शिक्षा का केन्द्रबिन्दु विद्यार्थी
आदर्श विद्यार्थी
जो ज्ञान प्राप्ति की इच्छा रखता है, जो जिज्ञासु है उसे ही विद्यार्थी कहते हैं । ज्ञान श्रेष्ठ है । ऐसे श्रेष्ठ ज्ञान को प्रतिष्ठा, धन या सत्ता प्राप्ति के लिए प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला विद्यार्थी नहीं कहा जा सकता, क्यों कि पैसा, प्रतिष्ठा या सत्ता की अपेक्षा ज्ञान अधिक श्रेष्ठ है । श्रेष्ठ वस्तु का उपयोग कनिष्ठ वस्तु की प्राप्ति के लिए नहीं किया जा सकता यह सामान्य समझदारी की बात है । अतः जो अपने और जगत के कल्याण के लिए ज्ञान प्राप्त करना चाहता है उसे ही विद्यार्थी कहते हैं ।
विद्या प्राप्ति के लिए साधना करनी पड़ती है । सुख और आराम में रहकर विद्या प्राप्त नहीं की जा सकती । इस संदर्भ में एक सुभाषित है -
सुखार्थी चेत् त्यजेत् विद्यां विद्यार्थी चेत् त्यजेत सुखम् ।
सुखार्थिन कुतो विद्या विद्यार्थिन: कुत्तो सुखम् ।।
अर्थात् सुख की कामना करने वाले ने विद्याप्राप्ति को छोड देना चाहिये और अगर विद्याप्राप्ति की कामना है तो सुख की कामना छोड़ देनी चाहिये, क्योंकि सुखार्थी को विद्या और विद्या के अर्थी को सुख कैसे प्राप्त हो सकता है?
विद्यार्थी सुखशैय्या पर नहीं सोता, मिष्टान्न या भाँति भाँति के भोजन नहीं करता, मनोरंजन के पीछे समय बर्बाद नहीं करता । यही उपदेश उसे दिया जाता है ।
ज्ञान प्राप्त करने के लिए धन की नहीं अपितु कुछ विशेष गुर्णों की आवश्यकता होती है । इन गुणों के कारण ज्ञानप्राप्ति की पात्रता प्राप्त होती है । श्रीमदू भगवदू गीता में कहा है -
श्रद्धावान् लभते ज्ञान तत्पर: संयतेन्द्रिय: ।
अर्थात् जिसमें श्रद्धा, तत्परता और इन्ट्रियसंयम है वही
ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।
श्रद्धा अर्थात् ज्ञान में श्रद्धा, अपने आप में श्रद्धा और ज्ञान देने वाले में श्रद्धा होनी चाहिये |
तत्परता अर्थात् नित्यसिद्धता, अर्थात् ज्ञानप्राप्ति के लिए कुछ भी करने के लिए हंमेशा तैयार, तत्पर रहना ।
इन्ट्रियसंयम अर्थात् मौजशौक का संपूर्ण त्याग । यह ज्ञान प्राप्ति की सबसे बड़ी पात्रता है ।
श्रीमदू भगवदू गीता में कहा है -
तद्रिद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रणिपात करना चाहिये, प्रश्न पूछने चाहिये और सेवा करनी चाहिये ।
प्रणिपात करना चाहिये अर्थात् विनयशीलता होनी चाहिये । विनम्रता होनी चाहिये । वेशभूषा, भाषा, हलचल और व्यवहार में विनम्रता प्रकट होती है । विनम्र होने से ही ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। परिप्रश्न का अर्थ है उत्सुकता, अर्थात् जानने के लिए किए गए प्रश्न । भारतीय परंपरा में जिज्ञासा अर्थात् जानने की इच्छा और उसके लिये पूछे गये प्रश्न ही ज्ञानसरिता के प्रवाह का उद्गम है । साथ ही साथ सेवा भी ज्ञानप्राप्ति के लिए आवश्यक है । ज्ञान देने वाले के प्रति नम्रता के साथ साथ उसकी सक्रिय सेवा भी जरुरी है ।
नम्रता मन का भाव है । जिज्ञासा बुद्धि का गुण है और सेवा शरीर का कार्य है । इस प्रकार विद्यार्थी शरीर, मन, बुद्धि तीनों से ही ज्ञान प्राप्त करने के लिए लायक बनता है । विद्यार्थी के व्यवहार के लिए एक सुभाषित है -
काकचेष्टा बको ध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च ।
अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणम् ।।
अर्थात् ज्ञानप्राप्ति की पात्रता रखनेवाले विद्यार्थी के
पाँच लक्षण हैं -
- वह कौए की तरह तत्पर होता है । उसकी दृष्टि से कुछ भी छूटता नहीं है ।
- वह मछली पकडने के लिए एकाग्र बगुले के समान एकाग्रता का धनी है ।
- उसकी निद्रा धान जैसी है अर्थात् जरा सी आहट में वह जग जाता है । वह कम खाने वाला होता है ।
- वह कम खाने वाला होता है।
- वह घर की मोहमाया में फँसता नहीं है ।
आज के समय में भी जिसे विद्या प्राप्त करनी है उसे ये सारी बातें स्मरण में रखना जरुरी है । आज के संदर्भ में इस प्रकार कह सकते हैं -
- विद्यार्थी को प्रात: जल्दी उठने की, रात को जल्दी सोने की, नित्य व्यायाम करने की, श्रम करने की, मैदानी खेल खेलने की, पौष्टिक आहार लेने की, शरीर को स्वच्छ करने की आदतें डालकर अपना शरीर स्वस्थ और बलवान बनाना चाहिये ।
- टी.वी., मोबाइल, स्कूटर या अन्य वाहन, होटल, नए नए कपडे और गहने, मित्रों के साथ गपशप, मस्ती, व्यसन, तामसी भोजन, अश्लील हरकतों आदि को छोड़कर अपना मन सदूगुणयुक्त, बलवान और ज्ञान प्राप्ति के अनुकूल बनाना चाहिये ।
- नित्य ॐकार उच्चारण , मंत्रपठन, ध्यान, आसन, प्राणायाम आदि का अभ्यास कर प्राणशक्ति बढानी चाहिये और \ और नियंत्रित चाहिये और मन को एकाग्र और नियंत्रित करना चाहिये ।
- नित्य स्वाध्याय, नित्य सेवा और आदरयुक्त व्यवहार से चित्त को शुद्ध बनाना चाहिये ।
इन सब का पालन करने वाले को ही विद्या प्राप्त होती है और उत्तम फल प्राप्त होता है । आज के समय में भी यदि परिवार और विद्यालयों में विद्यार्थियों में इन गु्णों का आग्रह रखा जाता है और विद्यार्थी को इनमें शिक्षित करने में प्रेरणा, मार्गदर्शन और सहयोग दिया जाता है तो - हमारे विद्यालय सही अर्थ में ज्ञानसाधना केन्द्र बन सकते है
विद्यार्थियों की शरीर सम्पदा
मनुष्य शरीर विशेष है
भगवानने मनुष्य को शरीर दिया है । मनुष्य की तरह अन्य सभी प्राणियों को भी शरीर दिया है परन्तु मनुष्य और अन्य प्राणियों में बहुत बडा अन्तर है। मनुष्य एकमेकाद्वितीय ऐसा विशिष्ट प्राणी है । इसलिये मनुष्य के शरीर का भी विशेष विचार करना चाहिये । कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं....
- मनुष्य के शरीर में और अन्य प्राणियों के शरीर में एक खास अन्तर यह है कि अन्य सभी प्राणियों का मेरुदण्ड भूमि के समान्तर होता है जबकि मनुष्य का भूमि से समकोण बनाता है । वह सीधा खडा रहता है। मनुष्य के समान पक्षी भी दो पैरों पर टिकते है परन्तु उनका मेरुदण्ड खडा नहीं होता । मनुष्य का मेरुदण्ड खडा होने से उसके व्यवहार में बहुत बडा अन्तर आता है । शरीर के सारे तन्त्र अलग ही पद्धति से काम करते हैं ।
- मनुष्य का शरीर एक अजब यंत्र है विश्व में मनुष्य ने अनेक प्रकार के यंत्र बनाये है। परन्तु मनुष्य के शरीर की तुलना कर सके ऐसा एक भी यंत्र नहीं बनाया जा सका है ।
- मनुष्य को सक्रिय मन, बुद्धि और अहंकार मिले हैं । इच्छाशक्ति, भावनाशक्ति, विचारशक्ति, विवेकशक्ति, निर्णयशक्ति, संस्कारशक्ति आदि इनकी शक्तियाँ हैं । अन्य किसी भी प्राणी में इनमें से एक भी शक्ति नहीं है । मनुष्य के इन सभी अंगों की शक्तियों को प्रकट होने के लिये शरीर ही साधन के रूप में काम में आता है । शरीर के बिना मन अपनी इच्छाओं या विचारों को, बुद्धि अपनी कल्पना या निर्माणशीलता को, अहंकार अपने कर्तृत्व को मूर्त स्वरूप नहीं दे सकते । ये स्वयं मूर्तरूप धारी नहीं हैं इसलिये इनकी शक्तियाँ भी स्वयं मूर्त नहीं हैं । वे शरीर के माध्यम से ही मूर्त रूप धारण कर सकती हैं । इसलिये शरीर को साधन कहा गया है, यंत्र कहा गया हैं ।
- इन सभी की शक्तियों को मूर्त रूप देने के लिये शरीर को प्राण से युक्त होना होता है । प्राण ही शरीर की उर्जा अर्थात् कार्यशक्ति है । इस कारण से शरीर रूपी यंत्र मनुष्य की अमूल्य सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति को प्राप्त करना, उसका रक्षण करना, उसकी शक्ति का संवर्धन करना और उस शक्ति का समुचित उपयोग करना हम सब का परम कर्तव्य है । शिक्षा को इस सम्पत्ति का रक्षण और वर्धन करने की चिन्ता करनी चाहिये ।
- शरीर सम्पत्ति को लेकर आज अनेक समस्यायें निर्माण हुई हैं। इनके विषय में जाग्रत होकर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये ।
समस्यायें कैसी हैं ?
- बच्चों को बहुत छोटी आयु में चश्मा लग जाता है । यह इतना सामान्य हो गया है कि चश्मा लगना लज्जा की बात नहीं लगती । यह दुर्बलता धीरे धीरे फैल रही है ।
- छोटी आयु में ही दाँत दुर्बल हो जाते हैं । हम लोगों ने दाँत से सुपारी तोडने के किस्से सुने हैं । अब दाँत से छीलना, गन्ना चूसना या छुहारा तोडकर खाना असम्भव सा है । चॉकलेट खाने से मेरे दाँत सड गये हैं ऐसा कहने में बच्चों को संकोच नहीं लगता । युवा होने तक दाँत निकालकर नकली दाँत पहनने की नौबत आ जाती है ।
- वजन कम होना, पाचनशक्ति दुर्बल होना, भूख कम होना, कम खाना आदि की मात्रा बढ गई है । पाचन की बीमारियाँ भी बढी है । इसके साथ किशोरवयीन लड़कियों की पतले रहने हेतु डायेटिंग करने और कम खाने का पागलपन बढ गया है ।
- ग्यारह या बारह वर्ष के छात्र मुट्ठी में नरम वस्तु को भी दबा नहीं सकते, नारियेल पटककर तोड नहीं सकते, पत्थर से चटनी पीस नहीं सकते, आटा गूँध नहीं सकते । उनके हाथों में इतना दम ही नहीं है ।
- चलने की, भागने की, काम करने की क्षमता बहुत कम होती है । हमने उदयपुर के संग्रहालय में महाराणा प्रताप का भाला देखा है जो ४० सेर वजन का था । वे इस भाले को फैंक सकते थे । परन्तु आज के युवकों में ऐसी ताकत नहीं है । दो पीढ़ी पूर्व के विद्यार्थी गाँव से नगर में रोज पैदल चलकर विद्यालय आते थे जो पाँच से दस किलोमीटर दूरी पर होता था । आज के विद्यार्थी एक किलोमीटर भी नहीं चलते । चलने की मानसिकता भी नहीं होती और क्षमता भी नहीं ।
बच्चे या तो दुबले पतले होते हैं या नहीं खाने के पदार्थ खाकर मोटे हो जाते हैं । दोनों ही अस्वास्थ्य की निशानी है । छोटी आयु में डायाबीटीज भी लग जाती है ।
अर्थात् शरीर में बल नहीं और स्वास्थ्य भी नहीं । ये दोनों चिन्ता के ही विषय हैं । यदि शरीर ही ठीक नहीं रहा तो वे जीवन में कौन सा बडा काम कर सकेंगे ? या सुख का अनुभव भी कैसे करेंगे ?
कठिनाई के कारण क्या हैं ?
- असन्तुलित आहार इसका मुख्य कारण है । इसका प्रारम्भ उनकी माता ने सगर्भावसथा में जो खाया है इससे होता है । जन्म के बाद दूध, पौष्टिक आहार के नाम पर दिया गया आहार और पेय, चॉकलेट, बिस्कीट, केक, थोडा बडा होने के बाद खाये हुए वेफर, कुरकुरे आदि बाजार के पदार्थ ही उसका मुख्य कारण है । फल, सब्जी, रोटी आदि न खाने के कारण भी शरीर दुर्बल रहता है। आज बाजार में मिलने वाले अनाज, दूध, फल, सब्जी, मसाले आदि पोषकता की दृष्टि से बहुत कम या तो विपरीत परिणाम करने वाले होते हैं । बच्चों को बहुत छोटी आयु से होटेल का चस्का लग जाता है और मातापिता स्वयं उन्हें खाने का चसका लगाते है या तो खाने का मना नहीं कर सकते । संक्षेप में आहार की अत्यन्त अनुचित व्यवस्था के कारण से शरीर दुर्बल रह जाता है
- बच्चों की जीवनचर्या से खेल, व्यायाम और श्रम गायब हो गये हैं । घर में एक ही बालक, पासपडौस में सम्पर्क और सम्बन्ध का अभाव, घर से बाहर जाकर खेलने की कोई सुविधा नहीं - न मैदान, न मिट्टी, वाहनों का या कोई उठाकर ले जायेगा उसका भय, विद्यालय की दूरी के कारण बढता हुआ समय, गृहकार्य, ट्यूशन आदि के कारण खेलने के लिये समय का अभाव, टीवी और विडियो गेम, मोबाइल पर चैटिंग आदि के कारण से शिशु से लेकर युवाओं तक खेलने का समय और सुविधा ही नहीं है । हाथ से काम करने के प्रति हीनता का भाव, यंत्रों का अनावश्यक उपयोग, वाहनों की अतिशयता, घर के कामों का तिरस्कार आदि कारणों से श्रम कभी होता ही नहीं है । व्यायाम करने में रुचि नहीं है । गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और संगणक ही महत्त्वपूर्ण विषय रह गये हैं इस कारण से विद्यालयों में व्यायाम का आग्रह कम हो गया है । विद्यालयों में व्यायाम हेतु स्थान और सुविधा का अभाव है। इन कारणों से विद्यार्थियों के शरीर दुर्बल रह जाते हैं ।
- घर में या विद्यालयों में हाथों के लिये कोई काम नहीं रह गया है । घर में न झाड़ू पकडना है, न बिस्तर समेटने या बिछाने हैं, न पानी भरना है, न पोंछा लगाना है, न कपडों की तह करना है न चटनी पीसना है। स्वेटर गूँथना, रंगोली बनाना, कील ठोकना, कपडे सूखाने के लिए रस्सी बाँधना जैसे काम भी नहीं करना है। या तो नौकर हैं, या मातापिता हैं या यन्त्र हैं जो ये काम करते हैं । बच्चों को इन कामों से दूर ही रखा जाता है । लिखने का काम भी धीरे धीरे कम होता जा रहा है । इस कारण से हाथ काम करने की कुशलता गँवा रहे हैं ।
- टी.वी., मोबाईल, कम्प्यूटर, वाहन, फ्रीज, होटेल, एसी आदि सब शरीर स्वास्थ्य के प्रबल शत्रु हैं परन्तु हमने उन्हें प्रेमपूर्वक अपना संगी बनाया है। हम उनके आश्रित बन गये हैं ।
- बातबात में दवाई खाने की आदत एक और कारण है । खाँसी, जुकाम, साधारण सा बुखार, सरदर्द, पेटर्द्द आदि में दवाई खाना, डॉक्टर के पास जाना, मूल कारण को नष्ट नहीं करना शरीर पर भारी विपरीत परिणाम करता है । बिमारी तो दूर होती नहीं उल्टे शरीर की रोगप्रतिकारक शक्ति कम हो जाती है । छोटे मोटे कारणों से होने वाली इन छोटी मोटी बिमारियों के उपचार भी घर में होते हैं जो सस्ते, सुलभ, प्राकृतिक और शरीर के अनुकूल होते हैं । इनके विषय में ज्ञान और आस्था दोनों का अभाव होता है इसलिये हम संकट मोल लेते हैं ।
- अनुचित आहारविहार का सबसे पहला विपरीत परिणाम शरीर पर होता है और दुर्बल और रोगी शरीर का परिणाम मन और बुद्धि पर होता है । साथ ही इससे उल्टा भी सत्य है मन का प्रभाव शरीर पर होता है । अब तो यह स्वीकृत होने लगा है कि रक्तचाप, डायाबीटीज, अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ मन में जन्मती हैं और शरीर में प्रकट होती हैं । बच्चों में छोटी आयु से ही भय, तनाव, निराशा, हताशा आदि निर्माण होते हैं जिनका उनके शरीर-स्वास्थ्य पर विपरीत परिणाम होता है। ईर्ष्या, ट्रेष, आसक्ति, लालच आदि मनोविकार भी शारीरिक विकारों को जन्म देते हैं ।
विद्यालय क्या करे
विद्यालय को यह बात गम्भीरतापूर्वक लेनी चाहिये । शरीर स्वस्थ और बलवान बनाने हेतु परिणामकारी उपाय करने को प्रधानता देनी चाहिये । कुछ इस प्रकार की बातें हो सकती हैं...
१, विद्यालय में आरोग्यशास््र को महत्त्व देना चाहिये । शरीरविज्ञान, आरोग्यशास्त्र, आहारशास्त्र, हस्तोद्योग, शारीरिक शिक्षा आदि विषयों का समूह शरीर से सम्बन्धित है । इनका सार्थक नियोजन होने की आवश्यकता है। ये सारे विषय सैद्धान्तिक और प्रायोगिक दोनों प्रकार से होने चाहिये ।
२.जिनका जन्म सिझेरीयन ऑपरेशन से नहीं हुआ है उनकी माताओं का सम्मान करना चाहिये । जिनका जन्म अस्पताल में नहीं अपितु घर में हुआ है उनकी माताओं का विशेष सम्मान करना चाहिये । इसका कारण यह है कि स्वाभाविक प्रसूति और घर में प्रसूति बालक की सर्व प्रकार की शक्तियों का रक्षण करनेवाली होती हैं ।
३. जिन बालकों को वर्षभर में कभी डॉक्टर के पास नहीं जाना पडा है ऐसे बालकों का सम्मान करना चाहिये ।
४. हाथ से काम करना सिखाना चाहिये । हाथ से काम करने के अवसर अधिक से अधिक प्राप्त होने चाहिये । कारीगरी के छोटे बडे काम सफाई से करना सिखाना चाहिये ।
५. विद्यालय में अखाडा होना ही चाहिये जिस में पुलअप्स, सिंगल बार, डबल बार मलखम्भ, रस्सी की गाँठों के सहारे वृक्ष पर चढना, ऊँचाई से छलांग लगाना, कुस्ती करना आदि का समावेश हो । भागना और तैरना सबको आना चाहिये । सूर्यनमस्कार सबको आना चाहिये ।
६. बाजार का पदार्थ कभी भी नहीं खाने का, होटल में कभी भी नहीं जाने का, मोबाईल में गेम कभी नहीं खेलने का नियम लेना चाहिये ।
७. दा तुन से दाँत साफ करने का, प्रातःकाल पेट साफ होने का, प्रातः जल्दी उठने का, रात्रि में जल्दी सोने का विषय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानकर उसकी ओर ध्यान देना चाहिये ।
८. शरीरस्वास्थ्य का यह विषय जितना शिक्षा का है उतना ही मानसिकता निर्माण करने का है । इस दृष्टि से प्रेरणा और प्रबोधन के कार्यक्रम होने चाहिये । विद्यार्थियों के प्रबोधन के साथ साथ मातापिता का प्रबोधन भी आवश्यक है ।
९. शिक्षकों के और शिक्षाशासख्रियों के संमेलनों और परिषदों में इस विषय की प्रस्तुति और चर्चा सुरू होनी चाहिये । हमारी पूरी जीवनचर्या, यंत्रोद्योगों के प्रति आकर्षण, सुविधाओं को दिया जानेवाला अग्रताक्रम, काम करने के प्रति बढता हुआ हीनता का भाव, श्रम की अआप्रतिष्ठा आदि सब शरीर सम्पत्ति के हास के व्यापक कारण हैं। ये कारण यथावत् रहें तब विद्यार्थियों को दी जानेवाली शारीरिक शिक्षा की कोई सार्थकता नहीं रहेगी । अतः व्यवस्थाओं और दृष्टिकोण में परिवर्तन करने की बहुत आवश्यकता है । उदाहरण के लिये उच्च कोटी के विद्वान को भी कोई न कोई हुनर, कोई न कोई कला अवगत हो यह आवश्यक माना जाना चाहिये । व्यापक स्वीकृति मिलने पर विद्यार्थियों को शिक्षा देना सरल और सहज हो सकता है ।
१०. अच्छा दूध नहीं मिलने का कारण डेअरी उद्योग का विकास, अच्छा अनाज और साग सब्जी नहीं मिलने का कारण रासायनिक खाद का प्रयोग तथा ट्रेक्टर से खेती होना है, अच्छा पानी नहीं मिलने का कारण, शुद्ध हवा नहीं मिलने का कारण यंत्रों और रसायनों का बढता प्रयोग है । आँख, कान, हाथ दुर्बल होने का कारण टीवी और कम्प्यूटर हैं, स्मरणशक्ति कम होने का कारण मोबाईल है, कुशलता ओं के हास का कारण यंत्र हैं और इन सबका मूल कारण बढ़ता हुआ शहरीकरण और गाँवों की उपेक्षा है । यह समझ में आना चाहिये । जब तक हम विनाशक व्यवस्थाओं को ही बदलेंगे नहीं तब तक स्वास्थ्य और बल कुशलता और निपुणता बढ़ाने के प्रयास निरोर्थक होंगे । साथ ही यह भी सत्य है कि इस का प्रारम्भ विद्यालयों से होना चाहिये ।
तात्पर्य यह है कि विद्यालय से प्रारम्भ होकर यह विषय परिवारों में और समाज में व्याप्त हो जाना चाहिये ।
वैज्ञानिकता क्या है
आज के युग को विज्ञान का युग कहा जाता है। विज्ञान ने बहुत प्रगति की है, मनुष्य का जीवन सुविधाओं से भर गया है, अनेक प्रकार के यंत्रों का आविष्कार हुआ है आदि सब कहकर विज्ञान की स्तुति की जाती है । विज्ञान अंधश्रद्धा का उन्मूलन करता है कहकर विज्ञान का सम्मान किया जाता है । आज सबकुछ वैज्ञानिक होना चाहिये ऐसा अग्रहपूर्वक कहा जाता है । शिखा रखनी चाहिये कि नहीं, तिलक करना चाहिये कि नहीं इससे लेकर मन्दिर में दर्शन करने हेतु जाना चाहिये कि नहीं, भगवान के समक्ष दीपक जलाना चाहिये कि नहीं इसकी चर्चा की जाती है। अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय करना चाहिये ऐसा कहा जाता है । अकेला अध्यात्म नहीं चलेगा, विज्ञान तो होना ही चाहिये ऐसा कहा जाता है । अतः वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय बन गया है ।
परन्तु आज इसे समझने में और उसके अनुसार व्यवहार करने में अनेक प्रकार की गम्भीर स्वरूप की भ्रान्तियाँ फैल गई है । वैज्ञानिकता की दुहाई देकर घोर अवैज्ञानिक व्यवहार किया जाता है। इस स्थिति में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और व्यवहार के सम्बन्ध में स्पष्टता होना आवश्यक है ।
हम कुछ इस प्रकार विचार कर सकते हैं
- वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विज्ञानसम्मत व्यवहार होना ही चाहिय इसमें कोई आपत्ति नहीं है, केवल हमारी समझ ठीक होने की आवश्यकता है ।
- आज जि्सि विज्ञान कहा जाता है वह केवल भौतिक विज्ञान है। भौतिक विज्ञान का सम्बन्ध केवल पंचमहाभूतात्मक पदार्थों से होता है । इसलिये उसे पदार्थविज्ञान भी कहा जाता है । परन्तु सृष्टि में केवल पंचमहाभूत ही नहीं है । उनके अलावा प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त आदि भी हैं । सृष्टि के व्यवहार को ये सारे तत्त्व परिचालित करते हैं। उनमें भी विद्यार्थियों के दैनन्दिन व्यवहार में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास पंचमहाभूतों से प्राण, प्राण से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से चित्त अधिक सूक्ष्म है । सूक्ष्म का सामान्य अर्थ हम छोटा समझते हैं, परन्तु सूक्ष्म का शास्त्रीय अर्थ अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी ऐसा तत्त्व है । अतः पंचमहाभूतों से प्राण, प्राण से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से चित्त अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी हैं । जिस प्रकार पंचमहाभूतों का भौतिक विज्ञान है उस प्रकार प्राण का प्राणविज्ञान, मन का मनोविज्ञान, बुद्धि का विज्ञान, चित्त का आनन्दविज्ञान है। इन सबके परे आत्मविज्ञान है जिसे हम अध्यात्म कहते हैं ।
इन सबका समन्वित विचार करना और उस विचार के अनुसार दृष्टिकोण बनना ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण है ।
- विज्ञान का सही नाम है शास्त्र । वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ है शास्त्रीय दृष्टिकोण । शास्त्र बुद्धि का विषय है । इसलिये वास्तव में बुद्धि को ही विज्ञान संज्ञा दी गई है। जो बुद्धिगम्य है और बुद्धिसम्मत है वह शास्त्रीय है वह वैज्ञानिक है ।
- शाख्त्रीयता के सम्बन्ध में भारतीय विचार की दो विशेषतायें हैं ।
- बुद्धि से भी अनुभूति श्रेष्ठ है । अनुभूति को बुद्धिगम्य बनाकर शब्दों में जो प्रस्तुत किया जाता है वह शास्त्र है। सृष्टि के समस्त व्यवहार का प्रमाण शास्त्र है परन्तु शास्त्र का प्रमाण अनुभूति है । इसलिये केवल बुद्धि ही अन्तिम प्रमाण नहीं है, अनुभूति तक पहुँची हुई बुद्धि ही प्रमाण है ।
- शास्त्र केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही सीमित नहीं है । मनुष्य का व्यवहार कितना भी शास्त्रीय हो, अर्थात् वैज्ञानिक हो, तो भी सृष्टि के अन्य मनुष्यों , प्राणियों , वृक्षवनस्पति के हित और सुख के विरोधी नहीं होना चाहिये । उदाहरण के लिये मनुष्य अपनी बुद्धि का उपयोग कर रासायनिक खाद बनाता है और अपनी भूमि में अधिक अनाज ऊगाता है । उसे लगता है कि यह व्यवहार गलत नहीं है । परन्तु भूमि का और अनाज का प्रदूषण इससे ही जन्म लेता है । भूमि, प्राणी और अन्य मनुष्यों को भारी नुकसान होता है । ऐसा विज्ञान व्यापक अर्थ में विज्ञान नहीं है, वह अनीति बन जाता है ।
- कोई भी कार्य बुद्धि से समझकर सही गलत का, उचित अनुचित का विवेक करने के बाद जो सही या उचित है वह करना और अनुचित या गलत है वह नहीं करना ही वैज्ञानिकता का व्यवहार करना है । हम दैन॑न्दिन व्यवहार में वैज्ञानिकता का विचार कैसे किया जाता है यह देखें ।
आहार विषयक वैज्ञानिकता
- आहार की आवश्यकता क्यों होती है । मनुष्य भूख लगती है इसलिये खाता है । शरीर को पोषण चाहिये इसलिये खाता है । विविध प्रकार के भोजन पदार्थ जीभ को और मन को अच्छे लगते हैं इसलिये खाता है । भोजन करने में आनन्द आता है इसलिये खाता है। इन विभिन्न कारणों में समायोजन करना वैज्ञानिकता है |
- समायोजन कैसे करे ? भोजन के मोटे मोटे तीन स्तर है । भोजन सात्तिक, पौष्टिक और स्वादिष्ट होता है । सात्त्विक भोजन मन को संस्कारित करता है, पौष्टिक भोजन शरीर को पुष्ट करता है और स्वास्थ्य की रक्षा करता है, स्वादिष्ट भोजन जीभ और मन को खुश करता है । यदि वह स्वादिष्ट है परन्तु पौष्टिक नहीं है तो कया करेंगे ? पौष्टिक है परन्तु सात्त्विक नहीं है तो क्या करेंगे ? यह तो सम्भव है कि स्वादिष्ट भोजन पौष्टिक और सात्चिक नहीं भी होता है, पौष्टिक भोजन सात्तिक नहीं भी होता है । उदाहरण के लिये जंक फूड मैदे के पदार्थ, फ्रिज में रखे पदार्थ स्वादिष्ट तो होते हैं परन्तु पौष्टिक और सात्विक नहीं होते । लहसुन, प्याज, मछली आदि पौष्टिक तो होते हैं परन्तु सात्तिक नहीं होते। बुद्धिमान मनुष्य करता है, पोष्टिकता की दूसरे क्रम में और स्वादिष्टता की तीसरे क्रम में ।
अतः भोजन स्वादिष्ट तो होना चाहिये परन्तु पौष्टिक और सात्तिक तो होना ही चाहिये । सात्त्विक है परन्तु स्वादिष्ट नहीं है तो चलेगा परन्तु स्वादिष्ट है और सात्विक या पौष्टिक नहीं है ऐसा नहीं चलेगा । भोजन पौष्टिक होने पर भी सात्तिक नहीं है तो नहीं चलेगा । सात्त्विक भोजन पौष्टिक होता ही है । अतः स्वाद को प्राथमिकता देना अवैज्ञानिक है, सात्त्विकता को प्राथमिकता देना वैज्ञानिक है ।
3.अपवित्र मनोभावों से बना, अशुद्ध सामग्री से बना, अनुचित पद्धति से बना भोजन भले ही स्वादिष्ट हो तो भी नहीं खाना चाहिये क्योंकि वह अवैज्ञानिक है ।
4.भोजन करने का समय, भोजन करने की पद्धति, भोजन की मात्रा, वैज्ञानिक पद्धति से जो निश्चित किये गये हैं उनका अनुसरण करना वैज्ञानिकता है ।
5. किसी को दिये बिना, किसी का छीनकर, अपने पास धन हो तो भी मुफ्त में मिला हुआ, भिक्षा माँगकर खाना अवैज्ञानिक है
6. एल्युमिनियम के या प्लास्टीक के पात्रों में खाना पीना अवैज्ञानिक है ।
7 . झूठा, बासी, यंत्रों की सहायता से बना भोजन करना अवैज्ञानिक है ।
8. हमारी रसोई में मिक्सर, ग्राइण्डर, चर्नर, माइक्रोवेव, फ्रीज, कूलर आदि होते हैं । इनसे बनाया गया और इनमें रखा हुआ भोजन करना अवैज्ञानिक है ।
9. संक्षेप में भोजन करने का एक विस्तृत शाख्र है । इस शास्त्र का अनुसरण किये बिना भोजन करना अवैज्ञानिक है ।
वसख्त्रपरिधान में वैज्ञानिकता
१. अन्न की तरह वस्त्र भी हमारे दैनन्दिन जीवन का अनिवार्य अंग है । इसका शास्त्रीय पद्धति से विचार करना ही चाहिये ।
२.. सूती वस्त्र पहनना वैज्ञानिक है सिन्थेटिक पहनना और थैले, मेजपोश, सोफाकवर, पर्दे आदि में भी अवैज्ञानिक क्योंकि सूती वस्त्र शरीर का रक्षण करते हैं सूती का स्थान सिन्थेटिक कपडे ने लिया है । अब जबकि सिन्थेटिक वस्त्र स्वास्थ्य के लिये हानिकारक तो सूती माँगने पर भी दुकानदार सूती जैसे लगने वाले हैं । सिन्थेटिक वस्र आकर्षक लगते हैं, सस्ते मिलते हैं, धोने में सुविधा है, प्रैस नहीं करने पड़ते, परन्तु वस्त्रों से स्वास्थ्य का रक्षण करना ही महत्त्वपूर्ण है । सुविधा नहीं, स्वास्थ्य के अविरोधी सुविधा का . विचार करना वैज्ञानिकता है ।
अलंकार, सौन्दर्यप्रसाधन, अन्य छोटी मोटी
३... वख स्वास्थ्यरक्षा के साथ साथ शील रक्षा के लिये, ... उस्तुओं में वैज्ञानिकता
लजारक्षा के लिये भी होते हैं । शरीर स्वास्थ्य के... १... विद्यार्थियों के बस्ते का थैला, जूते, रबड, पेन्सिल,
लिये उपयोगी सूती वस्त्र भी शीलरक्षा नहीं कर सकते लेखन पुस्तिका और पठनपुस्तिका के आवरण,
तो उन्हें पहनना अवैज्ञानिक है । कंपास पेटिका, नास्ते का डिब्बा, पानी की बोतल
¥. कारखाने में बने तैयार कपडे पहनने वाले लोग अनेक यदि प्राकृतिक के स्थान पर सिन्थेटिक है तो उनका
कारीगरों को बेरोजगार बनाने में निमित्त बनते हैं । प्रयोग करना अवैज्ञानिक है ।
किसी की रोजगारी छीन लेना, किसी की आर्थिक... २... नहाने और धोने का साबुन, कपडे धोने का पाउडर,
स्वतन्त्रता नष्ट करना हिंसा है। ऐसे वस्त्र पहनना बाल धोने का शेम्पू, क्रीम, पाउडर, नेल पॉलिश,
हिंसा है। हिंसा कभी वैज्ञानिक नहीं हो सकती । हाथ के और गले के अलंकार यदि सिन्थेटिक है तो
इसलिये विशालकाय यंत्र, केन्द्रीकृत उत्पादन प्रक्रिया उनका प्रयोग अवैज्ञानिक है ।
और विज्ञापन... तथा... परिवहन... आधारित... रे... मेहंदी, रबर बैण्ड, बिन्दी, पिन, बकल टेटू आदि में
वितरणव्यवस्था से गुजर कर बने हुए वस्त्र पहनना से आज कुछ भी प्राकृतिक नहीं है । इनका प्रयोग
अवैज्ञानिक है । करना अवैज्ञानिक है । ऊँची एडी के सैण्डल का
५... जिस प्रकार सूती के स्थान पर सिन्थेटिक वस्त्र होते हैं प्रयोग अवैज्ञानिक है ।
उस प्रकार रेशमी और गरम कपड़ों के स्थान पर भी
सिन्थेटिक कपड़े होते हैं । इनका प्रचलन इतना बढ़
गया है कि अधिकांश लोगों को इसकी कल्पना तक... १. दिनचर्या में सोना, जागना, अध्ययन करना, काम
दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या में वैज्ञानिकता
नहीं होती । ये कपड़े मोजे, स्वेटर, शाल आदि के करना, भोजन करना आदि के उचित समय का पालन
रूप में उपयोग में लाये जाते हैं । इनका प्रयोग करना करना मुख्य बात है । दिन के चौबीस घण्टों का समय
भी अवैज्ञानिक ही है । विभिन्न क्रियाकलापों के लिये उचित या अनुचित
६... बालक-बालिका, किशोर-किशोरी, युवक-युवती जो होता है । उचित है तो वैज्ञानिक है, अनुचित है तो
तंग कपड़े पहनते हैं उनसे उनके स्वास्थ्य को भारी अवैज्ञानिक है ।
नुकसान पहुँचता है । ऐसे कपड़े पहनना अवैज्ञानिक 2. रात्रि में देर से सोना और सुबह देर से उठना शारीरिक,
है। मानसिक, बौद्धिक स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त घातक
७... कपड़ा पहनने के लिये तो काम में आता ही है, साथ है इसलिये अवैज्ञानिक है ।
में उसके अन्य अनेक उपयोग हैं । बिस्तर, बिछाने रात्रि में बारह बजे से पूर्व की एक घण्टे की नींद
२०
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बारह बजे के बाद की दो घण्टे की नींद के बराबर होती है । इसलिये जल्दी सोने से कम समय सोने पर भी अधिक नींद मिलती है ।
रात्रि में सोने के समय का सायंकाल के भोजन के समय के साथ सम्बन्ध है । सायंकाल को किया हुआ भोजन पच जाने के बाद ही सोना चाहिये । भोजन पचने से पहले सोना स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकारक है । सायंकाल को सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना चाहिये यह हमने भोजन की चर्चा करते समय देखा है। सायंकाल का भोजन हल्का ही होना चाहिये जिसे पचने में ढाई घण्टे से अधिक समय न लगे । सायंकाल के भोजन का समय ऋतु के अनुसार
छः से लेकर साडे सात का होता है । अतः सोने का
समय रात्रि में साडे आठ से दस बजे का है । दस से
अधिक देरी कभी भी नहीं होनी चाहिये ।
हम देखते हैं कि हमारी काम करने की व्यवस्था
और पद्धति, टीवी कार्यक्रमों का समय, भोजन का
समय हमें रात्रि में उचित समय पर सोने नहीं देते ।
नींद की गुणवत्ता खराब होने का प्रारम्भ वहीं से हो
जाता है । सोते समय दूध पीने की, प्राणायाम और
ध्यान करने की या प्रार्थना करने की प्रवृत्ति नहीं रही
तो शान्त और गहरी निद्रा नहीं आती । शान्त, गहरी,
सुखकारक निद्रा नहीं हुई तो चेतातन्त्र का तनाव
बढता है और मन की अशान्ति, रक्तचाप आदि पैदा
होते हैं । इसलिये पहला नियम रात्रि में जल्दी सोने
का है।
रात्रि में जल्दी सोने से स्वाभाविक रूप में ही
प्रातःकाल जल्दी उठा जा सकता है । स्वस्थ व्यक्ति
को आयु के अनुसार छः से आठ घण्टे की नींद
चाहिये । रात्रि में नौ बजे सोयें तो प्रातः तीन से पाँच
बजे तक उठा जाता है । प्रातःकाल जगने का समय
सूर्योदय से कम से कम चार घडी और अधिक से
अधिक छः घडी होता है । एक घडी चौबीस मिनिट
की होती है । अतः सूर्योदय से लगभग देढ से सवा
दो घण्टे पूर्व जगना चाहिये । सूर्योदय ऋतु अनुसार
रे
प्रात: साड़े पाँच से साड़े सात
बजे तक होता है । अतः प्रात: जगने का समय साडे
तीन से लेकर साडे पाँच बजे तक का होता है।
जिन्हे आठ या छः घण्टे की अवधि चाहिये । उन्होंने
इस प्रकार गिनती कर रात्रि में सोने का समय निश्चित
करना चाहिये ।
किसी भी स्थिति में नींद पूरी होनी ही चाहिये ।
शरीर के सभी तन्त्रों को सुख और आराम नींद से ही
मिलते हैं । रात्रि में जल्दी सोने और प्रातः जल्दी
उठने से बल, बुद्धि और स्वास्थ्य तीनों बढते हैं ऐसा
बुद्धिमान लोगों को शास्त्र से और सामान्य जन को
परम्परा से ज्ञान मिलता है ।
प्रातत्काल सूर्योदय के पूर्व के डेढ घण्टे को
weet कहते हैं । यह समय ध्यान, चिन्तन,
कण्ठस्थीकरण आदि के लिये श्रेष्ठ समय है। इस
समय सोते रहना अत्यन्त हानिकारक है । और कुछ
भी न करो तो भी जागते रहो ऐसा सुधी जन
अग्रहपूर्वक कहते हैं ।
३. सुबह और शाम छः से दस बजे तक का काल
अध्ययन के लिये उत्तम होता है । आयु के अनुसार
दिन में चार से सात घण्टे अध्ययन करना चाहिये, छः
से आठ घण्टे सोना चाहिये, तीन से पाँच घण्टे श्रम
करना चाहिये, दो घण्टे विश्रान्ति लेना चाहिये, दो
घण्टे मनोविनोद् के लिये होने चाहिये, शेष अन्य
कार्यों के लिये होने चाहिये। आयु, स्वास्थ्य,
क्षमता, आवश्यकता आदि के अनुसार यह समय कुछ
मात्रा में कमअधिक हो सकता है, ये सामान्य निर्देश
हैं ।
भोजन के तुरन्त बाद चार घडी तक शारीरिक और
बौद्धिक श्रम नहीं करना चाहिये । इस दृष्टि से सुबह ग्यारह
बजे शुरू होकर शाम पाँच या छः बजे तक चलने वाले
विद्यालयों और कार्यालयों का समय अत्यन्त अवैज्ञानिक
है । ये दोनों ऋतु के अनुसार प्रातः आठ या नौ को शुरू
होकर साडे ग्यारह तक और दोपहर में तीन से छः बजे तक
चलने चाहिये । अध्ययन के समय को तो आवासी
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विद्यालयों के अभाव में किसी भी
प्रकार से उचित रूप से नहीं बिठा सकते । विद्यालय घर से
इतना समीप हो कि दस मिनट में घर से विद्यालय जा आ
सकें तभी उचित व्यवस्था हो सकती है । हमारी पारम्परिक
व्यवस्था उचित दिनचर्या से युक्त ही होती थी । सम्पूर्ण
समाज इसका पालन करता था इसलिये व्यवस्था बनी रहती
थी । हमारी आज की व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक
दिनचर्या अत्यन्त अवैज्ञानिक बन गई है ।
इसी प्रकार क्रतुचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है । ऋतु
के अनुसार आहारविहार का नियमन होता है । आहार का
समय और आहार की सामग्री ऋतु के अनुसार बदलते हैं ।
फल, सब्जी, पेय पदार्थ, मिष्टान्नर, नमकीन आदि सब ऋतु
के अनुसार भिन्न भिन्न होते हैं । उदाहरण के लिये वर्षा के
समय में घी की और गरम, ठण्ड के दिनों में दूध की और
गर्मी के दिनों में दही की तथा ठण्डी और खटाई युक्त
मिठाइयाँ उचित रहती हैं । केले वर्षाक्तु में, आम गर्मियों
में, सूखा मेवा ठण्ड के लिये अनुकूल है । पचने में भारी
पदार्थ ठण्ड के दिनों में ही चलते हैं । कम खाना ashag
के लिये अनुकूल है । बैंगन, प्याज, पत्तों वाली सब्जी
वर्षक्रतु में नहीं खानी चाहिये । बैंगन तो गर्मियों में भी नहीं
खा सकते, केवल ठण्ड के दिनों के लिये अनुकूल हैं । गर्मी
के दिनों में दोपहर में बना खाना चार घण्टे के बाद भी नहीं
खाना चाहिये। वर्षक्रतु में ठण्डा भोजन नहीं करना
चाहिये । बसन्त ऋतु में दहीं नहीं खाना चाहिये ।
ये तो केवल उदाहरण हैं । क्रतुचर्या आहारशास्त्र का
अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । आहार के साथ साथ वस्त्र,
खेल, काम आदि का भी ऋऋतुचर्या में समावेश होता है ।
किसी भी ऋतु में दिन में एक बार तो पसीना निकल
आये ऐसा काम, व्यायाम या खेल होना ही चाहिये । पसीने
के साथ शरीर और मन का मैल निकल जाता है और वे शुद्ध
होते हैं जिससे सुख, आराम और प्रसन्नता प्राप्त होते हैं ।
दिनचर्या और कऋऋतुचर्या की तरह जीवनचर्या भी
महत्त्वपूर्ण विषय है । जीवन जीने की पद्धति को जीवनचर्या
कहते हैं । जीवनचर्या के बारे में कुछ इस प्रकार से विचार
किया जा सकता है ।
RR
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
१, हम मनुष्य हैं । मनुष्य के जीवन का कोई न कोई
लक्ष्य होना चाहिये, उद्देश्य होना चाहिये, उद्देश्य की
सिद्धि और लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति और
गतिविधि बननी चाहिये । इस गतिविधि के अनुसार
जीवनकार्य होना चाहिये ।
२... आयु की अवस्था के अनुसार जीवन का कोई न कोई
मुख्य और केन्द्रवर्ती कार्य होना चाहिये । उदाहरण के
लिये विद्यार्थियों का मुख्य कार्य अध्ययन करना है,
गृहस्थाश्रमी का मुख्य कार्य अधथर्जिन हेतु अपने
स्वभाव और क्षमता के अनुसार व्यवसाय करना है
तथा गृहस्थी के कर्तव्य निभाना है, वानप्रस्थी का
मुख्य कार्य धर्मचिन्तन और समाजसेवा है, संन्यासी का
मुख्य कार्य मोक्षचिन्तन, तपश्चर्या और समाज का
कल्याण है । जीवन की अन्य सारी गतिविधियाँ इस
मुख्य कार्य के अनुरूप और अनुकूल बिठानी होती
हैं । उदाहरण के लिये विद्यार्थी को ऐसा ही सबकुछ
करना चाहिए जो अध्ययन के अनुरूप और अनुकूल
हो और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिये जो अध्ययन
के अनुरूप और अनुकूल न हो । पुस्तकालय में जाना
अध्ययन के अनुकूल है परन्तु फिल्म देखने के लिये
जाना अनुकूल नहीं है । मैदानी खेल खेलना अनुकूल
है परन्तु विडियो गेम खेलना नहीं । श्रम करना
अनुकूल है परन्तु विलास नहीं ।
किसी भी आयु में, किसी भी मुख्य जीवनकार्य में,
किसी भी लक्ष्य में सेवा, स्वाध्याय और सत्संग, तप, दान
और यज्ञ तो जीवनचर्या के अभिन्न अंग होने ही चाहिये । ये
सब आयु, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुरूप होने
चाहिये । तभी वे युगानुकूल और सार्थक होंगे ।
अपने परिवार, समाज और संस्कृति के अनुरूप ही
हमारी जीवनचर्या होती है । उदाहरण के लिये हम भारतीय
हैं, हम संकुच
ित और स्वार्थी नहीं हो सकते, विश्व कल्याण
हो सके ऐसी ही हमारी जीवनचर्या होगी । हम पृथ्वी,
पानी, वनस्पति, प्राणी और मनुष्यों का शोषण नहीं कर
सकते |
इस प्रकार हमारी दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
सन्तुलित होती है तभी उसे वैज्ञानिक कहा जा सकता है । अवैज्ञानिक होते हैं तब भी हमें
कहने की आवश्यकता नहीं कि बातबात में... असुविधाजनक लगने वाली बातों को अवैज्ञानिक कहकर
वैज्ञानिकता की दुहाई देने के बाद भी प्रत्यक्ष व्यवहार में. उन्हें छोड़ते जा रहे हैं । इस उल्टी दिशा को सही करना
हम वैज्ञानिकता से कोसों दूर हैं । प्रत्यक्ष व्यवहार में घोर... शिक्षा का काम है ।
विद्यार्थियों की मानसिकता : समस्या और निराकरण
यह तो व्यावहारिकता है मार्गदर्शन, न निषेध । दस प्रतिशत विद्यार्थी अपनी पढाई
महाविद्यालयीन छात्रा के मुख से सुना हुआ एक को गम्भीरता | लेते हैं, शेष मजे नि के लिये
किस्सा है। आजकल सभी स्तरों की, परीक्षाओं में महाविद्यालय में जाते हैं । महाविद्यालय में जाकर कक्षा में
एमसीक्यू (मल्टीपल चोईस क्रेश्नन) सही पर्याय ढूँढने के नहीं जाना, होटल में जाना, स्कूटर या बाइक पर बैठकर
प्रश्न पूछे जाते हैं । बीस प्रतिशत अंकों के होते हैं । अर्थात बातें करना, छेडछाड करना आम बात है । महाविद्यालयों
एक प्रश्न होता है, उसके चार उत्तर प्रश्नपत्र में ही दिये जाते... के प्रवास कार्यक्रमों में, रंगमंच कार्यक्रमों में, स्वतन्त्रता के
हैं। उनमें से जो सही उत्तर हैं उसके ऊपर निशान लगाना... म पर स्वैरता, उच्छृंखलता और स्वच्छन्दता दिखाई देती
होता है। वह छात्रा कह रही थी कि परीक्षा खण्ड में सब... हैं । कला के प्रदर्शन में सुरुचि, संस्कारिता और आभिजात्य
मिलकर एक मेधावी छात्र निश्चित करते हैं । संकेत निश्चित नहीं दिखाई देते हैं . टीवी कार्यक्रमों , धारावाहिकों तथा
किया जाता है । वह नाक पर पेन टिकाता है तो संकेत है... फिल्मों का प्रभाव वेशभूषा, केशभूषा, अलंकार, सौन्दर्य
कि सही उत्तर wa, Saka dda WH, बोलचाल आदि में दिखाई देता है । देशभक्ति और
'बी' है, कुछ और संकेत पर सी', कुछ और पर “डी' । सामाजिक सरोकार कहीं नहीं दिखाई देते । नवरात्रि,
वह कह रही थी कि परीक्षा शुरू होने से प्रथम दस या ख़िस्ती नूतनवर्ष, वेलेण्टाइन डे जैसे समारोहों में स्खलनों
पन््द्रह मिनट में सभी विद्यार्थी यह उत्तर मालिका पूरी कर. फी कोई सीमा नहीं रहती । हमारे अनुभवी मनीषियों ने कह
कहा गया कि यह तो अनैतिक आचरण है, यह परीक्षा में यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वं अविवेकिता ।
नकल करना है, तब उसका उत्तर था कि यह तो एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्यम् ।।
व्यावहारिकता है, इन बीस उत्तरों के लिये पूरा पाठ्यक्रम अर्थात् ;
अच्छी तरह से पढ़ने की झंझट से बचने में कया बुराई है । यौवन, धनसम्पत्ति, सत्ता और अविवेक में से एक भी
यदि है तो वह अनर्थ का कारण बनता है । जहाँ चारों
मानसिकता के आयाम एकत्र हों तब तो अनर्थ की सीमा ही नहीं रहती ।
महाविद्यालयीन छात्रों की यह मानसिकता है । परीक्षा आज के महाविद्यालय के विद्यार्थियों में दो तो होते
में नकल करना उन्हें अपराध नहीं लगता है। इनकी. ही हैं। ये हैं यौवन और दूसरा है अविवेक । ठीक से
मानसिकता के और आयाम भी उतने ही आधघातजनक है। .. रगोपन और अध्ययन नहीं होने के कारण से विवेक का
जरा देखें... विकास नहीं होता है । इसके परिणाम स्वरूप अनर्थों की
१, हम महाविद्यालय में पढ रहे हैं, अब हम स्वतन्त्र ... परम्परा निर्मित होती है । अपने अध्यापकों के प्रति उन्हें
हैं, हमें कोई टोक नहीं सकता । वख््र परिधान में, खान पान... आदर नहीं होता । अनुशासनमें रहने की वृत्ति नहीं होती ।
में, मनोरंजन में हमें न किसी का परामर्श चाहिये, न... गम्भीर अध्ययन करने की न इच्छा होती है न क्षमता ।
83
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
उनके आदर्श चरित्र नटनटियाँ अथवा... परन्तु अहमदाबाद की ये दो युवतियाँ सबसे बेखबर अपनी
क्रिकेटर होते हैं, वीरपुरुष विद्वान या तपस्वी नहीं । ही बातों में मस्त थीं । उनकी बातें होटेल, फैशन और
२. जैसे जैसे अध्ययनकाल समाप्ति की ओर बढता है... बॉयफ्रेष्ड तक ही सीमित थीं । न उन्हें नीचे वालों की सुध
अपने भावी जीवन की चिन्ता उन्हें घेरने लगती है।. थी, न कोलाहल की, न बाबरी की न राममन्दिर की ।
अधथर्जिन हेतु नौकरी और गृहस्थी के लिये लडकी कैसे ये दोनों मेडिकल कोलेज के अन्तिम वर्ष में अध्ययन
मिलेगी इसकी उलझन बढ़ती है । साथ ही मजे करने की. कर रही थीं, एक वर्ष के बाद डॉक्टर बनने वाली थी, समाज
वृत्ति तो निरंकुश रहती ही है । इस मामले में लड़कियों की... के बौद्धिक वर्ग की सदस्य बननेवाली थी, किसी कार्यक्रम में
अपेक्षा लड़कों की स्थिति अधिक विकट है । लड़के नौकरी . मंच पर अतिथि विशेष या अध्यक्ष बनने वाली थीं । समाज
और विवाह दोनों के लिये इच्छुक होते हैं लड़कियाँ नौकरी के शिक्षित वर्ग का यह प्रातिनिधिक उदाहरण है ।
के लिये तो इच्छुक रहती हैं परन्तु विवाह के लिये नहीं ।
उन्हें विवाह से भी नौकरी का आकर्षण और महत्त्व अधिक... मानसिकता के जिम्मेदार कारण
होता है । जितना अधिक पढ़ती हैं और अधिक कमाई युवकयुवतियों की यह मानसिकता अचानक नहीं बन
करती है उतनी विवाह की आयु बढती जाती है और जाती, बचपन से ही विकसित होती है। विद्यालय की
विवाह करने की, बालक को जन्म देने की इच्छा कम होती. व्यवस्था, अध्यापक और मातापिता इसके लिये जिम्मेदार
जाती है । लड़कियों का संगोपन और शिक्षा ही इस प्रकार. होते हैं । कुछ बातें इस प्रकार हैं
से होती है कि आर्थिक स्वतंत्रता, करियर, घरगृहस्थी के १, छोटी आयु से ही पढाई करना अथर्जिन के लिये
प्रति अरुचि, घर के कामों के प्रति हेयता का भाव निर्माण होता है, पढ़ाई करना आनन्ददायक नहीं होता,
होता है । लड़कियों की इस मानसिकता का समाज की अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की
स्थिरता और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव होता है । जाती हैं ।
जो विद्यार्थी गम्भीर अध्ययन करते हैं उनमें भी क्यों
ज्ञाननिष्ठा कम और अर्थनिष्ठा ही अधिक होती है । अपने २... परीक्षा पका नह है तो क्यों गा की चाह पा मन
विषय का प्रेम, ज्ञान के क्षेत्र में योगदान, अपने ज्ञान का जानेवाला * = an की कोई क्षा में पूछा नहीं
अपने या समाज के जीवन विकास में उपयोग आदि बातें जानेवाला है नरसिंह ई आवश्यकता नहीं ।
गीता, ज्ञानेश्वरी, नरसिंह महेता, तुलसीदास, कबीर,
कम और अपना अर्थलाभ अधिक प्रेरक तत्त्व होता है । मीरा pnd aia sant
३. एक स्थिति का स्मरण आता है । घटना कुछ रा या सूरदास की रचनायें परीक्षा के सन्दर्भ में ही
पुरानी है । दिल्ली से अहमदाबाद आनेवाली रेल में एक पठनीय हैं, परीक्षा के अनुरूप ही पढ़ाई की जाती हैं,
डिब्बे में ऊपर की बर्थ पर दो युवतियाँ बैठी थीं । चौबीस भक्ति या तत्त्वज्ञान का कोई महत्व नहीं है, रुचि का
घण्टे के सफर में सोने के लिये आठ घण्टे, खाने पीने का तो कोई प्रश्न ही नहीं ऐसी शिक्षकों की भी मानसिकता
होती हैं । दस अंकों की ज्ञानेश्वरी, पचास अंकों की
सामान लेने के लिये एकाध घण्टा और शौचालय में जाने i
गीता, एक प्रश्नपत्र के कालीदास या भवभूति होते हैं ।
हेतु एकाध घण्टा नीचे उतरीं । शेष समय वे एकदूसरी के
साथ बातें ही कर रही थीं । नीचे लोग बातें कर रहे थे । परीक्षा के परे उनका कोई महत्त्व नहीं ।
१९९२ का वर्ष था और बाबरी ढाँचा गिरकर एकाध सप्ताह परास्नातक कक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण विद्यार्थी
ही बीता था । रेल में अनपढ़, ग्रामीण, थोडे पढे लिखे, भी आगे नौकरी के लिये अथवा बढोतरी के लिये
महिला पुरुष सब बाबरी ध्वंस और राममन्दिर की ही चर्चा अनिवार्य नहीं है तो पीएचडी क्यों करना ऐसा सोचता
कर रहे थे, वातावरण में गर्मी, जोश, उत्तेजना आदि सब थे है।
श्
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
परीक्षा में अंक प्राप्त करने हेतु रटना, लिखना, याद
करना ही अध्ययन है ऐसा विद्यार्थियों का मानस
माता-पिता और शिक्षकों के कारण बनता है । वे ही
उन्हें ऐसी बातें समझाते हैं । अध्ययन की अत्यन्त
यांत्रिक पद्धति रुचि, कल्पनाशक्ति, सूृजनशीलता
आदि का नाश कर देती है । इसके चलते विद्यार्थियों
में ज्ञान, ज्ञान की पवित्रता, विद्या की देवी सरस्वती,
विद्या का लक्ष्य आदि बातें कभी आती ही नहीं है ।
ज्ञान के आनन्द का अनुभव ही उन्हें होता नहीं है ।
शिक्षित लोगों के समाज के प्रति, देश के प्रति कोई
कर्तव्य होते हैं ऐसा उन्हें सिखाया ही नहीं जाता ।
परिणाम स्वरूप अपने ही लाभ का, अपने ही
अधिकार का मानस बनता जाता है ।
बचपन से विद्यार्थियों को स्पर्धा में उतारा जाता है,
दूसरों के साथ तुलना करना, दूसरों से आगे निकलना,
दूसरों को पीछे रखना, आगे नहीं बढ़ने देना उनके
मानस में दृढ़ होता जाता है । स्पर्धा के इस युग में
टिकना है तो संघर्ष करना पड़ेगा, जीतना ही पड़ेगा यह
बात मानस में दृढ़ होती जाती है । परिणामस्वरूप
विद्यार्थी एकदूसरे को पढ़ाई में सहायता नहीं करते,
अपनी सामग्री एकदूसरे को नहीं देते, तेजस्वी विद्यार्थी
की कापी या पुस्तक गायब कर देते हैं ताकि वह पढ़ाई
न कर सके, येन केन प्रकारेण परीक्षा में अंक प्राप्त
करना आदि बातें उनके लिये सहज बन जाती हैं ।
स्पर्धा और संघर्ष विकास के लिये प्रेरक तत्त्व है
ऐसा आधुनिक मनोविज्ञान कहने लगा है, स्पर्धा और
पुरस्कार रखो तो पुरस्कार की लालच में लोग अच्छी
बातें सीखेंगे ऐसा कहा जाता है परन्तु स्पर्धा में भाग
लेने वालों का लक्ष्य पुरस्कार होता है, विषय के
साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । उदाहरण के लिये
गीता के श्लोकों की या देशभक्ति के गीतों की स्पर्धा
होगी तो भाग लेने वालों को पुरस्कार दीखता है
गीता या देशभक्ति नहीं । योग की, संगीत की, कला
की प्रतियोगिताओं में महत्त्व संगीत, योग या कला
का नहीं, पुरस्कार का होता है ।
Ra
कला के, योग या व्यायाम के या
अध्ययन के प्रदर्शन में तामझाम और दिखावे का
महत्त्व अधिक होता है, उसका शैक्षिक पक्ष कम
महत्वपूर्ण होता है । एक विद्यालय के रंगमंच कार्यक्रम
में भगवदूगीता के श्लोकों के गायन की प्रस्तुति की
गई । रथ बहुत बढ़िया था, कृष्ण और अर्जुन की
वेशभूषा बहुत सुन्दर थी, पीछे महाभारत के युद्ध के
दृश्य वाला पर्दा था, मंच की प्रकाशन्यवस्था उत्तम थी
परन्तु जैसे ही अर्जुन और कृष्णने श्लोक गाना शुरू
किया तो ध्यान में आया कि न तो उच्चारण शुद्ध था न
ART SE का गायन सही था । यह किस बात का
संकेत है ? हमें मूल विषय की नहीं, आसपास की
बातों की ही परवाह अधिक है । आज के धारावाहिक
और फिल्मों में प्रकाश, ध्वनि, रंगभूषा, फोटोग्राफी
उत्तम होते हैं, परन्तु अभिनय अच्छा नहीं होता वैसा
ही विद्यालयों में होता है । विद्यालयों से शुरू होकर
सारी प्रजा का मानस ऐसा विपरीत बन जाता है । ज्ञान
के क्षेत्र की यह दुर्गति है। समाज sar,
विपरीतज्ञानी और अनीतिमान बनता है ।
सही मानसिकता बनाने के प्रयास
अतः विद्यालयों में सही मानसिकता निर्माण करने को
अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानना चाहिये । जितना ज्ञान का महत्त्व
है उतना ही ज्ञान के प्रति व्यवहार करने का है ।
इस दृष्टि से निम्नलिखित प्रयास करने की
आवश्यकता है...
श्,
विद्यालय में सभी स्तरों पर स्पर्धा निषिद्ध कर देनी
चाहिये । स्पर्धा से संघर्ष, संघर्ष से हिंसा और हिंसा
से विनाश की ओर गति होती है यह सर्वत्र लागू होने
वाला सूत्र है ।
उसी प्रकार से परीक्षा का महत्त्व अत्यन्त कम कर
देना चाहिये । जहाँ अनिवार्य नहीं है वहाँ परीक्षा
होनी ही नहीं चाहिये । परीक्षा से शिक्षा को मुक्त कर
देने के बाद ही ज्ञान के आनन्द की सम्भावना
बनेगी ।
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
नीतिमत्ता, fae, wa, ६... समाज की व्यवस्था में अर्थ का सन्दर्भ ज्ञान के सन्दर्भ
संस्कार, विनयशीलता, सदाचार आदि का अधिक में बदलना चाहिये । तभी शिक्षा की स्थिति बदल
महत्त्व प्रस्थापित करना चाहिये । सकती है ।
¥. अध्यापन की पद्धति, गृहकार्य का स्वरूप, कार्यक्रमों मानसिकता में बदल किये बिना शिक्षा क्षेत्र समाज के
का स्वरूप भी बदलना चाहिये । लिये कल्याणकारी नहीं हो सकता अतः सभी सम्बन्धित
५... शिक्षक स्वयं परिश्रम, नीतिमत्ता, सदाचार आदि के. लोगों को मिलकर सही मानसिकता बनाने का प्रयास करना
मामले में प्रेरक बन सकते हैं किंबहुना वे ही प्रेरक. चाहिये ।
हैं । उनमें होगा तो विद्यार्थियों में आयेगा ।
विद्यार्थियों का मन:सन्तुलन
भय की मानसिकता है । तनाव, निराशा, हताशा, आत्मग्लानि, हीनताग्रन्थि,
सरदर्द, चक्कर आना, चश्मा लगना, पेटदर्द, कब्ज आदि सब
इस भय के ही विकार हैं । पढा हुआ याद नहीं होना,
सिखाया जानेवाला नहीं समझना, सरल बातें भी कठिन
लगना इसका परिणाम है । कुछ भी अच्छा नहीं लगता ।
चौदह पन्द्रह वर्ष की आयु के विद्यार्थी आत्महत्या
करते हैं यह बात अनेक बार सुनने को मिलती है।
मनपसन्द लडकी या लडके से विवाह नहीं हो सकता
इसलिये युवक या युवती आत्महत्या कर लेते हैं । कभी मँदे
मनपसन्द लडकी दूसरे लडके के साथ रिश्ता बनाती है तब... दा उत्तेजना, उदासी अथवा थके माँदे रहना उसके लक्षण
उस लडके की अथवा लडकी की हत्या कर दी जाती है । हैं । महत्त्वाकांक्षा समाप्त हो जाना इसका परिणाम है । यह
अभी कुछ दिनों पूर्व जानने को मिला कि महानगर के एक... सब सह नहीं सकने के कारण या तो व्यसनाधीनता या तो
प्रतिष्ठित विद्यालय के सातवीं कक्षा के विद्यार्थी के बस्ते में... आत्महत्या ही एकमेव मार्ग बचता है ।
पिस्तोल है और वह अपनी माँ को और शिक्षिका को दूसरी ओर शास्त्रों की, बडे बुजुर्गों की, अच्छी
मारना चाहता है । पुस्तकों की सीख होती है कि मनोबल इतना होना चाहिये
यह आत्महत्या की मानसिकता प्रत्यक्ष आत्महत्या से .... कि मुसीबतों के पहाड टूट पडें तो भी हिम्मत नहीं हारना,
अनेक गुना अधिक है । कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, कितना
पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक की छोटी कक्षाओं के भी नुकसान हो जाय, पलायन नहीं करना, सामना करना
बच्चे भयभीत हैं । गृहकार्य नहीं किया इसलिये शिक्षक और जीतकर दिखाना |
डाटेंगे इसका भय, बस में साथ वाले विद्यार्थी चिढ़ायेंगे परिस्थितियों के दास बनकर नहीं, परिस्थितियों के
इसका भय, नास्ते में केक नहीं ले गया इसलिये सब मजाक... स्वामी बनकर जीना चाहिये ।
उडायेंगे इसका भय, प्रश्न का उत्तर नहीं आया इसका भय । आज सर्वत्र विपरीत वातावरण दिखाई देता है । धैर्य,
बडी कक्षाओं में मित्र हँसेंगे इसका भय, परीक्षा में अच्छे... मनोबल, डटे रहने का साहस युवाओं में भी नहीं दिखाई
अंक नहीं मिलेंगे तो मातापिता नाराज होंगे इसका भय, देता । पलायन करना, समझौते कर लेना, अल्पतामें ही
मेडिकल में प्रवेश नहीं मिलेगा इसका भय, मनपसन्द लडकी. सन्तोष मानना सामान्य बात हो गई है । यह अत्यन्त घातक
होटेल में साथ नहीं आयेगी इसका भय । चारों ओर भय का... लक्षण है। जिसमें मन की शक्ति नहीं है वह कभी भी
साम्राज्य है । यह सर्वव्यापी भय अनेक रूप धारण करता... अपना विकास नहीं कर सकता ।
RG
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
नई पीढ़ी का मनोबल बढ़ाना
आज घर और विद्यालय दोनों ही नई पीढी को
साहसी बनाने के स्थान पर कायर और दुर्बल बना रहे हैं ।
इसे सर्वथा बदलना चाहिये ।
हम प्रथम विद्यालय की ही बात करेंगे ।
१, मन को बलवान बनाने हेतु प्रथम मन को जीतने की
आवश्यकता होती है । यदि हमने मन को वश में
नहीं किया तो वह भटक जाता है और हमें भी भटका
देता है । यदि उसे जीता तो उसकी शक्ति बढती है
और वह हमारे भी सारे काम यशस्वी बनाता है ।
2. मन को वश में करने के लिये संयम आवश्यक है ।
छः सात वर्ष की आयु से संयम की शिक्षा शुरु होनी
चाहिये । छोटी छोटी बातों से यह शुरू होता है ।
3 एक घण्टे तक बीच में पानी नहीं पीना । इधरउधर
नहीं देखना ।
पानी नहीं पीने की बात बडों को भी अखरने लगी
है। भाषण शुरू है, अध्ययन शुरू है, महत्त्वपूर्ण
बातचीत शुरू है तब भी लोग साथ मे रखी बोतल
खोलकर पानी पीते हैं । यह पानी की आवश्यकता
से भी अधिक मनःसंयम के अभाव की निशानी है ।
४... घर में एक ही बालक होना मनःसंयम के अभाव के
लिये. जाने अनजाने. कारणभूत बनता है।
शिशुअवस्था ही बिना माँगे सब कुछ मिलता है,
आवश्यकता से भी अधिक मिलता है, जो मन में
आया मिलता है, आवश्यक नहीं है ऐसा मिलता है ।
किसी भी बात के लिये कोई मना नहीं करता ।
शिशुअवस्था में लाडप्यार करने ही हैं परन्तु उसमें
विवेक नहीं रहता । बालअवस्था में भी वह बढ़ता
ही जाता है । किसी बात का निषेध सुनना सहा नहीं
जाता । मन में आया वह होना ही चाहिये, माँगी
चीज मिलनी ही चाहिये, किसीने मना करना ही नहीं
चाहिये ऐसी मनःस्थिति बनती हैं और उसका पोषण
किया जाता है ।
२७
मन की शिक्षा के अभाव में
व्यक्त व्यवहार
विद्यालय में किसी भी बात के लिये डाँटना नहीं,
दण्ड देना नहीं, निषेध करना नहीं ऐसा आग्रह
मातापिता की ओर से रखा जाता है । यह प्रवृत्ति
आयु बढ़ने पर बढती ही जाती है ।
अतः विद्यालयों में हम क्या देखते हैं?
मध्यावकाश के समय में विद्यार्थी जोर जोर से चीखते
रहते हैं, भागते रहते हैं, एक स्थान पर बैठते नहीं
हैं । इन्हें मोबाइल के बिना चलता नहीं है, विडियो
क्लीपिंग, चैटिंग, वॉट्स अप से खेल चलते ही रहते
हैं । शान्ति से बैठ नहीं पाते, कुछ खाते ही रहते हैं ।
इसके लिये स्थिर बैठना, चुप बैठना, एकाग्रता से
कुछ सुनना, विचार करना, समझने का प्रयास करना,
कल्पना करना असम्भव हो जाता है । विभिन्न विषयों
में कुछ समझ में नहीं आता, एकाग्रता नहीं होती,
रुचि नहीं होती, जिज्ञासा नहीं होती । पढाई के प्रति
उनके मन में प्रेम नहीं लगता |
किशोर आयु के होते होते उनका मन शृंगार की ओर
faa जाता है । कपडे, अलंकार, जूते, मोबाईल,
सौन्दर्यप्रसाधन, केशभूषा, टीवी आदि में इतनी
अधिक रुचि निर्माण होती है कि उनकी बातें इन्हीं
विषयों की होती हैं । उनकी कल्पना में यही सब
कुछ होता है । टी.वी. के धारावाहिकों और फिल्मों
में दीखने वाले नटनटियों का अनुकरण बोलचाल में
भी होता रहता है । इनमें से मन को निकालकर
अध्ययन के विषयों में लगाना इनके लिये बहुत
कठिन होता है । अध्ययन उनके लिये जबरदस्ती
करने वाला काम है, वे सदा इससे मुक्त होना चाहते
हैं ।
उनकी वाणी असंयमी होती है । विनय उन्हें मालूम
नहीं है । भगवान, आस्था, श्रद्धा, शुभ भावना आदि
जगने नहीं पाते । जीवन और जगत का विचार आता
नहीं । ऊपरी सतह छोड़कर कभी गहराई में जाना
होता नहीं । होटेल, बाइक, फिल्मे, वसख्त्रालंकार के
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परे कोई दुनिया होती है इसका भान ही
नहीं आता ।
०... महाविद्यालय में तो स्थिति अत्यन्त भयावह है ।
अविनय बहुत मुखर होता है। उनकी प्रत्येक
हलचल में उन्माद प्रकट होता है । मजाक, मस्ती,
छेडछाड, बाइक सवारी, लड़कों की लडकियों के
साथ और लडकियों की लड़कों के साथ दोस्ती,
खानापीना, पार्टी, विभिन्न डे मनाने की कल्पनायें
यही दुनिया बन जाती है । अध्ययन बहाना है, मजे
करना ही मुख्य है । महाविद्यालय है ही इसलिये ऐसा
भाव बनता है ।
०... ये युवक और युवतियाँ परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं
लाते ऐसा तो नहीं है परन्तु परीक्षा में अच्छे अंक
पाने का अर्थ उनमें ज्ञान है, बुद्धि है, समझ है अथवा
विनय है ऐसा नहीं है । परीक्षा में अच्छे अंक, प्रगत
अध्ययन में प्रवेश मिलना, पीएचडी, करना, उसके
आधार पर अच्छी नौकरी मिलना, अच्छा वेतन
मिलना आदि सब यान्त्रिक प्रक्रियायें हैं । उनका मन
अच्छा होने या बुद्धि गहरी होने के साथ कोई
सम्बन्ध नहीं है। मन तो वेसा ही अशिक्षित और
असंयमी ही रह जाता है । अब तो वे समाज के अंग
हैं, गृहस्थाश्रमी हैं ।
इनका गृहस्थाश्रम वैसा ही असंयत, छिछला और
भौतिकता की चाह रखने वाला ही होता है । कमाई
कम हो या अधिक उससे कोई अन्तर नहीं आता ।
जीवन और जगत की समझ का विकास नहीं होता ।
पशुता की प्रवृत्ति ही बढती जाती है । पशु तो प्रकृति
के नियमन में रहते हैं, असंयत मनुष्य विकृति की
ओर ढल जाते हैं ।
०... यह तो बहुत संक्षिप्त वर्णन है । तात्पर्य यह है कि
मन की शिक्षा का अभाव असंस्कारी समाज बनाता
है । समाज में आभिजात्य, शील, उत्कृष्टता, श्रेष्ठता,
मूल्यनिष्ठा, संस्कारों का अभाव फैल जाता है ।
व्यक्ति का स्वतः का तो पतन होता है, सम्पूर्ण
समाज ही गुणवत्ताहीन बन जाता है ।
शर्ट
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
इसलिये विद्यालयों में मन की शिक्षा का प्रबन्ध करना
अत्यन्त आवश्यक है ।
यह सत्य है कि आज ऐसा कोई विषय है ही नहीं ।
इसका कारण भी स्पष्ट है। जब हम शिक्षा को विषयों में
बाँध लेते हैं, विषयों को प्रश्नोत्तरों में प्रस्तुत करते हैं,
प्रश्नोत्तरों को ढाँचे में जकड लेते हैं, ढाँचा परीक्षा को केन्द्र
बनाता है, जब सारी सफलता, अंकों में सीमित हो जाती है
तब सब कुछ यान्त्रिक बन जाता है । शिक्षा भौतिक पदार्थ
हो, शिक्षाक्षेत्र बाजारीकरण का अंग हो और प्रक्रिया
यान्त्रिक हो तब मन की शिक्षा का प्रश्न ही नहीं उठता
क्योंकि मन भौतिकता से परे है। वह अन्तःकरण का
WARMER है, अन्दर जाने की, गहराई का अनुभव करने की,
मनुष्य बनने की प्रक्रिया का प्रारम्भ है ।
मन की शिक्षा के विचारणीय बिन्दु
अतः मन की शिक्षा का महत्त्व इस सन्दर्भ में समझने
की और उसका स्वीकार करने की प्रथम आवश्यकता है ।
मन की शिक्षा के विषय में इस प्रकार विचार किया जा
सकता है
१, सबसे प्रथम आवश्यकता है मन को शान्त करने की ।
चारों ओर से मन को उत्तेजित, उद्देलित और व्यथित
करने वाली बातों का इतना भीषण आक्रमण हो रहा
होता है कि मन कभी शान्त हो ही नहीं सकता ।
चूल्हे पर रखा पानी जैसे खौलता ही रहता है वैसे ही
मन हमेशा खौलता ही रहता है ।
2. इसे शान्त बनाने के उपायों का प्रारम्भ अनिवार्य रूप
से घर से ही होगा । वह भी आहार से । आहार का
मन पर बहुत गहरा असर होता है । मन को शान्त
बनाने हेतु सात्ततिक आहार आवश्यक है । पौष्टिक
आहार से शरीर पुष्ट होता है, सात्विक आहार से मन
अच्छा बनता है। वास्तव में अध्ययन अध्यापन
करने वालों को सबसे पहले होटेल का खाना बन्द
करना चाहिये । विद्यार्थी घर में भी सात्त्विक आहार
लें, विद्यालय में भी घर का भोजन लायें, विद्यालय
के समारोहों में भी होटेल का अन्न न खाया जाय
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
इसका आग्रह होना चाहिये । सात्त्विक आहार का चाहिये । विद्यालय में, कक्षाकक्ष
वर्णन इस ग्रन्थ में अन्यत्र है इसलिये यहाँ विशेष में जूते पहनकर प्रवेश नहीं करना, अस्वच्छ स्थान
निरूपण करने की आवश्यकता नहीं है । पर नहीं बैठना, अपने आसपास अस्वच्छता नहीं
३... विद्यार्थियों को टीवी और मोबाइल का निषेध करने होने देना, विद्यालय परिसर में शान्ति रखना, मौन का
की आवश्यकता है । यह निषेध महाविद्यालयों तक अभ्यास करना, धीरे बोलना, कम बोलना आदि
होना चाहिये । यह निषेध स्वयंस्वीकृत बने ऐसी बातों का. अप्रहपूर्वक पालन करना चाहिये ।
शिक्षा भी देनी चाहिये । हमेशा के लिये निर्बन्ध थोपे भडकीले रंगों के कपडे नहीं पहनना भी सहायक है ।
ही जायें और विद्यार्थी मौका मिलते ही उनका उल्लंघन रबर प्लास्टिक के जूते मस्तिष्क तक गर्मी पहुँचाते हैं,
करने की ताक में ही रहें ऐसी स्थिति ठीक नहीं है । सिन्थेटिक वस्त्र शरीर में गर्मी पैदा करते हैं, चिन्ता
अतः इस विषय में मातापिता के साथ और किशोर और भय नसों और नाडियों को तंग कर देते हैं । इन
आयु से विद्यार्थियों के साथ बातचीत की जाय, उन्हें सबसे मन अशान्त रहता है, उत्तेजित रहता है । गाय
सहमत बनाया जाय यह अत्यन्त आवश्यक है । थोपे का दूध और घी, चन्दन का लेप, बालों में ब्राह्मी या
हुए निर्नन्ध से मन कभी भी शान्त नहीं होता । आँवलें का तेल शरीर को ठण्डक पहुँचाता है, साथ
¥. gH sit al छोड़ने के लिये मूल्यवान बातों का ही मन को भी शान्त करता है । विद्यालय के बगीचे
विकल्प सामने होना चाहिये । विद्यार्थियों को में दूर्व की घास, देशी महेंदी के पौधे, देशी गुलाब
अलंकारों, कपड़ों और श्रृंगार का आकर्षण इसलिये वातावरण को शीतल और शान्त बनाता है । सुन्दर,
जकड़ता है क्योंकि उनसे अधिक मूल्यवान बातों का सात्तिक अनुभवों से ज्ञानेन्ट्रियों का सन्तर्पण करने से
कभी अनुभव नहीं हुआ है । जिनके पास हीरे मोती मन भी शान्ति और सुख का अनुभव करता है।
के अलंकार नहीं होते वे पीतल और एल्युमिनियम के विद्यार्थियों के साथ स्नेहपूर्ण वार्तालाप और स्निग्ध
अलंकारों को छोड़ने के लिये राजी नहीं होते । व्यवहार करने से, हम उनका भला चाहते हैं, हम
हीरेमोती के अलंकार मिलने के बाद उन्हें घटिया उनके स्वजन हैं ऐसी अनुभूति करवाने से विद्यार्थियों
अलंकार छोड़ने के लिये समझाना नहीं पड़ता । उसी का मन आश्वस्त और शान्त होता है । अच्छे लोगों
प्रकार से विद्यार्थियों को साहित्य, कला, संगीत, की, अच्छी और भलाई की बातें सुनने से भी मन
उदात्त चरित्र, प्रेरक घटनाओं के जगत में प्रवेश अच्छा होने लगता है ।
दिलाने से क्षुद्र जगत पीछे छूट जाता है, उसका विद्यालय की यह दुनिया सुन्दर है, यहाँ लोग अच्छे
आकर्षण अब खींच नहीं सकता । इस दृष्टि से. हैं, यहाँ अच्छा काम होता है ऐसी प्रतीति से मन शान्त होने
संगीत, साहित्य, इतिहास आदि की शिक्षा का बहुत. लगता है ।
महत्त्व है । हमने इनकी उपेक्षा कर बहुत खोया है ।
५.. संगीत भी उत्तेजक हो सकता है यह समझकर
सात्चिक संगीत का चयन करना चाहिये । तानपुरे की मन को जिस प्रकार शान्त बनाने की आवश्यकता है
झंकार नित्य सुनाई दे ऐसी व्यवस्था हो सकती है ।.. उसी प्रकार एकाग्र भी बनाने की आवश्यकता है । मन जब
सभी गीतों के लिये भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार... तक एकाग्र नहीं होता तब तक विद्याग्रहण नहीं कर
पर की गई स्वररचना, भारतीय वाद्यों का प्रयोग और. सकता | इस दृष्टि से विद्यालय में कुछ इस प्रकार प्रबन्ध हो
बेसुरा नहीं होने की सावधानी भी आवश्यक है । सकता है
&. विद्यालय को पवित्र मानने का मानस बनाना... १. जप करना मन को एकाग्र करने का अच्छा उपाय
मन की एकाग्रता के उपाय
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है। छोटी आयु से ही इसका अभ्यास
होना लाभकारी है । इसे विधिवत् सिखाना चाहिये ।
बडी कक्षाओं में इसके विषय में भी सिखाना चाहिये
ताकि वह केवल कर्मकाण्ड न बन जाय ।
35कार् उच्चारण, मन्त्रपाठ और ध्यान भी मन को
एकाग्र करने में सहायक हैं ।
प्राणायाम भी बहुत सहायक है ।
शरीर के अंगों की निर्स्थक और अनावश्यक हलचल
रोकना चाहिये । उदाहरण के लिये लोगों को हाथ पैर
हिलाते रहने की, कपडों पर हाथ फेरते रहने की,
इधरउधर देखते रहने की, हाथ से कुछ करते रहने
की, बगीचें में बैठे है तो घास तोडते रहने की, मोज
पर या पैर पर हाथ से बजाते रहने की आदत होती
@ | अनजाने में भी ये क्रियाएँ होती रहती है । इन्हें
प्रयासपूर्वक रोकना चाहिये ।
वायु करने वाला पदार्थ खाने से, बहुत चलते, भागते
रहने से, बहुत बोलने से मन चंचल हो जाता है।
बोलते समय दूसरे का बोलना पूर्ण होने से पहले ही
बोलना शुरू कर देते हैं । इसे अभ्यासपूर्वक रोकना
चाहिये । बोलने से पूर्व ठीक से विचार कर लेने के
बाद बोलना चाहिये । ठीक से योजना कर लेने के
बाद काम शुरू करना चाहिये । परिस्थिति का ठीक
से आकलन कर लेने के बाद कार्य का निश्चय कर
लेना चाहिये । किसी भी बात का समग्र पहलुओं में
विचार करने से आकलन ठीक से होता है । ये सब
अभ्यास के विषय हैं । इन सबका अभ्यास हो सके
ऐसा आयोजन विद्यालय में होना चाहिये ।
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
आग्रह कर रहे हैं तो भी नहीं खाना ।
इतना काम करना है और आज ही पूरा करना है ऐसा
विचार किया तो अब पूरा करके ही सोना है ऐसा
निश्चय करना और पार उतारना ।
कैसी भी विपरीत परिस्थिति हो, धैर्य नहीं खोना,
हिम्मत नहीं हारना ।
असफल होने पर भी निराश नहीं होना, हताश नहीं
होना, पुनः प्रयास करने के लिये उद्यत होना ।
आज इस बात का कुछ विपर्यास भी दीखता है ।
काम पूरा नहीं होने पर भी खेद नहीं, प्रश्न का उत्तर
नहीं आने पर भी संकोच नहीं, वादा पूरा नहीं करने
पर भी खेद नहीं, भरोसा तोड़ देने पर भी शरम नहीं,
अयशस्वी होने पर भी आपत्ति नहीं... होता है तो
करो नहीं तो छोड दो, आसानी से सफलता मिलती है
तो ठीक नहीं तो छोड दो, जितना हुआ उतना ठीक
है, जैसा हुआ वैसा किया, और कितना करें, दबाव
मत बनाओ, टेन्शन मत लो, चिन्ता मत करो,
परेशानी मत उठाओ, स्ट्रेस नहीं होने दो... ऐसी ही
बातें होती हैं । मन को कोई कसाव नहीं मिलता,
कोई व्यायाम ही नहीं मिलता । इससे उसकी शक्ति
नहीं बढती । जीवन ही पोला पोला बन जाता है ।
इस दृष्टि से विद्यालय में मन के कसाव की तो
चिन्ता करनी चाहिये । छोटे छोटे चुनौतीपूर्ण काम
करने को बताना चाहिये । उलझना पडे ऐसे कार्य
और ऐसी स्थितियाँ निर्माण करनी चाहिये । धैर्य रखे
बिना रास्ता नहीं मिलेगा ऐसा अनुभव होना चाहिये |
भाषण प्रतियोगिता में हार गये तो कुछ नहीं बिगडता
ऐसा विचार कर तैयारी करने का श्रम ही नहीं करना
मन की शक्ति बढ़ाने के उपाय
मन को शान्त और एकाग्र बनाने के साथ साथ
उसकी शक्ति बढाने की भी आवश्यकता है । इसके लिये
कुछ इस प्रकार के उपाय हो सकते हैं
१, व्रत और उपवास करना ।
२... निग्रह करना । सामने प्रिय और स्वादिष्ट पदार्थ हैं,
मुँह में पानी आ रहा है, लोग खा रहे हैं, खाने का
यह स्थिति ठीक नहीं है और बहुत अच्छी तैयारी की
और प्रस्तुति भी अच्छी हुई परन्तु दूसरे किसी की
प्रस्तुति अच्छी थी इसलिये प्रथम पारितोषिक उसे
मिला इस स्थिति को भी अच्छे मन से स्वीकार
करना चाहिये, साथ ही प्रस्तुति सही में सर्वश्रेष्ठ थी तो
भी परीक्षक ने पक्षपातपूर्वक दूसरे को प्रथम क्रमांक
दिया और में इसे स्वीकार करने के अलावा कुछ नहीं
30
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
कर सकता इस स्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, निराश
नहीं होना, सन्तुलन नहीं खोना आवश्यक है ।
ये सब प्रयासपूर्वक सिखाने की बातें हैं क्योंकि ये
सब बहुत मूल्यवान बातें हैं ।
विभिन्न प्रकार की तपश्चर्या मन की शक्ति को बढाने के
लिये बहुत उपयोगी है । तप के बिना सिद्धि नहीं
मिलती । इस जगत का कल्याण भी तप करते हैं वे ही
कर सकते हैं । तप का अर्थ है कष्ट सहना । परन्तु
मजबूरी में कष्ट सहने को तप नहीं कहते । स्वेच्छा से
जो कष्ट सहा जाता है वही तप है । अपने ही स्वार्थ
के लिये जो कष्ट सहा जाता है वह तप नहीं है, दूसरों
के लिये जो कष्ट उठाया जाता है वह तप है । रोते रोते,
शिकायत करते करते जो कष्ट उठाया जाता है वह तप
नहीं है, अच्छे मन से जो कष्ट उठाया जाता है वह तप
है । आयु, अवस्था, परिस्थिति और आवश्यकता के
अनुसार तप अनेक प्रकार के होते हैं । ऐसे विभिन्न
प्रकार के तप करना सिखाना भी विद्यालयों में होना
चाहिये । तप से ही मन की अशुद्धियाँ दूर होती हैं और
शक्तियाँ निखरती हैं ।
सत्संग और स्वाध्याय मन को प्रेरणा और प्रोत्साहन
देते हैं और बल तथा धैर्य बढाते हैं । सत्संग का अर्थ
है अच्छे लोगों का संग । जहाँ अच्छे लोग हैं, वे
अच्छा काम कर रहे हैं वहाँ जाना और उनसे बात
करना उन्हें जानना एक प्रकार है,
ऐसे लोगों को विद्यालय में आमन्त्रित करना और
उनकी सेवा करना दूसरा प्रकार है । विद्यार्थियों के
लिये उनके शिक्षकों का संग भी सत्संग ही बनना
चाहिये । स्वाध्याय का अर्थ है अच्छी पुस्तकें
पढ़ना । हम विभिन्न विषयों की जानकारी देने वाली
पुस्तकें तो पढ़ते हैं परन्तु मन को अच्छी सीख मिले
ऐसी पुस्तकों का वाचन भी करना चाहिये ।
मन की शिक्षा को परीक्षा से मुक्त रखना चाहिये ।
परीक्षा आते ही सबकुछ कृत्रिम हो जाता है, कर्मकाण्ड हो
जाता है । कर्मकाण्ड हुआ तो मन अच्छा नहीं होता,
चालाक बन जाता है । यह तो अनर्थ है ।
मन की शिक्षा जबतक नहीं होती तब तक बुद्धि भी
अनर्थकारी होती है । अनेक बुद्धिमान लोग अपने स्वार्थ की
सिद्धि के लिये और दूसरों को परेशान करने के लिये बुद्धि
का प्रयोग करते हैं । मन अच्छा नहीं है और बुद्धि मन की
दासी बन गई है इसीलिये ऐसा होता है । अतः बुद्धि की
शिक्षा से भी पहले मन की शिक्षा आवश्यक है ।
मन ही मनुष्य को सज्जन या दुर्जन बनाता है । दुर्जन
मनुष्य अपनी और औरों की हानि करता है । सज्जन अपना
और औरों का भला करता है ।
मन को सज्जन बनाना शेष सभी कार्य से भी अधिक
महत्त्वपूर्ण है इस बात को हमेशा स्मरण में रखना चाहिये ।
अध्ययन की समस्या
आज की शिक्षा समझ नहीं बढाती
विद्यार्थी का स्कूल बडा है, अनेक प्रकार की
सुविधाओं से युक्त है, विद्यालय की फीस ऊँची है, स्कूल बस
वातानुकूलित है, WHA बहुत सुन्दर है, साधनसामग्री उत्तम
है, घर सम्पन्न है । परन्तु उसे गणित, भाषा, विज्ञान आदि
कुछ भी नहीं आता है । विद्यार्थी परीक्षा पास कर लेता है
परन्तु उसके पास जिसमें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ है उस
विषय का ज्ञान नहीं है । वह समझता नहीं है, स्मरण में नहीं
रख सकता है, लागू करने की तो बात ही नहीं है । जो पढ़ता
है वह उसे अच्छा नहीं लगता । जो पढ़ रहा है उसका कोई
प्रयोजन होता है इसकी तो कोई कल्पना भी नहीं है । कुछ
नमूने देखें...
०... प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बनने हेतु आये सभी
प्रत्याशियों को पूछा गया कि चौथी कक्षा के गणित के
सवाल यदि आपको दिये गये तो कौन कौन हैं जिन्हें
सौ प्रतिशत अंक मिलने का विश्वास है । एक ने भी
ऐसा विश्वास नहीं बताया ।
०... माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक बनने के प्रत्याशियों को
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
दक्षिण भारत के चार राज्यों के नाम तो ऐसे ही हैं ।
बताने को कहा गया तब राजस्थान, आसाम आदि इसका अर्थ यह है कि शिक्षाक्षेत्र में सामान्य अर्थ में
कहने वाले अनेक लोग निकले । भी कोई शिक्षित नहीं है, सामान्य अर्थ में भी यहाँ शिक्षा नहीं
०... चौबीस गुणा पाँच, पचीस गुणा सात आदि पूछने पर. चलती |
कैल्क्युलैटर का प्रयोग करने वाले भी कम नहीं है ।
०". शिक्षकों के एक वर्ग में प्रयोग किया गया। कोई एक
पुस्तक खडे होकर पढ़ना । जहाँ गलती हो वहाँ बैठ
जाना । तीस शिक्षकों के वर्ग में अधिकतम ढाई
पंक्तियाँ पढ़ी गईं । कहीं नहीं लिखा है ऐसा पढ़ना,
कहीं लिखा है वह नहीं पढना और कहीं लिखा है
उससे अलग पढना ऐसी तीन प्रकार की गलतियाँ पायी
गईं ।
०... वर्ण्माला के, वाक्य के उच्चारण की अशुद्धियों का तो
इसका क्या अर्थ है ?
क्या हमारे छात्र इतने निर्बुद्ध हैं कि उन्हें कुछ भी आता
जाता नहीं ? क्या उनमें शिक्षा ग्रहण करने की जरा भी क्षमता
नहीं है ?
क्या हमारे विद्यार्थियों के मातापिता इतने अनाडी हैं कि
उन्हें अपनी सन्तानों को वास्तव में कुछ आता नहीं है इसका
पता ही नहीं चलता ? या उसकी कोई परवाह ही नहीं है ?
क्या हमारे शिक्षक ऐसे हैं जो पढाना जानते नहीं हैं या
a चाहते नहीं हैं ?
जाई दिजाब है नहीं है करनी eee क्या हमारी व्यवस्थायें ऐसी हैं जिसमें बिना पढ़े
अनुलेखन भी नहीं आता है । शब्दों के अर्थ नहीं आते विद्यार्थी उत्तीर्ण हो ?
हैं। गड़बड़ क्या है ?
०... वैज्ञानिक और भौगोलिक तथ्यों की कोई जानकारी अनेक लोगों की चर्चा सुनते हैं तो ध्यान में आता है
नहीं है । इतिहास और समाजशाख्र से कोई लेनादेना कि कुछ इन बातों का प्रचलन है
नहीं है । सरकारी तन्त्र में पढाने की, निरीक्षण करने की, परीक्षा
© हमें क्या खाना चाहिये, कया नहीं खाना चाहिये, क्यों की, प्रशिक्षण की पूरी व्यवस्था होती है, पुस्तकें, गणवेश
खाना या नहीं खाना चाहिये इसकी कोई सुध नहीं है । . आदि भी दिये जाते हैं, मध्याहन भोजन योजना भी चलती है
०... ये सब उत्तीर्ण होने वाले, अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने. परन्तु त्त्र इतना व्यक्तिविहिन है कि पढने पढाने का काम ही
वाले विद्यार्थियों के नमूने हैं, अनुस्नातक पदवी प्राप्त. नहीं चलता है। तर्क यह दिया जाता है कि सरकारी
करने वाले, कभी तो पीएचडी प्राप्त करने वाले... विद्यालयों में झुग्गी झोंपडियों के बच्चे ही आते हैं इसलिये
विद्यार्थियों के उदाहरण हैं, शिक्षकों के उदाहरण हैं, . वहाँ पढाई अच्छी नहीं होती । परन्तु यह तर्क सही नहीं है ।
अच्छे विद्यालयों में पढने वाले विद्यार्थियों के उदाहरण. झुग्गयों में रहनेवाले बच्चें निर्बुद्ध ही होंगे ऐसा कोई नियम
हैं । सरकारी विद्यालयों में पढने वाले विद्यार्थियों को नहीं है। वे भी पढ सकते हैं, अच्छा पढ़ सकते हैं परन्तु
तो आठवीं तक पढ़ने के बाद भी अआक्षरज्ञान या... पढ़ाने की कोई परवाह नहीं करता । सरकारी प्राथमिक
अंकज्ञान नहीं होता है । विद्यालयों के नहीं पढाने के कारनामे इतने अधिक प्रसिद्ध हैं
०... जानकारी तो शिक्षा का प्रथम चरण है । समझना, कि उनका वर्णन करने की आवश्यकता ही नहीं ।
उसका मर्म और प्रयोजन जानना, उसे लागू करना आगे बिना पढ़े पढ़ाये पास कर देना सरकारी मजबूरी है ।
के चरण हैं । प्रथम चरण ही ठीक नहीं है तो आगे के . निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का कानून, सर्व शिक्षा
चरणों की तो बात ही नहीं की जा सकती । कोई दो... अभियान आदि योजनाओं को चलाने की मजबूरी है, न
पाँच प्रतिशत ऐसे होंगे जो तेजस्वी छात्र हैं, अधिकांश... सम्हलने वाले तन्त्र को सम्हालने की मजबूरी है, शिक्षा को
RR
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
चलाने की मजबूरी है । ऐसी स्थिति में तन्त्र चलता है, शिक्षा
ठप्प है।
जहाँ ऊँचा शुल्क, अनेक सुविधायें, अनेक प्रकार से
चिन्ता की जाती है वहाँ भी तो छात्र निर्बुद्ध हैं । इसका मुख्य
कारण अध्यापन पद्धति का दोष ही है ।
जरा विचार करें...
१... मातापिता और समाज के लोग ज्ञान और भावना को
महत्त्व नहीं देते, विद्यालय waa, सुविधा,
साधनसामग्री आदि को ही महत्त्व देते हैं । इसके
आधार पर मूल्यांकन करते हैं ।
२... अभिभावकों और शिक्षकों का एकदूसरे पर विश्वास नहीं
है, इस कारण से परीक्षा, गृहकार्य आदि सब लिखित
रूप में ही होते हैं । इस कारण से पढ़ने पढ़ाने की मौलिक
पद्धतियों का विकास ही नहीं होता है । विद्यार्थियों का
अध्ययन स्वाभाविक ढंग से नहीं चलता ।
3. अंकों का ही महत्त्व होने के कारण से उनके सन्दर्भ में
ही पढ़ाया जाता है । परीक्षा पद्धति वर्षोवर्ष अत्यन्त
यांत्रिक और अंकों के खेलवाली बन गई है, बनाई गई
है इसलिये सबकी चिन्ता अंक है, ज्ञान नहीं । अतः
अंक मिलते हैं, ज्ञान नहीं ।
शिक्षा को अंकों का खेल बनाने वाले राजकीय और
उद्योगक्षेत्र के लोग हैं । शिक्षा को पैसा, सत्ता और
यंत्रों का गुलाम बना देने का परिणाम यह होता है कि
यंत्र चलता है, ज्ञान, संस्कार, समझ आदि सब
पलायन कर गये हैं ।
शिक्षा कारागार में अपराधी जकडे होते हैं उससे भी
अधिक बुरी तरह से आसुरी
शक्तियों के हाथ में जकडी गई है । अब यह तन्त्र
निर्जीव भी है और आसुरी भी है । इस तन्त्र से ज्ञान
की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।
विट्रज्जन ज्ञान की चर्चा करते हैं, शिक्षाशास्त्री अध्ययन
अध्यापन पद्धतियों की चर्चा करते हैं, मातापिता अपनी
सन्तान के सुनहरे भविष्य की चिन्ता करते हैं, सरकारी
अधिकारी नियम, कानून, प्रशासन, कारवाई आदि की बातें
करते हैं, राजकीय पक्ष के लोग शिक्षा की नई नई योजना
बनाते हैं परन्तु इस तन्त्र से किसी भी प्रकार के सार्थक ज्ञान
की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती ।
ज्ञान श्रेष्ठ है, पवित्र है, उद्धारक है, सब का कल्याण
करने वाला है, तन्त्र आसुरी और निष्प्राण है, तन्त्र चलाने
वाले लोगों की नीयत ठीक नहीं है । ऐसे में ज्ञान ने तन्त्र और
व्यक्तियों का त्याग कर दिया है । वह अपनी श्रेष्ठता और
पवित्रता को इन कनिष्ठ तत्त्वों के अधीन कैसे करेगा ?
इसलिये उसने स्वयं ही इनका त्याग कर दिया है । भारत में
जो अभी भी पवित्र और ज्ञान का आदर करनेवाले, ज्ञान की
साधना करनेवाले लोग हैं उनका आश्रय ज्ञानने ढूँढ लिया है ।
परन्तु तन्त्र इन्हें पूछने वाला नहीं है क्योंकि उसे ज्ञान
की चिन्ता ही नहीं है । ऐसे में क्या होगा ? ज्ञानी लोग स्वयं
समाज की चिन्ता करेंगे कि तन्त्र को ज्ञानियों से परामर्श करने
की अकल आयेगी ? अभी तो दो में से एक भी बात सम्भव
नहीं लगती है । न तन्त्र को होश है न ज्ञानियों में करुणा ।
क्या देश को अभी भी कुछ समय तक प्रतीक्षा करनी
पड़ेगी ? वही जाने !
विद्यार्थियों की अर्थदृष्टि और अर्थव्यवहार
श्रस्तावना
आये दिन हम कहते रहते हैं कि भारत गरीब देश है ।
किसी भी अर्थविषयक व्याख्यान का प्रारम्भ “भारत जैसे
गरीब देश में...' ऐसे स्तुति सुमनों से होता है । अमेरिका
कहता है कि भारत विकासशील देश है, उसका जीडीपी
38
कम है । हम भी अमेरिका का कहना मान लेते हैं और
अपने आपको गरीब कहते हैं । परन्तु कभी ऐसा विचार
नहीं करते कि भारत वास्तव में गरीब है कि नहीं, अमेरिका
कहता है उसमें कितना तथ्य है, भारत यदि वास्तव में गरीब
है तो गरीबी के कारण क्या हैं, भूतकाल में जो सोने
............. page-50 .............
की चिडिया कहा जाता था वह देश
आज गरीब कैसे हो गया, गरीब हुआ तो हुआ अब पुनः
समृद्ध होने के उपाय हैं कि नहीं ।
आर्थिक क्षेत्र में हम व्यक्तिगत से लेकर समग्र देश के
स्तर पर जो कुछ कर रहे हैं वह अब अत्यन्त सम्भ्रमित
अवस्था के लक्षण हैं । दोसौ वर्षों का ब्रिटिशों के शासन
का काल क्या आया कि हमारा राष्ट्रीय जीवन अस्तव्यस्त
और तहसनहस हो गया और हमारी दृष्टि इतनी धुँधली हो
गई कि सबकुछ विपरीत दिखाई देने लगा । यह विपरीतता
बडों से लेकर छोटों तक सबको अपनी पकड़ में लिये हुए
a |
इतनी प्रस्तावना के बाद हम विद्यार्थी, अर्थसंकट और
शिक्षा विषय पर विश्लेषण पूर्वक विचार करेंगे ।
देशव्यापी अर्थदृष्टि का संकट
भारत धर्म को प्रधानता देने वाला देश रहा है।
समृद्धि होनी चाहिये, बहुत होनी चाहिये, उपभोग लेना
चाहिये, आनन्द-प्रमोद् करना चाहिये, वैभवी जीवन जीना
चाहिये परन्तु सबकुछ धर्म के अविरोधी होना चाहिये ऐसी
प्राचीन समय से भारत की दृष्टि रही है। उस दृष्टि के
अनुसार ही जीवनशैली का विकास हुआ है, सारी
व्यवस्थायें बनी हैं । परन्तु ब्रिटिशों के प्रभाव के कारण
हमारे राष्ट्रजीवन में धर्म के स्थान पर अर्थ केन्द्रस्थान पर आ
गया । इस कारण से हमारे सारे व्यवहारों और व्यवस्थाओं
का अन्तस्तत्त्व बदल गया, हमारी प्राथमिकतायें बदल गईं,
हमारे विचार बदल गये । इस परिवर्तन के परिणाम हमें कुछ
इस रूप में दीखते हैं
१, हम अर्थवान को गुणवान और ज्ञानवान से अधिक
आदर देते हैं । अर्थ की प्रतिष्ठा ही सर्वोपरि है । अर्थ
की सत्ता ही सर्वोच्च है । राज्यसत्ता भी अर्थ के
नियन्त्रण में आ गई है ।
२... अर्थपरायणता और कामपरायणता साथ साथ चलते
हैं । अतः उपभोग ही सुख का पर्याय बन गया है ।
अधिक उपभोग करने में विकास और अधिक उपभोग
हेतु अधिक साधन, अधिक अर्थ प्राप्त करने में
3x
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
सफलता तथा अधिक उपभोग और अधिक अर्थ को
विकास का मापदण्ड हमारे लिये जीवनमान का और
जीवन की सार्थकता का पर्याय बन गया है ।
अर्थ और काम दोनों साथ साथ चलते हैं और
उपभोग परायणता हमारी सामान्य प्रवृत्ति बन गई है
यह सत्य होने पर भी अर्थ और काम में अर्थ ही
प्रमुख बन गया है । यह बुद्धिगम्य नहीं है, तार्किक
नहीं है तो भी व्यवहार ऐसा ही दिखाई देता है।
सारा आराम और सुख दाँव पर लगाकर मनुष्य पैसा
कमाने में लगा है । व्यवसाय करने वाले का स्वास्थ्य
खराब हो रहा है । अनेक प्रकार की बीमारियाँ लग
गई हैं, आराम नहीं मिल रहा है, परिवार के लोगों के
साथ मिलकर आनन्दुप्रमोद नहीं प्राप्त हो रहा है,
बच्चों की और ध्यान देने का समय नहीं है, विचार
करने की फुर्सत नहीं है तो भी लोग धन कमाने में
लगे हैं । सुख के लिये धन नहीं, धन के लिये ही
धन चाहिये ऐसी स्थिति बन गई है । इस कारण से
उपभोग की दृष्टि भी बदल गई है। काम करने में
सुख नहीं पैसा है और पैसा खर्च करके उपभोग
करना है तब काम नहीं करना ऐसी श्रान््त धारणा बन
गई है। पैसा कमाने का सुख अलग प्रकार का है
और पैसा खर्च करने का अलग प्रकार का । दोनों ही
अस्वाभाविक हैं ।
अर्थनिष्ठता के कारण सभी बातों की कीमत पैसे में ही
आँकी जाती है । जो अधिक पैसे देकर खरीदा जाता
है वह अच्छा है और कम पैसा देकर प्राप्त होता है
वह हल्का है ऐसी समझ बनती है । जिसमें अधिक
वेतन मिलता है वह काम अच्छा है और कम मिलता
है वह हल्का ऐसा माना जाता है । अधिक कमाई
होती है वह धन्धा अच्छा है और कम होती है वह
अच्छा नहीं ऐसा प्रस्थापित होता है । जिससे अधिक
वेतन वाली नौकरी मिलती है वह पढाई अच्छी है
और कम वेतन वाली मिलती है वह अच्छी नहीं
ऐसी मानसिकता बनती है । जिसमें अधिक वेतन
वाली नौकरी मिलती है उस पढ़ाई का शुल्क ऊँचा
............. page-51 .............
पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
होना और कम वेतन प्राप्त करवाने वाली पढ़ाई का
शुल्क कम होना स्वाभाविक माना जाता है । पैसा
प्राप्त करने हेतु ईमान, स्वमान, स्वतन्त्रता, स्वजन,
स्वधर्म, संस्कार का त्याग करने में कोई हिचकिचाहट
नहीं लगती । धनप्राप्ति के लिये देश छोड़ना और
विदेश की सेवा करना, विदेश में बस जाना बुरा काम
है ऐसा नहीं लगता । कितना भी शिक्षित हो तो भी
पैसा नहीं कमाया तो उसकी शिक्षा का कोई मूल्य
नहीं ऐसा लगता है । पैसा लेने वाला पैसा देनेवाले
की ख़ुशामद करेगा यही स्वाभाविक है ।
शिक्षा के क्षेत्र में इसके अनर्थ विविध स्वरूपों में
दिखाई देते हैं। जिस विद्यालय की फीस अधिक है,
जिसका भवन भव्य है, सुविधायें अधिक हैं वह विद्यालय
अच्छा माना जाता है। डॉक्टर, इन्जिनियर प्रबन्धन,
संगणक आदि विषयों की पढाई अच्छी मानी जाती है ।
साहित्य, समाजशास्त्र, नीति शास्त्र आदि की पढाई की
उपेक्षा होती है । परीक्षा के लिये ही पढ़ाई की जाती है,
पुरस्कार प्राप्त करने के लिये ही कार्यक्रमों का आयोजन
होता है । सेवाकार्य भी पुरस्कार की अपेक्षा से होता है।
नैतिक शिक्षा भी परीक्षा का विषय है । विद्यालय और
विद्यार्थी के सम्बन्ध व्यापारी और ग्राहक के हैं, पैसे के
बदले में पदवी के रूप में विद्या बेची जाती है। इस
व्यवस्था में शिक्षक सेल्समेन है जिसे उसके काम का वेतन
मिलता है । शिक्षा सर्वव्यापी बाजारतन्त्र का एक हिस्सा
है । वह एक बडा उद्योग है जिसका आश्रय करके पुस्तकों ;
लेखन सामग्री, शैक्षिक साधनसामग्री, गणवेश, जूते, नाश्ते
के डिब्बे, बस्ते आदि के व्यवसाय चलते हैं ।
अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि के उदाहरण
ऐसी व्यापक व्यवस्था में विद्यार्थी और उसका परिवार
यदि अर्थकेन्द्री मानसवाला बन जाता है तो क्या आश्चर्य
है ? अत्यन्त छोटी आयु से विद्यार्थियों का अर्थव्यवहार
और अर्थदृष्टि किस प्रकार बनती जाती है और सबकुछ
उसके व्यक्तित्व का, उसके चरित्र का अभिन्न अंग किस
प्रकार बनता जाता है उसके कुछ उदाहरण देखें...
a&
घर में छोटा बालक कोई भी
मूल्यवान वस्तु लेता है, उससे खेलता है, उसे तोड़ता
है और घर में किसी को भी उसमें आपत्ति नहीं
होती । नष्ट होने वाली वस्तु लेपटोप, सीडी, पुस्तक,
कपड़ा आदि कुछ भी हो सकता है। आर्थिक
नुकसान का कोई गम नहीं है ।
घर में ही क्रिकेट खेला जा रहा है, फुटबॉल खेला
जा रहा है और आलमारी का काँच, ऊपर छत से
लटकता हुआ झुम्मर, दीवार पर का शीशा, टीवी का
पर्दा टूटकर बिखर जाता है तो भी न कोई दुःख का
अनुभव करता है, न बच्चों को कोई परावृत्त करता है
न आर्थिक नुकसान का अहेसास होता है ।
कपड़े, जूते, मोजे, बस्ता, नाश्ते का डिब्बा, पानी की
बोतल, पेन्सिल, रबड़, कागज, पेन आदि सामग्री का
कोई हिसाब ही नहीं रहता । रखरखाव और
मितव्ययिता की संकल्पना सम्पूर्ण रूप से गायब है ।
वस्तु को आवश्यकता से अधिक मात्रा में नहीं प्रयोग
में लाना सिखाया ही नहीं जाता है । अपव्यय नहीं
करना चाहिये ऐसा लगता ही नहीं है ।
पैकिंग का खर्च कितनी बुद्दिहीनता का निदरद्शक है
इसकी कोई कल्पना ही नहीं है ।
जो मन में आता है वह मिलना ही चाहिये ऐसी
मनोवृत्ति का पोषण किया जाता है। ऐसा होना
स्वाभाविक ही है ऐसा बच्चों का मानस बन जाता है ।
रेल की छः घण्टे की यात्रा का एक दृश्य । आठ वर्ष
की बालिका अपने मातापिता के साथ है । कुरकुरे
वाला आया, दो पेकेट लिये, साथ में पोपिन्स का
पैकेट भी लिया । थोडे ही खाये थे कि पेप्लीकोला
वाला आया । पेप्सी लिया । थोडा पीया बाकी रख
दिया । बीस मिनट के बाद रेल केण्टिन का aren
आया । एक पेकेट लिया । थोडा खाया, अच्छा नहीं
लगा । माँने कहा अच्छा नहीं लगता है तो मत
खाओ । नहीं खाया, फैंक दिया । आइसक्रीम आई,
आइसक्रीम ली, फ्रूटी आई फ्रूटी ली । इस प्रकार छः
घण्टे के सफर में चार सौ रूपये की खरीदी की जिसमें
............. page-52 .............
9.
८.
8.
से सौ रूपये का भी खाया नहीं, उतरते
समय बचा हुआ सब फैंक दिया । मातापिता का ऐसा
अनाडीपन बच्चे में सहज उतरता है । पैसा खर्च करने
में कोई विचार भी करना होता है, कोई हिसाब भी
करना होता है ऐसा विषय ही कभी आता नहीं है ।
यह भी प्रतिनिधिक उदाहरण है ।
विद्यालय में पढ़ानेवाले अध्यापक के घर में एक छोटे
बेटे के साथ चार सदस्य हैं । पत्नी भी महाविद्यालय
में पढाती है । दोनों का मिलकर मासिक दो लाख की
आमदनी है । उनका खानेपीने का खर्च मासिक तीस
हजार रूपये होता है । उसमें होटेलिंग, पार्टी, गेस,
विद्युत आदि का समावेश नहीं है । रीत ऐसी है कि
मॉल में गये, तो सामने दिखा वह लिया कुछ दिन के
बाद वह खराब हो गया, फैक दिया नया लिया ।
साठ प्रतिशत उपयोग करने के लिये, चालीस प्रतिशत
फैंकने के लिये ही होता है ।
घर में चौदह वर्ष की और दस वर्ष की बालिकायें
हैं । नहाने का साबुन खेल खेल में शौचकूल में गिर
जाता है । कोई चिन्ता नहीं । चार जोडी जूतों में से
एक कहीं खो जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल
खेल में बस्ता फट जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल
खेल में कपडे पर कीचड गिरता है फैंक दो ।
खींचातानी में कपड़ा फटता है । अब पहनने के काम
का नहीं, फैंक दो । लिखते लिखते गलती हो गई,
कागज फाड़कर फैंक दो । सारी महँगी वस्तुओं के
साथ यही व्यवहार होता है। अब उससे कुछ
अनुचित है ऐसा कहनेवाले न मातापिता है, न बडे
बुजुर्ग हैं, न शिक्षक हैं, न साधु सन्त हैं, न पुस्तक
हैं, न शाख्र हैं, न विज्ञापन है । फिर छात्रों के लिये
ऐसा करना सहज ही तो है ।
ऐसे में देश का द्रिद्र होना अवश्यंभावी है ।
आय के अनुसार व्यय होना व्यावहारिक समझदारी
का लक्षण माना गया है। बचत करना अनिवार्य
माना गया है । दान करना नैतिक कर्तव्य माना गया
है । भारतीय अर्थव्यवहार के ये आधारभूत सूत्र हैं ।
3&
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
आज इनमें से एक का भी विचार नहीं किया गया
है । आय से अधिक खर्चा, बैंक का लोन, बचत का
नामोनिशान नहीं, हर मास हप्ता भरने का तनाव,
कमाई की अनिश्चितता, बिना काम किये पैसा कमाने
का लालच, पैसा कमाने में नीतिमत्ता का कोई बन्धन
नहीं । इन कारणों से बढते अनाचार, श्रष्टाचार,
शोषण और तनाव की कोई सीमा नहीं । इस
वातावरण में छात्रों को नीतिसम्मत श्रमप्रतिष्ठ, शुद्ध
अर्थव्यवहार की शिक्षा मिलना अत्यन्त कठिन है ।
स्वमान, स्वतन्त्रता और स्वावलम्बन का मूल्य
समझना भी बहुत कठिन है ।
अर्थ की शिक्षा अनिवार्य है
इस भीषण परिस्थिति में विद्यार्थियों को अर्थशुचिता,
धर्म के अविरोधी अधथर्जिन, संयमित उपभोग, आर्थिक
स्वतन्त्रता आदि की शिक्षा देना कठिन होने पर भी
अनिवार्य है क्योंकि इसके बिना देश समृद्ध भी नहीं बन
सकता और प्राप्त समृद्धि को चिरस्थायी भी नहीं बना
सकता । जो बात देश की है वही व्यक्ति की भी है ।
कठिन होने पर भी विद्यालयों को यह सिखाना
चाहिये । विद्यालयों को छोड़कर अन्यत्र कहीं इसका प्रारम्भ
नहीं हो सकता ।
श्,
छोटे से लेकर बडे उपाय इस प्रकार हो सकते हैं
विद्यार्थियों का बस्ता बहुत कम करना चाहिये कम से
कम सामग्री से अच्छी से अच्छी पढाई किस प्रकार
हो सकती है इसके प्रयोग करने चाहिये और उचित
आयु में विद्यार्थियों को भी प्रयोग करने में सहभागी
बनाना चाहिये ।
उदाहरण के लिये रेत में ऊँगली से *क' लिखा
जाता है, भूमि पर खडिया से *क' लिखा जाता है,
पाटी पर पेन से “क' लिखा जाता है, कागज पर
पेंसिल से “*क' लिखा जाता है और टैब पर भी “क'
लिखा जाता है । इसमें आर्थिक और शैक्षिक दोनों
दृष्टि से रेत पर ऊँगली से लिखा जानेवाला ‘a’
सर्वश्रेष्ठ है यह कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति कहेगा । कया
............. page-53 .............
पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
विद्यालय इस पद्धति को अपना सकेंगे ? खर्च बहुत
ही कम हो जायेगा । हाँ, कम्प्यूटर बेचने वाली
कम्पनियाँ इसके विस्द्ध लोगों को भडकाने का और
शासन के शिक्षा विभाग को “पटाने का अभियान
अवश्य छेडेंगी ।
शैक्षिक सामग्री का कम से कम व्यय हो इसका
हिसाब प्रत्येक छात्र को करना ही होगा । एक पेंसिल
कितने दिन चलती है, एक कंपास कितने दिन अच्छी
स्थिति में रहती है, जूते मोजे, गणवेश, बस्ता,
पुस्तकें कितने अधिक दिन सुस्थिति में रहते हैं इसका
हिसाब रखना सिखाना चाहिये । पुस्तकों का एक
संच दो या तीन वर्षों तक चलना चाहये ऐसा मानक
भी विद्यालय बना सकते हैं ।
कागज का कम से कम उपयोग करना, पीठकोरे
कागजों की कापी बनाना, फटे कागजों का पुनरुपयोग
करना आदि वस्तुओं के उपयोग, पुनरुपयोग करने की
और दुरुपयोग को टालने की व्यावहारिक शिक्षा देनी
चाहिये ।
कम पानी में अच्छा स्नान करना, कम पानी में
अच्छे कपड़े धोना, गंदे पानी का भी अच्छा उपयोग
करना सिखाना चाहिये ।
व्यावहारिक और मानसिकता की शिक्षा के साथ साथ
ज्ञानात्मक पक्ष को भी जोडना चाहिये आलू के वेफर
का एक पैकेट लेकर कीमत का हिसाब लगाना
चाहिये । एक किलो आलू पाँच रूपये में मिलता है,
एक किलो वेफर एक सौ रूपये में मिलता है ।
पंचानवे रूपयों का क्या हिसाब है ? किस किस मद
में यह कींमत विभाजित होती है । उनमें से कौन से
मद उचित हैं और कौन से अनुचित इसका विवेक
सिखाना चाहिये । तब फिर आलू के बेफर घर में
बनाने से क्या होगा इसका विचार भी करना चाहिये |
घर में क्यों नहीं बनाते, पैकिंग का पैसा क्यों खर्च
करते हैं इसकी चर्चा भी होनी चाहिये ।
बडी आयु में अब यह सब पाठ्यक्रम का हिस्सा
बनना चाहिये । देश गरीब क्यों है, गरीब है कि गरीब
३७
कहा जाता है, देशों को गरीब
और अमीर मानने के मापदृण्ड कौन से हैं, ये किसने
बनाये हैं, ये किस आधार पर नने हैं, क्या हमें ये
मापदण्ड मान्य हैं, आदि विषयों की चर्चा केवल
अर्थशास्त्र के विद्यार्थी ही करें यह पर्याप्त नहीं है।
यह सबकी चिन्ता का विषय है ।
देश की समृद्धि के आधार कौन से होते हैं इसका
विचार करने पर तीन बातें ध्यान में आती हैं । एक है
प्रकृति सम्पदा, दूसरी है मनुष्य की बुद्धि और तीसरी
है मनुष्य के हाथों की कुशलता । भारत की प्रकृति
सम्पदा विश्व में सबसे अधिक है यह तो अनेक रूपों
में सिद्ध हुआ है। भारत के मनुष्य के हाथों ने
अदूभुत कारीगरी के नमूने दिये हैं और भारत के
मनीषियों की बुद्धि ने उत्पादन, वितरण और उपभोग
का अदूभुत सामंजस्य बिठाया है। यहाँ उसकी
विस्तार से चर्चा करना सम्भव नहीं है परन्तु भारत
का आर्थिक इतिहास सरलता से पढने को मिलता
है। इन तीन संसाधनों का धर्म के अविरोधी उपयोग
करने पर चिरस्थायी समृद्धि प्राप्त हो सकती है इसका
प्रत्यक्ष उदाहरण स्वयं भारत ही है और भारत जैसा
और कोई नहीं है । भारत के विद्यालयों में भारत के
शिक्षकों को भारत के विद्यार्थियों को ऐसा अर्थशास्त्र
पढाना चाहिये और विद्यालय की तथा घर की
व्यवस्था इसके अनुसार करनी चाहिये ।
विद्यार्थियों और शिक्षकों के व्यवहार में और मानस में
बैठने के बाद इसे शिक्षाक्षेत्र में व्यापक रूप देना
चाहिये । अन्य विद्यालयों के साथ, शिक्षकों के
सम्मेलनों और परिषदों में, लेखों और प्रदर्शनियों के
माध्यम से इसकी व्यापक चर्चा होनी चाहिये ।
समारोहों में इसके प्रयोग करने के आदर्श दिखाई देने
चाहिये । भारत के लोगों की बुद्धि इस दिशा में बहुत
चलेगी क्योंकि भारत के स्वभाव का यह अंग है ।
अभी अज्ञान और विपरीत ज्ञान का जो आवरण चढ़
गया है उसे दूर होने में देर नहीं लगेगी |
लोगों के व्यवहार में और मानस में बैठने के साथ
............. page-54 .............
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
साथ यह लोगों की अथर्जिन की और स्वरूप क्या है, इसके निहितार्थ क्या हैं और इसके
अर्थविनियोग की पद्धति में आना चाहिये, बेरोजगारी, परिणाम क्या होंगे यह समझना आवश्यक है । इस
गरीबी, बाजार, आर्थिक शोषण आदि मुद्दों को स्पर्श विनाश से बचने का और दुनिया को बचाने का मार्ग
करना चाहिये । देश की आर्थिक समस्याओं के भारत के पास है यह बात भी समझ में आने लगेगी |
ज्ञानात्मक और भावात्मक हल खोजने का काम इस प्रकार आर्थिक दृष्टि और व्यवहार का यह विषय
विद्यार्थियों और शिक्षकों को मिलकर करना चाहिये ।.... केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रह सकता । यह संकट
इसके साथ ही देश की अर्थव्यवस्था, अर्थनीति आदि... पूर्ण रूप से मूलगामी है । इसका विचार भी इसी पद्धति से
समझने की आवश्यकता है । धर्मनिष्ठता के स्थान पर... होना आवश्यक है । विद्यालय को यह करना चाहिये । यह
अर्थनिष्ठता कैसे आ गई इसकी प्रक्रिया जाननी... शिक्षाक्षेत्र से जुडे सभी घटकों का राष्ट्रीय कर्तव्य है ।
चाहिये । आर्थिक क्षेत्र में अमेरिका के वर्चस्व का
विद्यार्थियों का गृहजीवन
अधिक भाग्यवान कौन ? मातापिता के साथ रहते हैं, उधम मचाते हैं, घर का खाना
एक उच्चविद्याविभूषित, मासिक लाख रुपये कमाने... खाते हैं और भरपूर जीवन जीते हैं । दोनों में से कौन से
वाली माता अपने चार मास के बालक को आया के सहारे... जालक का जीवनविकास बहेतर होगा ?
घर में छोड़कर काम पर जाती है । सुबह नौ बजे जाती है, यदि हम पैसे से ही सुख मिलता है ऐसा मानेनवाले
रात्रि में नौ बजे लौटती है । एक फुटपाथ पर झोंपडी में रहने... हीं हैं तो निश्चित रूप से कहेंगे कि कम पढ़े लिखे,
वाली, अशिक्षित, प्रतिदिन दो सौ रुपये कमाने वाली माता अशिक्षित या सामान्य मातापिता के बच्चे अधिक अच्छा
अपने चार मास के बालक को साथ लेकर काम पर जाती है, .. जीवन पाते हैं । अधिक पढाई करने पर, अधिक कमाई करने
वहीं पेड की छाया में पेड की ही डाली में साड़ी का झूला ™ अच्छे मातापिता बनना nila हो जाता है ।
बनाकर उसमें सुलाती है, बीच बीच में स्तनपान कराती है, क्या इनके विद्यालयों नस यह कर्तव्य नहीं है कि वे
साथ की मजदूरनों के दो-चार छः वर्ष के बालक उसका अपने विद्यार्थियों को जीवन में सुख, सन्तोष, समृद्धि, प्रसन्नता
आदि कैसे प्राप्त होता है यह सिखायें ?
ध्यान रखते हैं । न ere =) Pret
दोनों में से कौन सा बालक भाग्यवान है और कौन परन्तु नहीं, पूर्व में देखा वैसे विद्यालयों को विद्यार्थियों
दुर्भागी ? के जीवनविकास से कोई लेनादेना नहीं है ।
परन्तु यह करना अनिवार्य है । घर संस्कृतिरक्षा का
जन्म आयु में और केन्द्र है । घर पतिपत्नी, मातापिता और सन्तान, भाईबहन
कि देती है, कम शिक्षित का आ वर्ष की आयु में और आदि के सम्बन्धों की एकात्मता से बनता है । यह एकात्मता
अशिक्षित १९ या २० वर्ष की आयु में किसका बालक ही परिवार भावना है जो “बसुधैव कुट्म्बकम् के रूप में
अधिक आरोग्यवान होगा ? - सम्पूर्ण विश्व तक फैलती है । भारत की यह विशेषता है और
सुशिक्षित और बहुत eres मातासिता अपने बच्चों विश्वसंस्कृति को देन है । घर में व्यक्ति को जीवनभर रहना
को पॉच-सात-दस वर्ष की आयु में छात्रावास में भेज देते है। ऐसे घर की रक्षा होनी ही चाहिये । ऐसे घर की रक्षा हो
हैं। वहाँ वे परायों के बीच रहते हैं, पराये हाथों का अन्न इस दृष्टि से बच्चों, युवाओं, स्त्रीपुरुषों को घर में रहना, घर
खाते हैं, परायी भाषा में पढ़ते हैं । सामान्य बालक घर में _. बसाना, घर बनाना सिखाना चाहिये । वर्तमान शिक्षा सर्व॑था
पढ़ी लिखी युवती ३३ वर्ष की आयु में बालक को
३८
............. page-55 .............
पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
विपरीत दिशामें जा रही है और परिवारभावना तथा परिवार
जीवन नष्ट हो रहे हैं ।
विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या सिखाए ?
इस दृष्टि से विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या
सिखायें ?
श्,
घर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । घर में रहना सबके
लिये अनिवार्य है । घर में रहना सबको अच्छा लगना
चाहिये ।
घर में सबको साथ साथ न केवल रहना है, साथ साथ
जीना भी है । रहना भी आज तो नहीं होता । व्यवसाय
ने बड़ों को और शिक्षा ने छोटों को ग्रस लिया है । सब
इतने व्यस्त हो गये हैं कि साथ रहना, समय बिताना,
हास्यविनोद करना दूभर हो गया है । विद्यालयों में
सिखाना चाहिये कि दोनों अपनी अपनी व्यस्तता कम
करें और एकदूसरे के साथ अधिक समय बितायें । इस
दृष्टि से टी.वी. और मोबाइल भी एक बडा अवरोध है
जिसे कठोरतापूर्वक नियन्त्रण में रखना सिखाना
चाहिये ।
साथ साथ रहना तो समझ में आता है परन्तु साथ जीना
अब लोगों को समझ में नहीं आता ।
एक तीसरी कक्षा में पढने वाली बालिका एक दिन
घर आकर अपनी दादीमाँ को वर्षा कैसे होती है यह
समझाती है क्योंकि आज विद्यालय में यह सिखाया
गया है । दादीमाँ यह नहीं कहती कि मुझे सब पता
है । वह पोती से सीखती है । विद्यालय की सारी बातों
की चर्चा भोजन की टेबल पर होती है । पिताजी के
कार्यालय की बातें भी होती है । टीवी की भी होती
है । हास्यविनोद, मार्गदर्शन, नियमन, नियन्त्रण सब
कुछ होता है । एकदूसरे में रुचि बढती है ।
ऐसा साथ जीना आज असम्भव सा हो गया है ।
संवाद ही नहीं होता है । घर में रहनेवालों की हरेक की
दुनिया अलग अलग हो गई है ।
घर के सब लोग साथ जीयें यह देखना मातापिता का
काम है परन्तु ऐसे मातापिता बनने हेतु प्रेरित करना
३९
रे,
4,
विद्यालयों का काम है ।
घर में रहनेवाले तीन मास के, तीन वर्ष के तेरह वर्ष
के, सत्रह वर्ष के, पचास वर्ष के और पचहत्तर वर्ष की
आयु के लोग एक साथ रहते हैं । विद्यालय के तेरह
वर्ष की आयु के, महाविद्यलय के अठारह वर्ष की
आयु के विद्यार्थियों को इन सबके साथ कैसा व्यवहार
करना चाहिये ? अठारह वर्ष का छात्र स्वयं तीस वर्ष
का होगा तब क्या करेगा ? अठारह से तीस वर्ष का
होने के बीच में क्या क्या होगा और उस समय उसकी
भूमिका क्या रहेगी आदि सब विद्यार्थियों को सीखने
को मिलना अति आवश्यक है । वर्तमान समय में घर
में यह सीखने को नहीं मिलता है, अब भविष्य के
लिये विद्यार्थियों को विद्यालय में सीखने को मिलना
चाहिये । हो सकता है कि दो पीढ़ियों के बाद यह सारी
शिक्षा घर में स्थानान्तरित हो जाय ।
एक बहुत बडा अनर्थ आज फैल रहा है । आज के
युवक युवतियों की जनन क्षमता का भयानक गति से
क्षरण हो रहा है । जन्म लेने वाली भावी पीढी का
जीवन ही संकट में पड गया है । अर्थात् जैविक अर्थ में
भी युवकयुवतियों की मातापिता बनने की क्षमता कम
हो रही है । सांस्कृतिक अर्थ में तो मातापिता बनना वे
कब के भूल चुके हैं । इससे तो आज संकट निर्माण हो
रहे हैं । इस संकट से आज की पीढ़ी को और उसके
साथ ही भावी पीढी को भी बचाने का काम आज
विद्यालयों को करना चाहिये । विद्यालयों में नये विषय
जोडना, विद्यालयों की कार्यपद्धति बदलना, यान्त्रिकता
कम करना, मानवीयता बढाना अत्यन्त आवश्यक बन
गया है । महाविद्यालयों को इस सन्दर्भ में अध्ययन
और अनुसंधान की योजना भी बनाने की आवश्यकता
है ।
गृहजीवन के सन्दर्भ में और एक विषय चिन्ताजनक
है । घर के सारे काम अब अत्यन्त हेय माने जाने लगे
हैं । पढे लिखे और कमाई करने वाले इन्हें नहीं कर
सकते । इन्हें करने के लिये नौकर ही चाहिये ऐसी
मानसिकता पक्की बनती जा रही है । यहाँ तक कि
............. page-56 .............
भोजन बनाने का और खिलाने का काम
भी नीचा ही माना जाने लगा है । वृद्धों की परिचर्या
करने का काम नर्स का, भोजन बनाने का काम रसोइये
का, बच्चों को सम्हालने का काम आया का, बच्चों
को पढ़ाने का काम शिक्षक का, घर के अन्य काम
करने का काम नौकर का, बगीचा सम्हालने का काम
माली का होता है । इनमें से एक भी काम घर के लोगों
को नहीं करना है । खरीदी ओन लाइन करना,
आवश्यकता पड़ने पर होटेल से भोजन मँगवाना,
महेमानों की खातिरदारी होटेल में ले जाकर करना,
जन्मदिन, सगाई आदि मनाने के लिये ठेका देना आदि
का प्रचलन बढ गया है । अर्थात् गृहजीवन सक्रिय रूप
से जीना नहीं है, घर में भी होटेल की तरह रहना है ।
इस पद्धति से रहने में घर घर नहीं रहता । इसका उपाय
क्या है ? प्रथम तो मानसिकता में परिवर्तन करने की
आवश्यकता है । घर के काम अच्छे हैं, अच्छे लोगों
को करने लायक हैं, अच्छी तरह से करने लायक हैं
यह मन में बिठाना चाहिये । ये सब काम करना
सिखाना भी चाहिये । थोडी बडी आयु में ऐसा करने के
कितने प्रकार के लाभ हैं यह भी सिखाना चाहिये ।
जीवन की कौन सी आयु में कया क्या होता है और
उसके अनुरूप क्या क्या करना होता है यह सिखाना
महत्त्वपूर्ण विषय है । उदाहरण के लिये
सात वर्ष की आयु तक औपचारिक शिक्षा शुरू करना
लाभदायी नहीं है ।
पन्द्रह वर्ष की आयु तक घर के सारे काम अच्छी तरह
करना लडके-लडकियाँ दोनों को आ जाना चाहिये ।
बीस वर्ष की आयु तक लडकियों की और पचीस तक
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
लडकों की शादी हो जाना अच्छा है ।
बत्तीस से पैंतीस वर्ष की आयु तक दो तीन बच्चों के
मातापिता बन जाना अच्छा है ।
एक ही सन्तान होना कभी भी अच्छ नहीं है, दो या
तीन तो होने ही चाहिये ।
साठ वर्ष की आयु में सभी सांसारिक दायित्वों से मुक्त
होकर वानप्रस्थ हो जाना अत्यन्त लाभकारी है।
वानप्रस्थ अवस्था में समाजसेवा करना अनिवार्य
मानना चाहिये ।
घर की अर्थव्यवस्था में दान और बचत को अनिवार्य
मानना चाहिये ।
घर में स्वाध्याय और सत्संग होने ही चाहिये ।
गृहस्थाश्रम की इस प्रकार की शिक्षा विद्यालयों में देने
से ही घर बचेंगे । घर बचेंगे तो संस्कृति बचेगी ।
८
घर में साथ साथ जीने का एक अत्यन्त प्रभावी माध्यम
व्यवसाय है । पतिपत्नी यदि एक ही व्यवसाय करते
हैं, साथ मिलकर व्यवसाय करते हैं और अपनी
aa a भी अपने व्यवसाय में साथ लेने की
योजना बनाते हैं तो घर कितना महत्त्वपूर्ण और
अर्थपूर्ण स्थान बन जाता है इसकी कल्पना करने में भी
आनन्द है । उसमें भी यदि घर में ही व्यवसाय भी
चलता हो तो और भी अच्छा है । इससे सुख, समृद्धि
और आनन्द तीनों मिलते हैं ।
ऐसे गृह के लाभ विद्यार्थियों के मन और मस्तिष्क में
बिठाना विद्यालय का काम है ।
आज यदि विद्यालयों ने ऐसा किया तो दो पीढ़ी बाद
घर स्वयं शिक्षा के केन्द्र बन जायेंगे और प्रत्यक्ष
विद्यालयों में ज्ञान के नये नये क्षेत्र खुलते जायेंगे ।
विद्यार्थियों का सामाजिक दायित्वबोध
समाज के लिये समृद्धि और संस्कृति दोनों आवश्यक
सुसंस्कृत मनुष्यों का समूह समाज कहा जाता है ।
समाज के अंगभूत घटक बनकर रहना मनुष्य के लिये
स्वाभाविक है, इष्ट भी है । परन्तु समाज के अंगभूत घटक
बनकर रहने के लिये मनुष्य को साधना करनी होती है,
बहुत कुछ सीखना होता है । यही उसका धर्म है, यही
उसकी शिक्षा का महत्त्वपूर्ण अंग है ।
श्रेष्ठ समाज के दो लक्षण हैं, एक है समृद्धि और दूसरा
Yo
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
है संस्कृति । दोनों अनिवार्य हैं । दोनों एकदूसरे के लिये
उपकारक हैं । संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी बन जाती
है । आसुरी समृद्धि कुछ समय तक तो सुख देने वाली होती
है परन्तु अन्ततोगत्वा यह अपना और सबका नाश करती
है । समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा ही नहीं हो सकती |
धर्मों रक्षति रक्षित: अर्थात् धर्म की रक्षा करो तो धर्म तुम्हारी
रक्षा करेगा ऐसा वचन हमने सुना है । संस्कृति धर्म की ही
रीति है इसलिये जो बात धर्म को लागू है वही संस्कृति को
भी लागू है । संस्कृति की रक्षा करने से ही वह हमारी रक्षा
करती है । समृद्धि नहीं है तो संस्कृति की रक्षा नहीं हो
सकती । अतः दोनों चाहिये ।
संस्कृति के अभाव में समृद्धि आसुरी बन जाती है
उसके क्या लक्षण हैं ?
०... समृद्धि प्राप्त करने के लिये असंस्कारी व्यक्ति अनैतिक
पद्धति अपनाता है । वह असत्य, कपट और शोषण
का मार्ग अपनाता है ।
०... अपना अधिकार नहीं है ऐसी वस्तुयें भी प्राप्त करने
की चाह रखता है, प्राप्त करने के प्रयास भी करता
है।
०... वह चोरी और लूट करता है, दुर्बलों की सम्पत्ति छीन
लेता है ।
०... वह दान नहीं करता उल्टे अधिक से अधित स्वयं ही
लेना चाहता है ।
आज अनेक स्वरूपों में संस्कृतिविहीन समृद्धि
प्राप्त करने के प्रयास दिख रहे हैं. . .
०... जब रासायनिक खाद का और यंत्रों का प्रयोग होता
है तब अधिक फसल तो प्राप्त होती है परन्तु भूमि का
प्रदूषण होता है और ऐसा अनाज खाने वालों का
स्वास्थ्य खराब होता है । यह समय के बीतते भूमि
को बंजर बनाती है और प्रजा को दुर्बल बनाकर नाश
की ओर ले जाती है । यह संस्कृतिविहीन समृद्धि है ।
०... जब यन्त्रआधारित बड़े बड़े कारखानों में वस्तुओं का
उत्पादन होता है तब उत्पादन अधिक होता है,
कारखाने के मालिक को समृद्धि प्राप्त होती है परन्तु
अनेक लोग बेरोजगार हो जाते हैं अथवा कारखानों में
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मजदूर बनने के लिये मजबूर बन
जाते हैं, उनकी आर्थिक स्वतन्त्रता का नाश होता
है । यह संस्कृतिविहीन समृद्धि का लक्षण है ।
०... केन्द्रीकृत उत्पादन के कारण से परिवहन की व्यवस्था
करनी पड़ती है, सड़कें बनानी पड़ती हैं, सड़कों के
लिये खेतों का बलिदान दिया जाता है, खेतों के कम
होने से अनाज का उत्पादन कम होता है, किसान
और प्रजा दोनों परेशान होते हैं, विज्ञापन उद्योग में
वृद्धि होती है, विज्ञापनों का आधार झूठ ही होता
है। ये सब संस्कृति विहीनता के लक्षण हैं। यह
विनाशक अर्थतन्त्र है जो गिनेचुने लोगों को समृद्ध,
अधिकांश लोगों को दृरिद्रि बनाता है और
अन्ततोगत्वा विनाश की ओर ले जाता है ।
०... संस्कृतिविहीन समृद्धि दम्भ, अभिमान, मदोन्मत्तता,
शोषण आदि में प्रवृत्त होती है । महानगरों की सडकों
पर महँगी कारों या मोटरसाइकलों पर घूमते हुए,
युवतियों को छेडते हुए, शराब पीकर उधम मचाते
हुए, फूटपाथ पर सोने वालों को कुचलते eu fag
युवक समृद्ध पिताओं के पुत्र होते हैं जो आसुरी
समृद्धि के जीतेजागते नमूने हैं ।
०... अर्थात् आसुरी समृद्धि स्वयं का तथा दूसरों का नाश
करती है ।
समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा
कैसे नहीं हो सकती ?
०... मनुष्य को खाने के लिये अन्न नहीं, पहनने के लिये
वस्त्र नहीं हो तो वह अपने जीवित की रक्षा कैसे कर
सकेगा ? उसे किसी न किसी प्रकार से अन्न और
वस्त्र तो प्राप्त करने ही होंगे । वह नीति और संस्कारों
को भी छोडने के लिये बाध्य हो ही जायेगा । जीवन
बचाना तो कोई अपराध नहीं है ।
०... बडे बडे कारखानों में यांत्रिकीकरण होता है । एक
नया यंत्र आता है और सैंकडो कर्मचारी नौकरी में से
मुक्त कर दिये जाते हैं । उनके पत्नी और बच्चों का
पेट भरने के लिये वे यदि चोरी या डकैती करते हैं तो
उसका पाप उन्हें नहीं अपितु कारखाने के मालिकों
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
को ही लगेगा । अर्थ के अभाव में जैसा है वैसा ही स्नेह का पात्र है, आत्मीय है ऐसा
चोरी करने वाले नीति की रक्षा कैसे करेंगे ? भाव जागृत करना चाहिये । यह सामाजिक समरसता
०... अनुचित अर्थव्यवस्था के कारण लोगों को दिन में है । समरसता से ही समाज में सुख, शान्ति, सुरक्षा,
बारह घण्टे अथार्जिन हेतु काम करना पडता है । उसके निश्चितता पनपते हैं, संस्कृति की रक्षा होती है और
बाद भी मालिकों की हाँजी हाँजी और खुशामद करनी समृद्धि बढती है ।
पड़ती है । उनकी अनैतिक प्रवृत्तियों की साझेदारी भी. (३) समाज में रहना मनुष्य के लिये स्वाभाविक भी है और
करनी पड़ती है । दिनभर काम करने के बाद स्वाध्याय, अनिवार्य भी । स्वाभाविक इसलिये कि स्नेह, प्रेम,
सत्संग, सत्प्रवृत्ति वे कैसे करेंगे ? बच्चों के चस्त्रि की मैत्री आदि के बिना जीवन उसके लिये दूभर बन जाता
चिन्ता कैसे करेंगे ? ऐसी स्थिति में संस्कृति की रक्षा है। दूसरों के साथ संवाद या विसंवाद, चर्चा,
कैसे होगी ? विचारविमर्श, आनन्दुप्रमोद, सहवास के बिना जीवन
तात्पर्य यह है कि आर्थिक निश्चिन्तता नहीं रही तो Ad बन जाता है। परमात्माने अपने आपको
संस्कृति की रक्षा सम्भव ही नहीं है। अतः समाज को स्त्रीधारा और पुरुषधारा में विभाजित किया परन्तु दोनों
समृद्धि और संस्कृति दोनों की एक साथ चिन्ता करनी पुनः एक हों इस हतु से दोनों के बीच ऐसा आकर्षण
चाहिये । यह चिन्ता करने का दायित्व समाज के सभी निर्माण किया कि वे विविध उपायों से एक होने के
घटकों का है । इस दायित्व का हृदय से स्वीकार करना लिये, साथ रहने के लिये प्रवृत्त होते हैं । इसीमें से
सामाजिक दायित्वबोध है । विवाहसंस्था निर्माण हुई । विवाहसंस्था कुटुम्बसंस्था
का केन्द्र बनी । आगे बढ़ते हुए मातापिता और
समाज के दायित्वबोध की शिक्षा के पहलू सन्तान, भाईबहन तथा आगे सगेसम्बन्धी, कुट्म्बीजन
विद्यालयों को अपने विद्यार्थियों को. सामाजिक आदि के रूप में विस्तार होता गया । इसमें आत्मीयता
दायित्वबोध की शिक्षा देनी alti सामाजिक और स्नेह तथा आदर्युक्त लेनदेन, परस्परावलम्बन
दायित्वबोध की शिक्षा के पहलू इस प्रकार हैं बनता... गया, बढ़ता. गया ।.. परिवारभावना
(१) सारे मनुष्य एक हैं, समान हैं, समान रूप से स्नेह समाजव्यवस्था का आधार बनी । समाज के सभी
और आदर के पात्र हैं ऐसा भाव जागय्रत करना प्रमुख घटकों के साथ, सभी व्यवस्थाओं में परिवारभावना को
बात है । इसे परिवारभावना कहते हैं, आत्मीयता बनाये रखना सभी घटकों का सामाजिक दायित्व है ।
कहते हैं । मिलबाँटकर उपभोग करने की वृत्ति और यह विषय विद्यार्थियों तक पहुँचना चाहिये ।
प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिले, ऐसा करने की प्रेरणा मिले. (४) समाज में कोई भी व्यक्ति अकेले ही अपनी सारी
ऐसे कार्यक्रम और गतिविधियों का आयोजन करना व्यवस्थाओं की पूर्ति नहीं कर सकता । स्वभाव से
चाहिये । ऐसी कहानियाँ, चरित्रकथन, सत्यघटनाओं ही समाज के सभी घटक परस्परावलम्बी हैं । इस
का वृत्त विद्यार्थियों को बताना चाहिये । दृष्टि से विभिन्न व्यवसाय और समाज के पोषण और
(२) समाज में तरह तरह के मनुष्य होते हैं । सब एकदूसरे रक्षण की व्यवस्था हमारे पूर्व मनीषियों ने की है । हर
से भिन्न होते हैं । सबके स्वभाव, रूपरंग, कौशल, युग में ऐसी परस्परावलम्बी व्यवस्था उस युग के
ज्ञान, गुणदोष भिन्न भिन्न होते हैं । इन भेदों के कारण मनीषियों को करनी ही होती है । परस्परावलम्बन की
सुन्दरता निर्माण होती है । भेदों को ऊँचनीच न इस रचना में हरेक को अपना अपना काम निश्चित
मानकर वैविध्य और सुन्दरता मानना सिखाना करना होता है । किसी को शिक्षक का, किसी को
चाहिये । भेदभाव न पनपे यह देखना चाहिये । जो डॉक्टर का, किसी को दर्जी का, किसी को मोची का,
BR
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
किसी को सैनिक का तो किसी को राजनयिक का
काम करना होता है । अपने अपने कौशल और रुचि
के अनुसार सब अपना अपना काम निश्चित करते हैं ।
अपनी रुचि और कौशल पहचानकर समाज की सेवा
के रूप में अपना काम करना प्रत्येक समाजघटक का
दायित्व है । अपना काम उत्तम पद्धति से करना और
सबका सत्कार करना, सबके अविरोध में करना
प्रत्येक समाजघटक का दायित्व है ।
कौन क्या काम करता है यह किसी को ऊँच या
नीच मानने का आधार नहीं हो सकता, कौन कैसे,
कैसा, क्यों और किस वृत्ति से काम करता है यह
Asa sk asa sr wes saa चाहिये ।
अर्थात् विद्यार्थियों को अपना काम निश्चित करने की,
वह काम उचित पद्धति से करने की तथा अन्यों के
काम का सम्मान करने की शिक्षा देना सामाजिक
दायित्वबोध की शिक्षा देना है ।
(५) विद्यार्थियों को यह सब सिखाने हेतु समाजशास्त्र,
(६
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TOI, अर्थशास्त्र, गृहशास्त्र, उत्पादनशास्त्र आदि
विषयों का माध्यम के रूप में उपयोग करना चाहिये ।
ये सारे विषय अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं हैं,
समाजधारणा हेतु उनका नियोजन होने पर ही उनकी
सार्थकता है यह शिक्षकों को ध्यान में आना चाहिये ।
समाज देवता स्वरूप है । सबने मिलकर जिस समृद्धि
का निर्माण किया है वह समाज की समृद्धि है ।
उसका रक्षण और संवर्धन करना मेरा दायित्व है, उसे
नष्ट नहीं करना या नष्ट नहीं होने देना मेरा दायित्व
है । उसके ऊपर मेरा अधिकार नहीं है । उसे मेरे
स्वार्थ का साधन बनाने का या अपने स्वामित्व में
लाने का मेरा अधिकार नहीं है । समाज की सम्पत्ति
और समृद्धि का रक्षण करने की राज्य नामक एक
व्यवस्था बनाई गई है । उसके कायदे कानून हैं,
उसकी न्याय व्यवस्था है समाजकण्टटों के लिये avs
की व्यवस्था है । इस व्यवस्था का स्वीकार करना,
उसका पालन करना भी हरेक का कर्तव्य है । यह भी
सामाजिक दायित्वबोध का एक आयाम है ।
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(७) जिस समाज में स्त्री और गाय,
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धर्म केन्द्र और ज्ञानकेन्द्र सुरक्षित हैं, आदर के पात्र
हैं, सम्माननीय हैं वह समाज सुसंस्कृत होता है ।
संस्कृति की रक्षा करने हेतु इन सबका सम्मान करने
की वृत्ति और प्रवृत्ति छात्रों में जगानी चाहिये । साथ
ही ख्रियों को स्त्रीत्व की, ज्ञानकेन्द्रों को ज्ञान की,
धर्म केन्द्रों को धर्म की रक्षा को, प्रतिष्ठा को प्रथम
स्थान देना भी सिखाना चाहिये ।
समाजधारणा हेतु अनेक सांस्कृतिक पर्वों, उत्सवों ,
त्योहारों, रीतिरिवाजों की योजना हुई होती हैं । इन
उत्सवों आदि का तात्पर्य समझकर उनका सार्थक
निर्वहन करना हरेक समाजघटक का दायित्व है ।
समाज में कोई भूखा न रहे, आवश्यकताओं से वंचित
न रहे, दीन और दरिद्र न रहे, बेरोजगार न रहे इसकी
व्यवस्था की गई होती है । इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार
की धर्मादाय संस्थाओं की भी रचना होती है । इनके
निभाव हेतु अर्थदान और समयदान देना भी सक्षम
लोगों का सामाजिक दायित्व है । तीर्थयात्रा को
जानेवाले लोगों को मार्ग में अन्न, पानी और
रात्रिनिवास की व्यवस्था मिलनी चाहिये, संन्यासियों
को भिक्षा मिलनी चाहिये, निर्धन विद्यार्थियों को
शिक्षा मिलनी चाहिये, जिनके पुत्र नहीं है ऐसे वृद्धों
को और मातापिता नहीं है ऐसे अनाथ बच्चों को,
दुर्घटनाग्रस्त लोगों को अनेक प्रकार की सहायता की
आवश्यकता होती है । इन आवश्यकताओं की पूर्ति
करना सरकार का नहीं अपितु समाज का दायित्व
होता है । इस दृष्टि से दान, यज्ञ, भण्डारा, अन्नसत्र,
प्याऊ, धर्मशाला आदि की व्यवस्था हमारा समाज
युगों से करता आया है । इस परम्परा को खण्डित
नहीं होने देना आज की पीढ़ी को सिखाना चाहिये ।
सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण करने की
पश्चिमी पद्धति है। उसे यहाँ हावी नहीं होने देना
चाहिये । यदि सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण
हुआ तो समाज की स्वायत्तता समाप्त हो जायेगी ।
जिस देश का समाज स्वायत्त नहीं रहता वह देश
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८.
४ ७८ ५ ५ ५
७ ७ ७
८५
फेक
a सरलता से गुलाम बन जाता है ऐसा
विश्व के अनेक देशों का अनुभव है जबकि जो
समाज स्वायत्त होता है वह आसानी से गुलाम नहीं
होता ऐसा भारत का ही उदाहरण हमने देखा है ।
(१०) जब व्यक्ति स्वकेन्द्री बनता है तो स्वार्थी बनता है ।
स्वार्थी व्यक्ति दूसरे का विचार नहीं कर सकता ।
स्वार्थी व्यक्ति अपनी सारी क्षमताओं का विनियोग
दूसरों को अपने लाभ हेतु किस प्रकार उपयोग में
लाना इस प्रकार ही करता है। व्यक्ति को स्वार्थी
नहीं अपितु समाजार्थी बनाने से समाज का और
व्यक्ति का भला होता है, स्वार्थी बनने देने से दोनों
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
का अहित होता है । इस दृष्टि से सम्यकू व्यवहार
करना सिखाना सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा
देना है।
हम देखते हैं कि विद्यालयों में यान्त्रिक पद्धति से,
प्रयोजनों, उद्देश्यों और सन्दर्भों को छोडकर ही पढाये जाता
हैं। ऐसे में विद्यार्थियों के आयुष्य के अत्यन्त मूल्यवान
वर्ष, देश का अनेक प्रकार का संसाधन sik cafe sik
समष्टि का भविष्य ही नष्ट हो रहे हैं । हमें गम्भीरतापूर्वक
इस बात पर विचार करना होगा और कृति भी करनी
ert |
विद्यार्थियों की देशभक्ति
विद्यार्थियों की देशभक्ति कहाँ दिखाई देती हैं ?
१, १५ अगस्त और २६ जनवरी के ध्वजवन्दन के
कार्यक्रमों में ।
२.. उन्हीं दिनों के उपलक्ष्य में आयोजित देशभक्तिपरक
गीतों की स्पर्धाओं में ।
3. युद्ध जैसी आपात्कालीन स्थिति में सैनिकों के लिये
निधि जमा करने के आयोजनों में ।
४. सैनिकों के सम्मान के कार्यक्रमों में ।
परन्तु इन कार्यक्रमों की भी स्थिति कैसी है ?
उपस्थिति अनिवार्य नहीं की जाय तो सब छुट्टी मनाना
चाहते हैं। स्पर्धाओं में हिस्सा पुरस्कार की अपेक्षा से
लेते हैं । देशभक्तिपरक गीत जो फिल्मों में हैं वे ही आते
हैं। फिल्मों के बाहर उनकी वैसे भी कोई गीत सम्पदा
नहीं है ।
इसके अतिरिक्त देशभक्ति जैसा कुछ होता है ऐसी
समझ विद्यार्थियों में विकसित ही नहीं होती है ।
देशभक्ति की समझ, देशभक्ति की भावना और
देशभक्ति का व्यवहार बने ऐसी शिक्षा विद्यालय में देनी
चाहिये । यह शिक्षा शिशु से उच्च शिक्षा तक समान रूप
से महत्त्वपूर्ण है ।
देशभक्ति की समझ
१... जिसे देश कहते हैं उसे वास्तविक रूप में राष्ट्र कहा
जाता है । राष्ट्र केवल भौगोलिक नहीं, सांस्कृतिक
इकाई है ।
2. राष्ट्र भूमि का टुकडा मात्र नहीं है । वह भूमि, भूमि
के ऊपर रहने वाली प्रजा और उस प्रजा का
जीवनदर्शन मिलकर राष्ट्र बनता है । तत्त्व के रूप में
राष्ट्र जीवनदर्शन है और व्यवहार के रूप में
जीवनदर्शन, प्रजा और भूमि ये तीनों मिलकर राष्ट्र
बनता है ।
3. भूमि और उस पर रहनेवाली प्रजा का माता और
पुत्र का सम्बन्ध होना अनिवार्य है । जगत में इस
सम्बन्ध को विभिन्न नाम भले ही दिये गये हों तो
भी भावना एक ही है । जैसे कि अंग्रेजी भाषा में
मातृभामि के स्थान पर पितृभूमि और अरबी, फारसी
आदि भाषाओं में वतन अथवा मादरे वतन कहा
जाता है । भूमि के लिये भक्तिभाव होना राष्ट्रीय होने
की अर्थात् देश के नागरिक होने की प्रथम शर्त है ।
¥. भूमि यदि माता है तो प्रजा में आपस में बन्धुभाव है
यह भी स्वाभाविक है । देश की सम्पत्ति मेरी है, देश
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
की प्रजा मेरी है, देश की नदियाँ, पर्वत, अरण्य सब
मेरे हैं ऐसा भाव होना भी उतना ही स्वाभाविक है ।
देश की भूमि, देश की सम्पत्ति मेरी है इसके दो
अर्थ होते हैं । मेरे हैं अर्थात् उन पर मेरा स्वामीत्व
है, मैं उनका उपभोग मेरे सुख के लिये कर सकता
हूँ ऐसा भी अर्थ होता है और मेरे हैं इसलिये मुझे
उनका आदर करना चाहिये, उनकी रक्षा करनी
चाहिये, उनके प्रति प्रेम और कृतज्ञतापूर्ण व्यवहार
करना चाहिये ऐसा अर्थ भी होता है। भारत में
हमेशा इस दूसरे अर्थ को ही माना है क्योंकि
बन्धुभाव का सही अर्थ वही है ।
जीवनदूर्शन की इस स्पष्टता के बाद विद्यार्थियों को
राष्ट्रविषयक जानकारी भी होना आवश्यक है । मेरे
देश का भूगोल, मेरे देश की सीमायें, मेरे देश की
जलवायु, मेरे देश की प्रकृतिसम्पदा आदि का
सम्यक् परिचय मुझे अर्थात् विद्यार्थियों को होना ही
चाहिये । दुनिया के विभिन्न राष्ट्रीं से भिन्न मेरे देश के
भूगोल की क्या विशेषतायें हैं यह मुझे जानना
चाहिये । उदाहरण के लिये केवल भारत में छः
ऋऋतुयें हैं, केवल भारत में ऐसा भूभाग है जहाँ वर्ष
में तीन फसलें ली जा सकती हैं, भारत की गंगा
नदी की बराबरी करने वाली नदी पृथ्वी पर कहीं
नहीं है । भारत की गाय की बराबरी करने वाला
कोई प्राणी विश्व में नहीं है और ऐसी गंगा और
गाय को गंगामैया और गोमाता कहने वाली प्रजा भी
विश्व में कहीं नहीं है । भारत की ऐसी विशेषताओं
का ज्ञान भारत के हर विद्यार्थी को दिया जाना
चाहिये । देशभक्ति का यह प्रथम सोपान है ।
भूगोल की तरह भारत के इतिहास की भी जानकारी
चाहिये । हम कितने प्राचीन हैं, विश्व में हमारी क्या
छबी रही है, भारत पर कब, किसके, क्यों आक्रमण
हुए हैं और भारत ने आक्रान्ताओं के साथ कैसा
व्यवहार किया है, विश्व के अन्य राष्ट्रीं के साथ
भारत का व्यवहार कैसा रहा है इसकी जानकारी
विद्यार्थियों को होनी चाहिये । भारत का इतिहास
४५
8.
अर्थात् हमारे पूर्वजों का इतिहास
ऐसी दृष्टि भी बननी चाहिये ।
यह देश कैसे चलता है अर्थात् अपने समाजजीवन
की व्यवस्थायें कैसे करता है यह भी हर विद्यार्थी
को जानना जरूरी है । अर्थात् भारत को जानने के
लिये इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, Were
आदि जानने की आवश्यकता होती है । तभी हम
ज्ञानपूर्वक देश के साथ ज़ुड सकते हैं और देश के
सच्चे नागरिक बन सकते हैं ।
इस सन्दर्भ में विचार करने पर लगता है कि
हमने देशभक्ति विषय का सर्वथा विपर्यास कर दिया
है। यहाँ उट्लिखित सभी विषयों की घोर उपेक्षा
होती है। कोई उन्हें पढ़ना नहीं चाहता क्योंकि
उससे अच्छे वेतन वाली नौकरी नहीं मिलती । इन
विषयों का सम्बन्ध देशभक्ति के साथ है ऐसा न
पढनेवाला मानता है न पढ़ाने वाला । मूल सर्न्दर्भ
ही नहीं होने के कारण इनका पाठ्यक्रम भी निर्रर्थक
होता है और अध्ययन अध्यापन पद्धति शुष्क और
उदासीभरी । इसके चलते समय और शक्ति का
अपव्यय होता है । यही नहीं तो राष्ट्रविरोधी अनेक
बातें पाठ्यक्रम में घुस जाती हैं, अनेक गलत तथ्य
पढाये जाने लगते हैं। इन विषयों की शिक्षा
सन्दर्भरहित और देशभक्ति केवल औपचारिक प्रदर्शन
की वस्तु बन जाती है ।
यह देश कैसा है और कैसे चलता है इसकी
जानकारी बडी कक्षाओं में बडी आयु के छात्रों को
ही दी जा सकती है ऐसा नहीं है । शिशुअवस्था से
ही विभिन्न क्रियाकलापों तथा गतिविधियों के माध्यम
से यह कार्य शुरू हो जाता है । देशभक्ति केवल
कार्यक्रमों और गतिविधियों का ही विषय नहीं है ।
मुख्य और केन्द्रवर्ती विषयों के माध्यम से सिखाया
जानेवाला विषय है । भूगोल अर्थात् मातृभूमि का
गुणसंकीर्तन, इतिहास अर्थात् हमारे पूर्वजों से प्रेरणा
प्राप्त करने हेतु उनका स्मरण, समाजशास्त्र अर्थात्
हमारी परम्परा और कर्तव्यों की समझ ऐसा हमारे
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
विभिन्न विषयों का स्वरूप बनना
यह काम सैन्य करता है और सरकार करती है ।
चाहिये । अर्थात् देशभक्ति का ज्ञानात्मक स्वरूप परन्तु देश पर आर्थिक, राजकीय, सांस्कृतिक,
विभिन्न विषयों के साथ समरस होना चाहिये । मनोवैज्ञानिक आदि अनेक प्रकार के आक्रमण होते
हैं। इन आफक्रमणों को यशस्वी नहीं होने देने का
देशभक्ति की भावना काम प्रजा का है, सरकार या सैन्य का नहीं । इस
देशभक्ति की केवल जानकारी होना पर्याप्त नहीं दृष्टि से नित्य जागृत रहने की भावना प्रजा में जगाने
होती । देश के साथ हृदय से भी जुड़ना चाहिये । अतः का काम विद्यालयों का है ।
जानकारी देने के साथ साथ भावजागरण के विभिन्न उपायों. ८... देश मेरे लिये नहीं, मैं देश के लिये हूँ यह भाव
की योजना विद्यालयों में करनी चाहिये । इस सम्बन्ध में स्थायी बनना चाहिये ।
कुछ इस प्रकार से विचार हो सकता है ९. स्वतन्त्रता की चाह जगनी चाहिये, हमारा देश
१, हम भारतीय हैं इसका गौरव जगाने वाली गाथायें स्वतन्त्र रहना चाहिये ऐसा समस्त प्रजा को लगना
सुनने का अवसर प्राप्त होना चाहिये । चाहिये । देश की स्वतन्त्रता भूमि और संस्कृति दोनों
२... हमारे देश के पूर्वजों के कर्तृत्व, गुण Sk swat की स्वतन्त्रता है । दोनों के प्रति गौरव और श्रद्धा
से प्रेरणा प्राप्त करने हेतु गीतों, नाटकों एवं कथाओं होनी चाहिये और स्वतन्त्रता हेतु त्याग, बलिदान,
के कार्यक्रम हो सकते हैं । समर्पण, निष्ठा आदि सब कुछ होना चाहिये ।
३... भारत माता पूजन, मातृभूमि वन्दन जैसे कार्यक्रमों विभिन्न विषयों की शिक्षा ऐसा भाव जगाने हेतु भी
का आयोजन हो सकता है । होनी चाहिये ।
¥. देशदर्शन का कार्यक्रम शैक्षिक भ्रमण के अन्तर्गत हो
सकता है । कृतिशील देशभक्ति
५... हमारे ट्वाद्श ज्योतिर्लिंग, इक्यावन शक्तिपीठ, चार ज्ञान और भावना जब तक कृति में परिणत नहीं
धाम आदि एक ओर भूगोल विषय का अंग हैं तो... होती तब तक उसका कोई अर्थ नहीं है । केवल जानना
दूसरी ओर तीर्थयात्रा के केन्द्र हैं। इनके अतिरिक्त... और मानना कभी भी पर्याप्त नहीं होता, करना अत्यन्त
देशभर में असंख्य मन्दिर हैं जो तीर्थ हैं और हजारों. आवश्यक होता है। अतः कृतिशील देशभक्ति अत्यन्त
वर्षों से लोगों के श्रद्धा केन्द्र बने हुए हैं। इन. महत्त्वपूर्ण विषय है ।
सबके साथ विद्यार्थी श्रद्धा से जुड़े ऐसा आयोजन कुछ इन बातों का विचार करना चाहिये...
करना चाहिये । विद्यार्थियों की श्रद्धा ज्ञानात्मक होनी १, हम हमेशा स्वदेशी वस्तुओं का ही प्रयोग करेंगे
चाहिये यह विशेषता है । ऐसा विद्यार्थियों का निश्चय बनना चाहिये । विदेशी वस्तु
६.. विश्व में हमारी मातृभूमि का अपमान न हो, किसी... खरीदने से देश का पैसा विदेश में चला जाता है और देश
का आक्रमण हम सहन न करें, उसकी रक्षा हेतु हम. की समृद्धि कम होकर देश गरीब बनता है । विदेशी वस्तु
सदैव तत्पर रहें ऐसी मनःस्थिति बननी चाहिये । कैसी भी आकर्षक हो, हमें मोहित नहीं होना चाहिये,
७. मातृभूमि की रक्षा करना केवल सीमाओं की रक्षा. कितनी भी सस्ती हो हमें अपने स्वार्थ का विचार नहीं
करना ही नहीं है। सीमाओं की रक्षा का प्रश्न तो... करना चाहिये । विदेशी वस्तु कितनी ही दुर्लभहो, हमें
आक्रमण होता है तभी पैदा होता है, या सीमा... संयम करना चाहिये । एक तर्क ऐसा हो सकता है कि
असुरक्षित रही तो कोई भी अतिक्रमण कर सकता... हमारे देश में देशविदेश की मूल्यवान वस्तुर्यें आती ही
है इसलिये सावधानी के रूप में पैदा होता है।. थी । इरान के गलीचे, बसरा के और लंका के मोती,
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
अरबस्तान के घोडे बहुत प्रसिद्ध थे। और हम we
खरीदते ही थे । फिर स्वदेशी वस्तुओं का ही आग्रह
क्यों ?
एक बात स्मरण में रखनी चाहिये कि हमारा विदेश
व्यापार यदि अधिक हो तो हम भी बाहर से वस्तुयें ला
सकते हैं। इस बात का भी स्मरण रहे कि सतन्रहवीं
शताब्दी में सबसे अधिक विश्वव्यापार भारत का था ।
भारत की बराबरी करने वाला केवल चीन ही था।
acted शताब्दी में सात समन्दर में भारत के जहाजों की
ख्याति थी । भारत के व्यापारी विश्वभर में व्यापार करते
थे । ऐसे समय में दुर्लभ वस्तुयें भारत में भी आ सकती
हैं। परन्तु यह दुर्लभ वस्तुओं का ही मामला है । साबुन,
दन्तमंजन, रोज पहनने के वस्त्र आदि विदेशी होने में गौरव
तो है ही नहीं, बुद्धिमानी भी नहीं है । यह तो अविचार,
मिथ्या विचार अथवा स्वार्थी विचार है ।
२. आजकल विदेश पढने और नौकरी करने जाने
का प्रचलन बहुत बढ़ा है । विदेश में कमाई अधिक होती
है ऐसा कहा जाता है । विदेश में पढ़ाई अच्छी होती है
ऐसा भी कहा जाता है। विदेश की पढ़ाई की प्रतिष्ठा
अधिक होती है ऐसा भी कहा जाता है । कई महानुभाव
विदेशी नागरिकता भी ले लेते हैं।
क्या यह सही है ? जरा विश्लेषणपूर्वक विचार करें ।
लोग अमेरिका, यूरोप या ऑस्ट्रेलिया में नौकरी या
व्यापार करने के लिये क्यों जाते हैं ? अधिक पैसा मिलता है
इसलिये । परन्तु अधिक पैसा प्राप्त करने हेतु अपना परिवार
और अपना देश छोड़ना पड़ता है इसका दुःख क्यों नहीं
होता ? विदेश जानेवाले अनेक युवकों के मातापिता देश में
वृद्धावस्था में अकेले हो जाते हैं और दुःख में रहते हैं ।
वृद्धावस्था में पैसे के सहारे, पराये लोगों के सहारे तो नहीं रहा
जा सकता । यह क्या विचारणीय विषय नहीं है ?
जिस देश की जलवायु और संस्कृति ने पोषण
किया, जिस देश के अध्यापकों ने ज्ञान दिया, जिस देश
के लोगों ने कर के रूप में पढ़ाई हेतु पैसा दिया उस देश
का हमारे ज्ञान पर, कर्तृत्व पर, बुद्धि पर क्या प्रथम
अधिकार नहीं है ? उसे छोड़कर अन्य देश को लाभ
'ढी9
पहुँचाने हेतु हमारे ज्ञान का उपयोग
करना क्या उचित है ? यह तो निरास्वार्थ है । अपने
मातापिता के बल पर बडा होने के बाद अन्य मातापिता
के पुत्र हो जाने के बराबर है ।
विदेशी पदवियों की अधिक प्रतिष्ठा है यह तो हमारे
लिये और भी लज्जाजनक बात बननी चाहिये । भारत तो
हमेशा से ज्ञान का उपासक देश रहा है, faa से भारत
में ज्ञान प्राप्त करने हेतु विद्वान आते थे, भारत से ऋषि,
व्यापारी, कारीगर विश्व को ज्ञान और संस्कार देने के लिये
जाते थे । आज अचानक क्या हो गया कि हम पिछड़
गये ? यह तो हमारे लिये चुनौती का विषय बनना
चाहिये । हमारे ज्ञान, संस्कार और कर्ृत्व से पुनः हमारे
देश को वही स्वाभाविक विश्वगुरु का स्थान प्राप्त होना
चाहिये । विद्वत्ता के, संस्कार के, संस्कृति के मानक
स्थापित करना हमारा काम है। इस काम में हमारा
योगदान नहीं हुआ तो फिर देशभक्ति कहाँ रही ? ज्ञानक्षेत्र,
अर्थक्षेत्र और संस्कृति के क्षेत्र में हम अपने देश के काम
में नहीं आ सके तो यह तो कृतघ्नता ही है । और विदेशी
नागरिकता स्वीकार करने की बात तो तर्क से परे हैं ।
सांस्कृतिक कारणों से हमारे पूर्वज विश्वभर में गये
हैं। विश्व का एक भी देश ऐसा नहीं है जहाँ हमारे ऋषि,
वैज्ञानिक, व्यापारी या कारीगर न गये हों । परन्तु उनका
उद्देश्य उन लोगों का भला करने का था । “कृण्वन्तो
विश्वमार्यम ही उनका सूत्र था। आज भी यदि
विश्वकल्याण की भावना से ही हम विदेशों में जाते हैं या
शुद्ध जिज्ञासा से ही अध्ययन हेतु जाते हैं तो वह प्रशंसा
के पात्र है, परन्तु ऐसी स्थिति है उस विषय में सन्देह ही
है।
३. कृतिशील देशभक्ति तो दूर की बात है, आज तो
कृतिशील देशद्रोह से परावृत्त होने की चिन्ता करने का
समय आया है । जरा इन बातों का विचार करें
हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में क्यों पहना और
USM चाहते है ? हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय क्यों
चलाना चाहते हैं ? अभी भी केन्द्र सरकार अंग्रेजी को
इतना महत्त्व क्यों देती है ? अभी भी उच्च स्तर के
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प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में ही
wat te जमाते हैं ? अभी भी हमें शुद्ध मातृभाषा की तो
चिन्ता नहीं है परन्तु शुद्ध अंग्रेजी की चाह क्यों है ? क्या
हम हीनताबोध से इतने ग्रस्त हो गये हैं कि भाषा के
विषय में स्वस्थतापूर्वक विचार भी न कर सके और
भारतीय भाषा की, मातृभाषा की प्रतिष्ठा न कर सकें ?
इसका एक ही उत्तर है। हमारी शिक्षा ने हमें
स्वतन्त्रता की चाह से युक्त, स्वगौरव की भावना से युक्त
और देशभक्ति का अर्थ समझने वाले बनाया ही नहीं ।
हम देश से भी अधिक अपने आप को मानने लगे हैं
इसलिये हमारी बुद्धि और हमारा कर्तृत्व देश के काम में
नहीं आता ।
देशभक्ति नहीं तो संस्कृति नहीं
ऐसा ही दूसरा विषय हमारी संस्कृति को छोड़ने का
है । हमें संस्कृत नहीं आती । हम अपने देवीदेवताओं की
पूजा करने का अर्थ नहीं जानते । पर्यावरण को हम देवता
नहीं मानते । अन्न, जल और विद्या को हम पवित्र नहीं
मानते । हम अपने शास्त्रों को जानते ही नहीं है तो मानने
का तो प्रश्न ही नहीं है। हम अमेरिका का आधिपत्य
स्वीकार कर चुके हैं। हम सार्वभौम प्रजासत्तात्मक देश
क्या होता है यह समझने का प्रयास नहीं करते । हम
विदेशी वेशभूषा अपना चुके हैं । घरों में डाइनिंग टेबल
आ ही गये हैं। समारोहों में खडे खडे, जूते पहनकर
भोजन करते ही हैं । हम जन्मदिन केक काटकर, मोमबत्ती
बुझाकर मनाने लगे हैं, हम १ जनवरी को नूतनवर्ष मनाते
हैं, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को राष्ट्रीय शक संवत् शुरू होता है
यह हम जानते ही नहीं । ऐसे तो सैंकड़ों उदाहरण दिये जा
सकते हैं ।
हम एक ही सन्तान को जन्म देने की मानसिकता
बना चुके हैं। हम जनसंख्या की समस्या का बहाना
बनाते हैं परन्तु एक ही सन्तान होने की चाह क्यों है और
वह कितनी उचित है इसका विचार नहीं करते ।
भारत चिरंजीवी देश है, विश्व में सबसे अधिक आयु
वाला देश है । यह चिरंजीविता भारत को अपनी परम्परा
BC
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
के कारण प्राप्त हुई है । ज्ञान, संस्कार, कौशल एक पीढ़ी
से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करने की विचारपूर्वक
व्यवस्था करने के कारण परम्परा निर्माण हुई है । परम्परा
दो प्रकार की है। एक है वंशपरंपरा अर्थात् पितापुत्र
परम्परा और दूसरी है गुरुशिष्य परंपरा । एक का केन्द्र घर
है और दूसरी का है विद्यालय । परम्परा निभाना पिता
और शिक्षक का सांस्कृतिक कर्तव्य है । अतः पिता को
अच्छे पुत्र चाहिये और गुरु को अच्छे शिष्य । पिता
परिवार बनाता है और गुरु गुरुकुल । परिवार समृद्ध और
सुसंस्कृत हो इस दृष्टि से एक ही सन्तान अपर्याप्त है ।
एक ही सन्तान से परिवार भी पूरा बनता नहीं और
परिवारभावना का विकास भी होता नहीं । हम बहुत छोटी
आयु से छोटा परिवार सुखी परिवार का सूत्र सिखाकर
अपने परिवार को छोटा बना ही चुके हैं । इससे कितनी
बडी सांस्कृतिक हानि हुई है इसका अनुभव होना प्रारम्भ
हो गया है । अभी भी यह अनुभव पूर्ण रूप से नहीं हुआ
है यह भी सत्य है । इस स्थिति में एक ही सन्तान को
जन्म देना “मूले कुठाराघातः' अर्थात् जडें काटना ही है ।
जाने अनजाने यह देशद्रोह है। इससे बचने की
आवश्यकता है। विद्यालय ने इसकी योजना करनी
चाहिये ।
इस प्रकार ज्ञान, भावना और क्रिया के तीनों
पहलुओं में देशभक्ति सिखाना विद्यालयों का परम कर्तव्य
है।
आज इस विषय की बहुत उपेक्षा हो रही है यह
हम देख ही रहे हैं । पाठ्यपुस्तकों में लिखी हुई प्रतिज्ञा
का तोतारटन्त पाठ तो होता है परन्तु शिक्षा की योजना
उसके अनुकूल नहीं बनती |
आवश्यकता है हमारे जीवन की वरीयताओं को
बदलने की, हमारे व्यवहार को और मानसिकता को
बदलने की, हमारी व्यवस्थाओं को बदलने की ।
विद्यार्थियों को यह सब सिखाना विद्यालयों का ही
काम है । इस दृष्टि से हमारे विद्यालयों की व्यवस्थाओं ,
व्यवहारों और शिक्षाक्रम में आमूल परिवर्तन की
आवश्यकता है ।