Gandharvaveda (गान्धर्ववेद)

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गांधर्ववेद सामवेद का उपवेद कहलाता है। भारतीय संगीत शास्त्र के नियमित और अभ्यास आधारित पक्षों को इस उपवेद में संयोजित माना जाता है। यह गीतों के गायन का बुनियादी शास्त्र है जिसके लिए कहा गया है कि –

धातुमातु समायुक्तं गीतमित्युच्यते बुधैः। तत्र नादात्मको धातुर्मातुरक्षर संचयः॥

इस उपवेद को व्यवहार और सिद्धांत दोनों ही पक्षों में समानतः आदर प्राप्त है क्योंकि गीत को भी यंत्रादि के वादन और मुख से गायन के रूप में दो प्रकार का माना गया है।

गीतंच द्विविधं प्रोक्तं यंत्र गात्रविभागतः। यंत्रं स्याद् वेणु वीणादि गात्रन्तु मुखजं मतम्॥

प्राचीन ग्रंथों में संगीत को गायन, वादन एवं नृत्य का समग्र रूप माना है, जो कि शारंगदेव के संगीत रत्नाकर ग्रंथ में दिए गए श्लोक से स्पष्ट है-

गीतं वाद्यं नृत्यं च त्रयं संगीत मुच्यते।

भारतीय परंपरा एवं मान्यता के अनुसार संगीत की उत्पत्ति वेदों के निर्माता ब्रह्मा से मानी गई है। ब्रह्मा द्वारा भगवान शंकर को यह कला प्राप्त हुई। भगवान शिव ने इसको देवि सरस्वती को दिया, जो ज्ञान एवं कला की अधिष्ठात्री देवी कहलाई। नारद ने संगीत कला का ज्ञान देवी सरस्वती से प्राप्त कर स्वर्ग में गंधर्व, किन्नर एवं अप्सराओं को इसकी शिक्षा प्रदान की। यहीं से इस कला का प्रचार पृथ्वी लोक पर ऋषियों द्वारा किया गया।

धर्मार्थं यस्त्यजेत्प्राणान्किं तीर्थैश्च जपैश्च किम्? मुक्तिभागी भवेत् सो वै निरयं नाधिगच्छति॥ ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा स्त्रीणां बालवधेषु च। प्राणत्यागपरो यस्तु स वै मोक्षमवाप्नुयात् ॥

प्रस्तावना

भारतीय संगीत और नाट्य परंपरा के मूल प्रमाण गांधर्वशास्त्र में मिलता है। गांधर्वशास्त्र को उपवेद माना गया है, जैसा कि सीतोपनिषद् में कहा गया है कि वास्तुवेद, धनुर्वेद, गांधर्व और आयुर्वेद इनको उपवेद कहा गया है –

वास्तुवेदो धनुर्वेदो गांधर्वश्च तथा मुने। आयुर्वेदश्च पञ्चैते उपवेदाः प्रकीर्तिताः॥ [1]

संगीत का विशिष्ट स्वरूप बहुत पहले ही सामने आ गया था और उसमें गुरु-शिष्य संबंधों में साधनात्मक रूप में इस शास्त्र का पठन-पाठन और अभ्यास किया जाता था। इस शास्त्र को नादात्मक ब्रह्म की आराधना के आधार के रूप में स्वीकारा गया। भरताचार्य ने इस दिशा में सशक्त पहल की थी और नाट्यशास्त्र के आरंभ में ही इस संबंध में अपनी अवधारणा को प्रतिपादित कर दिया था।

परिभाषा

सामवेदस्य गान्धर्ववेद उपवेदः।

गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगीतमुच्यते। नृत्यं वाद्यानुगं प्रोक्तं वाद्यं गीतानुवृत्ति च॥

संगीत विद्या के अंतर्गत गायन, वादन तथा नृत्य – इन तीन कलाओं का समावेश होता है। व्यवहार में ये तीनों कलाएं अपना अलग-अलग स्थान रखती हैं तथा कुछ अन्य ग्रंथों में इन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।

इस उपवेद में संगीतविद्या, गायन विद्या और संगीत चिकित्सा का वर्णन प्राप्त होता है। सामवेद का एक उपवेद, जो संगीत-शास्त्र कहलाता है। भारतवर्षका एक उपद्वीप जो हिमालय पर माना जाता है। यहांके लोग गान-विद्या विशारद होते थे।

संगीत चिकित्सा

उपवेदों में गांधर्ववेद की प्राधान्यता

भाव विज्ञान एवं गान विद्या

भावातीत ध्यान

सारांश

हमारी भारतीय संस्कृति का मुख्य आधार मुख्यतः धर्म ही है। भारतीय संगीत कला भी अध्यात्म से जुड़ी होने के कारण उसका प्राचीनतम स्वरूप अध्यात्म ही माना गया है। संगीत की उत्पत्ति ओं शब्द से हुई मानी गयी है। वैदिक काल में सामवेद की रचना हुई जीसे संगीत का आधार माना गया है। प्राचीन वेद भारतीय संस्कृति के मूल स्रोत हैं। प्राचीन वेदों तथा उपनिषदों में संगीत और अध्यात्म का उल्लेख मिलता है। संगीत नाद ब्रह्म स्वरूप है तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए एक साधन के रूप में प्रयोग किया जाता रहा था।


[1] ईशादी उपनिषद संग्रह (निर्णय सागर, मुंबई, १९२० ई०) पृष्ठ २९०.