धर्मवीरो हकीकतरायः - महापुरुषकीर्तन श्रंखला
धर्मवीरो हकीकतरायः
(षोडश-शतके शाहजहां-काले)
बालोऽपि यो धैर्ययुतो मनस्वी, न स्वीयधर्मं विजहौ कदाचित्।
प्रलोभितोऽनेकविधैरुपायैः, चचाल धर्म्मान्न भयान्न लोभात्।।201
बालक होता हुआ भी जो धैर्यवान् और मनस्वी था, जिसने
अपना धर्म कभी नहीं छोड़ा, जिसे तरह-तरह के उपायों से प्रलोभन दिए
गए, पर जो न तो डर कर, न ही लोभ के वश होकर अपने धर्म से
डिगा।
मुहम्मदीये मत आगतश्चेत् ,
त्वं लप्स्यसे सर्वविधा समृद्धिम्।
नो चेदू विमुक्तोऽप्यसुभिः स्वकीयैः,
शोच्यां दशामाप्स्यसि बालक! त्वम्।।211
यदि तू मुसलमान बन जायेगा तो तुझे सब प्रकार की समृद्धि
प्राप्त हो जायेगी, नहीं तो हे बालक! तुझे अपने प्राणों से भी हाथ धोने
पड़ेंगे और इस प्रकार तेरी अत्यन्त सोचनीय अवस्था हो जाएगी!
इत्थं मतान्धैर्यवनैरनेकैः, सम्बोधितो नैव मनाक् चकम्पे।
हकीकतः किन्तु स धर्मवीरः, प्रोवाच वाचं विभयः प्रशान्तः।।22॥
इस तरह अनेक मतान्ध मुसलमानों द्वारा सम्बोधित किये जाने पर
भी हकीकतराय जरा भी कम्मित नहीं हुआ किन्तु उस धर्मवीर ने निर्भर
और प्रशान्त होकर कहा।
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त्यक्ष्यामि धर्म नहि जातु मूढाः,आस्था मदीया खलु सत्यधमे।
आत्मास्ति नित्यो ह्यमरो मदीयः, खङ्गो न तं कर्त्तयितुं समर्थः।।23॥
हे मूखों! मैं कभी धर्म का परित्याग नहीं करूँगा। क्योंकि मेरी सत्य
धर्म में पूरी आस्था या विश्वास है। मेरी आत्मा नित्य अमर है उसको कोई
तलवार काट नहीं सकती।
मृत्योर्न भीतोऽस्मि मनागपीह, जानामि वासः-परिवर्तनं तम्।
न ह्य्ुवे वस्तुनि मेऽनुरागो, येन श्रुवं धर्ममहं त्यजेयम्।241।
मुझे मृत्यु से कुछ भी भय नहीं है क्योंकि मैं जानता हूँ कि यह
पुराने वस्त्रों को बदलने के समान है। अस्थिर वस्तु में मुझे कोई प्रेम नहीं
है जिससे मैं नित्य स्थायी धर्म का परित्याग कर दूँ!
यूयम् मतान्धाः कुरुत प्रकामं, मतान्धता मानवताविरुद्धा।
अह प्रहृष्टोऽस्मि मदीयधर्मे, हास्यामि त॑ लोभवशान्न भीत्या।।25॥
हे मतान्ध लोगो! तुम्हारी जो इच्छा हो बह करो। मतान्धता मानवता
के विरुद्ध है। मैं अपने धर्म में सर्वथा प्रसन्न हूँ। उसे मैं लोभ अथवा भय
के कारण न छोडूंगा।
इत्थं गभीरां गिरमानिशम्य, *अबालिशस्याद्भुतबालकस्य।
जना नृशंसाश्चकिता बभूवुः, चक्रुस्तु कृत्यं जननिन्दनीयम्।।26॥
इस प्रकार उस बुद्धिमान्, अतिअद्भुत् बालक की गम्भीर वाणी
को सुनकर वे क्रूर मनुष्य चकति हो गये किन्तु उन्होंने मनुष्यों द्वारा
निन्दनीय कार्य किया।
आदाय खङ्गम् यवना मतान्धाः, अनेक खण्डान् विदधुस्तदानीम्।
देहस्य तस्याद्भुतधैर्यधर्तुः, परं तमेवामरतां विनिन्युः।27॥।
1. * अबालिशः- अमूढः प्राज्ञः।
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मतान्ध यवनों ने तलवार पकड्कर उस अद्भुत धैर्यधारी बालक के
शरीर के कई टुकड़े कर डाले, किन्तु इस प्रकार उन्होंने उसे अमर कर दिया।
आसीद् वसन्तोत्सव एष रम्यो, यदा नृशंसं विदधुः कुकृत्यम्।
धन्यः स बालो हि हकीकताख्यो, धन्या च सा पञ्चनदीयभूमिः।28॥।
यह वसन्त पञ्चमी का रमणीय उत्सव का दिन था जब उन्होने क्रार
कुत्सित कार्य किया। वह हकीकतराय नामक वीर बालक धन्य है ग्रौर बह
पंजाब की भूमि भी धन्य है जिसने ऐसे वीर को जन्म दिया।
यावद्भवे चन्द्रदिवाकरौ स्तो, यावत्समुद्रा गिरयश्च लोके
तावद् बुधा वीरहकीकतस्य, गास्यन्ति गाथां विमलां विनीताः
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संसार में जब तक सूर्य और चन्र हैं, जन तक जगतू में समुद्र और
पर्वत हैं तब तक बुद्धिमान् लोग हकीकतराय की विमल गाथा को विनीत
होकर गाते रहेंगे।