवन दृष्टि के अभाव में मावन जीवन के सभी क्षेत्र
     −
समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था, कला
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आधुनिकता मनुष्य को स्वयंभू (self-grounded) मानती है। इसके अनुसार मनुष्य इन्ट्रियजन्य अनुभव एवं बुद्धिबल के संयोग से सृष्टि के सभी रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम है और मानव इतिहास इसी दिशा में गतिमान है। आधुनिक विचारदृष्टि मनुष्य की सर्वज्ञता की प्रतिपादक रही है। आधुनिक ज्ञान विज्ञान यह मानता है कि मनुष्य अनुभव, प्रयोग और तर्क शक्ति के बल पर प्रकृति व समाज के सभी पक्षों को प्रकाशित कर सकता है और इस प्रकार अभूतपूर्व भौतिक एवं आर्थिक उपलब्धियाँ हासिल कर सकता है। आधुनिक ज्ञान मीमांसा में ऋतम्भरा प्रज्ञा व आत्मानुभूति के लिए कोई स्थान नहीं है।  
एवं साहित्य आदि स्वतंत्र हो गए और अपने नियामक
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सिद्धांतों को स्वयं गढ़ने लगे। इसी कारण आधुनिक चिन्तन
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में गंभीर बिखराव दृष्टिगोचर होता है। आधुनिक विचारदृष्टि
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ने जीवन को असाधारण रूप से जटिल बना दिया है और
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इससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं को कृत्रिम, आपातिक
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एवं तात्कालिक समाधानों से हल करने का उपक्रम होता
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है।
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व्यक्ति को स्वपर्याप्त, पृथक एवं असम्बद्ध प्राणी
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आधुनिक काल की तीन प्रमुख क्रांतियाँ -१७७६ की अमेरिकी क्रान्ति, १७८९ की फ्रांसीसी क्रान्ति और १९१७ की बोल्शेविक क्रान्ति के द्वारा प्रत्यक्षवादी सिद्धांतों के आधार पर राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक व्यवस्थाओं का कायाकल्प करने का प्रयास किया गया। इन क्रांतियों ने एक ऐसे "सेक्युलर यूटोपिया" की खोज का प्रयास किया जिसमें मनुष्य को पृथ्वी पर ही स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति हो सके और परलोकवाद अप्रासंगिक हो जाए। प्रसिद्ध चिन्तक एरिक वोगलिन ने "नया यथार्थ" (Second Reality) गढ़ने की इस महत्वाकांक्षा को आधुनिकता का मिशन बताते हुए टिप्पणी की है कि परम्परागत समाज की मान्यताएं सत्य का प्रतिबिम्ब होती हैं जबकि आधुनिक विचार दृष्टि सत्य को मान्यताओं की उपज मानती है। प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण ने किसी लोकोत्तर सत्ता व विधान को अस्वीकार किया  और अंततः आधुनिक विचारकों (विशेशत: नीत्शे) ने "ईश्वर की मृत्यु" (Death of God) की घोषणा कर दी।
मानने के फलस्वरूप सामाजिक संस्थाओं व सम्बन्धों को
  −
पवित्रता की दृष्टि से नहीं, वरन्‌ उपयोगिता की दृष्टि से देखा
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जाता है। आधुनिक समाजशास्त्र, राजशास्त्र व नीतिशास्त्र में
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अनुबन्धवादी  व्यवहारिकतावादी,  उपयोगितावादी एवं
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परिणामवादी सिद्धांतों की जो बाढ़ आई उसका कारण
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व्यष्टि और समष्टि के अन्तर्सम्बन्ध को समझने की सम्यक्‌
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दृष्टि का अभाव है। स्वकेन्द्रित व्यक्ति की अवधारणा पर
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आधारित समाज व्यवस्था अधिकार, स्वतंत्रता समानता;
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अर्थ व्यवस्था भोग व लाभ; साहित्य, कला प्राकृत जन के
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स्तुतिगान और ज्ञानविज्ञान भौतिक उपलब्धियों पर केंद्रित
  −
हों यह स्वाभाविक ही है। स्पष्ट: मानवीय पुरुषार्थ को
  −
भौतिक एवं आर्थिक हितों व लक्ष्यों तक सीमित रखने का
  −
यह उपक्रम ईसा के इस उपदेश के नितान्त विरुद्ध है जिसमें
  −
उन्होनें यह घोषित किया कि मानव जीवन केवल रोटी के
  −
लिए नहीं है।
     −
आधुनिक राजदार्शनिकों ने व्यक्ति-राज्य सम्बन्धों को
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बीसवीं सदी के परम्परावादी फ्रेंच विचारक रेने गेनों ने उचित ही कहा है कि आधुनिक मानववाद में किसी आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक सत्य व सत्ता के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। आधुनिक मनुष्य अपने को विराट पुरुष के अंग के रूप में नहीं देखता। वह सत्य का शिल्पी बनना चाहता है, अन्वेशक बने रहना उसे संतुष्ट नहीं करता।
स्पष्ट करने के लिए अनेकानेक विचारधाराओं (1060108/९5)
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al wel el Seka, aaa, आदर्शवाद,
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अराजकतावाद और फिर प्रत्येक के अनेक संस्करणों के द्वारा
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राजनीति के मूल स्वरूप की व्याख्या की गई है। परन्तु
  −
राजशास्त्र के इन विद्वानों के बीच मूल प्रश्नों को लेकर इतना
  −
मत मतान्तर है, इतना विवाद है कि प्रश्न और उलझते जाते
  −
हैं और विचार की स्वतंत्रता एवं सापेक्षता को ढाल बनाकर
  −
इस संश्रम से आँख चुरा ली जाती है। चिन्तन के
  −
लोकतंत्रीकरण से उपजी “सापेक्षतावाद की तानाशाही'
  −
(Dictatorship of Relativism) 4 हर प्रश्न एवं हर उत्तर
     −
को संदिग्ध बना दिया है। किसी भी विचार दृष्टि को
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आधुनिक विचार दृष्टि व्यक्ति, समाज एवं ब्रहमाण्ड को यंत्र के रूप में देखती है। उसके लिए व्यक्ति कुछ रासायनिक एवं जैविक क्रियाओं व इच्छाओं, भावनाओं एवं तर्कबुद्धि का योग (Aggregate) है; समाज व्यक्तियों व उनके द्वारा गढ़ी गई संस्थाओं का योग एवं ब्रह्माण्ड परमाणुओं उनमें निहित ऊर्जा को योग है। इस विचारदृष्टि में किसी साकल्यवादी एवं सावयविक परिप्रेकष्य का अभाव है। इसमें एक के अनेक होने की मान्यता के लिए कोई गुंजाइश नहीं। यह स्वायत्त, असम्बद्ध अनेक को एक कृत्रिम एकता संदेहास्पद्‌ स्थिरता प्रदान करने का प्रयास करती है।
विश्वदृष्टि माना जा सकता है। अब व्यक्ति-राज्य सम्बन्ध
  −
को ही लीजिए। कुछ राजशास्त्रियों ने उन्हें मूलतः
  −
विरोधात्मक मान कर राज्य को आवश्यक या अनावश्यक
  −
बुराई घोषित किया है तो कुछ ने राज्य को इतना
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महत्वाकांक्षी एवं महिमामय माना कि व्यक्ति का राज्य में
  −
विलोपन ही कर दिया। कहीं राज्य के विलोपन का पक्षपोषण
  −
और कहीं व्यक्ति के विलोपन का। कहीं राज्य के कार्यक्षेत्र
  −
के विस्तार का पक्षपोषण कहीं राज्य के संकुचन का।
  −
आधुनिक राजनीति ने राष्ट्रीयता को भी एक नया अर्थ प्रदान
  −
किया।. भाषा /प्रजातीयता पर. आधारित राष्ट्र-राज्य
  −
(एम0ा-5ए8६6) के मिथक को गढ़ा गया और इसी आधार
  −
पर पुनर्जागरण काल के उपरान्त यूरोप की राजनीतिक
  −
संरचना को एक नया स्वरूप प्राप्त हुआ। इस राष्ट्र-राज्य को
  −
AI (Sovereign) घोषित कर विधि का एकमात्र wd
  −
सर्वोच्च स्रोत माना गया। राज्य ही नहीं, परिवार, विवाह,
  −
अर्थ व्यवस्था, भाषा, संस्कृति आदि की प्रकृति व उद्देश्य
  −
की व्याख्या प्रत्यक्षबादी दृष्टिकोण से की गई।
  −
आधुनिकता का उदय तो यूरोप में हुआ परन्तु
  −
यूरोपीय साप्राज्यवाद के साथ वह विश्व के कोने कोने में
  −
पहुँची। आधुनिक विज्ञान के तीव्र विकास के फलस्वरूप
  −
औद्योगिक क्रान्ति हुई और उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई।
  −
नव धनादय यूरोप ने अपनी इस भौतिक एवं आर्थिक प्रगति
  −
को आधुनिक विचार की श्रेष्ठता का प्रमाण माना। एशिया,
  −
अफ्रीका व लेटिन अमेरिका की परम्परागत संस्कृतियाँ कभी
  −
बलात्‌ और कभी स्वेच्छा से इस आधुनिक विचार दृष्टि को
  −
अंगीकार करने लगी। जीवन दृष्टि का यह उपनिवेशीकरण
  −
सर्वव्यापी . होता... गया... और. आधुनिकीकरण
  −
(00207) सामान्य व सुधीजनों , राजनीतिज्ञों
  −
अर्थशास्त्रियों के लिए सर्वोच्च मानदण्ड और मूल्य बन
  −
गया। पूर्व के देशों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त इसी
  −
आधुनिकीकरण को अपना पाथेय बनाया।
  −
आधुनिकता का उदय तो ईसाई धर्म परम्परा के
  −
विरुद्ध हुआ पर वस्तुत: वह हर धर्म व परम्परा की
  −
विघातक है। आधुनिकता यदि प्रकट रूप से नहीं तो
     −
प्रच्छनन रूप से नास्तिकता की पोषक है। महात्मा गांधी ने
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यूनानी, रोमन व ईसाई सभ्यताओं ने जिस ईश्वर केन्द्रित (Theocentric) ब्रहमाण्ड की मान्यता को प्रतिपादित किया, आधुनिकता उसे अस्वीकार कर मानव केंद्रित (Homocentric) ब्रहमाण्ड की मान्यता को प्रतिपादित करती है। ज्ञान एवं पुरुषार्थ के उच्चतर सोपानों के प्रति उपेक्षा या अस्वीकृति का भाव उसकी विशेषता है। समग्र जीवन दृष्टि के अभाव में मावन जीवन के सभी क्षेत्र समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था, कला एवं साहित्य आदि स्वतंत्र हो गए और अपने नियामक सिद्धांतों को स्वयं गढ़ने लगे। इसी कारण आधुनिक चिन्तन में गंभीर बिखराव दृष्टिगोचर होता है। आधुनिक विचारदृष्टि ने जीवन को असाधारण रूप से जटिल बना दिया है और इससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं को कृत्रिम, आपातिक एवं तात्कालिक समाधानों से हल करने का उपक्रम होता है।
इसे ईश्वर से विमुख सभ्यता (Godless civilization)
  −
कहा भी है। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि आधुनिक
  −
सभ्यता के प्रचार के समानान्तर उसकी निंदा व आलोचना
  −
के स्वर भी कम मुखर नहीं रहे हैं। यूरोप व अमेरिका के
  −
अनेक दार्शनिकों, कवियों व साहित्यकारों जैसे कि, एडमंड
  −
बर्क, जोसफ दे Feat, इमर्सन, fea ace,
  −
साल्जेनित्सिन, एरिक वोगलिन, लिओ स्ट्रॉस, टी. एस.
  −
इलियट, रेने गेनों, फ्रिथ्जॉफ शुआन आदि ने आधुनिकता
  −
को सिरे से खारिज किया है। भारत में महात्मा गांधी और
  −
डा. आनन्द कुमारस्वामी आधुनिकता के आसुरी स्वरूप के
  −
कट आलोचक रहे हैं। आधुनिक सभ्यता के मूल सिद्धांतों
  −
पर प्रहार करते हुए महात्मा गान्धी ने “हिन्द स्वराज' में
  −
लिखा है, “इस सभ्यता को धर्म व नैतिकता से कोई लेना
  −
देना ही नहीं है। उसके भक्त कहते हैं कि उनका काम धर्म
  −
की शिक्षा देना नहीं है। कुछ तो धर्म को निरा अन्धविश्वास
  −
मानते हैं। आधुनिक सभ्यता शारीरिक सुखों की वृद्धि पर
  −
केन्द्रित है, पर इसमें भी बुरी तरह विफल है। यह सभ्यता
  −
अआधर्मी है और यूरोप के लोग इसके मोहपाश में पागलपन
  −
की हद तक जकड़ चुके हैं। ...... बस थोड़ा धैर्य रखने की
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आवश्यकता है और यह स्वयं ही विनष्ट हो जाएगी। इस्लाम
  −
की मान्यता के अनुसार यह शैतानी सभ्यता है, हिन्दू
  −
मान्यता के अनुसार यह कलिकाल है।”'
     −
आधुनिकता की मूल प्रतिस्थापनाओं को संक्षेप में
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व्यक्ति को स्वपर्याप्त, पृथक एवं असम्बद्ध प्राणी मानने के फलस्वरूप सामाजिक संस्थाओं व सम्बन्धों को पवित्रता की दृष्टि से नहीं, वरन्‌ उपयोगिता की दृष्टि से देखा जाता है। आधुनिक समाजशास्त्र, राजशास्त्र व नीतिशास्त्र में अनुबन्धवादी  व्यवहारिकतावादी,  उपयोगितावादी एवं परिणामवादी सिद्धांतों की जो बाढ़ आई उसका कारण व्यष्टि और समष्टि के अन्तर्सम्बन्ध को समझने की सम्यक्‌ दृष्टि का अभाव है। स्वकेन्द्रित व्यक्ति की अवधारणा पर आधारित समाज व्यवस्था अधिकार, स्वतंत्रता व समानता; अर्थ व्यवस्था भोग व लाभ; साहित्य, कला प्राकृत जन के स्तुतिगान और ज्ञानविज्ञान भौतिक उपलब्धियों पर केंद्रित हों यह स्वाभाविक ही है। स्पष्ट: मानवीय पुरुषार्थ को भौतिक एवं आर्थिक हितों व लक्ष्यों तक सीमित रखने का यह उपक्रम ईसा के इस उपदेश के नितान्त विरुद्ध है जिसमें उन्होनें यह घोषित किया कि मानव जीवन केवल रोटी के लिए नहीं है।
निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है-
     −
&. Hast a vila (Creature) 7 WHat GST UT
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आधुनिक राजदार्शनिकों ने व्यक्ति-राज्य सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिए अनेकानेक विचारधाराओं (ideologies) को गढ़ा है। उदारवाद, समाजवाद , आदर्शवाद, अराजकतावाद और फिर प्रत्येक के अनेक संस्करणों के द्वारा राजनीति के मूल स्वरूप की व्याख्या की गई है। परन्तु राजशास्त्र के इन विद्वानों के बीच मूल प्रश्नों को लेकर इतना मत मतान्तर है, इतना विवाद है कि प्रश्न और उलझते जाते हैं और विचार की स्वतंत्रता एवं सापेक्षता को ढाल बनाकर इस संश्रम से आँख चुरा ली जाती है।
   −
१०,
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चिन्तन के लोकतंत्रीकरण से उपजी “सापेक्षतावाद की तानाशाही'
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(Dictatorship of Relativism) ने हर प्रश्न एवं हर उत्तर को संदिग्ध बना दिया है। किसी भी विचार दृष्टि को विश्वदृष्टि माना जा सकता है। अब व्यक्ति-राज्य सम्बन्ध को ही लीजिए। कुछ राजशास्त्रियों ने उन्हें मूलतः विरोधात्मक मान कर राज्य को आवश्यक या अनावश्यक बुराई घोषित किया है तो कुछ ने राज्य को इतना महत्वाकांक्षी एवं महिमामय माना कि व्यक्ति का राज्य में विलोपन ही कर दिया। कहीं राज्य के विलोपन का पक्षपोषण और कहीं व्यक्ति के विलोपन का। कहीं राज्य के कार्यक्षेत्र के विस्तार का पक्षपोषण व कहीं राज्य के संकुचन का।
   −
eal (Creator) मानना।
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आधुनिक राजनीति ने राष्ट्रीयता को भी एक नया अर्थ प्रदान किया। भाषा /प्रजातीयता पर आधारित राष्ट्र-राज्य (Nation State) के मिथक को गढ़ा गया और इसी आधार पर पुनर्जागरण काल के उपरान्त यूरोप की राजनीतिक संरचना को एक नया स्वरूप प्राप्त हुआ।
ज्ञान को aqvarda (Transcendental), Ald
  −
(Perennial), अन्तर्मुखी (Introspective) एवं
  −
प्रतिवर्ती (९९९1९:॥४४) न मानकर मनुष्य कृत (४0ा-
  −
medicated, @=aal (Cumulative), बुद्धिपरक
  −
(Rational), seaaarét (Positivist), wa
  −
Mache (Instrumental) AAT |
     −
नैतिकता को दैवीय विधान पर आश्रित न मानकर
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इस राष्ट्र-राज्य को (Sovereign) घोषित कर विधि का एकमात्र एवं सर्वोच्च स्रोत माना गया। राज्य ही नहीं, परिवार, विवाह, अर्थ व्यवस्था, भाषा, संस्कृति आदि की प्रकृति व उद्देश्य की व्याख्या प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण से की गई। आधुनिकता का उदय तो यूरोप में हुआ परन्तु यूरोपीय साम्राज्यवाद के साथ वह विश्व के कोने कोने में पहुँची। आधुनिक विज्ञान के तीव्र विकास के फलस्वरूप औद्योगिक क्रान्ति हुई और उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई।
उपयोगिता एवं परिस्थितिजन्य मानना।
     −
जीवन की साकल्यवादी एवं आत्मवादी विचार दृष्टि
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नव धनाढ्य यूरोप ने अपनी इस भौतिक एवं आर्थिक प्रगति को आधुनिक विचार की श्रेष्ठता का प्रमाण माना। एशिया, अफ्रीका व लेटिन अमेरिका की परम्परागत संस्कृतियाँ कभी बलात्‌ और कभी स्वेच्छा से इस आधुनिक विचार दृष्टि को अंगीकार करने लगी। जीवन दृष्टि का यह उपनिवेशीकरण सर्वव्यापी होता गया और आधुनिकीकरण (modernization) सामान्य व सुधीजनों, राजनीतिज्ञों व अर्थशास्त्रियों के लिए सर्वोच्च मानदण्ड और मूल्य बन गया। पूर्व के देशों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त इसी आधुनिकीकरण को अपना पाथेय बनाया। आधुनिकता का उदय तो ईसाई धर्म परम्परा के विरुद्ध हुआ पर वस्तुत: वह हर धर्म व परम्परा की विघातक है।
के स्थान पर भौतिकवादी एवं व्यक्तिवादी दृष्टि को
  −
मानना।
     −
शिक्षा को सत्योपलब्धि एवं चरित्र गठन का माध्यम
+
आधुनिकता यदि प्रकट रूप से नहीं तो प्रच्छनन रूप से नास्तिकता की पोषक है। महात्मा गांधी ने इसे ईश्वर से विमुख सभ्यता (Godless civilization) कहा भी है। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि आधुनिक सभ्यता के प्रचार के समानान्तर उसकी निंदा व आलोचना के स्वर भी कम मुखर नहीं रहे हैं। यूरोप व अमेरिका के अनेक दार्शनिकों, कवियों व साहित्यकारों जैसे कि, एडमंड बर्क, जोसफ दे मेस्त्रे, इमर्सन, लियो टॉलस्टॉय, साल्जेनित्सिन, एरिक वोगलिन, लिओ स्ट्रॉस, टी. एस. इलियट, रेने गेनों, फ्रिथ्जॉफ शुआन आदि ने आधुनिकता को सिरे से खारिज किया है। भारत में महात्मा गांधी और डा. आनन्द कुमारस्वामी आधुनिकता के आसुरी स्वरूप के कटु आलोचक रहे हैं। आधुनिक सभ्यता के मूल सिद्धांतों पर प्रहार करते हुए महात्मा गान्धी ने 'हिन्द स्वराज' में लिखा है, “इस सभ्यता को धर्म व नैतिकता से कोई लेना-देना ही नहीं है। उसके भक्त कहते हैं कि उनका काम धर्म की शिक्षा देना नहीं है। कुछ तो धर्म को निरा अन्धविश्वास मानते हैं। आधुनिक सभ्यता शारीरिक सुखों की वृद्धि पर केन्द्रित है, पर इसमें भी बुरी तरह विफल है। यह सभ्यता अधर्मी है और यूरोप के लोग इसके मोहपाश में पागलपन की हद तक जकड़ चुके हैं।  इस्लाम की मान्यता के अनुसार यह शैतानी सभ्यता है, हिन्दू मान्यता के अनुसार यह कलिकाल है।"
न मानकर मात्र व्यावसायिक मानना।
     −
न्याय, स्वतंत्रता, समता की अवधारणाओं पर
+
आधुनिकता की मूल प्रतिस्थापनाओं को संक्षेप में निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है-
तत्वशास्त्रीय दृष्टि से नहीं, वरन्‌ स्थूल दृष्टि से विचार
+
# मनुष्य को जीव (Creature) न मानकर सृष्टा (creator) मानना। ज्ञान को अनुभवातीत (Transcendental), सनातन (Perennial), अन्तर्मुखी (Introspective) एवं प्रतिवर्ती (Reflexive) न मानकर मनुष्य कृत (Non-medicated) संचयी (Cumulative), बुद्धिपरक (Rational), प्रत्यक्षवादी (Positivist), एवं साधनात्मक  (Instrumental) मानना |
करना।
+
# नैतिकता को दैवीय विधान पर आश्रित न मानकर उपयोगिता एवं परिस्थितिजन्य मानना।
 
+
# जीवन की साकल्यवादी एवं आत्मवादी विचार दृष्टि के स्थान पर भौतिकवादी एवं व्यक्तिवादी दृष्टि को मानना।
गुणात्मकता पर मात्रा और संख्या बल की प्रधानता।
+
# शिक्षा को सत्योपलब्धि एवं चरित्र गठन का माध्यम न मानकर मात्र व्यावसायिक मानना।
प्रकृति को विराट पुरुष का शरीर न मानकर संसाधन
+
# न्याय, स्वतंत्रता, समता की अवधारणाओं पर तत्वशास्त्रीय दृष्टि से नहीं, वरन्‌ स्थूल दृष्टि से विचार करना।
मात्र मानना।
+
# गुणात्मकता पर मात्रा और संख्या बल की प्रधानता।
 
+
# प्रकृति को विराट पुरुष का शरीर न मानकर संसाधन मात्र मानना।
राजनीति को शक्ति केंद्रित, अर्थव्यवस्था को भोग
+
# राजनीति को शक्ति केंद्रित, अर्थव्यवस्था को भोग केंद्रित और सामाजिक संबंधों को मूलतः अनुबन्धात्मक मानना।
केंद्रित और सामाजिक संबंधों al मूलतः
  −
अनुबन्धात्मक मानना।
  −
 
  −
(यह आलेख लखनौ के डॉ. राकेश मिश्रा के द्वारा
  −
प्रस्तुत है)
      
== शिक्षा ==
 
== शिक्षा ==

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