शोध एवं अनुसन्धान
शोध एवं अनुसन्धान
भारत में दर्शन की संकल्पना है
समाधि अवस्था में ऋषि को सत्य का दर्शन होता
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है। यह दर्शन परावाणी में अनुदित होता है । परा वाणी
वैखरी तक पहुँचकर सबको सुनाई दे इस प्रकार प्रकट होती
है। उसे मन्त्र कहा जाता है . इसलिये ऋषि की परिभाषा
बताई गई है “कऋष्यय: मन्त्रद्रष्टार: ।'
समाधि अवस्था में ऋषि को दिखाई देता है कि मनुष्य
शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं । यह दर्शन किसी भी
साधन से नहीं होता, आँख नामक साधन से भी नहीं होता ।
नाड़ियाँ स्वयं ऋषि की अन्तःप्रज्ञा में प्रकट होती हैं ।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, “समस्त ज्ञान मनुष्य के
अन्दर स्थित है । उसे केवल अनावृत्त करना होता है ।
अनावरण होते ही वह प्रकट होता है ।'
श्रीमदू भगवदूगीता कहती है, “अज्ञानेनावृत्तं ज्ञान तेन
मुह्यन्ति जन्तव:' अर्थात् “अज्ञान से ज्ञान आवृत्त रहता है
इस कारण से मनुष्य मोहित अर्थात् भ्रमित होते हैं ।'
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इस कारण से भारत के ज्ञानविश्व में शोध या
अनुसन्धान जैसी संकल्पनायें नहीं हैं। यहाँ दर्शन की
संकल्पना है, ज्ञान प्रकट होने की संकल्पना है, ज्ञान का
आविष्कार होने की संकल्पना है ।
दर्शन, प्राकट्य या. आविष्कार बुद्धि का नहीं,
अनुभूति का क्षेत्र है। पश्चिमी ज्ञानक्षेत्र में अनुभूति का
अस्तित्व सर्वथा नकारा तो नहीं जाता तथापि उसकी बहुत
चर्चा नहीं होती । वह बुद्धि के दायरे में नहीं आता है
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इसलिये प्रमाण के रूप में उसका स्वीकार नहीं होता है ।
अनुभूति या Sea या ऋतम्भरा प्रज्ञा आदि के लिये
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अंग्रेजी में एक शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह है
“हन्च' जिसका तात्पर्य होता है “अनुमान' । फिर भी वह
तर्कसंगत अनुमान नहीं है, उससे परे ही है । पर्याप्त अध्ययन
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और अभ्यास के बाद ही यह सम्भव होता है। उसे
“सूझना' भी कहा जा सकता है ।
एक या दो उदाहरणों से यह समझने का प्रयास
करेंगे ।
१, न्यूटन ने सेव के फल को वृक्ष से नीचे गिरते
देखा । उस निमित्त को पकड़कर उसने जो चिन्तन किया
उसकी परिणति के रूप में गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त उसके
अन्तःकरण में प्रकट हुआ । सिद्धान्त जिस प्रकार सृष्टि में
था उसी प्रकार से उसके अन्दर भी था । निमित्त के कारण
वह अनावृत्त हुआ । इसे भारत का दर्शन का सिद्धान्त ही
समझा सकता है, पश्चिम का रिसर्च का सिद्धान्त नहीं ।
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२. गणित का एक सवाल है । नौ इंच चोड़े और
सोलह इंच लम्बे कागज के टुकडे को दो टुकडों में
काटकर, उन टुकडों को पुनः जोड़कर बारह इंच लम्बाई
और चौड़ाई ओ \
और चौड़ाई का वर्गाकार टुकड़ा बनाओ । एक विद्यार्थी ने
इसे निम्नलिखित पद्धति से किया...
(१)
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अर्थात् उसने ३» ४” & gael At gabe ae
नई वर्गाकार रचना बना दी । उसे पूछा गया कि उसने
गणित के कौन से सिद्धान्तों को लागू कर यह उत्तर दिया
है, तो उसे उत्तर देना नहीं आया । यह हन्च था, उसे सूझा
था । उसकी पार्थभूमि में ३, ४, ९, १२, १६ आदि अंकों
के आन्तरसम्बन्ध, गुणा, भाग, वर्ग आदि का बुद्धिगम्यज्ञान
अवश्य था, उसके बिना उसे सूझना सम्भव ही नहीं था,
परन्तु उसका सूझना बुद्धि से परे ही था । वह जब तक
बुद्धि के क्षेत्र में उतरता नहीं तब तक इसकी प्रतिष्ठा नहीं ।
यह प्रतिष्ठा बुद्धि के स्तर तक पहुँचने पर ही होती है।
तात्पर्य यह है कि पाश्चात्य ज्ञानक्षेत्र में अनुभूति जैसा कुछ
होता है, अनुभूति नहीं । ज्ञानप्रक्रिया को अनुभूति के स्तर
तक ले जाने का कोई प्रयास भी नहीं होता । यह भारतीय
और पश्चिमी ज्ञानक्षेत्र का मूल अन्तर है ।
रिसर्च बुद्धि क्षेत्र का कार्य है
आज जिसे शोध अथवा अनुसन्धान कहा जाता है
और जो अंग्रेजी संज्ञा 'रिसर्च' के लिये प्रयुक्त किया जाता
है वह बुद्धि के क्षेत्र का कार्य है जिसमें संकलन, वर्गीकरण,
विश्लेषण, संश्लेषण, निष्कर्ष, अर्थघटन आदि मुख्य हैं ।
बुद्धि जितनी विशाल उतने ही ये कार्य अधिक अच्छी तरह
से होते हैं । विशेष स्थितियों और सन्दर्भों में ज्ञान का
विनियोग कैसे करें यही अनुसन्धान का उद्देश्य रहता है ।
अर्थघटन की मौलिकता अनुसन्धान का मुख्य लक्षण है ।
किसी भी समस्या का सही ढंग से आकलन करना, सही
निदान करना और सही उपाय या उपचार करना अनुसन्धान
का उद्देश्य होता है । पदार्थों, स्थितियों और घटनाओं के
रहस्य को जानना भी अनुसन्धान का उद्देश्य होता है ।
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
वर्तमान समय में ज्ञान का क्षेत्र अर्थ के क्षेत्र के
अधीन हो जाने के कारण सारे उद्योगगृहों में रिसर्च एण्ड
डेवलपमेन्ट विभाग होते हैं जो उनके उत्पादों को अधिक
विक्रयक्षम बनाने हेतु कार्य करते हैं । परन्तु यह ज्ञान
की सारी शक्तियों को बिकाऊ और बाजारू बना देने का
काम है ।
शुद्ध जिज्ञासा से प्रेरित जो अनुसन्धान होता है उसे
तो अध्ययन ही कहना चाहिये ।
वर्तमान समयमें जिसे रिसर्च कहा जाता है उसे
भारतीय ज्ञानक्षेत्र में स्मृति की रचना कहा जाता है । ज्ञान
के सिद्धान्त पक्ष को श्रुति कहा जाता है । श्रुति का मूल
दर्शन में होता है। दर्शन को बुद्धिगम्य बनाकर
सिद्धान्तशास्त्रों की स्चना होती है। सिद्धान्त शास्त्रों के
अनुसरण में व्यवहारशास्त्रों की रचना होती है जिन्हें स्मृति
कहा जाता है । यही वर्तमान समय का अनुसन्धान का क्षेत्र
है । व्यवहारशास््र हमेशा श्रुति की युगानुकूल प्रस्तुति करते
हैं । हर युग को अपने लिये स्मृति की रचना करनी ही होती
है । अतः हर युग में ज्ञानक्षेत्र में अनुसन्धान की अनिवार्य
आवश्यकता होती है । इस व्यावहारिक अनुसन्धान का क्षेत्र
भी बहुत विस्तृत है । हर छोटी या बड़ी बात में शास्त्रीय
आधार के सहित देशकाल, परिस्थिति के अनुसार
प्रस्तुति अत्यन्त कठिन काम है और कुशाग्र बुद्धि की
अपेक्षा करता है ।
विश्वविद्यालयों में एम.फिल., पीएच.डी. तथा
अन्यान्य शोध प्रकल्पों में जो रिसर्च किया जाता है वह
अनुसन्धान नहीं, अनुसन्धान का अभ्यास होता है । सही
रिसर्च को व्यवहारजीवन की - केवल व्यक्तिगत नहीं
अपितु समष्टिगत व्यवहारजीवन की - समस्याओं का
निराकरण प्रस्तुत करने का सामाजिक दायित्व होता है।
दर्शन हो या स्मृतिरचना, ज्ञानक्षेत्र इन्हें अपने दायरे से बाहर
नहीं रख सकता । इस कार्य के लिये पात्रता निर्माण करने
की भी ज्ञानक्षेत्र की ही जिम्मेदारी होती है । शिक्षा को
ज्ञानसाधना मानने वाले विरले ही अनुसन्धान के क्षेत्र में
कार्य कर सकते हैं ।
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पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान