Kumbha Mela (कुम्भ मेला)
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कुंभ की उत्पत्ति बहुत पुरानी है और उस काल के समय की है जब समुद्र मंथन के समय अमरता को प्रदान करने वाला कलस निकला था, इस कलस के लिए राक्षसों और देवताओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ था।
कुंभ मेला का वैदिक एवं पौराणिक कथाओं में उल्लेख प्राप्त होता आ रहा है। पूर्ण कुंभ, अर्ध कुंभ और महाकुंभ के रूप में मेला का आयोजन होता आ रहा है। कुंभ का शाब्दिक अर्थ घड़ा, सुराही या बर्तन है। यहां कुम्भ से तात्पर्य अमृत कलश से है। वैदिक ग्रन्थों में भी कुंभ शब्द का प्रयोग देखा जाता है। मेला शब्द का अर्थ है समूह में लोगों का एकजुट होकर मिलना या उत्सव मनाना।
परिचय
कुंभ पर्व बारह-बारह वर्ष के अंतर से चार मुख्य तीर्थों में लगनेवाला स्नान-दान आदि का ग्रहयोग है। इसके चार स्थल प्रयाग, हरिद्वार, नासिक-पंचवटी और अवन्तिका (उज्जैन) हैं। कुंभ के इस अवसर पर तीर्थयात्रियों को मुख्य दो लाभ होते हैं - गंगास्नान तथा संतसमागम।[1]
श्राद्धं कुम्भे विमुञ्चन्ति ज्ञेयं पापनिषूदनम्। श्राद्धं तत्राक्षयं प्रोक्तं जप्यहोमतपांसि च॥ (वायु पु० ७७/४७)[2]
भाषार्थ - कुम्भतीर्थ में जाकर लोग श्राद्धादि कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, उस पवित्र तीर्थ को पाप विनाशक समझना चाहिये, वहाँ पर किये गये श्राद्ध को अक्षय फलदायी कहा गया है, इसी प्रकार जप, हवन एवं तपस्या के बारे में भी कहा गया है।[2]
कुंभ के ज्योतिषीय योग
ज्योतिषीय-ग्रन्थोक्त सिद्धान्तों के आलोक में सनातन संस्कृति के अनुसार देवताओं का एक दिन, हमारे सौर-मान से एक वर्ष के तुल्य माना जाता है। सूर्य सिद्धान्त -
मासैर्द्वादशभिर्वर्षं दिव्यं तदह उच्यते।
बारह मासों के द्वारा देवताओं का एक दिन कहा जाता है। इस प्रकार एक दिव्य दिवस एक सांसारिक वर्ष के बराबर होता है। इसीलिये बारह दिन तक चले युद्ध को बारह वर्ष माना जाता है। इस प्रकार प्रत्येक बारहवें वर्ष कुंभ की आवृत्ति होती है। जैसा कि कहा है - [3]
देवानां द्वादशभिर्मासैर्मर्त्यैः द्वादशवत्सरैः। जायन्ते कुंभपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया॥
अर्थात मनुष्यों के बारह वर्षों के द्वारा, देवताओं के बारह दिन सम्पन्न होते हैं, इसलिये 12-12 वर्षों के अन्तराल पर कुंभ पर्व होते हैं। एवं जिस दिन अमृत-कुंभ गिरने वाली राशि पर सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति का संयोग हो, उस समय पृथ्वी पर कुंभ होता है।
प्रयाग में कुंभ
माघ मास की अमावस्या को जब गुरु वृषभ राशि में तथा सूर्य चन्द्रमा मकर राशि में संचरण करते हैं तो प्रयागराज में कुंभ पर्व मनाने की परम्परा है -
मकरे च दिवानाथे वृषराशि गते गुरौ। प्रयागे कुंभ योगि वै माघ मासे विधुक्षये॥ ([4]
नासिक में कुंभ
जिस समय बृहस्पति सिंह राशिपर स्थित हों, उस समय गोदावरीमें केवल एक बार स्नान करनेसे मनुष्य साठ हजार वर्षों तक गंगा-स्नान करने सदृश पुण्य प्राप्त करता है -
षष्टिवर्षसहस्राणि भागीरथ्यवगाहनम्। सकृद् गोदावरीस्नानं सिंहस्थे च बृहस्पतौ॥
ब्रह्मवैवर्त पुराणमें भी लिखा गया है -
अश्वमेधफलं चैव लक्षगोदानजं फलम्। प्राप्नोति स्नानमात्रेण गोदायां सिंहगे गुरौ॥
जिस समय बृहस्पति सिंह राशिपर स्थित हो, उस समय गोदावरीमें केवल स्नानमात्रसे ही मनुष्य अश्वमेध-यज्ञ करनेका तथा एक लक्ष गो-दान करने का पुण्य प्राप्त करता है।
उज्जैन में कुंभ
जिस समय सूर्य मेष राशिपर हो और बृहस्पति सिंह राशिपर हो तो उस समय उज्जैनमें कुंभ-योग होता है -
मेषराशिं गते सूर्ये सिंहराशौ बृहस्पतौ। उज्जयिन्यां भवेत् कुंभः सदा मुक्तिप्रदायकः॥
हरिद्वार में कुंभ
कुंभ राशिमें बृहस्पति हो तथा मेष राशिपर सूर्य हो तो हरिद्वारके कुंभमें स्नान करनेसे मनुष्य पुनर्जन्म से रहित हो जाता है -
कुम्भराशिं गते जीवे तथा मेषे गते रवौ। हरिद्वारे कृतं स्नानं पुनरावृत्तिवर्जनम्॥
अर्धकुंभ एवं महाकुंभ
वृन्दावन - लघु कुंभ
कुंभ मेला का आयोजन चार जगहों पर होता है हरिद्वार, प्रयाग, नासिक, और उज्जैन। किन्तु इन चार स्थानों के अतिरिक्त वृंदावन में भी कुंभ मेला का आयोजन होता है। इसे लघु कुंभ के नाम से जानते हैं। गौडीय संप्रदाय में प्रसिद्ध षड गोस्वामियों में श्री जीव गोस्वामी जी द्वारा विरचित गोपाल चम्पू नामक ग्रन्थके त्रयोदश पूरण में कालिय दमन लीला प्रसंग में वृन्दावन में मनाये जाने वाले कुंभ वर्णन प्राप्त होता है -
वृंदावन के कुंभ का वर्णन मिलता है। समुद्र मंथन के बाद जब अमृत कलश लेकर गरुड जी सबसे पहले वृंदावन आये और कदम के वृक्ष पर बैठे तब अमृत की कुछ बूंदें वृक्ष पर गिर गई थी। इसके अलावा माना जाता है कि, वृंदावन में जिस जगह कुंभ मेला लगता है यहां पहले एक कुंड हुआ करता था। जिसमें कालिया नाम का नाग रहता था। इस नाग के विष से कुंड के आसपास के सभी पेड़ सूख गए और पशु पक्षी मर गए। तब श्री कृष्ण ने इस कुंड में छलांग लगाई जिससे इस कुंड को अमृत तत्व प्राप्त हुआ और तभी से यहां वृंदावन में कुंभ लगने की परंपरा की शुरुआत हुई -
ततश्व साहित्थमित्यमुबाच,'अहो वयस्याः ! पश्यथ अत्रोदक स्तम्भविद्या- कृतावकाश-प्रकाशमान-ह्रदिनी-हृदस्थितस्वसदने कालियाख्यमन्ददन्दशूकस्तिष्ठति। तेन च दुष्ठुनिष्ठघू तया सर्व एवाखर्वविषज्वालया ज्वलिताः पर्यग्देशा दृश्यन्ते। उपर्यव्युत्पतिताः पतत्रिणश्चात्र पतिता इत्यात्मनेत्राभ्यां प्रतीयताम्; येभ्यस्तु प्राणा जगत्त्राणाशनभयतः सद्य एव विप्रतिपद्येत्र स्वयमुत्यतन्तः कदापि न न्यवर्तन्त। सोऽयं पुनर्गरुत्मत्कृतामृतसेक एक एव कालकूटज्वालयापि कृतालम्बः कदम्बः सुललितदलादितया लालसीति। तस्मादस्योपरिग- कोटरपिठरे स्फुटं तदनवद्यममृतमद्यापि विद्यत इति प्रसह्याहमारुह्य पश्यानि। भवन्तस्तु गाः किञ्चिदूरचरतया चारयन्तश्वरन्तु। ॥२१॥ तदेतद्वदन् विगतकदनः कञ्जवदनः कदम्बमधिरुह्य परिकरं समूह्य स्वयं किरण- गणामृतघनाघनः सान्निध्यमात्रनिमितसाधम्यें तस्मिन् कालियहम्यें निर्मलजलक्रीडाकु तुकाय पपात।[5]
भाषार्थ - ग्वालबालों की मृत्यु आजाने से उत्पन्न असहिष्णुता के कारण, श्रीकृष्ण का क्रोध अच्छी प्रकार भड़क उठा है ॥२०॥ तदनन्तर आकार को छिपाते हुए श्रीकृष्ण इस प्रकार बोले कि हे प्रिय मित्रों! तुम सब एक आश्चर्य देखो। यहाँ पर जलस्तम्भन विद्या के द्वारा अवकाश स्थान करके जो यमुना हृद (तालाब) प्रकाश पा रहा है, उस हृद में स्थित अपने घर में कालिय नामक निन्दित दुर्दान्त एक सर्प रहता है। उसने खराब धूत्कार के द्वारा उत्पन्न की जो विशाल विष की ज्वाला, उससे चारों ओर के सभी प्रदेश जलते हुए दिखाई देते हैं। इस तालाब के ऊपर उड़नेवाले पक्षी भी इसी में गिर रहे हैं, इस बात को तुम अपने नेत्रों से ही प्रत्यक्ष कर लो। जिन पक्षियों के प्राणवायु, वायुभोजी कालिय सर्प के भय से शीघ्र ही आपत्ति सी में पड़कर, स्वयं उड़ते हुए कभी भी लौटते नहीं हैं। और यह जो कदम्ब वृक्ष दिखाई दे रहा है, इसका शरीर विष की ज्याला से संयुक्त होकर भी, केवल गरुड़जी के द्वारा अमृत का सेक कर देने से सुन्दर पत्र पल्लवादि सहित अकेला ही अतिशय शोभा पा रहा है। अर्थात् एक कदम्ब को छोड़कर और सभी वृक्ष विष की ज्वाला से भस्म हो गये हैं। अतएव इस कदम्ब की ऊपरवाली खोंतर रूप बटलोई में, वह अनिन्दित अमृत आज भी स्पष्ट विद्यमान है, इसलिये मैं बलपूर्वक इस पर चढ़कर देख लूं। आप सब तो कुछ दूर जाकर गंयाओं को चराते हुए विचरण करें ।॥२१॥ इस प्रकार कहते हुए विकार रहित कमलमुख श्रीकृष्ण कदम्ब पर चढ़कर, फैट कसकर, स्वयं किरण समूह रूप जल से वर्षालु मेघ होकर, अर्थात् मेघ जैसे ऊँची अटारी में प्रवेश करता है, उसी प्रकार अपनी सन्निधिमात्र से समानता को प्राप्त उस कालिय नाग के भवन रूप जलाशय में, निर्मल जल कीड़ारूप कौतुक के लिये कूद पड़े। जहाँ पर उस सर्प के जलाशय में जो जल है, वह सौ धनुष, अर्थात् चार सौ हाथ ऊपर की ओर उठ खड़ा हुआ।
पौराणिक कथाओं में कुंभ
कुंभ एक पर्वका नाम जो हर बारहवें वर्ष पडता है। यह स्नान, दान, श्राद्धादि
कुंभमेला का महत्व
कुंभ स्नान का मुहूर्त
कल्पवास का महत्व
उपसंहार
सूर्य की स्थिति के अनुसार कुंभ पर्व की तिथियां निश्चित होती हैं।[6] मकर के सूर्य में प्रयागराज, मेष के सूर्य में हरिद्वार, तुला के सूर्य में उज्जैन और कर्क के सूर्य में नासिक का कुंभ पर्व पडता है।
उद्धरण
- ↑ डॉ० राजबली पाण्डेय, हिंदू धर्मकोश, सन 2014, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० 190)।
- ↑ 2.0 2.1 रामप्रताप त्रिपाठी, वायुपुराण - हिन्दी अनुवाद सहित, सन 1987, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग (पृ० 692)।
- ↑ महाकुंभ-पर्व, सन 2012, गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० 23)।
- ↑ धर्मकृत्योपयोगि-तिथ्यादिनिर्णयः कुम्भपर्व-निर्णयश्च, सन 1965, संतशरण वेदान्ती, वाराणसी (पृ० 06)।
- ↑ श्री जीवगोस्वामी, श्रीगोपालचम्पूः श्रीकृष्णानन्दिनी टीका सहित, सन २०१६, श्री भक्तिबिबुध बोधायन महाराज, वृन्दावन (पृ० ३०५)।
- ↑ राणाप्रसाद शर्मा, पौराणिक कोश, सन 1971, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी (पृ० 113)।