Judicial System (न्याय व्यवस्था)
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न्याय व्यवस्था भारतीय ज्ञान परंपरा में धर्मशास्त्रों के आधार पर स्थिर थी, जिसमें नैतिकता, विधि, कर्तव्य और लोक-कल्याण की भावना विद्यमान थी। न्यायिक प्रशासन राजा के अधीन था, लेकिन निर्णय श्रुति, स्मृति एवं सदाचार के अनुसार किए जाते थे।
परिचय॥ Introduction
प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था में धर्म सर्वोच्च था। राजा भी धर्म के बंधन में बंधा हुआ था और उसका शासन शासकीय नियमों के साथ धार्मिक नियमों के पालन पर आधारित था। धर्मसूत्रों में राजा को धर्म का अंग माना गया है, जो न्याय के अंतिम अधिकारी होते हुए भी उनसे ऊपर नहीं था। राजा को अधिकार था कि वह नियम बनाए, किंतु वह ऐसा नियम नहीं बना सकता था जो धर्म के विरुद्ध हो।
उस समय न्याय विभाग और शासन विभाग पृथक थे। न्यायाधीश पुरोहित, मंत्री, और ज्ञानी व्यक्ति होते थे जिनका न्याय संचालन में स्वतंत्र स्थान था। वे न्यायालय की सभा में अपने निर्णय देते थे, जिसमें समाज के स्वतंत्र सदस्य भी सहभाग करते थे। न्याय प्रक्रिया सरल और निष्पक्ष थी, जिसमें याचिका प्रस्तुत कर वाद न्यायालय में लाया जाता था। न्यायाधीश दोनों पक्षों की प्रस्तुतियां सुनकर विधिपूर्वक फैसला करते थे, किन्तु राजा के समक्ष अदालत में अंतिम निर्णय होता था। इस प्रकार प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था में धर्म के साथ न्याय का अनिवार्य समन्वय रहता था। राजा की सीमित सत्ता के साथ न्यायपालिका स्वतंत्र और नैतिकता पर आधारित होती थी, जो समाज में व्यवस्था और शांति बनाए रखने का कार्य करती थी।[1]
निष्कर्ष
प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था की विशेषता थी उसकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता और व्यवस्थित प्रक्रिया। राजा भी कानून के अधीन होता था और न्यायपालिका स्वतंत्र होती थी। न्यायाधीशों का पदानुक्रम स्पष्ट था और वे केवल नियमों के अनुसार ही निर्णय देते थे। उच्च न्यायालय के पास कनिष्ठ न्यायालय के निर्णय को समीक्षा करने का अधिकार था, जो आज की न्याय प्रक्रिया के समान है।
- समाज की व्यवस्था के लिए 'परिषद' नामक संस्था बनी थी, जहाँ धर्म-संशय के निर्णय होते थे। यह सिद्ध करता है कि प्राचीन भारत में न्याय प्रक्रिया में वैज्ञानिकता, व्यावहारिकता और नैतिकता का संगम था।
- न्याय प्रणाली का उद्देश्य था सत्य का ज्ञान करना और न्याय पूर्वक विवादों का निवारण करना। इसके लिए न्यायालयों की एक विकेंद्रीकृत प्रणाली थी, जिसमें ग्राम, नगर, और राजा के न्यायालय शामिल थे। राजा के निर्णय के बाद कोई पुनः अपील नहीं होती थी।
अतः कहा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था आधुनिक न्यायपालिका की एक आदर्श रूपरेखा प्रस्तुत करती है, जिसमें सामाजिक न्याय, नैतिकता, और नियमों का पालन सर्वोपरि था।
उद्धरण
- ↑ शोधकर्ता- संजय सिंह, प्राचीन भारत में राजकीय न्याय-व्यवस्था, सन २०१३, शोधकेन्द्र- इतिहास विभाग, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी (पृ० ७६)।