Ramayana (रामायण)

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भारतवर्ष की साहित्यिक परम्परा में वाल्मीकि को आदिकवि और रामायण को आदिकाव्य कहा गया है। शोक से प्रेरित होकर वाल्मीकि के मुख से ही संस्कृत की प्रथम कविता निर्गत हुई थी। इस विचित्र रचना पर स्वयं वाल्मीकि चकित थे कि ब्रह्मा ने प्रकट होकर उनसे कहा- महर्षि वाल्मीकि के समक्ष शब्दब्रह्म का प्रकाश आविर्भूत हो चुका था, मानवों के लिये उन्होंने शब्द-ब्रह्म के विवर्तरूप रामायण-काव्य की रचना की।

परिचय

कवि अपनी कृति के माध्यम से आदर्शो का प्रकाश विकर्ण कर मानवता को लोक कल्याण के पथ पर प्रशस्त करता है जो कृति केवल मनोरंजन ही कर सकती हैं, दिशा-बोध नहीं कर सकती, क्षणिक भले ही हो जाये। कालजयी कवि वाल्मीकि अपनी सामाजिक रचना रामायण से जन-जन के हृदय में प्रवेश कर गए हैं। वाल्मीकि एक सृजनशील कवि है जिन्होंने आदर्श-मूल्यों को मानव के समक्ष प्रस्तुत कर स्तुत्य कार्य किया है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि रामायण में समस्त जीवन मूल्यों को प्रस्तुत किया है। स्वयं वाल्मीकि ने रामायण के लिए इस गर्वोक्ति को कहा था जो सत्यार्थ प्रतीत हो रही है। वाल्मीकि रामायण न केवल भारत में ही अपितु अन्य भी अनेक देशों में प्रसिद्ध हो गई है - [1]

यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले। तावद्रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यन्ति॥ (वा० रा० १,२,३६-३७)

अतः प्राचीनतम श्रेष्ठ और विशिष्ट होने के साथ आदिकाव्य रामायण के विषय में ब्रह्मा के द्वारा कही गई उपर्युक्त युक्ति सही ही है। रामायण चतुर्विंशति संहिता के नाम से विख्यात है, क्योंकि इसमें २४ हजार श्लोक हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार आदि कवि ने त्रेता युग के प्रारम्भ में , राम के जन्म के पूर्व ही, रामायण की रचना की थी। भारतीय जनजीवन में आदि काव्य धार्मिक ग्रन्थ के रूप में समादृत है।

आदिकवि-वाल्मीकि

आदिकवि वाल्मीकि के विषय में बहुत अधिक उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। भविष्यपुराण के प्रतिसर्गपर्व में वाल्मीकि के विषय में एक कथा का उल्लेख किया गया है। वाल्मीकि के कुल, वंश, विद्याग्रहण आदि के विषय में कहीं कुछ भी उल्लेख नहीं उपलब्ध होता है। अध्यात्मरामायण तथा कृत्तिवासकृत बंगरामायण में वाल्मीकि को च्यवन के पुत्र के रूप में कहा गया है।

रामायण का रचनाकाल

आदिकाव्य रामायण के रचनाकाल के विषय में गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर हमें यह ज्ञात होता है कि यद्यपि वैदिक-साहित्य में रामायण के कुछ पात्रों के नामों का उल्लेख मिलता है, जैसे कि सीता, जनक, राम, मरुत् इत्यादि। परन्तु न तो उनके पारस्परिक सम्बन्ध की कोई सूचना दी गई है और न ही उनके सम्बन्ध में रामायण की कथा का निर्देश कहीं प्राप्त होता है।

रामायण की विषय-वस्तु

वाल्मीकि-रामायण वस्तुतः वह अमर रचना है जिसमें विश्वसनीय तत्वों का समावेश हुआ है, जिस कारण से यह समस्त मानव-समाज को आह्लादित व प्रसन्न कर रही है। वाल्मीकि रामायण की रचना हुए शताब्दियाँ व्यतीत हो गईं है, परन्तु इसका प्रभाव आज भी मानव मस्तिष्क पर उतना ही है जितना यह पूर्व काल में था। वस्तुतः रामायण मानव-हृदय को पूर्णरूप से उद्वेलित करती है। सर्वप्रथम तमसा नदी के तट पर स्नान करते समय घायल क्रौंच के विलाप के द्वारा, बाद में ब्रह्माजी के आदेश से यह रचना की। वाल्मीकि रामायण को ७ काण्डों में विभक्त किया गया है -

  1. बालकाण्ड
  2. अयोध्या काण्ड
  3. अरण्यकाण्ड
  4. किष्किन्धाकाण्ड
  5. सुन्दरकाण्ड
  6. युद्धकाण्ड
  7. उत्तर काण्ड

इस प्रकार से रामायण को ७ काण्डों में विभक्त किया गया है। रामायण-कथा की विलक्षणता यह है कि इसके गायक कोई और नहीं, स्वयं वाल्मीकि शिष्य और राम के पुत्र लव-कुश हैं। इन यमल भाईयों ने राम के समक्ष सम्पूर्ण रामायण का मधुर स्वरों में गायन किया था। आदिकाव्य रामायण को 'चतुर्विंशतिसाहस्रीसंहिता' कहते हैं, अर्थात् इसमें २४ हजार श्लोक हैं।[2]

काण्डों के अनुसार रामायण का कथानक इस प्रकार है -

2. बालकाण्ड - बालकाण्ड में कुल ७७ सर्ग हैं, जिसके प्रारम्भिक चार सर्गों में रामायण के रचना की पूर्वपीठिका और नारद तथा वाल्मीकि का संवाद है। तदुपरान्त नारद से रामकथा सुनकर निषाद द्वारा क्रौंचवध के दृश्य को देखकर आहत वाल्मीकि ने करुणाभाव से आर्तमन होकर रामकथा को काव्यमय बनाया। इसमें राम के जन्म, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, विश्वामित्र के साथ वनगमन, अहिल्या का उद्धार, विश्वामित्र के यज्ञ में विघ्न डालने वाले राक्षसों के वध, सीता स्वयंवर, शिवधनुष का वृत्तान्त, राम-सीता के विवाह सहित अन्य तीनों भाईयों के विवाह की कथा सविस्तार विवेचन है।

2. अयोध्याकाण्ड - अयोध्याकाण्ड में ११९ सर्ग हैं। जिसमें विवाहोपरान्त अयोध्या आगत राम के राज्याभिषेक की तैयारी का मनोहारी दृश्य के पश्चात अकस्मात् कैकेयी द्वारा महाराज दशरथ के वचन के पालनार्थ राम, सीता और लक्ष्मण का वनगमन, पुत्र-वियोग से व्याकुल दशरथ की मृत्यु घटना का मार्मिक निरूपण है। तदनन्तर भरत के ननिहाल से लौटने के पश्चात राज्य को स्वीकार न करना, सेना सहित भरत का चित्रकूट जाना, राम को मनाना तथा राम के न मानने एवं भरत को समझाने पर भरत राम की पादुका को लेकर अयोध्या लौटकर नंदिग्राम में निवास करते हुए राज्य का संचालन इत्यादि घटनाएँ निरूपित हैं।

3. अरण्यकाण्ड - अरण्यकाण्ड में कुल 75 सर्ग हैं। इसमें राम का सीता और लक्ष्मण सहित दण्डकारण्य में निवास करना, ऋषियों की प्रार्थना को सुनकर राम द्वारा राक्षसों के साथ संघर्ष एवं उनका वध, पंचवटी-प्रसंग, लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा की नाक काटना, खर-दूषण जैसे दुर्दान्त राक्षसों का वध, पुनश्च रावण द्वारा छ्ल से सीता का हरण करना, जटायु द्वारा सीता को बचाने का प्रयास एवं रावण के हाथों वीरगति को प्राप्त करना, सीताहरण के पश्चात् राम का विह्वल विलाप करना, राम की कबन्ध से भेंट तथा उसके द्वारा राम को सुग्रीव से मैत्री करने का सुझाव देने जैसे अनेक प्रसंगों का वर्णन है।

4. किष्किन्धाकाण्ड - किष्किन्धाकाण्ड में कुल 67 सर्ग हैं। इस काण्ड में सीता माता की खोज करते हुए वसन्त ऋतु की मनोहर छटा को देखकर भगवान् राम का अत्यन्त अधीर होना, हनुमान के प्रयास राम-सुग्रीव में मित्रता होना, सुग्रीव का सीता को खोजने में सहयोग प्रदान करने का आश्वासन देना, राम द्वारा वालि का वध, मरणासन्न वालि को राम द्वारा ज्ञान दिया जाना, वालि का पश्चात्ताप करना और मृत्यु का वरण करना, सुग्रीव का राज्याभिषेक,्पश्चात सुग्रीव का प्रमाद, पुनः राम से आकर क्षमायाचना पूर्वक हनुमान सहित अन्य वानरों को सीता की खोज में भेजना, दक्षिण दिशा में हनुमान का प्रस्थान करना, सम्पाति से भेंट एवं सीता की सूचना से अवगत होना, हनुमान द्वारा समुद्र को पार करने के लिए प्रस्तुत होना इत्यादि कथाएं उपस्थापित हैं।

5. सुंदरकाण्ड - सुंदरकाण्ड में कुल 68 सर्ग प्राप्त होते हैं। इसमें मुख्यरूप से हनुमान का सागर लांघना, लंका में प्रवेश करना, रावण के अन्तःपुर में सीता की खोज करना, लंका-दहन तथा वाटिकाविध्वंस कर हनुमान् का जाम्बवान् आदि के पास लौट आना तथा सीता का कुशल राम-लक्ष्मण को सुनाना।

6. युद्धकाण्ड - राम का हनुमान जी की प्रशंसा, लंका की स्थिति के सम्बन्ध में प्रश्न, रामादि का लंका प्रयाण, विभीषण का राम की शरण में आना और राम की उनके साथ मन्त्रणा, समुद्र पर बाँध बाँधना, अंगद का दूत बनकर रावण के दरबार में जाना तथा लौट कर राम के पास आना, लंका पर चढाई, मेघनाद का राम-लक्ष्मण को घायल करना, सुषेण वैद्य एवं गरुड का आगमन एवं राम-लक्ष्मण का स्वस्थ होना, मेघनाद द्वारा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर लक्ष्मण को मूर्च्छित करना, हनुमान का द्रोण-पर्वत को लाकर लक्ष्मण को चेतना प्राप्त करवाना।

7. उत्तरकाण्ड - राम जी के पास कौशिक, अगस्त्य आदि ऋषियों का आगमन, उनके द्वारा मेघनाद की प्रशंसा सुनने पर राम का उसके संबंध में जानने की जिज्ञासा प्रकट करना, अगस्त्य मुनि द्वारा रावण के पितामह पुलस्त्य एवं पिता विश्रवा की कथा सुनाना।

रामायण के कुछ अन्य ग्रन्थ

रामकथा सम्बन्धी वर्णन करने वाला मुख्य ग्रन्थ तो महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण ही है, रामकथा का प्रमुख स्रोत वही है। रामायण की रचना के पश्चात् रामकथा का अतिशय प्रचार प्रसार हुआ, रचनाकारों के द्वारा विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं में रामायण की रचना हुई है। किसी ने वेदान्त तो किसी किसी ने अध्यात्मवाद के विभिन्न पक्षों से राम को जोडकर अनेक रामायण ग्रन्थ लिखे। भारत ही नहीं अपितु तिब्बत, खोतान, जावा, सुमात्रा आदि देशों में भी रामायण का विपुल प्रचार-प्रसार है। वाल्मीकि की रामायण से प्रेरित होकर संस्कृत एवं अन्य भाषाओं में राम कथाओं की रचना हुई जिनमें प्रमुख हैं - [3]

  1. भुशुण्डी रामायण
  2. तुलसी दास - रामचरित मानस
  3. कंब रामायण
  4. आनंद रामायण
  5. वाल्मीकि रामायण
  6. अद्भुत रामायण
  7. योगवासिष्ठ
  8. अध्यात्म रामायण
  9. तत्वसंग्रह रामायण

इनके अतिरिक्त जैन परम्परा में विमलसूरि रचित पउमचरिउ प्राकृत में और रविषेण का पद्मचरित भी रामायण काव्य हैं। तमिल में कंबन रामायण, बंगला में कृत्तिवास और अवधि में रामचरितमानस की रचना हुई। राम-चरितमानस समस्त उत्तर भारत में जन-जन में अत्यन्त लोकप्रिय एवं प्रचलित हुई।

रामायण का महत्व

महाभारत में वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड के श्लोक का अक्षरशः उल्लेख है -

अपि चायं पुरा गीतः श्लोको वाल्मीकिना भुवि। न हन्तव्याः स्त्रियश्चेति यद् ब्रवीषि प्लवंगम॥ पीडाकरममित्राणां यत्स्यात्कर्तव्यमेव च॥ (महा०उद्यो० १४३, ६७-६८)

रामायण न केवल काव्य, महाकाव्य या वीर-काव्य ही है। इसका इससे बहुत अधिक महत्व है। यह भारतीयों का आचार-शास्त्र एवं धर्मशास्त्र है। यह मानव जीवन का सर्वांगीण आदर्श प्रस्तुत करता है।

धार्मिक महत्व - यह धार्मिक दृष्टि से प्राचीन संस्कृति, आचार, सत्य, धर्म, व्रत-पालन, विविध यज्ञों का महत्व आदि का पूरा इतिहास प्रस्तुत करता है।

सामाजिक महत्व - यह पति-पत्नी के सम्बन्ध, पिता-पुत्र के कर्तव्य, गुरु-शिष्य का पारस्परिक व्यवहार, भाई का भाई के प्रति कर्तव्य, व्यक्ति का समाज के प्रति उत्तरदायित्व, आदर्श पिता-माता-पुत्र-भाई-पति एवं पत्नी का चित्रण, आदर्श गृहस्थ-जीवन की अभिव्यक्ति करता है। इसमें पितृ भक्ति, पुत्र-प्रेम, भ्रातृ-स्नेह एवं जन-साधारण से सौहार्द का सुन्दर चित्रण है। सांस्कृतिक दृष्टि से यह राम-राज्य का आदर्श, पाप पर पुण्य की विजय, वानरों में भारतीय-संस्कृति का प्रसार, यज्ञादि का महत्व, जीवन में नैतिकता, सत्य-प्रतिज्ञता और कर्तव्य के लिये बलिदान का आदर्श प्रस्तुत करत है।

राजनीतिक महत्व - राजा के कर्तव्य और अधिकार, राजा-प्रजा-सम्बन्ध, उच्च नागरिकता, उत्तराधिकार-विधान, शत्रु-संहार, पाप-विनाशन, सैन्य-संचालन आदि विषयों पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है।

  • वैदिक यज्ञीय सामग्रियों का वर्णन रामायण में मिलता है जैसे - आज्य, हवि, पुरोडाश, कुश तथा खादिरयूप।
  • यज्ञों में विहित दक्षिणा का प्रचलन रामायणकाल में भी था।
  • यज्ञीय पशुबलि का भी उल्लेख रामायण में प्राप्त हो जाता है।
  • रामायण अनेक नीतिवाक्यों, सुभाषितों तथा राजनीतिपरक तथ्यों का संग्रह भी है।
  • आशीर्वादात्मक, नमस्कारात्मक अथवा वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण का प्रयोग महाकाव्य में किया जाता है - रामायण में "तपः स्वाध्याय निरतं" इत्यादि पद्य को देखकर ही वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण की प्रवृत्ति हुई।
  • रामायण में प्रायः सभी रसों का वर्णन आया है परन्तु करुण रस प्रधान है।

रामायण भारतीय सभ्यता, नगर-ग्रामादि निर्माण, सेतुबन्ध, वर्णाश्रम-व्यवस्था आदि सांस्कृतिक एवं सामाजिक विषयों पर प्रकाश डालने वाला प्रकाश-स्तम्भ है, जिसके प्रकाश में प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का साक्षात् दर्शन होता है।

रामायण के टीकाकार एवं टीकाएँ

वाल्मीकीय रामायण का महत्व केवल काव्यशास्त्रीय दृष्टि से ही नहीं है अपितु वैष्णव सम्प्रदायों का उपास्य ग्रन्थ भी है, इसलिये मध्य युग में रामायण की व्याख्या करना, प्रतिलिपि करना और पुस्तक की पूजा करना धार्मिक कृत्य का रूप ले चुका था। पन्द्रहवीं से सत्रहवीं शताब्दी ई० के मध्य रामायण की १० प्रमुख टीकाएं लिखी गयी। रामायण की प्रमुख टीकाओं का विवरण इस प्रकार है -

  • रामानुज की रामानुजीय टीका - यह रामायण की सबसे प्रसिद्ध टीका है, इसका उल्लेख वैद्यनाथ दीक्षित ने किया है।
  • वेंकट कृष्णाध्वरी की सर्वार्थसार टीका - इसका उल्लेख भी वैद्यनाथ दीक्षित ने किया है।
  • वैद्यनाथ दीक्षित की रामायण दीपिका
  • ईश्वर दीक्षित की लघुविवरण एवं बृहद्विवरण टीका
  • महेश्वर तीर्थ कृत रामायण तत्व दीपिका - यह तीर्थीय टीका नाम से भी प्रसिद्ध है।
  • गोविन्दराज कृत रामायणभूषण - यह गोविन्दराजीय नाम से भी प्रख्यात है। प्रत्येक काण्ड में व्याख्यान के नाम ग्रन्थकार ने भिन्न-भिन्न दिये हैं। इस टीका के काण्डक्रम इस प्रकार हैं - मणिमंजीर, पीताम्बर, रत्नमेखल, मुक्ताहार, शृंगारतिलक, मणिमुकुट तथा रत्नकिरीट।

रामायण के संस्करण

वाल्मीकि रामायण के उपलब्ध होने वाले पाठ एकरूप नहीं मिलते हैं, उसके चार संस्करण मुख्य रूप से उपलब्ध होते हैं। इन चारों के अतिरिक्त बडौदा से प्रकाशित रामायण का आलोचनात्मक संस्करण आजकल विशेष रूप से प्रचलित है। ये संस्करण निम्नलिखित हैं -

  • औदीच्य संस्करण
  • गौडीय संस्करण
  • दाक्षिणात्य संस्करण
  • पश्चिमोत्तरीय संस्करण
  • आलोचनात्मक संस्करण

रामायण के आख्यान

संस्कृत के शब्दकोशों के अनुसार आख्यान शब्द के निम्नलिखित अर्थ स्वीकार किये जाते हैं - कथन, उक्ति, कथा, कहानी, वृत्तान्त, पुरावृत्तकथन, गाथा तथा आख्यायिका आदि।

  • विष्णु वामन आख्यान
  • शुनः शेप का आख्यान
  • इन्द्र-अहल्या आख्यान

रामायण में इन्द्रियातीत वर्णन

रामायण काल में आकाशवाणी, आकाशीय-पुष्पवृष्टि, अलौकिक समयावधि एवं योगमाया आदि इंद्रिय के द्वारा का अगोचर विषयों का वर्णन प्राप्त होता है। रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने आकाशवाणी का प्रयोग किया है -

सीता के विवाह के समय सीता जन्म के विषय में राजा जनक स्वयं महर्षि विश्वामित्र आदि को बताते हैं - यज्ञ के लिये भूमिशोधन करते समय खेत में हला चला रहे थे, उसी हल के अग्रभाग से जोती गयी भूमि से एक कन्या प्रकट हुई। उस कन्या को राजा जनक ने अपनी गोद में ले लिया। तभी आकाशवाणी हुई, जो मानवी भाषा में कही गयी है -

अन्तरिक्षे च वागुक्ता प्रतिमामानुषी किल। एवमेतप्ररपते धर्मेण तनया तव॥

अर्थात् हे नरेश्वर, यह कन्या धर्मतः तुम्हारी ही है। इस प्रकार कन्या के विषय में हुई दिव्य वाणी को सुनकर राजा जनक अत्यन्त प्रसन्न हुये और उस कन्या का नाम सीता रख दिया तथा अपनी बेटी मानकर, उसका लालन-पालन किया।

आकाशवाणी का अर्थ आकाश से उत्पन्न वाणी लिया जाता है। जो कि अलौकिक प्रतीत होता है।[4]

  • रामायण में आकाशीय पुष्प वृष्टि का उल्लेख हुआ है जिसमें आकाश से बादलों द्वारा पुष्प की वृष्टि प्रदर्शित की गई है।

रामायणकालीन समाज एवं संस्कृति

रामायण कालीन समाज के अन्तर्गत वर्णव्यवस्था, आश्रमव्यवस्था, समाज की जानकारी, विवाह और परिवार आदि के बारे में एवं रामायण कालीन संस्कृति में वेश भूषा, खानपान, शिक्षा व्यवस्था, कला-कौशल, धर्म-दर्शन आदि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। वस्तुतः सभ्यता हमारा बाह्य रहन-सहन, खान-पान, आचरण, भौतिक-विकास, पारिवारिक सामाजिक संस्कार आदि का परिचायक होती है। संस्कृति हमारी आन्तरिक सोच ज्ञान-विज्ञान आदि प्रेरक तत्त्व को बताती है। वैसे तो आन्तरिक ही बाह्य आचरण का कारण होता है। रामायण मानवीय सभ्यता के विकास में परम सहयोगी है तथा सदा रहेगी।

रामायणकालीन समाज

कोई भी मनुष्य अपने ज्ञान एवं स्वभाव के अनुरूप ही आचरण करता है तथा जिस प्रकार की सामाजिक पृष्ठभूमि में रहता है, वैसा ही बन जाता है। महर्षि वाल्मीकि के द्वारा वर्णित रामराज्य में समस्त प्रजा वेदों का ज्ञान एवं उन पर विश्वास करने वाली थी। वे सब ज्ञान सम्पन्न, संसार के कल्याण में तत्पर तथा समस्त मानवीय गुणों जैसे - उदारता, दया, सत्यधर्मिता, पवित्रता आदि से युक्त थे -

सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे लोकहिते रताः। सर्वेज्ञानोपसम्पन्नाः सर्वे समुदिता गुणैः॥ (रा०बा० १८/ २५-२६)

वर्ण व्यवस्था

रामायण युग में समाज निश्चित रूप से जातियों में विभक्त हो गया था। चारों वर्णों का स्पष्टतः उल्लेख प्राप्त होता है - [5]

चातुर्वर्ण्यं स्वधर्मेण नित्यमेवाभिपालयन् ॥(रा०कि०४/६)

रामायण में वर्णित है कि अश्वमेधयज्ञ के अवसर पर सभी वर्णों को आमन्त्रित किया गया था -

निमन्त्रयस्व नृपतीन् पृथिव्यां मे च धार्मिका। ब्राह्मणान् क्षत्रियान् वैश्यान् शूद्रांश्चैव सहस्रशः॥ (रा०बा० १३/२०)

अयोध्या वर्णन के प्रसंग में भी कहा गया है कि उस नगरी में सारे वर्ण अपने-अपने कार्यों में संलग्न रहा करते थे। इस प्रकार रामायण काल में वर्ण व्यवस्था को राजकीय स्वीकृति प्राप्त थी, लोग उस व्यवस्था का पालन भी करते थे। सुग्रीव के समक्ष लक्ष्मण अपने पिता का परिचय देते हुए कहते हैं कि वह सभी वर्गों का धर्मपूर्वक एवं निष्पक्षता से पालन करते हैं। राम चारों वर्गों के प्रति दयाभाव रखते थे इसलिये सभी उनके वशीभूत थे।

आश्रम व्यवस्था

भारतीय ऋषि परंपरा के अनुसार सम्पूर्ण मानव जीवन आत्म विश्वास एवं आत्मानुशासन का है। इसी शिक्षण काल को उन्होंने आश्रमों के नाम से कई वर्गों में बाँट दिया था। रामायणकालीन समाज में आश्रमों की संख्या निश्चित रूप से चार मानी जाती थी -

  • विद्यार्थी के लिये ब्रह्मचर्य आश्रम
  • विवाहितों के लिये गृहस्थाश्रम
  • वनवासी तपस्वी के लिये वानप्रस्थाश्रम
  • वैरागी के लिये सन्यासाश्रम

रामायण के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि आश्रम व्यवस्था का अनुसरण उपर्युक्त क्रम से ही संचालित किया जाता था। वस्तुतः ऋषियों द्वारा निर्देशित यह आश्रम व्यवस्था पूर्व वर्णित वर्ण व्यवस्था की ही पूरक है। दोनों मानव और समाज से ही सम्बन्धित हैं, केवल दृष्टिकोण का अन्तर है। वर्ण व्यवस्था व्यक्ति को एक सामाजिक प्राणी के रूप में देखती है।

निष्कर्ष

उद्धरण

  1. शोधगंगा-श्रीसदन जोशी, वाल्मीकि रामायण में जीवन मूल्य, सन् २०१०, शोधकेन्द्र- महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय (पृ० १८)
  2. बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास-आर्षकाव्य-खण्ड, सन् २००६, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ (पृ० १०)।
  3. डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, सन् २०१७, विश्वभारती अनुसंधान परिषद, भदोही (पृ० ११३)।
  4. शोधगंगा-सन्तोष, रामायण में इन्द्रियातीत सन्दर्भ, सन् २०१२, शोधकेन्द्र-महर्षि दयानन्द विश्विद्यालय, रोहतक (पृ० २४३)।
  5. शोधगंगा-श्रीसदन जोशी, वाल्मीकि रामायण में जीवन-मूल्य, सन् २०१०, शोधकेन्द्र-महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय, बीकानेर (पृ० ४२)।