संस्कृति के आधार पर विचार करें

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अध्याय ३५

१. प्लास्टिक और प्लास्टिकवाद को नकारना

पश्चिम प्लास्टिक का जन्मदाता है। प्लास्टिक का अर्थ है अप्राकृतिक । उसका व्यावहारिक अर्थ है नकली। दोनों शब्दों का अर्थसाम्य भी है और अर्थ का भेद भी है। इसे समझने से पश्चिम का मानस कैसे काम करता है यह समझ में आयेगा। सामान्य रूप से आभूषण सोने, चाँदी, हीरे, मोती, रत्नों आदि के पहने जाते हैं। इनके पीछे स्वास्थ्य और सौन्दर्य के प्रेरक तत्त्व होते हैं। दो में भी स्वास्थ्य प्रथम कारण है जिसे मनुष्य की रसिकता ने सौन्दर्यदृष्टि प्रदान की है। जब मूल स्वास्थ्य दृष्टि का विस्मरण होता है और केवल सौन्दर्यदृष्टि रहती है तब मनुष्य सोने के स्थान पर पीतल के, चाँदी के स्थान पर एल्यूमिनियम के, हीरे के स्थान पर काँच के आभूषण पहनता है। स्वास्थ्यदृष्टि का शास्त्र उसे ज्ञात नहीं है फिर भी ये आभूषण नकली हैं इतना तो बोध उसे रहता ही है। प्लास्टिक इस अर्थ में नकली है।

प्रकृति का स्वभाव है नित्य रूपान्तरणशीलता का । भौतिक विज्ञान का नियम है कि पदार्थ का रूपान्तरण होता ही है। रूपान्तरण की एक प्रक्रिया विघटन की भी है। इसका उत्तम उदाहरण मृतदेह है । जब शरीर मृत हो जाता है तो वह सडता है, गलता है, सूखता है, बिखरता है और उसके सारे संघात का विघटन होकर पृथक्करण होकर सृष्टि में स्थित उनके मूल पदार्थों के साथ मिल जाता है । मृतदेह के किसी भी पद्धति से किये जाने वाले अन्तिम संस्कार विघटन की प्रक्रिया को गति देने के लिये होते हैं । ये न भी किये जायें तो भी विघटन तो होता ही है । इस विघटन से प्रकृति का सन्तुलन बना रहता है। परन्तु प्लास्टिक ऐसा अद्भुत पदार्थ है कि उसका विघटन नहीं होता । प्लास्टिक बनने की प्रक्रिया में एक ऐसा क्षण आता है जब उसके घटक द्रव्यों का अपने मूल द्रव्यों के साथ समरस होने का गुण समाप्त हो जाता है। प्रकृति के तीन महान गुण विघटन, स्वजाति के साथ समरसता और समायोजन प्लास्टिक में नहीं हैं । इस रूपमें प्लास्टिक अप्राकृतिक है।

प्लास्टिक के सृजन के पीछे पश्चिम की दो वृत्तियाँ काम कर रही हैं । एक है लोभ । प्रकृति में जितने भी पदार्थ हैं वे अपने लोभ के कारण उसे पर्याप्त नहीं लगते । दूसरी वृत्ति है अहंकार । 'मैं भी कम नहीं है, वह सब कुछ कर सकता हूँ जो प्रकृति में होता है की वृत्ति से प्रेरित होकर उसने प्लास्टिक बनाया । ये दोनों वृत्तियाँ आसुरी वृत्तियाँ हैं। वे अपना साम्राज्य तो स्थापित करती हैं परन्तु वह शोषण और अत्याचार पर ही खडा हुआ है । सुख पाने की चाह से किया हुआ यह प्रयास सुख देने में यशस्वी नहीं होता।

प्लास्टिक ने सौन्दर्य, विपुलता और सुविधा की दृष्टि से तो अत्यन्त प्रभावी व्यवस्था बनाई है परन्तु उसका परिणाम बहुत अनर्थकारी हुआ है। प्लास्टिक बनाने में मनुष्य की एक भारी मर्यादा दिखाई देती है। प्रकृति का विस्तार और रूपान्तरण होता है वह चेतन के कारण है। बिना चेतन के यह लेशमात्र सम्भव नहीं है। चेतन के कारण से ही सर्जन और विसर्जन होते हैं, संगठन और विघटन होते हैं । पश्चिम चेतन को जानता नहीं है । उसकी संकल्पनात्मक गलती यह है कि वह प्राण को ही चेतन मानता है, उसे जीवन कहता है और पदार्थों में जीवन अर्थात् प्राण अर्थात् चेतन नहीं है ऐसा मानता है। प्लास्टिक बनाने में चेतन की कोई भूमिका नहीं होने से उसका विघटन नहीं होता। विघटन नहीं होता उसे पश्चिम नहीं समझा सकता, भारत की चेतन की अवधारणा से ही उसे समझा जा सकता है । जिसका विघटन नहीं होता वैसा प्लास्टिक पर्यावरण के लिये बडा बोज बनता है। उसका नाश अर्थात् विघटन नहीं होता और दूसरी ओर प्रतिदिन नया नया बनता ही जाता है। जिस कचरे का निकाल ही न होता हो और नया नया ढेर बढता ही जाता हो उस क्षेत्र की स्वच्छता की कठिनाई कितनी बढ़ जाती है इसकी कल्पना हम कर सकते हैं। महासागरों के किनारे, महासागरों का पानी, अरण्य का क्षेत्र, निर्जन स्थान आदि प्लास्टिक के कचरे से पट गये हैं। इस कचरे की कोई व्यवस्था नहीं हो सकती। इसे जलाओ तो वातावरण अत्यन्त हानिकारक गन्ध से भर जाता है । भूमि में गाडो तो विघटित तो होता नहीं उल्टे भूमि का उपजाऊपन नष्ट कर देता है। पानी में बहा दो तो वह पानी के प्रवाह के साथ बहता बहता समुद्र तक पहुँचता है। तालाब जैसे स्थिर पानी में डालो तो पानी में तैरता रहता है, पानी को दूषित करता है और पानी के जीवों को भी हानि पहुंचाता है। प्लास्टिक बनाने की प्रक्रिया में भी पर्यावरण का इसी प्रकार का प्रदूषण होता है।

दिखने में आकर्षक और तत्काल सुविधा देने वाली परन्तु सार्वकालीन और सार्वत्रिक प्रदूषण और अस्वास्थ्य निर्माण करने वाली पास्टिक की दुनिया पश्चिम की अल्पबुद्धि का परिणाम है। अब यह केवल पदार्थों तक सीमित नहीं रही है। इसने प्लास्टिकवाद को जन्म दिया है

जो प्रत्यक्ष पदार्थों से भी अधिक हानिकारक है।

क्या है यह प्लास्टिकवाद ?

किसी भी पदार्थ या प्रक्रिया का केन्द्रवर्ती तत्त्व नष्ट कर देना प्लास्टिकवाद है।

उदाहरण के लिये अनाज की ऐसी जात तैयार करना जिसे पुनः बोया नहीं जा सकता, अर्थात् उसे बोने से अनाज ऊगेगा नहीं। इसे टर्मिनेटेड सीड - पुनः न ऊगने वाला बीज - अन्तिम बीज कहते हैं। अनाज, फल, सागसब्जी, फूल सब में यह प्रक्रिया चलती है । इसका अर्थ यह हुआ कि इन पदार्थों में रूप, रस, गन्ध, रंग आदि तो हैं परन्तु प्राण नहीं है। ये पदार्थ खाने से पेट तो भरता है परन्तु प्राणों का पोषण नहीं होता । उन्हें खाने से शरीर का संविधान भी धीरे धीरे बदलता जाता है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि पचास सौ वर्षों में मनुष्य भी टर्मिनेटेड हो जायेंगे । आज लक्षण शुरू तो हो ही गये हैं।

भोजन में तो यह बहुत गहरे तक गया है। अनाज, सब्जी की तरह मसाले भी पोषक के लिये होते हैं। शरीर और प्राण के लिये पोषक पदार्थों को स्वादिष्ट और दर्शनीय बनाने की कला मनुष्य को अवगत है । परन्तु प्लास्टिकवाद पोषण नष्ट कर केवल स्वाद और सुन्दरता को प्रस्तुत करता है। स्वाद और सुन्दरता भी चाहिये इसमें कोई सन्देह नहीं । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द आदि की सुन्दरता और मधुरता ज्ञानेन्द्रियों को सुख देती है परन्तु वह प्राकृतिक हो तभी । प्लास्टिक मसालों को प्राणहीन बना देता है । भोजन बनाने की, पैकिंग की, सुरक्षित रखने की सारी व्यवस्था प्लास्टिकवाद से ओतप्रोत है। इसका बहुत गहरा प्रभाव शरीर पर होता है। शरीर से सम्बन्धित ही बात करनी है तो औषधि का क्रम आहार के तुरन्त बाद आता है। एलोपथी द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जो औषधियाँ होती हैं उनका स्वभाव भी प्लास्टिक का ही होता है। अर्थात् ये अविघटनक्षम होता हैं । ये बिमारी दूर नहीं करतीं, शरीर का संविधान बदलती हैं, कुछ मात्रा में ज्ञानेन्द्रियों को बधिर भी कर देती हैं। प्रत्यक्ष में तो इन औषधियों तथा सर्जरी आदि प्रक्रियाओं का परिणाम चमत्कारपूर्ण लगता है परन्तु उनका प्लास्टीक का स्वभाव शरीर की आन्तर्बाह्य संरचना पर विपरीत परिणाम करता है। आज मेडिकल साइन्स-औषधि विज्ञान से सब इतने अधिक प्रभावित हैं कि इस मुद्दे की ओर खास किसी का ध्यान जाता नहीं हैं परन्तु इस विषय पर भारतीय दृष्टि से अनुसन्धान करने की बहुत आवश्यकता है। एलोपथीं के सिद्धान्त और शरीररचना का सम्बन्ध कैसा है। औषधि बनाने की प्रक्रिया कैसी है और उसके शरीर पर क्या परिणाम होते हैं इसका अध्ययन होने की आवश्यकता है। सामान्य जन के लिये एक गोली लेते ही दर्द शान्त हो जाता है यह चमत्कार लगता है परन्तु उसके दुष्परिणाम समझ में नहीं आते। शरीर स्वास्थ्य से सम्बन्धित दिनचर्या, ऋतुचर्या, जीवनचर्या, आहारविहार, पथ्यापथ्य, व्यक्ति की मूल प्रकृति आदि का जिस शास्त्र में कुछ भी विचार नहीं करना पडता है वह शास्त्र मूल रूप में ही अप्राकृतिक कहा जायेगा । मनुष्य शरीर को एक भौतिक पदार्थ के रूप में ही वह देखता है ऐसा कहा जायेगा।

ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित सभी विषयों और पदार्थों के प्लास्टिकवाद का विस्तार हुआ है। फूलों के, फलों के, मसालों के जो अर्क बनते हैं उनमें मूल रूप से उन पदार्थों का कोई अस्तित्व नहीं होता है। रासायनिक संयोजनों से रसायनशास्त्र की प्रयोगशाला में वे बनाये जाते हैं। उनका जो मूल उद्देश्य है वह सिद्ध नहीं होता, इन्द्रियों को केवल बाहरी अनुभव होता है। ग्रीन हाऊस खेती, बाजार में पैकींग में मिलने वाले फलों के रस, रासायनिक खाद, विटामीन की गोलियाँ आदि सब इस के उदाहरण हैं।

प्रकृति में पदार्थों के रूपान्तरण की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। पदार्थों में स्थित संगठन और विघटन के गुण के कारण से यह प्रक्रिया सम्भव होती है । विघटन और संगठन के साथ समरसता का गुण भी जुडा हुआ है । इससे चक्रीयता की स्थिति निर्माण होती है । चक्रीयता प्रकृति का एक महत्त्वपूर्ण गुण है जो पदार्थ और काल दोनों को लागू है। इन गुणों के कारण प्रकृति स्वयंसंचालित रहती है। प्रकृति के साथ जुडा चेतन कॅटलेटिक एजण्ट के समान प्रकृति को स्वसंचालित रहने में कारणभूत रहता है।

प्लास्टिक में इन सभी गुणों की अनुपस्थिति है। इसलिये वह सर्वत्र ‘फोरेन बॉडी' - विजातीय पदार्थ की भाँति ही रहता है। अब आजकल 'रिसाईकिल' अर्थात् विघटित होकर पुनः बनने वाले प्लास्टिक की बात होती है। परन्तु य दोनों संज्ञायें परस्पर विरोधी हैं । जो विघटित होता है वह प्लास्टिक नहीं और प्लास्टिक है वह विघटित नहीं होता। यह अतार्किक संज्ञा है। यह प्लास्टिकवाद जब विचारों में छा जाता है तब संगठन, विघटन और समरसता की प्रक्रिया थम जाती है और सारी भौतिक और सामाजिक रचनायें बेमेल बन जाती हैं । सृष्टि में विचार और पदार्थ का सीधा सम्बन्ध रहता है। एक ही सत्ता का सूक्ष्म स्वरूप विचार है और स्थूल स्वरूप पदार्थ । प्लास्टिक के पदार्थों का भी सूक्ष्म वैचारिक स्वरूप रहता है जो सामाजिक संरचनाओं में प्रकट होता है । मनुष्य स्वभाव के साथ, अन्तःकरण की प्रवृत्तियों के साथ मेल नहीं रखने वाली ये संरचनायें होती हैं । प्सास्टिक सोच से सृजित एक प्लास्टिक की प्रतिसृष्टि है जिसका साम्राज्य आज छाया हुआ है। इसका भी एक आतंक विश्व पर छाया हुआ है । पश्चिम इस विचार का जनक है । आज भी प्लास्टिक का आतंक कम नहीं है। अपने आसपास सर्वत्र यह छाया हुआ है । सब से बड़ी बात यह है कि हम मानने लगे हैं कि प्लास्टिक अनिवार्य है, बहुत सुविधाजनक हैं, सुन्दर है, सस्ता है जब कि वह ऐसा नहीं है।

अब कितना भी कठिन हो भारत ने इसको नकारना चाहिये । इससे बहुत असुविधा निर्माण होगी यह सत्य है परन्तु हम उल्टी दिशा में इतने दुर गये हैं और अविवेकपूर्ण सुविधाओं के इतने आदी हो गये हैं कि उनके बिना जीवन सम्भव ही नहीं है ऐसा हमें लगता है। सुविधाओं के अभाव में हमें पिछडापन लगता है। इसका कारण यह है कि हमने सुविधाओं को ही सभ्यता और संस्कृति का पर्याय मान लिया है । सुविधाओं को ही सभ्यता और संस्कृति का पर्याय मानना भी खास पश्चिमी विचार है। भारत इसे संस्कृति नहीं मानता । जिस विचार और व्यवहार में सबका भला और सबका सुख नहीं वह सुसंस्कृत विचार और व्यवहार नहीं है और जिस व्यवस्था का आधार संस्कृति नहीं वह सभ्यता नहीं होती। अतः विवेकपूर्ण विचार कर भारत को प्लास्टिकवाद को नकारना होगा । इसका प्रारम्भ दैनन्दिन जीवन से प्लास्टिक को बहिष्कृत करने से ही होगा । समझदार लोग कहते हैं कि किसी भी बडे अभियान का प्रारम्भ छोटी और सरल बातों से होता है। प्लास्टिक निषेध का काम बड़ा है, इसका प्रारम्भ भी छोटी छोटी प्लास्टिक की वस्तुओं का त्याग करने से होगा। धीरे धीरे सामर्थ्य जुटाते हुए बडी वस्तुओं को भी छोड़ सकते हैं । हो सकता है इससे अनेक लोगों के व्यवसाय बन्द हो जाय, अनेक लोगों के रोजगार छिन जाय, अनेक लोग इसे अमानवीय बतायें, तो भी इसका निषेध तो करना ही होगा। प्लास्टिक का पर्याय ढूँढने की आवश्यकता नहीं है, वह तो पहले से है ही। पाल्सिटक ने उनका स्थान ले कर उन्हें विस्थापित कर दिया है। उन्हें पुनः स्थापित करना ही हमारा काम है।

एक बार दिशा बदली तो आगे का मार्ग सुगम होगा इसमें क्या सन्देह है !

२. परम्परा गौरव

  1. हमारा कुछ बुद्धिविभ्रम ही ऐसा है कि हम परम्परा को हेय दृष्टि से देखते हैं और उसे आधुनिकता के विरोधी तत्त्व के रूप में जानते हैं। आधुनिकता अच्छी है। पारम्परिकता त्याज्य है ऐसी हमारी समझ बनी हैं। यह समझ यूरोपीय शिक्षा द्वारा हमारे मस्तिष्क में डाली है और दो सौ वर्षों में वह गहरी बैठ गई है।
  2. परन्तु परम्परा बहुत मूल्यवान तत्त्व है । परम्परा प्रवाहित है । परम्परा स्थान की नहीं अपितु समय की प्रवाहिता है । कोई भी पदार्थ जल के प्रवाह के साथ बहकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचता है। स्वयं जल भी प्रवाहित होकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचता है । उसी प्रकार कोई भी विचार, व्यवहार, घटना, चिन्तन, व्यवस्था समय के साथ प्रवाहित होकर अतीत से वर्तमान तक और वर्तमान से भविष्य की ओर प्रवाहित होकर जाती है । समय के साथ की इस यात्रा से परम्परा बनती है।
  3. समय तो बीतता ही रहता है परन्तु जो समय के साथ प्रवाहित होता नहीं उसमें स्थगितता आती है । वर्तमान अतीत से जुडता नहीं और भविष्य के लिये कोई थाती बनाता नहीं । अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य लाभान्वित हो सके इसलिये परम्परा का होना अनिवार्य है।
  4. भारत परम्परा का देश है । वह अपने अतीत के साथ जुडा रहने में विश्वास करता है। वह जुडा रहता है परन्तु अतीत में रहता नहीं है। वर्तमान भविष्य के लिये प्रेरक बनता है परन्तु लवचिकता के लिये प्रावधान रखता है।
  5. बहता हुआ पानी शुद्ध रहता है। प्रवाह के कारण, हवा और सूर्यप्रकाश के कारण अशुद्धियाँ अपने आप दूर होती रहती है। समय के साथ लवचिकता से बहती हुई गतिमान स्थिति भी परिष्कृत होती रहती है। वह स्वाभाविक रूप से परिवर्तित होते रहते भी अपरिवर्तित रहती है। खास बात यह है कि अवांछनीय तत्त्व ही दूर होते है, वांछनीय अपने शुद्ध रूप में अस्तित्व बनाये रखते हैं।
  6. भारत में दो प्रकार की परम्परायें हैं। एक है ज्ञान परम्परा और दूसरी है संस्कार या संस्कृति परम्परा । ज्ञान परम्परा का केन्द्र गुरुकुल है और वाहक गुरु शिष्य है। संस्कृति परम्परा का केन्द्र घर है और वाहक पितापुत्र है । गुरु से शिष्य को और पिता से पुत्र को हस्तान्तरित होते हुए ज्ञान और संस्कृति की परम्परा बनती है।
  7. वेदों का ज्ञान, ऋषियों का विज्ञान, महापुरुषों का कर्तृत्व, कारीगरों की कारीगरी का कौशल, कलाकारों की कलासाधना, सज्ञजनों और स्मृतिकारों द्वारा प्रणीत रीतिरिवाज और खानपानादि की पद्धति एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होते हुए पूर्वजों से हमारे तक पहुंची है। यदि यह परम्परा नहीं होती तो हर पीढी को सारी बातें नये से ही निर्धारित करनी पड़ती। इसलिये परम्परा का महत्त्व है।
  8. अब हमें स्मरण करना चाहिये कि हमारे पूर्वजों से हमें परम्परा में क्या क्या प्राप्त हआ है। ऐसी कौन सी बातें हैं जिससे हम गौरवान्वित हो सकते हैं ?
  9. जगत और जीवन के निःशेष सभी प्रश्नों के खलासे कर सके ऐसी अध्यात्म संकल्पना हमारे आर्षदृष्टा, सर्वज्ञ, आत्मज्ञानी, साक्षात्कारी पूर्वजों की देन है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में विश्व में कोई विचारधारा इसकी बराबरी नहीं कर सकती । समस्त भारतीय वाङ्मय में यह संकल्पना विभिन्न स्वरूप धारण कर प्रस्फुटित होती रही है और हम तक पहुंची है।
  10. ज्ञानधारा के स्रोत वेद, उपनिषद, सूत्रग्रन्थ, शास्त्रग्रन्थ आदि युगों में मन्त्रगायकों, भाष्यकारों, पाठकों, उपदेशकों, अध्यापकों के माध्यम से, युगानुकूल सन्दर्भो में प्रस्तुत होते हुए आजतक पहुँचे हैं । आज भी ये साधु, सन्तों, संन्यासियों, धर्माचार्यों, अध्यापकों के द्वारा गाये जाते हैं । विवेचित किये जाते हैं, पढाये जाते हैं।
  11. युग के बाद युगों में स्मृतिकारों ने भारतीय ज्ञानधारा पर आधारित व्यवहार हेतु समाज के विभिन्न वर्गों के लिये रीतियों का निरूपण किया है। पुराणों ने लोक के लिये ज्ञानधारा को रोचक रूप प्रदान किया है। साहित्यकारों, कलाकारों, संगीतकारों ने उसी ज्ञानधारा को रसरूप प्रदान कर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया है। पीढी दर पीढी इस की उपासना, साधना, अध्ययन, विमर्श, व्यवहार होता रहा है । इस परम्परा का गौरव होना हमारे लिये स्वाभाविक है।
  12. इसी प्रकार से वैज्ञानिकों ने ज्ञान तक पहुँचने हेतु, जगत के सम्यक् परिचय हेतु, व्यवहार को सुकर और समुचित बनाने हेतु प्रक्रियायें निर्धारित की हैं। प्रकृति को, प्राणियों को, मनुष्यों को शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और क्षमताओं की दृष्टि से हानि न हो, उपयोग के लिये अत्यन्त सुकर हो, कहीं भी अत्यन्त सुलभ हो और किसी भी विषय में निपुणता और उत्कृष्टता प्राप्त हो सके ऐसा तन्त्रज्ञान विकसित किया। इस विज्ञान और तन्त्रज्ञान की सार्थकता और इसकी पार्श्वभूमि में स्थित दृष्टि की बराबरी विश्व में कोई नहीं कर सकता।
  13. ज्ञान अपने तात्त्विक रूप में अपरिवर्तित रहता है परन्तु उसका जो व्यावहारिक स्वरूप होता है वह देशकाल-परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तनशील रहता है। यह सत्य हमारे पूर्वजों ने जाना, उसे समझा, तत्त्व और व्यवहार के स्वरूप को जानने का निरक्षीरविवेक विकसित किया और समय समय पर व्यवहार में आवश्यक परिवर्तन करते हए स्मृति ग्रन्थों की रचना की। ऐसे व्यवहारदक्ष पूर्वजों के सम्बन्ध में गौरव का अनुभव करना स्वाभाविक है।
  14. हमारे पूर्वजों ने मनुष्य स्वभाव को पहचानकर, उसकी वृत्तिप्रवृत्तियों का आकलन कर, उसके विकास की सम्भावनाओं को परखकर, सामुदायिक जीवन की आवश्यकताओं को समझकर समाजव्यवस्था का निर्माण किया, व्यवस्था के मूल आधार निश्चित किये, कर्तव्य धर्म का निरूपण किया और सब तक उसका ज्ञान पहुँचे ऐसी व्यवस्था की। इसके तहत हमें आश्रमचतुष्टय, पुरुषार्थ चतुष्टय, वर्णचतुष्टय, सोलह संस्कार आदि की व्यवस्था प्राप्त हुई। इन व्यवस्थाओं की महत्ता इस बात में है कि इनके चलते हमारा समाज युगों तक सुस्थिति में बना रहा ।
  15. आज यदि इन में से अनेक बातें कालबाह्य हो गई हैं ऐसा लगता है तो इसका कारण यह है कि विगत पाँच से भी अधिक पीढियों में ये खण्डित हुई, इनका प्रवाह अवरुद्ध हुआ, इन्हें विकृत बनाया गया, इनका दुरुपयोग हुआ और इन्हें बदनाम किया गया । इसका संकेत यह है कि इनमें काल और परिस्थिति से सुसंगत परिवर्तन कर, इन्हें परिष्कृत कर आज के युग के लिये उचित रूप में प्रस्तुत किया जाय । अर्थात् आज के युग की एक स्मृति बनाई जाय । यह कार्य आज के मनीषियों को करना होगा।
  16. १६. हमारे पूर्वजों ने उस एक आत्मतत्त्व के अनेकरूपों के एक तत्त्व और पृथक व्यवहार, रुचियों, क्षमताओ, आवश्यकताओं को समझकर विविध सम्प्रदायों का सृजन किया, अनेकविध उपास्यों और उपासना पद्धतियों की रचना की और सबको उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान की साथ ही सर्व प्रकार की भिन्नता मूल में एक ही है ऐसा भी दढतापूर्वक बताया। इस कारण से भारत का समाज साम्प्रदायिक कट्टरता से बच गया, उल्टे सर्वपथसमादर की उदात्त भावना का विकास हुआ।
  17. १७. हमारे पूर्वजों ने अनेक व्यवहारशास्त्रों, विज्ञानशास्त्रों, तत्त्वज्ञानशास्त्रों की रचना की, अनुभूति को इनका आधार बनाया, साथ ही सर्वशास्रों का आन्तरिक और बाह्य संवादी सम्बन्ध भी बनाया । सभी विद्याशाखाओं को अंगांगी सम्बन्ध से जोडकर परस्पर अविरोधी और अध्यात्म के अधिष्ठान से युक्त बनाया । यह समग्रता का विचार भारत की विशेषता है। इसका गर्व होना स्वाभाविक है, न्याय्य है।
  18. इसी प्रकार से राजाप्रजा के सम्बन्ध, यज्ञ, दान, तब की पर्यावरणीय, आर्थिक, सांस्कृतिक आवश्यकता, व्रत, उपवास, उत्सव, पर्व, त्योहार, मेले, सत्संग, कथा, कीर्तन, तीर्थयात्रा, तीर्थस्थान आदि का विधान बनाकर मनुष्य, पशुपक्षी प्राणी, पंचमहाभूत देवीदेवता, भावना, विचार, बुद्धि, मन, शरीर, आनन्द, उल्लास, रस, कारीगरी, शक्ति आदि पदार्थों, गुणों व्यक्तियों, स्वभावों को एक साथ जोडकर अनेकविध आयामों से युक्त, अनन्त लवचिकता से युक्त, ग्रहण करने की स्वतन्त्रता से युक्त, अनेकविध व्यवहारशैलियों का निरूपण किया। यह बुद्धि सामर्थ्य, कल्पनासामर्थ्य, रचनासामर्थ्य का निदर्शक है।
  19. इसे ही नित्यनूतन, चिरपुरातन अर्थात् सनातन कहते हैं। भारत ऐसा सनातन राष्ट्र है । हमारे पूर्वजों ने इस राष्ट्र की निहित सनातनता की अनुभूति कर रचना में सनातन बनाया है।
  20. हमें ऐसे पूर्वजों का, उनके द्वारा निर्मित परम्पराओं का, उनके वंशज होने के नाते अपने आपका गौरव होना स्वाभाविक है। इस परम्परा को परिष्कृत बनाते हुए बनाये रखना और भविष्य को सौंपना हमारा कर्तव्य है।

३. कानून नहीं धर्म

मनुष्यसमाज को व्यवस्था में रहना पडता है। मनुष्यसमाज को व्यवस्था में रखना भी पड़ता है। कारण यह है कि मनुष्यों की वृत्तिप्रवृत्ति भिन्न भिन्न प्रकार की होती है । मनुष्य प्रकृति से स्वैराचारी होता है। मनुष्य की इच्छायें भी अनन्त होती हैं, बहुविध होती हैं। जो मन में आये वह कर सकने को वह स्वतन्त्रता मानता है। विभिन्न प्रवृत्ति के मनुष्यों की इच्छा, आकांक्षा आदि से प्रेरित व्यवहार, भिन्न भिन्न होने के कारण एकदूसरे से टकराते हैं। इसमें से संघर्ष, अशान्ति, वैमनस्य आदि निर्माण होते हैं और सुख और शान्ति नष्ट होते हैं।

इसका उपाय करने की दो व्यवस्थायें हैं । एक है धर्म और दूसरी है कानून | धर्म भारत की व्यवस्था है, कानून पश्चिम की।

३. धर्म की व्यवस्था दो स्तरों पर हुई है। एक है

सृष्टिगत व्यवस्था, दूसरी है समाजगत । सृष्टिगत धर्मव्यवस्था सृष्टि के साथ साथ उत्पन्न हुई है, समाजगत व्यवस्था मनीषियों ने सृष्टिगत धर्म के अनुकूलन में बनाई है। कानून में ऐसे दो स्तर नहीं है। केवल मनुष्यसमाज के लिये मनुष्य ने बनाई हुई यह व्यवस्था है।

४. धर्म की व्यवस्था मनुष्य के स्वभाव, क्षमता, रुचि, आवश्यकता, आदि मानवीय गुणों को ध्यान में लेकर बनाई गई है, कानून की व्यवस्था यान्त्रिक है, मानवीय सन्दर्भ से रहित है।

५. पश्चिम का समाजचिन्तन व्यक्तिकेन्द्री होने के साथ साथ स्वार्थ केन्द्री भी है। हर व्यक्ति अपने स्वयं के हित का ही विचार करेगा और इसकी रक्षा की ही चिन्ता करेगा यह गृहीत माना जाता है। ऐसा करना स्वाभाविक और न्याय्य भी माना जाता है । व्यक्तियों के स्वार्थ आपस में टकरायेंगे यह भी स्वाभाविक माना जाता है। सबके हितों को परस्पर टकराने से बचाने हेतु करार व्यवस्था बनाई जाती है और करार को समुचित रूप से लागू करने के लिये कानून बनाये जाते है।

६ . कानून बनाने की पद्धति यान्त्रिक होती है। उन्हें मानना अनिवार्य होता है। कानूनभंग के लिये दण्डविधान होता है । दण्ड के भय से ही कानून का पालन किया जाता है। कानून के पालन में स्वेच्छा नहीं होती है। कानून के उपरान्त होने वाला न्याय भी यान्त्रिक होता है। अतः कानून का पालन सख्ती से ही कराया जाता है।

७. धर्म का ऐसा नहीं है । धर्म का आधार तात्त्विक दृष्टि से आत्मीयता है, व्यावहारिक दृष्टि से कर्तव्य है। सबको कर्तव्य का पालन करना सिखाया जाता है । तो भी स्खलन तो होता है इसलिये धर्म से विरुद्ध आचरण होता ही है। उसके लिये दण्ड का विधान भी होता है । न्याय और दण्ड में देशकालस्थिति के सन्दर्भ का विवेक किया जाता है।

८. धर्मानुसारी दण्डविधान में न्याय के उपरान्त क्षमा और दण्ड के मध्य एक तीसरा प्रायश्चित का भी विधान होता है जो पश्चात्ताप के अनुसरण में और अनुपात में दिया जाता है । व्यक्ति को अपनी गलती सुधारने का अवसर दिया जाता है।

९. धर्म का पालन स्वेच्छापूर्वक करना होता है क्योंकि वह दूसरों का विचार करने के साथ और स्वयं के कर्तव्य के साथ जुड़ा होता है। धर्म घटना के मानवीय पक्ष को ध्यान में लेता है।

१०. कानूनी न्याय वकीलों के तर्क, कानून की धाराओं और प्रमाणों की उपलब्धता पर निर्भर करता है, धर्म आधारित न्यायव्यवस्था विवेक पर निर्भर करती है। कानून का अनुसरण करने वाली न्याय की देवी आँखों पर पट्टी बाँध कर रखती है जिससे वह पक्षपात न करे, धर्म का अनुसरण करने वाली न्यायदेवता विवेक रूपी चक्षु से युक्त है जिससे वह स्व-पर भेद न करे परन्तु सत्य-असत्य का भेद परख सके । कानून न्याय की देवता को भी अविश्वास से देखकर आँखे बन्द करने पर विवश करता है, धर्म न्याय देवता पर विश्वास करता है।

११. कानून बनते हैं तब अनेक प्रकार के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हितसन्दर्भो को ध्यान में रखा जाता है। परिणामस्वरूप न्याय निष्पक्ष नहीं रह सकता । इसलिये कानून की ओर हेय दृष्टि से देखा जाता है और दण्ड के भय से ही उसका पालन किया जाता है। धर्म की व्यवस्था सत्य और विश्वनियम के आधार पर ही बनाई जाती है और न्याय करते समय सन्दर्भ देखे जाते हैं।

१२. कानून संसद के द्वारा बहुमत या कभी कभी सर्वानुमत से भी बनाये जाते हैं। कानून को प्रस्तावित करने वाले और प्रस्ताव को पारित करनेवाले पक्षीय हितों से ऊपर नहीं उठ सकते । धर्म के नियम धर्माचार्यों के केन्द्रों में, पुरोहितो द्वारा अथवा गुरुकुलों में शिक्षकों द्वारा बनाये जाते हैं जिनका अपना कोई हितसन्दर्भ नहीं होता । इसलिये कानून का दर्जा धर्म से अत्यन्त निम्न कोटी का है।

१३. भारत की मनीषा को यह समझ में आया था कि मनुष्य की उदात्त या निकृष्ट मनोवृत्तियों के कारण उसका जो अच्छा बुरा व्यवहार होता है उसका न्याय करने की और उसे दण्ड देने की व्यवस्था सामान्य मनुष्य नहीं कर सकता । जो रागद्वेष से ग्रस्त नहीं है, लोभलालच से लिप्त नहीं है, अपने पराये की भावना से ऊपर उठा है ऐसा धर्म जाननेवाला, मनुष्यों के मनोव्यापारों को जाननेवाला व्यक्ति ही कर सकता है। समाज को अपने में से ऐसे व्यक्ति पहचानकर उन्हें यह काम देना होता है । इसलिये भारत में धर्म जाननेवाले और उसका आचरण करनेवालों को ही न्यायव्यवस्था सुपुर्द की गई थी।

१४. एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि भारत में कर विधान और दण्डविधान बनानेवाली और उसे लागू करने वाली सत्तायें भिन्न थीं। विधान बनाने वाली धर्मसत्ता थी और लागू करने वाली राज्यसत्ता थी। बनानेवाली सत्ता को लागू करने का और लागू करनेवाली सत्ता को बनाने का अधिकार नहीं था। इससे निष्पक्षता बढ़ने की तथा निहित स्वार्थ कम होने की सम्भावना अधिक रहती ती।

विधान बनाने वाली धर्मसत्ता उसे लागू करने वाली राज्यसत्ता के अधीन नहीं थी, स्वायत्त थी । शासक और समाज उस सत्ता का सम्मान करता था । पश्चिमी प्रभाव से आज भारत में तान्त्रिक परिभाषा से अनेक संस्थायें स्वायत्त हैं जिनमें एक न्यायव्यवस्था भी है परन्तु सही अर्थों में केवल शासन ही स्वायत्त है, सर्वोपरि है। आज न्यायव्यवस्था को स्वायत्त माना जाता है परन्तु वह जिसके भरोसे चलती है वे कानून संसद में बनाये जाते हैं, और वे बहमत के आधार पर बनते हैं। संसद बनाती है इसका अर्थ है सांसद जिनके प्रतिनिधि हैं ऐसे लोग कानून बनाते हैं।

१६. आज वास्तविक परिस्थिति ऐसी दिखती है कि धर्म की और लोग श्रद्धा से देखते हैं कानून की ओर नहीं। धर्म का पालन करना चाहिये ऐसा लगता है, कानून का विवशता से ही होता है। कानून बाहरी विषय है, धर्म अन्तःकरण का। धर्म के प्रति श्रद्धा जगाई जाती है, कानून की जानकारी दी जाती है।

१७. लोग बिना पुलीस के भी कानून का पालन करें इसलिये उसे पवित्र मानना पड़ता है और उसे धर्म का दर्जा देना पडता है। सांसदों द्वारा पारित किये हुए कानूनों को धर्म का दर्जा देना लोगों को कठिन लगता है। तात्पर्य यह है कि आज भी लोगों के अन्तःकरण में प्रतिष्ठा तो धर्म की ही है।

१८. खास बात यह थी कि भारत में दो प्रकार के कानून होते थे। एक राजकीय और दूसरे सामाजिक, गृहस्थाश्रम से सम्बन्धित सभी कानून सामाजिक थे । शासन से सम्बन्धित राजकीय थे। दोनों के लिये मार्गदर्शक पुरोहित होता था । राजकीय कानून से भी सामाजिक कानून अधिक प्रभावी थे। पंच, महाजन और पुरोहित मिलकर इस न्यायव्यवस्था का संचालन करते थे। समाज स्वायत्त था। ब्रिटीश राज्य में सामाजिक कानून की व्यवस्था समाप्त हो गई। राज्यने उसे हस्तगत कर लिया।

१९. कानून से अपेक्षा तो सत्यान्वेषण की ही होती है परन्तु वर्तमान व्यवस्था में सत्यान्वेषण भी तान्त्रिक हो गया है। उदाहरण के लिये आरोपी और आरोप करनेवाला, इन दो में एक पक्ष तो असत्य का है ही। परन्तु उसका वकील उसे सत्य सिद्ध करने के लिये कानून की धाराओं के अनुकूल प्रयास करता है और वह सत्य सिद्ध होता भी है । सम्बन्धित सब लोग सत्य क्या है यह जानते हैं तो भी असत्य के पक्ष में न्याय होता है। यह तान्त्रिक कानून की बलिहारी है।

२०. भारत को भारत बनना है तो कानून और न्याय के क्षेत्र में धर्म की प्रतिष्ठा करनी होगी। धर्मसत्ता शासन-निरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष ही होनी चाहिये, शासन और अर्थसत्ता धर्मसापेक्ष होना अनिवार्य है। भारत को दृढतापूर्वक यह परिवर्तन करना होगा।

४. पर्यावरण संकल्पना को भारतीय बनाना

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे