Hora Skandha (होरा स्कन्ध)

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भारतीय ज्योतिष तीन अंगों से निर्मित है- खगोल, संहिता और होरा। होराशास्त्र का दूसरा नाम है फलित ज्योतिष है। ज्योतिष के फलित पक्ष पर जहाँ विकसित नियम स्थापित किए जाते हैं, वह होराशास्त्र है। त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिषशास्त्र का होरा स्कन्ध व्यक्तिविशेष का फलकथन करता है। अत एव आधुनिक काल में इसी स्कन्ध का सर्वाधिक प्रचार दिखाई देता है। होरा स्कन्ध के अन्तर्गत मुख्य रूप से जातक, ताजिक एवं प्रश्न आदि विषयों का समावेश है। होरा स्कन्ध में जन्मकाल से प्रारंभ कर मृत्यु पर्यन्त सभी शुभाशुभ विषयों का चिन्तन किया जाता है।

परिचय

त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिष का तीसरा स्कन्ध है- होरा। इसका प्रचलित नाम फलित या जातक भी है। किसी मनुष्य के जन्मकालीन लग्न द्वारा उसके जीवन के सम्पूर्ण सुख-दुख का निर्णय पहले ही कर देना होरा स्कन्ध का सामान्यतः मूल स्वरूप है। होरा स्कन्ध को जातक स्कन्ध भी कहा जाता है। कालान्तर में इसके भी दो भाग हो गए। जातक सम्बन्धी विषय जिसमें आया वह जातक कहलाया और दूसरा भाग ताजिक हुआ। ज्योतिष शास्त्र का जो स्कन्ध कुण्डलियों का निर्माण करता है और जो व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित है वह होराशास्त्र या जातक के नाम से विख्यात है।

बृहज्जातक में वराहमिहिर ने दो बातों पर विशेष बल दिया है-[1]

  1. होराशास्त्र कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्तों से सम्बन्धित है।
  2. शास्त्र बताता है कि कुण्डली एक नक्सा या योजना मात्र है जो पूर्वजन्म में किए गए कम से उत्पन्न किसी व्यक्ति के जीवन के भविष्य की ओर निर्देश करती है। होराशास्त्र यह नहीं कहता है कि व्यक्ति की कुण्डली के ग्रह उसे यह या वह करने के लिए बाध्य करते हैं, बल्कि कुण्डली केवल यह बताती हैं कि व्यक्ति का भविष्य किन दिशाओं की ओर उन्मुख है।

परिभाषा

बृहज्जातक में आया है कि कुछ लोगों के मत से होरा, अहोरात्र शब्द के पहले एवं अंतिम अक्षरों को निकाल देने से बना है। होराशास्त्र पूर्वजन्मों में किए गए अच्छे या बुरे फलों को भली-भाँति व्यक्त करता है।

होरेत्यहोरात्रविकल्पमेके वाञ्छन्ति पूर्वापरवर्णलोपात्।

होरा शब्द की व्युत्पत्ति अहोरात्र शब्द से अ और त्र हटाने के बाद होरा शब्द बनता है। जिसमें व्यक्तिगत फल निरूपण प्रक्रिया का उपस्थापन किया जाता है उसे होरा स्कन्ध कहते हैं।

होरा स्कन्ध का वैशिष्ट्य

कर्मफललाभहेतुं चतुरा: संवर्णयन्त्यन्ये, होरेति शास्त्रसंज्ञा लगनस्य तथार्धराशेश्च ॥ (सारावली)

विद्वान लोग होरा शास्त्र को शुभ और अशुभ कर्म फल की प्राप्ति के लिये उपयोग करते हैं। लग्न और राशि के आधे भाग (१५ अंश) की होरा संज्ञा होती है।

होरा स्कन्ध का वर्ण्य विषय

सूर्य, पितामह, वसिष्ठ, अत्रि, पराशर आदि के ज्योतिष-शास्त्रीय वचनों को प्रसंगवशात व्यास जी ने विभिन्न पुराणों में यत्र-तत्र उपस्थापित किया। यही कारण है कि मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, स्कन्दपुराण, गरुड पुराण, वायु पुराण, नारद पुराण आदि में फलित ज्योतिष के सिद्धान्त अत्यधिक मात्रा में मिलते हैं। इन पुराणों के अतिरिक्त कुछ संहिता-ग्रन्थ जैसे- नारद संहिता, गर्गसंहिता, लोमशसंहिता, शिवसंहिता आदि भी मिलते हैं, जिनमें ज्योतिष के गंभीर विषयों का वर्णन है।

फलित ज्योतिष के कुछ प्रमुख ग्रन्थ-

  1. जैमिनिसूत्र
  2. बृहज्जातक
  3. लघुजातक
  4. दैवज्ञवल्लभा
  5. सारावली
  6. षट्पञ्चाशिका
  7. फलदीपिका
  8. केशवीय जातक पद्धति
  9. जातकालंकार
  10. ताजिक नीलकण्ठी
  11. सर्वार्थ चिन्तामणि
  12. होरारत्नम्
  13. जातकपरिजात
  14. उत्तरकालामृतम्
  15. जातकतत्त्व
  16. प्रश्नमार्ग
  17. ताजिकनीलकण्ठी
  18. मानसागरी
  19. चमत्कार चिन्तामणि
  20. प्रश्नमार्ग
  21. देवकेरलम्
  22. कृष्णीयम्
  23. शम्भुहोराप्रकाश आदि

होरा स्कन्ध की समाज में उपयोगिता

होरा शास्त्रके ज्ञानसे मनुष्य भावी सुख-दुःखादि का ज्ञानकर अपने पौरुष से उसे अनुकूल बना सकता है। यह शास्त्र मनोवैज्ञानिक रूपसे उसे दुःखादि अशुभ परिस्थितियोंको झेलने में सम्बल प्रदान करता है। इस प्रकार प्राणिमात्रपर पडने वाले शुभाशुभ प्रभावका अध्ययनकर उसे समुचित मार्गदर्शन देना ही होरा शास्त्र की लोकोपयोगिताको सिद्ध करता है। इस प्रकाए जातककी अभिरुचि, दक्षता, स्वभावादिका विश्लेषण करके उसे भावी जीवनमें अपने कार्यक्षेत्र का चुनाव करने में सहायक सिद्ध हो सकता है।

होराशास्त्र कर्मप्रधान शास्त्र है, जो पूर्वजन्मार्जित कर्मों के फल को क्रियमाण कर्म के द्वारा न्यूनाधिक करने में विश्वास रखता है। जहाँ पर जन्मपत्रिकादि से दशाफलकालक्रम द्वारा रोगसम्भावना या अरिष्ट की सम्भावना है अथवा जब सन्तान, विद्या, धनादि का अभाव होने का कारण प्रकट होता है वहाँ ग्रहशान्ति, मणिधारण, मन्त्रजप, दान, औषधिधारण आदि उपचारों से प्रतिबन्धक योगों को शिथिल करने का प्रयास किया जाता है।

होरा स्कन्ध का उत्कर्ष

उद्धरण

  1. डॉ० श्रीअशोकजी थपलियाल,होरास्कन्धविमर्श, ज्योतिषतत्त्वांक, गोरखपुरः गीताप्रेस, (पृ० २२०)।