Inheritance of Ancestral Property (दायभाग)

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दायभाग (संस्कृतः दायभागः) पिता की उस सम्पत्ति को लिया, जो पिता के जीवनकाल में या उसकी मृत्यु के पश्चात पुत्रों में बांट दी जाती है। अर्थात विभाजित होने वाली वह पैतृक सम्पत्ति जिसका सम्बन्धियों एवं हिस्सेदारों में बंटवारा किया जाता है। संस्कृत वांग्मय के धर्मशास्त्रकारों द्वारा दी गई परिभाषा के आधार पर कहा जा सकता है कि पैतृक सम्पत्ति जो माता-पिता के द्वारा कुल परम्परा से चली आ रही है उसका पुत्रों में बंटवारा दायविभाग कहलाता है। दायभाग के नियमों का मुख्य स्रोत याज्ञवल्क्यस्मृति की मिताक्षरा टीका और जीमूतवाहन की दायभाग से माना जाता है।

परिचय

धर्म का वर्णन करने वाले शास्त्र तथा मन्वादि ऋषियों के द्वारा रचित स्मृति ग्रन्थों का बोध होता है। स्मृतियों में प्रतिपादित नियमों में दायभाग प्रकरण अत्यन्त महत्वपूर्ण है।[1] दायभाग की व्युत्पत्ति और शाब्दिक अर्थ से यह ज्ञात होता है कि दायभाग की पद्धति अति प्राचीन है। इसका उद्भव संयुक्त परिवारों का विघटन होने के कारण हुआ है।[2] याज्ञवल्क्यस्मृति की मिताक्षरा टीका में विज्ञानेश्वर ने सम्पत्ति विभाजन का वर्णन दायभाग प्रकरण में किया है। जिसमें उन्होंने दाय और विभाग दोनों शब्द की अलग-अलग परिभाषा दी है -

यद् धनं स्वामिसंबंधादेव निमित्तादन्यस्य एवं भवति दाय उच्यते। विभागो नाम द्रव्यसमुदायविषयाणामनेकस्वाम्यानां तदकेकदेशेषु व्यवस्थापनम्॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति)[3]

जो धन स्वामी के संबंध निमित्त से ही किसी अन्य व्यक्ति की सम्पत्ति बन जाए दाय होता है और द्रव्य समुदाय आदि विषय जिनके अनेक स्वामी हो और सम्पत्ति विभाजन नियम के अनुसार एक देश में द्रव्यादि की व्यवस्था करवाना विभाग कहलाता है। याज्ञवल्क्यस्मृति की मिताक्षरा टीका में दायभाग के अप्रतिबन्ध और सप्रतिबन्ध दो रूपों का वर्णन प्राप्त होता है -

  1. अप्रतिबन्ध दाय - किसी व्यक्ति को अपने पिता, पितामह और प्रपितामह से बिना किसी बाधा के ही सम्पत्ति प्राप्त होना अप्रतिबन्ध दाय कहलाता है।
  2. सप्रतिबन्ध दाय - कोई व्यक्ति अपने चाचा की सम्पत्ति पाता है या कोई पिता पुत्र की मृत्यु होने से सन्तानहीन हो जाने पर अपनी सम्पत्ति सम्बन्धियों में बांटता है तो वह सप्रतिबन्ध दाय कहलाता है।

अविभाज्य संपत्ति

अविभाज्य सम्पत्ति के विषय में याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि -

पितृद्रव्याविरोधेन यदन्यत्स्वयमर्जितम्। मैत्रमौद्वाहिकं चैव दायादानां न तद् भवेत्॥ क्रमादभ्यागतं द्रव्यं हृतमप्युद्धरेत्तु यः। दायादेभ्यो न तद्दद्याद्विद्यया लब्धमेव च॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति)

माता-पिता के द्रव्य का बिना विनियोग के जो धन स्वयं कमाया गया हो, मित्र से मिला, विवाह में मिले, पितृ परम्परा से प्राप्त धन, जो किसी अन्य ने हरण कर लिया हो उस धन पर स्वामित्व छुडाने वाले व्यक्ति का ही होता है, विद्या से अर्जित इत्यादि धन में दायादों का हिस्सा नहीं होता है। याज्ञवल्क्यस्मृति के इन अविभाज्य सम्पत्ति को मिताक्षरा टीका ने चार भागों में विभक्त किया है -

  1. स्वयमर्जित धन - स्वयमर्जित धन में स्वयं कमाया हुआ धन, मित्र एवं संबंधियों से प्राप्त हुआ उपहार तथा साहसपूर्ण कार्य से प्राप्त सम्पत्ति आती है जिसका अन्य दायादों में विभाजन नहीं किया जाता।
  2. औद्वाहिक धन - विवाह के समय स्त्री के मायके से मिली चल एवं अचल सम्पत्ति को औद्वाहिक धन कहा जाता है। यह व्यक्ति की निजी सम्पत्ति होती है।
  3. क्रमातभ्यागत हृतम् धन - विपत्तियों के कारण कुल-सम्पत्ति नष्ट हो गयी हो और उसे किसी एक सदस्य ने अपने प्रयास से बिना पैतृक सम्पत्ति के उपयोग से पुनर्ग्रहण कर लिया हो तो वह भी अविभाज्य सम्पत्ति कहलाती है।
  4. विद्या धन - चतुर्थ विद्या से अर्जित धन है। विद्या प्राप्ति के पश्चात व्यक्ति अपनी बुद्धि कौशल से जो धन एकत्रित करता है वह विद्या धन कहलाता है। विद्या धन को प्राचीन काल से ही अविभाज्य सम्पत्ति में रखा है। सम्बंधियों में इसका बंटवारा नहीं किया जाता है।

उद्धरण

  1. स्मिता यादव, याज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार दायविभाग के नियम एवं उनकी प्रासंगिकता, सन २०१९, शोधशौर्यम्, इण्टरनेशनल साइंटिफिक रेफ्रीड रिसर्च जर्नल (पृ० ११७)।
  2. दीपक कुमारी, डॉ० दीप लता, संस्कृत वांग्मय में याज्ञवल्क्यस्मृति का दायविभाग में योगदान, सन २०२३, नेशनल जर्नल ऑफ हिन्दी एण्ड संस्कृत रिसर्च (पृ० १११)।
  3. याज्ञवल्क्यस्मृति, दायविभाग प्रकरण, मिताक्षरा टीका (पृष्ठ २५२)।