आर्थिक स्वातंत्रयनी रक्षा करें
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अध्याय ३७
१. यूरो अमेरिकी अर्थतंत्र को नकारना
भारत को भारत बनना है तो प्रथम तो जिस तन्त्र का वह शिकार बना है उस तन्त्र को नकारना होगा। विभिन्न प्रकार के तन्त्रों में एक है अर्थतन्त्र । वर्तमान अर्थतन्त्र को सीधा सीधा नकारने से भारत की भारत बनने की प्रक्रिया शुरू होगी।
तुरन्त प्रश्न उठेगा कि अर्थतन्त्र का काम ही सबसे पहले क्यों होना चाहिये । भारत तो धर्मप्रधान देश है, परम्पराओं का देश है, जीवनमूल्यों में आस्था रखने वाला देश है । इन सब की बात करने के स्थान पर अर्थ की ही बात क्यों करनी चाहिये ? इसलिये कि वर्तमान समय में अर्थ जीवनरचना के केन्द्र में आ गया है। यूरोप की जीवनरचना अर्थकेन्द्री है, जीवन की शेषसारी बातें अर्थ के आगे गौण हैं। वे सब अर्थ से नापी जाती हैं। इस अर्थकेन्द्री व्यवस्था ने भयानक अनर्थ निर्माण किया है। ब्रिटीश भारत में आये ही थे व्यापार करने के लिये इतिहास और राजनीति के जानकारों ने उनकी राज्यव्यवस्था को ही व्यापारशाही कहा है। भारत से जाते समय वे अपना अर्थतन्त्र और अर्थदृष्टि यहाँ छोडकर गये हैं । स्वाधीन भारत की सरकारने भी उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया है।
इस तन्त्र को नकारने का पहला मुद्दा होगा अर्थ को केन्द्र स्थान में नहीं रखना । भारतीय जीवनरचना में धर्म केन्द्रस्थान पर रहता है और शेष सारी व्यवस्थायें धर्म के अविरोधी अथवा धर्मानुकूल हों यह एक व्यापक परिणामकारी सूत्र है । अर्थतन्त्र को धर्म के अनुकूल बनाने हेतु विश्वविद्यालयों के शोध एवं अध्ययन केन्द्रों में प्रभावी कार्य करने की आवश्यकता रहेगी। चिन्तन से लेकर छोटे से छोटे व्यवहार तक की एक विस्तृत रूपरेखा तैयार करनी होगी।
वर्तमान अर्थतन्त्र में वैश्विक सन्दर्भ में भारत विकासशील देश माना जाता है। इसे सीधा सीधा अमान्य कर देना चाहिये।
किस आधार पर ?
पहली बात यह है कि विकसित और विकासशील देश होना आर्थिक मापदण्ड के आधार पर नहीं होता। विकास का सम्बन्ध आर्थिक स्थिति के साथ नहीं अपितु सांस्कृतिक स्थिति के साथ है । जो अधिक संस्कारवान है वह अधिक विकसित है, अधिक धनवान है वह नहीं। हमारा सामान्य अनुभव भी है कि निर्धन और गरीब परिवारों में भी गुणवान और ज्ञानवान लोग होते ही हैं। इसलिये आर्थिक स्थिति के साथ विकास को जोडना ही बेमानी है। भारत ने इस मुद्दे पर पार्यप्त चिन्तन करना चाहिये, लिखना चाहिये और विश्वमंच पर बहस छेडनी चाहिये । अर्थात् वह सब दूसरे चरण में होगा। प्रारम्भ तो अपने आपको केवल आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है इसलिये विकासशील देश मानना बन्द कर देना चाहिये । अपने आपको विकसित मानना कि नहीं यह एक सर्वथा अलग मुद्दा है । यहाँ मुद्दा यह है कि आर्थिक आधार पर विकास के मापदण्ड को नकारना भारत ने निश्चित कर लो चाहिये ।
जो अमेरिका विश्व के देशों को विकासशील और विकसित देशों में विभाजित करता है उसका आधार क्या है ? उसका आधार मुख्य रूप से जीडीपी - ग्रोस डोमेस्टिक प्रोडक्ट - सकल घरेलू उत्पाद है। सामान्य समझदारी को आकलन होना कठिन ऐसा यह एक उलझनभरा मामला है। (कुशाग्र बुद्धि तो इसे सर्वथा नकारेगी ऐसा भी मामला है।) देश की समस्त सेवाओं और भौतिक उत्पादों का पैसे में रूपान्तरण कर देने से यह प्राप्त होता है। इसे देश की जनसंख्या से भाग करने पर प्रतिव्यक्ति आय का अंक मिलता है । यह अंक जितना अधिक उतना देश अधिक विकसित और जितना कम उतना विकासशील ऐसी सामान्य परिभाषा है।
यह उत्पादों और सेवाओं को पैसे में रूपान्तरित करने की पद्धति यान्त्रिक तो है ही, साथ में असांस्कृतिक भी है।
एक दो उदाहरणों से यह बात स्पष्ट होगी।
भारत में अनेक काम ऐसे हैं जो बिना पैसे के होते हैं। शिशुसंगोपन, भोजन बनाना और खिलाना, अन्न और अन्य वस्तुओं का दान करना आदि अनेक बातों में पैसे का व्यवहार नहीं होता है । अतः होटेल, बेबी सिटींग, मोटेल, होस्पिटल, लॉण्ड्री आदि अनेक व्यवसाय कम चलते हैं। अनेक प्रकार की सेवायें ऐसी हैं जिन्हें पैसे के लेनदेन से परे रखा जाता है। भारत में अन्नदान, विद्यादान, शिशुसंगोपन, ऋग्णसेवा आदि संस्कारों का विषय है, आर्थिक क्षेत्र का नहीं । अनेक लोग ऐसे हैं जो बीमा नहीं खरीदते । अनेक ऐसे हैं जिनका बैंक खाता नहीं होता । इसका सीधा प्रभाव जीडीपी पर होता है। परन्तु जीडीपी कम होने का अर्थ गरीबी नहीं होता, संस्कार होता है। अब यदि सेवा और दान का त्याग कर संस्कारिता कम कर जीडीपी बढा कर विकसित देशों के श्रेणी में आना है तो भारत को अपना भारतपना ही छोडना होगा । भारत को यह मान्य नहीं होना चाहिये । अतः जीडीपी जैसे मापदण्डों को नकारना ही उत्तम विकल्प है।
यन्त्र आधारित केन्द्रीकृत उत्पादन की व्यवस्था कर कुल उत्पादन बढाना, उपभोक्ता की आवश्यकता की ओर ध्यान दिये बिना उत्पादन बढाना और बढे हुए उत्पादन को बेचने हेतु विज्ञापन के माध्यम से कृत्रिम माँग पैदा करना उल्टी गंगा है। आवश्यकता के अनुसार उत्पादन करना सही दिशा है। उत्पादन केन्द्रित हो जाने से परिवहन, संरक्षण, संग्रह और विज्ञापन का खर्च बढता है। यह भले ही जीडीपी में वृद्धि करने वाला हो तो भी अनुत्पादक खर्च है। ऐसा अनुत्पादक खर्च स्वार्थ और बुद्धिहीनता का लक्षण है।
केन्द्रीकृत उत्पादन के कारण से असंख्य लोग बेरोजगार होते हैं और असंख्य लोग को नौकर बनते है। मनुष्य की स्वतन्त्रता का नाश करने वाला और दुनियाभर में कृत्रिम माँग पैदा करनेवाला उत्पादन तन्त्र भारत को मान्य नहीं होना चाहिये। यह धर्मविरोधी अर्थतन्त्र है। इसे नकारने की आवश्यकता है।
येनकेन प्रकारेण पैसा कमाना यह सुसंस्कृत मनुष्यजीवन का ध्येय नहीं हो सकता । भूमि का शोषण करने वाला पेट्रोलियम उद्योग और रासायणिक खाद का उद्योग, मादक द्रव्य और शस्त्रास्त्रों का उत्पादन सर्व प्रकार की संस्कारिता का नाश करने वाला है। इसे भी नकारना ही होगा।
संक्षेप में वर्तमान यूरोअमेरिकी अर्थतन्त्र की एक भी बात ऐसी नहीं है जो भारत की दृष्टि से स्वीकार्य हो सके । इसे सीधा सीधा नकारने की आवश्यकता है।
परन्तु यह बात सरल नहीं है। अनेक बातों में हम विश्व के अन्यान्य देशों के साथ सम्बन्धित है । अनेक देशों से भारत ने कर्जा लिया है, अनेक देशों को कर्जा दिया है। अनेक देशों के साथ व्यापारी करार किये हैं । भारत राष्ट्रसंघ का भी सदस्य है । अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत में भी व्यापार कर रही हैं । तात्पर्य यह है कि वैश्विक संरचना जो एक बार स्थापित हो गई है, उसे एकाएक नकारना तो सम्भव नहीं होता । इसलिये अर्थव्यवस्था के परिवर्तन का प्रारम्भ सरकारी स्तर से शुरू नहीं हो सकता । जनसमाज में प्रारम्भ हो सकता है। इसे लेकर दीर्घकालीन और तत्कालीन योजना बनाने की आवश्यकता है।
अर्थ को लेकर अमेरिका की जो वृत्ति है वह पराकोटि की अमानवीय है । भारत के मनीषियों ने तो कहा ही है कि जिनके ऊपर अर्थ का लोभ सवार हो गया है वे स्वजनों और आदरणीय लोगों की भी परवाह नहीं करते, उन्हें धोखा देने में और उनका शोषण करने में भी संकोच नहीं करते । अर्थ का लोभ दया, मैत्री, नीति आदि सबका नाश करता है। हमने 'द प्रिझन' और 'आर्थिक हत्यारे का कबूलातनामा' में देखा ही है कि किस प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति और सम्पूर्ण विश्वसमाज को निर्ममता से लूटने का कैसा सिलसिला वह चला सकता है । अमेरिका की आसुरी वृत्ति उसके अर्थव्यवहार का प्रेरक तत्त्व है। इस आसुरी वृत्ति को समाप्त करना विश्वसमाज का लक्ष्य होना चाहिये । अर्थतन्त्र आवश्यक है। उसे आसुरी वृत्ति के पाश से मुक्त कर धर्म के अधीन करने से उसकी शुद्धि होगी । अर्थात् अमेरिका के साथ युद्ध अर्थक्षेत्र का होने पर भी वह धर्मसंस्थापना का ही युद्ध है । अमेरिका के पास अर्थ के समान और कई शस्त्रास्त्र हैं परन्तु अर्थ सेनापति है, शेष सारे उसके नेतृत्व में लड रहे हैं । अधर्म उनका राजा है जिसके लिये ये सब युद्ध में उतरे
अर्थ को एक साधन बनाकर अमेरिका सम्पूर्ण विश्व पर आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास कर रहा है । उद्देश्य भी वही निश्चित करता है और नियत । भी वही बनाता है। श्रेष्ठ के मापदण्ड भी वही निश्चित करता है। ये मापदण्ड ऐसे हैं जिन पर उसकी ही संस्थायें श्रेष्ठ सिद्ध होती हैं। अपनी ही दृष्टि को वह विश्वदृष्टि कहता है। वैश्विकता के भारत निरपेक्ष मापदण्ड भारत बनाता है परन्तु अमेरिका निरपेक्ष मापदण्ड नहीं बनाये जाते हैं।
अतः यह बौद्धिक क्षेत्र का भी युद्ध है। न्यायनीति, तर्क, बल, मानसिकता आदि सभी क्षेत्रों में एक साथ चुनौती स्वीकार कर भारत को इस युद्ध में उतरना है। उद्देश्य है,
सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वेभद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाक्भवेत् ।
२. विभिन्न व्यवस्थाओं का संतुलन
- भारत को भारत बनना है तो जीवन का संचालन करने वाली विभिन्न व्यवस्थाओं का परस्पर सम्बन्ध सन्तुलन में लाना होगा। यह तो स्पष्ट है कि जीवन के विभिन्न आयाम एकदूसरे के साथ जुड़े हुए रहते हैं। वे एकदूसरे को प्रभावित करते हैं, एकदूसरे पर निर्भर करते हैं। अतः उनका सम्बन्ध ठीक करना आवश्यक है।
- व्यक्तिगत और राष्ट्रगत जीवन का संचालन करने वाली व्यवस्थाओं को हम मोटे तौर पर चार भागों में विभाजित कर सकते हैं। वे हैं धर्मव्यवस्था, राज्यव्यवस्था, अर्थव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था । ये सारी व्यवस्थायें ज्ञान का ही व्यावहारिक स्वरूप है।
- इन चारों में धर्मव्यवस्था प्रमुख और सर्वोपरि है । धर्म के अनुसरण में शिक्षाव्यवस्था होती है। धर्म सिखाती है वही शिक्षा है ऐसी हम शिक्षा की परिभाषा दे सकते हैं। प्रजा धर्म का पालन कर सके इस हेतु सुरक्षा और अनुकूलता प्रदान करने हेतु राज्यव्यवस्था होती है। प्रजा का निर्वाह सुखपूर्वक हो सके इसलिये आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु अर्थव्यवस्था होती है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था राज्य के नियन्त्रण में, राज्य व्यवस्था धर्म के नियमन में और शिक्षाव्यवस्था धर्म के अनुसरण में होने से उनका सम्यक् समायोजन होता है।
- इन चार प्रमुख व्यवस्थाओं के अनेक उपविभाग होते हैं। जैसे कि पदार्थों का संग्रह, निर्माण, उत्पादन, वितरण, क्रयविक्रय आदि सब अर्थव्यवस्था के अधीन होगा। समाजव्यवस्था धर्मव्यवस्था का ही क्रियात्मक रूप होगा। गृहसंस्था और शिक्षासंस्था समाजव्यवस्था के अंग होंगे। यज्ञ, दान, तप, विवाहसंस्था, सोलहसंस्कार आदि गृहव्यवस्था के अंग होंगे। आरोग्यशास्त्र गृहशास्त्र का, आहारशास्त्र, दिनचर्या, ऋतुचर्या आदि आरोग्यशास्त्र के अंग होंगे। ये केवल उदाहरण हैं। तात्पर्य यह है कि सारी व्यवस्थाओं का एकदूसरे के साथ सम्यक् समायोजन कर उन्हें एकात्म बनाया जायेगा तभी समाज ज्ञाननिष्ठ बनेगा और भारत भारत बनेगा।
- ऐसा समायोजन करने में कठिनाई बहुत होगी। इसके कई कारण हैं। पहला कारण यह है कि आज सम्पूर्ण विश्व में अर्थव्यवस्था ही शेष समस्त व्यवस्थाओं की नियन्त्रक बनी हुई है। पश्चिम ने स्थापित की हुई इस व्यवस्था का भारत ने भी स्वीकार कर लिया है। सारे संकटों का यह मूल है । इसे बदलना पहला महत्त्वपूर्ण कार्य है।
- भारत के लिये स्वाभाविक जीवनव्यवस्था है उसमें धर्म सर्व नियामक है। आज विश्व में तो धर्म को रिलीजन के पर्याय स्वरूप माना जाता है वह तो ठीक है परन्तु भारत में भी पश्चिम के प्रभाव के चलते उसे रिलीजन ही माना जाता है। विश्व के अनेक देशों में रिलीजन का भी राज्यव्यवस्था में स्वीकार किया गया है परन्तु भारत में रिलीजन का भी स्वीकार नहीं किया जाता है । इस का ठीक से विचार करना होगा।
- रिलीजन निरपेक्ष होने के बाद भी भारत में रिलीजन के नाम पर विद्वेष और हिंसा का प्रवर्तन होता है। रिलीजन के नाम पर विशेषाधिकार, रिलीजन के नाम पर अलग व्यवस्थायें आदि माँगा जाता है। रिलीजन के नाम पर चुनाव लडे जाते हैं। सिद्धान्त और व्यवहार में भारी अन्तर दिखाई देता है । सिद्धान्त भी रिलीजन निरपेक्ष नहीं है और व्यवहार भी।
- रिलीजन निरपेक्षता तो दूर की बात है, इस्लाम और इसाइयत धर्मान्तरण पर तुले रहते हैं। इस्लाम गैर इस्लामी पन्थों, विशेष रूप से हिन्दू धर्म के विभिन्न पन्थों के आस्था के प्रतीकों पर हमला करने में आनन्द मानता है। सामाजिक सांस्कृतिक आक्रमण भी प्रकट और प्रच्छन्न रूप से होता रहता है। इस स्थिति में धर्म की स्थिति ठीक करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है।
- शिक्षित वर्ग का निधार्मिकीकरण विज्ञान और आधुनिकता के नाम पर होता है। इसमें साम्यवाद, भौतिकवाद और विज्ञानवाद की भूमिका बहुत बडी है। सर्व प्रकार की आस्थाओं का नाश करना ही इनका आशय रहता है।
- इससे जो विनाश होता है उसे पूरा करने के लिये रिलीजन के नाम पर भौंदूगिरी की मात्रा भी बहुत बढ़ गई है। धर्माचार्यों ने स्वंय ही अर्थ और राज्य के अनुकूल बनकर धर्म की शक्ति का ह्रास किया है। धर्म की ही शक्ति क्षीण होगी तो समाज में संकट छाने ही वाले हैं। अतः व्यवस्थाओं को ठीक करने हेतु धर्म व्यवस्था को ठीक करने की अत्यन्त आवश्यकता है।
- राज्यव्यवस्था आज अर्थ के अधीन है। यह प्रकट रूप में तो अर्थ को नियमन में रखने वाली है परन्तु प्रच्छन्न और व्यावहारिक रूप से अर्थक्षेत्र के अधीन बन गई है। चुनाव पैसे के बिना नहीं जीते जाते यह एक ही हकीकत राज्य को अर्थाधीन बनाने हेतु पर्याप्त है । इस एक बात में अनेक प्रकार के आर्थिक भ्रष्टाचार और सामाजिक दुरवस्था के बीज छिपे हैं।
- अर्थव्यवस्था ने बडा कहर मचा रखा है। उसने सभी अच्छी बातों को अपने नियन्त्रण में ला दिया है। भगवान के दर्शन, प्रसाद, तीर्थयात्रा, कला, शिक्षा, यज्ञ, शास्त्र आदि सब कुछ बिकाउ बन गया है । एक ओर तो भारत में अन्न, पानी, दुध आदि बेचा नहीं जाता था, अब सेवा भी बिकती है। यह परिवर्तन भारत को अभारत बनाने वाला है। इसमें परिवर्तन करना होगा।
- समस्त सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर बनते हैं और कानून से नियमित होते हैं। यह एक अत्यन्त रूखा, मतलबी, भावनाशून्य व्यवहार है जो मनुष्यता की गुणवत्ता को क्षीण करता है । इस करारव्यवस्था का सर्वथा त्याग करने की आवश्यकता है।
- आज पश्चिमी प्रभाव के कारण स्वार्थकेन्द्री अर्थव्यवस्था बन गई है। ब्रिटीश आधिपत्य दौरान भारत के गृहउद्योगों का तथा स्वामित्वयुक्त उद्योगों का नाश हुआ है। यह विनाश आर्थिक तो था ही, साथ में कारीगरी की उत्कृष्टता, कारीगर की सृजनशीलता और सामाजिक सम्मान का भी नाश था। यह विनाश बहुत बड़ा है। धैर्यपूर्वक और दृढतापूर्वक उद्योगों की पुनर्स्थापना करनी होगी।
- अर्थव्यवस्था का दूसरा विघातक माध्यम है यन्त्रों का वर्चस्व । यन्त्रों के अत्यधिक उपयोग को हमने आधुनिकता और विकास के साथ जोड दिया है। परन्तु इससे अगणित पर्यावरणीय, आर्थिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक समस्यायें निर्माण हुई हैं। इन संकटों से उबरने के लिये हमें यन्त्रों का विवेकपूर्वक उपयोग करने की वृत्तिप्रवृत्ति का विकास करना होगा।
- सामान्य व्यवहार में फिजूलखर्ची, अनुत्पादक अर्थव्यवहार, संस्कृति विनाशक गतिविधियाँ (जैसे कि विज्ञापन उद्योग), स्वमानहीन अर्थव्यवहार (जैसे कि आइपीएल क्रिकेट श्रेणी जहाँ खिलाडी बेचे और खरीदे जाते हैं), पर्यावरण विरोधी अर्थव्यवहार (जैसे कि प्लास्टिक उद्योग) आदि को बदलना होगा। इस दृष्टि से हमारे घरों, कार्यलयों, चिकित्सालयों, मन्त्रालयों, विद्यालयों आदि की रचना और संरचना भी बदलनी होगी।
- साहसपूर्वक, जीडीपी आदि की चिन्ता किये बिना बाध्यताओं से घबडाये बिना सेवाक्षेत्र को अर्थक्षेत्र से मुक्त कर देना होगा, भले ही यह कार्य क्रमशः हो । सेवा उसीको कहते हैं जो निःस्वार्थ और निरपेक्षभाव से दूसरों की आवश्यकता समझकर श्रद्धा, आदर और स्नेहपूर्वक की जाती है ऐसी भारत की धारणा है। आज इस भावना का पूर्णरूप से लोप हो गया है। सेवा बिकाऊ बन जाने पर भारत भारत कैसे रह सकता है।
- वैभव, समृद्धि, सुविधा, विपुलता आदि किसे कहते हैं इसका पुनः एकबार निरूपण करने की आवश्यकता है। विविधता, उत्कृष्टता और गुणवत्ता को भी पुनः समझाने की आवश्यकता है। लक्ष्मी और अलक्ष्मी को भी स्पष्ट करने की आवश्यकता है। लक्ष्मी के साथ साथ गृहलक्ष्मी, भाग्यलक्षी, धनलक्ष्मी, ग्रामलक्ष्मी जैसी संकल्पनाओं को भी समझने की आवश्यकता है।
- दान, भिक्षा, यज्ञ आदि आर्थिक व्यवस्थायें आर्थिक से भी अधिक सांस्कृतिक निहितार्थ बताती हैं । अर्थ को धर्म तथा संस्कृति के अधीन बनाने के ये सोचे समझे उपाय हैं । आज के समय में हम ऐसे और भी उपाय सोच सकते हैं।
- अर्थ के बिना अधिकतम आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके ऐसे व्यवहारों का विकास करना चाहिये । भारत में इसका खूब प्रचलन था। आज भी जागरुकतापूर्वक देखने से दिखाई देता है। इससे जीडीपी अवश्य कम होगा । परन्तु संस्कृति का मूल्य चुकाकर हम जीडीपी नहीं बढ़ा सकते । जीडीपी का बलिदान देकर संस्कृति को बल प्रदान कर सकते हैं।
२. विभिन्न व्यवस्थाओं का संतुलन
- भारत को भारत बनना है तो जीवन का संचालन करने वाली विभिन्न व्यवस्थाओं का परस्पर सम्बन्ध सन्तुलन में लाना होगा। यह तो स्पष्ट है कि जीवन के विभिन्न आयाम एकदूसरे के साथ जुड़े हुए रहते हैं । वे एकदूसरे को प्रभावित करते हैं, एकदूसरे पर निर्भर करते हैं। अतः उनका सम्बन्ध ठीक करना आवश्यक है।
- व्यक्तिगत और राष्ट्रगत जीवन का संचालन करने वाली व्यवस्थाओं को हम मोटे तौर पर चार भागों में विभाजित कर सकते हैं। वे हैं धर्मव्यवस्था, राज्यव्यवस्था, अर्थव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था । ये सारी व्यवस्थायें ज्ञान का ही व्यावहारिक स्वरूप है।
- इन चारों में धर्मव्यवस्था प्रमुख और सर्वोपरि है । धर्म के अनुसरण में शिक्षाव्यवस्था होती है । धर्म सिखाती है वही शिक्षा है ऐसी हम शिक्षा की परिभाषा दे सकते हैं। प्रजा धर्म का पालन कर सके इस हेतु सुरक्षा और अनुकूलता प्रदान करने हेतु राज्यव्यवस्था होती है। प्रजा का निर्वाह सुखपूर्वक हो सके इसलिये आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु अर्थव्यवस्था होती है । इस प्रकार अर्थव्यवस्था राज्य के नियन्त्रण में, राज्य व्यवस्था धर्म के नियमन में और शिक्षाव्यवस्था धर्म के अनुसरण में होने से उनका सम्यक् समायोजन होता है।
- इन चार प्रमुख व्यवस्थाओं के अनेक उपविभाग होते हैं। जैसे कि पदार्थों का संग्रह, निर्माण, उत्पादन, वितरण, क्रयविक्रय आदि सब अर्थव्यवस्था के अधीन होगा। समाजव्यवस्था धर्मव्यवस्था का ही क्रियात्मक रूप होगा। गृहसंस्था और शिक्षासंस्था समाजव्यवस्था के अंग होंगे। यज्ञ, दान, तप, विवाहसंस्था, सोलहसंस्कार आदि गृहव्यवस्था के अंग होंगे । आरोग्यशास्त्र गृहशास्त्र का, आहारशास्त्र, दिनचर्या, ऋतुचर्या आदि आरोग्यशास्त्र के अंग होंगे। ये केवल उदाहरण हैं। तात्पर्य यह है कि सारी व्यवस्थाओं का एकदूसरे के साथ सम्यक् समायोजन कर उन्हें एकात्म बनाया जायेगा तभी समाज ज्ञाननिष्ठ बनेगा और भारत भारत बनेगा।
- ऐसा समायोजन करने में कठिनाई बहुत होगी। इसके कई कारण हैं। पहला कारण यह है कि आज सम्पूर्ण विश्व में अर्थव्यवस्था ही शेष समस्त व्यवस्थाओं की नियन्त्रक बनी हुई है। पश्चिम ने स्थापित की हुई इस व्यवस्था का भारत ने भी स्वीकार कर लिया है। सारे संकटों का यह मूल है । इसे बदलना पहला महत्त्वपूर्ण कार्य है।
- भारत के लिये स्वाभाविक जीवनव्यवस्था है उसमें धर्म सर्व नियामक है। आज विश्व में तो धर्म को रिलीजन के पर्याय स्वरूप माना जाता है वह तो ठीक है परन्तु भारत में भी पश्चिम के प्रभाव के चलते उसे रिलीजन ही माना जाता है। विश्व के अनेक देशों में रिलीजन का भी राज्यव्यवस्था में स्वीकार किया गया है परन्तु भारत में रिलीजन का भी स्वीकार नहीं किया जाता है । इस का ठीक से विचार करना होगा।
- रिलीजन निरपेक्ष होने के बाद भी भारत में रिलीजन के नाम पर विद्वेष और हिंसा का प्रवर्तन होता है । रिलीजन के नाम पर विशेषाधिकार, रिलीजन के नाम पर अलग व्यवस्थायें आदि माँगा जाता है। रिलीजन के नाम पर चुनाव लडे जाते हैं। सिद्धान्त और व्यवहार में भारी अन्तर दिखाई देता है । सिद्धान्त भी रिलीजन निरपेक्ष नहीं है और व्यवहार भी ।
- रिलीजन निरपेक्षता तो दूर की बात है, इस्लाम और इसाइयत धर्मान्तरण पर तुले रहते हैं । इस्लाम गैर इस्लामी पन्थों, विशेष रूप से हिन्दू धर्म के विभिन्न पन्थों के आस्था के प्रतीकों पर हमला करने में आनन्द मानता है। सामाजिक सांस्कृतिक आक्रमण भी प्रकट और प्रच्छन्न रूप से होता रहता है। इस स्थिति में धर्म की स्थिति ठीक करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है।
- शिक्षित वर्ग का निधार्मिकीकरण विज्ञान और आधुनिकता के नाम पर होता है। इसमें साम्यवाद, भौतिकवाद और विज्ञानवाद की भूमिका बहुत बडी है। सर्व प्रकार की आस्थाओं का नाश करना ही इनका आशय रहता है।
- इससे जो विनाश होता है उसे पूरा करने के लिये रिलीजन के नाम पर भौंदूगिरी की मात्रा भी बहुत बढ़ गई है। धर्माचार्यों ने स्वंय ही अर्थ और राज्य के अनुकूल बनकर धर्म की शक्ति का ह्रास किया है। धर्म की ही शक्ति क्षीण होगी तो समाज में संकट छाने ही वाले हैं। अतः व्यवस्थाओं को ठीक करने हेतु धर्म व्यवस्था को ठीक करने की अत्यन्त आवश्यकता है।
- राज्यव्यवस्था आज अर्थ के अधीन है। यह प्रकट रूप में तो अर्थ को नियमन में रखने वाली है परन्तु प्रच्छन्न और व्यावहारिक रूप से अर्थक्षेत्र के अधीन बन गई है। चुनाव पैसे के बिना नहीं जीते जाते यह एक ही हकीकत राज्य को अर्थाधीन बनाने हेतु पर्याप्त है। इस एक बात में अनेक प्रकार के आर्थिक भ्रष्टाचार और सामाजिक दुरवस्था के बीज छिपे हैं।
- अर्थव्यवस्था ने बडा कहर मचा रखा है। उसने सभी अच्छी बातों को अपने नियन्त्रण में ला दिया है। भगवान के दर्शन, प्रसाद, तीर्थयात्रा, कला, शिक्षा, यज्ञ, शास्त्र आदि सब कुछ बिकाउ बन गया है । एक ओर तो भारत में अन्न, पानी, दूध आदि बेचा नहीं जाता था, अब सेवा भी बिकती है। यह परिवर्तन भारत को अभारत बनाने वाला है। इसमें परिवर्तन करना होगा।
- समस्त सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर बनते हैं और कानून से नियमित होते हैं। यह एक अत्यन्त रूखा, मतलबी, भावनाशून्य व्यवहार है जो मनुष्यता की गुणवत्ता को क्षीण करता है । इस करारव्यवस्था का सर्वथा त्याग करने की आवश्यकता है।
- आज पश्चिमी प्रभाव के कारण स्वार्थकेन्द्री अर्थव्यवस्था बन गई है। ब्रिटीश आधिपत्य दौरान भारत के गृहउद्योगों का तथा स्वामित्वयुक्त उद्योगों का नाश हुआ है। यह विनाश आर्थिक तो था ही, साथ में कारीगरी की उत्कृष्टता, कारीगर की सृजनशीलता और सामाजिक सम्मान का भी नाश था। यह विनाश बहुत बड़ा है। धैर्यपूर्वक और दृढतापूर्वक उद्योगों की पुनर्स्थापना करनी होगी।
- अर्थव्यवस्था का दूसरा विघातक माध्यम है यन्त्रों का वर्चस्व । यन्त्रों के अत्यधिक उपयोग को हमने आधुनिकता और विकास के साथ जोड दिया है। परन्तु इससे अगणित पर्यावरणीय, आर्थिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक समस्यायें निर्माण हुई हैं। इन संकटों से उबरने के लिये हमें यन्त्रों का विवेकपूर्वक उपयोग करने की वृत्तिप्रवृत्ति का विकास करना होगा।
- सामान्य व्यवहार में फिजूलखर्ची, अनुत्पादक अर्थव्यवहार, संस्कृति विनाशक गतिविधियाँ (जैसे कि विज्ञापन उद्योग), स्वमानहीन अर्थव्यवहार (जैसे कि आइपीएल क्रिकेट श्रेणी जहाँ खिलाडी बेचे और खरीदे जाते हैं), पर्यावरण विरोधी अर्थव्यवहार (जैसे कि प्लास्टिक उद्योग) आदि को बदलना होगा । इस दृष्टि से हमारे घरों, कार्यलयों, चिकित्सालयों, मन्त्रालयों, विद्यालयों आदि की रचना और संरचना भी बदलनी होगी।
- साहसपूर्वक, जीडीपी आदि की चिन्ता किये बिना बाध्यताओं से घबडाये बिना सेवाक्षेत्र को अर्थक्षेत्र से मुक्त कर देना होगा, भले ही यह कार्य क्रमशः हो । सेवा उसीको कहते हैं जो निःस्वार्थ और निरपेक्षभाव से दूसरों की आवश्यकता समझकर श्रद्धा, आदर और स्नेहपूर्वक की जाती है ऐसी भारत की धारणा है। आज इस भावना का पूर्णरूप से लोप हो गया है। सेवा बिकाऊ बन जाने पर भारत भारत कैसे रह सकता है।
- वैभव, समृद्धि, सुविधा, विपुलता आदि किसे कहते हैं इसका पुनः एकबार निरूपण करने की आवश्यकता है। विविधता, उत्कृष्टता और गुणवत्ता को भी पुनः समझाने की आवश्यकता है। लक्ष्मी और अलक्ष्मी को भी स्पष्ट करने की आवश्यकता है। लक्ष्मी के साथ साथ गृहलक्ष्मी, भाग्यलक्षी, धनलक्ष्मी, ग्रामलक्ष्मी जैसी संकल्पनाओं को भी समझने की आवश्यकता है।
- दान, भिक्षा, यज्ञ आदि आर्थिक व्यवस्थायें आर्थिक से भी अधिक सांस्कृतिक निहितार्थ बताती हैं । अर्थ को धर्म तथा संस्कृति के अधीन बनाने के ये सोचे समझे उपाय हैं । आज के समय में हम ऐसे और भी उपाय सोच सकते हैं।
- अर्थ के बिना अधिकतम आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके ऐसे व्यवहारों का विकास करना चाहिये । भारत में इसका खूब प्रचलन था। आज भी जागरुकतापूर्वक देखने से दिखाई देता है। इससे जीडीपी अवश्य कम होगा । परन्तु संस्कृति का मूल्य चुकाकर हम जीडीपी नहीं बढ़ा सकते । जीडीपी का बलिदान देकर संस्कृति को बल प्रदान कर सकते हैं।
३. अर्थ के प्रभाव से मुक्ति
१. पश्चिम का एक लक्षण यह है कि वह सारी बातों को अर्थ के सन्दर्भ से ही देखता है । अर्थ के आधार पर ही वह सारी बातों का मूल्य आँकता है। यह बात अत्यन्त विघातक है, निकृष्ट दर्जे की है। भारत को अपने जीवनविचार में अर्थ के सन्दर्भ को छोड़ने की आवश्यकता है। भारत जब तक पश्चिम की चपेट में नहीं आया था तब तक ऐसा था भी नहीं । इसलिये अर्थ के सन्दर्भ को छोडना भारत के लिये भारत होना है, अपनी मूल स्वाभाविक स्थिति में लौटना है।
इसका सबसे पहला व्यावहारिक उपाय है जीवन की धारणा करने वाली, मनुष्य को उन्नत बनानेवाली, सृष्टि का कल्याण करनेवाली जितनी भी बातें हैं उन्हें अर्थ के सन्दर्भ से मुक्त कर देना । वर्तमान स्थिति में यह बडा कठिन मामला है यह सत्य है, कठिन है इसलिये अव्यावहारिक लगता है यह भी सत्य है परन्तु भारत को भारत बनने की दिशा में यह एक अति महत्त्वपूर्ण कदम है।
पानी जीवन को धारण करता है, औषधि शरीर को स्वस्थ बनाती है, विद्या जीवन को उन्नत बनाती है इसलिये इनका व्यापार नहीं किया जाना चाहिये यह अत्यन्त सादी और स्वाभाविक समझ भारत में बनी हुई थी । परिणाम स्वरूप भारत में कोई भूखा नहीं मरता था । भुखमरी का संकट अन्न को बेचने खरीदने का पदार्थ बना देने के कारण से निर्माण हुआ है। हम यह सिद्धान्त बना सकते हैं कि सांस्कृतिक मूल्य की बातों को अर्थ के अधीन बना देने से सांस्कृतिक संकट निर्माण होते हैं।
भारत का मानस यह बात अच्छी तरह समझता है। इसलिये ज्ञान का दान करना है, उसका पैसा नहीं लेना है इसमें कोई आश्चर्य नहीं । बिमार व्यक्ति का उपचार कर उसे रोगमुक्त करना चिकित्सा का शास्त्र जाननेवाले के लिये स्वाभाविक है, उसका पैसा कैसे लिया जा सकता है ? सदुपदेश से किसी को सही मार्ग पर चलना सिखाने के पैसे नहीं लिये जाते । भारत के लिये जो इतना स्वाभाविक है उसे ही आज भारत अव्यावहारिक मानने लगा है। भारत को इससे मुक्त होकर अपने जीवनविचार की प्रतिष्ठा करनी होगी। उस विचार को कृति में उतारकर ही उसकी प्रतिष्ठा होगी।
भारत में होटेल, हॉस्पिटल, न्यायालय और विश्वविद्यालय यदि एक रात्रि में बन्द कर दिये जाय तो क्या होगा इसकी कल्पना करें । सारे समाचार माध्यम, सारे शिक्षित लोग एक स्वर में, अत्यन्त चिन्तित और भयभीत होकर कहेंगे कि लोग भूखों मर जायेंगे, रोग बढ़ जायेंगे, अज्ञान का प्रवर्तन होगा और झगडे, हिंसा, मारामारी, लूट, डकैती आदि बढ़ जायेंगे । परन्तु कुछ लोग अवश्य कहेंगे कि ऐसा कुछ नहीं होगा, उल्टे अज्ञान, विपरीत ज्ञान, अस्वास्थ्य, भुखमरी आदि से मुक्ति मिल जायेगी।
ये सब बन्द कर इसके पर्याय का विचार करना होगा। होटेल बन्द कर सदाव्रत चलाना, हॉस्पिटल बन्द कर डॉक्टरों को प्रजा के स्वास्थ्य हेतु जिम्मेदार बनाया जाय, विश्वविद्यालयों को बन्द कर प्रजा के अज्ञान को दर करने की जिम्मेदारी शिक्षकों को दी जाय और समस्त अर्थव्यवहार को बन्द कर दिया जाय तो भुखमरी, अज्ञान, अस्वास्थ्य, असंस्कारिता का संकट बहुत ही कम हो जायेगा । इन सारे संकटों का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारण तो अर्थ का सन्दर्भ ही है ।
ये सारी बातें अव्यावहारिक लगने का कारण हमारा अज्ञान और आत्मविस्मृति है। हमारी परम्परा और हमारे शास्त्र दोनों इसे व्यावहारिक, स्वाभाविक और आवश्यक मानते हैं । अब भारत के वर्तमान मनीषियों को चाहिये कि वे अर्थनिरपेक्ष आहारव्यवस्था, चिकित्साव्यवस्था, न्यायव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था को व्यावहारिक बनाने हेतु चरणबद्ध उपाययोजना बतायें।
८. इन व्यवस्थाओं को अर्थनिरपेक्ष बनाने हेतु अनेक छोटे छोटे उपायों से प्रारम्भ करना होगा । उदाहरण के लिये होटेल का खाना नहीं खाना', 'अन्नदान को अपने दैनन्दिन व्यवहार का अंग बनाना', 'उपदेश देने के पैसे नहीं लेना', 'यथासम्भव घरेलू उपचार से रोगमुक्त होना' आदि बातों को लेकर भारी मात्रा में समाजप्रबोधन करने की योजना बनानी चाहिये ।
९. किसी भी प्रकार के विवादों को साथ मिलकर सुलझाने के व्यवहार को प्रतिष्ठा देने का प्रचलन बढाना चाहिये । दो के बीच में तीसरे का दखल परस्पर अविश्वास और असहयोग के कारण ही होता है । इसे कम करना अच्छा है, कम नहीं कर सकना अपनी दुर्बलता है ऐसे भाव का प्रसार करना चाहिये ।
१०. अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना प्रथम तो अपनी स्वयं की जिम्मेदारी है । अपना काम कर लेने के बाद दूसरे का काम भी कर देना संस्कारिता है। किसी भी प्रकार के स्वार्थ, भय, लोभ, लालच के बिना आदर, श्रद्धा, स्नेह और दया से किसी का काम कर देना सेवा है, भय, लोभ, लालच या विवशता से दूसरे का काम करना गुलामी है, जिसे आज नौकरी कहा जाता है। सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु क्षमता प्राप्त करना अच्छा है । इस प्रकार के समीकरण विचार और व्यवहार के क्षेत्र में प्रतिष्ठित करने चाहिये । भारत के विद्वत्क्षेत्र का यह दायित्व है।
११. आज विकसित और विकासशील देशों की गणना के लिये जीडीपी का निकष अपनाया जाता है। जीडीपी की गणना में भौतिक पदार्थ और सेवा का समावेश होता है । सेवा में शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक इन तीनों स्तरों के कार्यों का समावेश होता है। इसके परिणाम और आज की विश्व की स्थिति दर्शाती है कि यह व्यवहार संकटों को जन्म देता है । यह विचार और व्यवहार प्राथमिक स्वरूप की और अपरिपक्व बुद्धि का लक्षण है । यह भारत का विचार नहीं है इसका त्याग करना होगा।
१२. इसके स्थान पर सेवा की संकल्पना को प्रतिष्ठित करना होगा । निःस्वार्थ भाव, लोभलालच, भय का अभाव, किसी भी प्रकार की विवशता का अभाव, स्नेह, दया, सख्य का भाव सेवा के प्रेरक तत्त्व है । सेवा अर्थ से परे हैं। अर्थ के संस्पर्श से सेवा प्रदूषित होती है । पश्चिम ने सेवा को अर्थ के अधीन बनाया है, भारत ने उसे अर्थ से मुक्त करना है। सेवा संकल्पना को प्रतिष्ठित कर भारत भारत बन सकता है।
१३. भारत में आज भी अर्थ निरपेक्षता की इस मूल भावना का प्रचलन पर्याप्त मात्रा में है । भूकम्प, बाढ, त्सुनामी जैसे प्राकृतिक संकटों के समय लोग सेवा करते हैं, धर्मोपदेश हेतु पैसे नहीं माँगे जाते, सामाजिक संस्थाओं में लोग निःशुल्क काम करते हैं, धार्मिक संस्थाओं में बिना पैसे लिये लोग काम करते हैं, ऋग्णों की निःशुल्क परिचर्या होती ही है, अनेक अवसरों पर नियमित और नैमित्तिक भंडारे होते हैं, निःशुल्क पानी पिलाने की व्यवस्था होती है। यह मात्रा लक्षणीय है।
१४. परन्तु अनेक बुद्धिमान लोग इन कार्यों को कौर्पोरेटजगत का हिस्सा बनाने का परामर्श देते हैं और स्वयं प्रयास भी करते हैं । वे इसे आधुनिकता कहते हैं । परन्तु यह तो बचे हुए भारत को अभारत बनाने का परामर्श है। हमें ऐसे विद्वानों को सामान्यजन की सेवा का परामर्श देना चाहिये क्योंकि सामान्यजन के अर्थनिरपेक्ष सेवा के व्यवहार से भारत भारत है ।
१५. सर्व प्रकार के मानवीय सम्बन्धों में विवाहसम्बन्ध सबसे निकट सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध को अर्थनिरपेक्ष बनाने की आवश्यकता है। पतिपत्नी जिस मकान में रहते हैं वह मकान घर है।। अर्थसापेक्ष व्यवस्था में जिसके नाम पर मकान है उसका ही माना जाता है और दूसरा उसके मकान में रहने वाला है, विवाह के करार के तहत प्राप्त अधिकार से रहता है। परन्तु भारत में मकान भले ही पति के नाम पर हो घर तो गृहिणी का ही होता है, गृहिणी के घर में शेष सारे रहते हैं। 'गृहिणी' और 'गृहस्थ' का शब्दार्थ भी वही है । यह संस्कारिता है, भौतिकता से संस्कारिता का महत्त्व अधिक है।
१६. विवाहविच्छेद की कीमत पैसे में चुकाई जाती है। मानहानि की कीमत पैसे में चुकाई जाती है दुर्घटना में अंगहानि या मृत्यु की कीमत भी पैसे में चुकाई जाती है। यह एकात्म सम्बन्ध, सम्मान और जीवहानि से भी ऊपर पैसे को प्रतिष्ठा देने की पद्धति है। पैसे में कीमत चुका देने के बाद सर्वप्रकार के अपराध बोध से भी मुक्ति मिल जाती है । यह अप्रगत मानसिकता का ही लक्षण है। भारत में ऐसा नहीं चलता, यदि चलता है तो नहीं चलना चाहिये ।
१७. विकास की आर्थिक संकल्पना को छोडना चाहिये । पश्चिम ने इसे माना है और उसके प्रभाव से विश्व के सभी देशों ने इसका स्वीकार किया है। भारत को इसे छोडने का साहस दिखाना चाहिये। भारत को आग्रहपूर्वक कहना चाहिये कि विकास की संकल्पना सांस्कृतिक होती है, आर्थिक नहीं । अपने लिये तो भारत ने इसका स्वीकार कर ही लेना चाहिये ।
१८. पश्चिम ने अनेक श्रेष्ठ बातों को तो अर्थ के अधीन बना दिया परन्तु अर्थ को केवल पैसे में अर्थात् द्रव्य में सीमित कर दिया । सारी बातें सिक्कों में परिवर्तित करने की प्रक्रिया जीवन को निर्जीवता की ओर ले जाती हैं और व्यवहारों और विचारों को यान्त्रिक बना देती हैं। भारत को सिक्कों का मानक बदलने की आवश्यकता है।
१९. भारत ने अर्थ को बहुत व्यापक अर्थ दिया है। उसे पुरुषार्थ माना है । व्यक्ति को समर्थ बनकर अर्थार्जन करना चाहिये ऐसा भी प्रतिपादन किया है। समृद्धि, सम्पत्ति, वैभव आदि की आकांक्षा की है । लक्ष्मी को देवता माना है, माता माना है । उसकी पूजा का विधान भी बनाया है, स्तुति भी की है । अतः यह स्पष्ट रूप से समझना चाहिये कि अर्थनिरपेक्ष होना निर्धन होना नहीं है। अर्थनिरपेक्ष होकर भी वैभव सम्पन्न हुआ जाता है यह इतिहासने सिद्ध किया है।
२०. भारत ने अर्थ को धर्म के नियमन में रखने का काम किया है। पश्चिमने ठीक इससे विपरीत किया है। पश्चिम की इस उल्टी दिशा को सही करने का महत्कार्य भारत को करना है।
४. श्रमप्रतिष्ठा
भारत आर्थिक दृष्टि से भी अत्यन्त समृद्ध देश रहा है । इसका एक कारण श्रमप्रतिष्ठा है । श्रम प्रमुख रूप से शारीरिक मेहनत को कहा जाता है। पर्याय से मानसिक और बौद्धिक श्रम भी होता है परन्तु उसका मूल अर्थ शारीरिक मेहनत ही है।
२. श्रम व्यायाम नहीं है । श्रम से व्यायाम होता अवश्य है परन्तु श्रम और व्यायाम एक नहीं है । व्यायाम शरीर को कसने के लिये, सुडौल और सुदृढ बनाने के लिये तथा बलवान बनाने के लिये किया जाता है, श्रम किसी न किसी काम के लिये किया जाता है।
३. श्रम से शरीर थकता है, कष्ट का अनुभव भी करता है, क्षीण भी होता है। श्रम से पसीना निकलता है। इस थकान, कष्ट, क्षरण आदि को भरपाई करने हेतु आहार और आराम का प्रावधान किया जाता है।
४. परन्तु श्रम मजदूरी नहीं है। स्वेच्छापूर्वक, स्वतन्त्रतापूर्वक, प्रसन्नतापूर्वक, कर्तव्यभावना से प्रेरित होकर जो महेनत की जाती है वह श्रम है । विवशता से, दूसरों के आदेश से, अनिच्छा से जो किया जाता है वह मजदूरी है। प्रतिष्ठा श्रम की होती है, मजदूरी की नहीं।
श्रम की प्रतिष्ठा का अर्थ क्या है यह प्रथम स्पष्ट करना चाहिये । श्रम करने वालों को अच्छा वेतन देना प्रतिष्ठा करना नहीं है। श्रम करने वालों को नीचा नहीं मानना कुछ मात्रा में श्रम की प्रतिष्ठा करना है, परन्तु स्वयं गौरवपूर्वक श्रम करना श्रम की प्रतिष्ठा करना है। श्रम करने में आनन्द का अनुभव करना श्रमप्रतिष्ठा है।
६. आज इसके सामने संकट खडा हुआ है। हमें काम
References
भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे