Dharmik Cooperative Systems (धार्मिक सहकार दृष्टि)
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प्रस्तावना
सहकारिता की हर कृति के पीछे काम करनेवाले विचारों के कारण सहकारिता के तीन स्वरूप बनते है। पहला है पाशव विचार पर आधारित सहकारिता। दूसरा विचार है मानव विचार पर आधारित सहकारिता। और तीसरा है दैवी विचारपर आधारित सहकारिता। पाशव विचार पर आधारित सहकारिता में पूर्णत: स्वार्थ की भावना से सहकार किया जाता है। यह सभी जीवों की, फिर वह पशु हो, पक्षी हो, कृमी-कीटक हो या मानव हो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। शरीर की बनावट को छोड दें तो, जन्म के समय मनुष्य और पशु में कोई भेद नहीं होता। किंतु संस्कारित मानव पशु नहीं होता। इसलिये मानव विचार की सहकारिता में, अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्तितक अर्थात् एक मर्यादित सीमातक स्वार्थ का (वह भी दूसरों का छीनकर नहीं) और आगे पूरी तरह आत्मीयता का आधार होता है। दैवी सहकारिता में अपने स्वार्थ का लेषमात्र भी नहीं होता।
संस्कार और शिक्षा ही मानव जाति के अर्भक को मानव बनाते है और आगे देवत्व की ओर ले जाते हैं। मानव जब योग्य संस्कार और शिक्षा प्राप्त कर लेता है उस की प्रवृत्ति में परिवर्तन आता है। इस परिवर्तन की सम्भावनाएँ भी केवल मानव जाति में ही है। अन्य किसी पशु, पक्षी, कृमि-कीटक आदि में नहीं है। संस्कार और शिक्षा से मानव स्वार्थ प्रवृत्ति को छोडकर आत्मीयता की ओर बढता है। मानव बनता है। अच्छे संस्कारों से वह देवत्व पाता है। अपने लिये नहीं, अपनों के लिये जीता है। इसीलिये आत्मीयता की भावना से सहकार करना यह मानवीय और दैवी विचार है। आत्मीयता का व्यवहार जहाँ होता है आत्मीयजनों के या औरों के हित को प्राथमिकता दी जाती है, अपने स्वार्थ से उपर उठकर अपनों के लिये या औरों के लिये कुछ हितकारी करने की भावना ही धार्मिक (भारतीय) दृष्टि में सहकारिता है। यही एकात्म मानव दर्शन का मार्गदर्शन है। यही “मैं नहीं तू ही” की भावना है।
सहकारिता की अति प्राचीन काल की और विशालतम घटना है देवों और दानवों द्वारा साझे प्रयासों से किया गया ‘सागरमंथन’। इस में सज्जन और दुर्जन दोनों ही प्रकार के लोग थे। दानव स्वार्थ-केंद्री थे और देव आत्मीयता-केंद्री थे। सागर में छिपे अनमोल रत्न मंथन के बगैर नहीं मिल सकते, ऐसा विचार देवों के मन में आया। इतना बडा उपक्रम और लाभ देखकर दानव भी आ जुटे। लेकिन दानवों का देवों के प्रति मन का बैर और दुष्ट भावना छुटी नहीं थी। इसलिये मंथन से रत्न निकलते समय, रत्न कौन लेगा इस मुद्देपर झगडे हो गये। देवों के चतुर नेतृत्व ने सभी मौल्यवान रत्न हथिया लिये। अमृत भी हथिया लिया। जब मंथन से विष निकला तो महादेव ने उस विष को भी ग्रहण कर पचा डाला। इन अमूल्य रत्नों को यदि चतुर और आत्मीयतायुक्त देवों ने दानवों के साथ में बाँट लिया होता तो कल्पना नहीं कर सकते, ऐसा अनर्थ पृथ्वी को सहना पडता। इस कथा से कुछ मार्गदर्शक बिंदू उभरकर सामने आते हैं:
- अनमोल रत्न प्राप्त करना हो, अर्थात् मानवमात्र के विशाल हित की बात यदि करनी हो तो इसमें सज्जन और दुर्जन दोनों का सहयोग आवश्यक है। इस हेतु सहकारिता अनिवार्य है।
- सहकार के कारण प्राप्त रत्नों पर अधिकार दैवी गुणसंपदायुक्त अर्थात् आत्मीयता की प्रवृत्ति रखनेवाले लोगों का रहे। इस हेतु आवश्यक चतुराई सज्जन समाज के नेतृत्व के पास होनी चाहिये।
- ऐसे सहकारिता के प्रयत्नों से अमृत ओर लक्ष्मी के साथ ही हलाहल विष भी निकलता है। इस विष को हजम करने की शक्ति भी सज्जन नेतृत्व में होनी चाहिये।
- जब तक ऐसा करने की समझ और शक्ति सज्जन समाज के नेतृत्व में नहीं होगी, सज्जनोंद्वारा परिचालित सहकार के प्रयासों से दुर्जनों को दूर ही रखना होगा। वर्तमान में ‘सहकारी’ विशेषण लगाकर काम करनेवाली लगभग सभी संस्थाएं अपने अपने स्वार्थ साधने के लिये निर्माण की गई हैं। अन्य लोगों के हित के लिये नहीं। फिर वह सहनिवास संस्था हो, सहकारी पतसंस्था हो, सहकारी मच्छीमार संस्था हो या सहकारी शकर कारखाना हो। ये सभी संस्थाएं, अपने अपने स्वार्थ के लिये कुछ लोगों ने एकत्रित आकर चलाए हुए उपक्रम है। इन सभी के पीछे पाश्चात्य 'समाजशास्त्र' की भावना काम कर रही है। सोशल कॉण्ट्रॅक्ट थियरी के आधार पर अर्थात् परस्पर स्वार्थ की पूर्ति के लिये जब लोग एकत्रित होते हैं तो समाज बनता है, इस विचार से प्रेरित यह सभी सहकारिता के नाम से चलने वाले प्रयास हैं।
- जब तक बलवान नहीं बनूंगा मेरा हित नहीं होगा। मैं अकेला अपने स्वार्थ की साधना में बहुत दुर्बल हूं। इसलिये जो मेरे जैसे ही दुर्बल हैं, ऐसे लोगों की मदद से मैं मेरे जैसे अन्य दुर्बलों से बलवान बन जाऊंगा, इस भावना से सहकारिता का आंदोलन आज चलाया जा रहा है। इस का आधार पूर्णत: स्वार्थ भावना अर्थात् पाशव विचार अर्थात् पाश्चात्य समाजशास्त्रीय विचार ही है।
- एकत्रित रूप से पुरुषार्थ करने की भावना गलत नहीं है। किंतु उस के पीछे यदि पाश्चात्य विचार अर्थात् केवल स्वार्थ भावना काम कर रही हो तो समाज का विघटन अवश्यम्भावी है। समाज में विषमता फैलेगी। इस विषमता के लक्षण आज भी स्पष्ट दिखाई दे रहे है। पूरी बात को ठीक से समझने के लिये हमें मूल पाश्चात्य जीवनदृष्टि के आधारभूत विचार को और उस पर आधारित वर्तनसूत्रों को समझना होगा।[1]
पाश्चात्य जीवनदृष्टि
पाश्चात्य जीवनदृष्टि का गहरा प्रभाव आज पूरे विश्व पर है, यह सब जानते है। मै और शेष विश्व ऐसा द्वैत और यह शेष विश्व मेरे उपभोग के लिये बना है, यह है पाश्चात्य मान्यता। यह मान्यता पाश्चात्य जीवनदृष्टि का आधाररूप विचार है। एक ही जीव हो तो झगडे, द्वेष, वैमनस्य, झूठ, मत्सर, शोषण आदि बातें सम्भव नहीं है। किंतु जैसे ही समाज का हर घटक अपने उपभोग के लिये दुनिया बनी है यह समझकर व्यवहार करने लगता है तो झगडे, द्वेष, वैमनस्य, झूठ, मत्सर, शोषण यह सभी बातें होनी ही होनी है। यही आज विश्व भर मे होता दिखाई दे रहा है। समाज जीवन की विभिन्न व्यवस्थाएं भी इसी विचार पर आधारित होने से इस विचार और व्यवहार का पोषण हो रहा है। समस्याएं दिन प्रतिदिन बढती जा रहीं है।
पाश्चात्य वर्तनसूत्र और उन के परिणाम
अब हम इन पाश्चात्य वर्तन सूत्रों के आधार पर इस के परिणामों की चर्चा करेंगे"
- सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट ऍंड एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक.. बलवान ही जियेगा। बलवानों की आवश्यकता के अनुसार ही, दुर्बल कितना और कैसे जियेगा यह बलवान तय करेगा। पाश्चात्य विचार से राजा सर्वशक्तिमान होता है। उस के हित की व्यवस्थाएं ही वह निर्माण करेगा और चलने देगा। जनमत का आक्रोश सीमा से अधिक न बढे इतना राजा देखेगा। आज राजा यह व्यवस्था नहीं है। उस का स्थान प्रजातंत्र ने लिया है। अब प्रजातांत्रिक ढंग से या किसी भी तंत्र से जो चुनाव जीतेगा वह सर्वसत्ताधीश होगा। इस सरकार पर बलवानों का अंकुश रहता है। फिर वह बल धन का हो, सत्ता का हो, माफिया गुंडाशक्ति का हो, चतुराई का हो या एकगठ्ठा मतों का हो। इसलिये अर्थव्यवस्था बलवानों के लिये चलती है। हाल ही में पाश्चात्य जगत पर भीषण आर्थिक संकट आया था। बड़ी बड़ी कंपनियों के लोभ के कारण यह संकट निर्माण हुआ था। किंतु उसका नुकसान किसी बलवान को नहीं सामान्य करदाता को ही भुगतना पडा था। सहकारी संस्थाएं इसी आर्थिक क्षेत्र का एक घटक होने से इस घटिया अर्थशास्त्र के सभी घटिया लक्षण वर्तमान सहकारिता के क्षेत्र में भी दिखाई देते है। इस में सर्वाधिकार उन्हे प्राप्त होते है जो ५१ या अधिक प्रतिशत मतों के स्वामी होते है। वह व्यक्ति हो, इस बात की सम्भावनाएँ बहुत कम होती है। इस बहुमत की अमर्याद सत्ता ही इस सहकारी इकाई में चलती है। सहकारी शकर कारखानों के लिये काम करने वाले दुर्बल मजदूर और किसानों का शोषण सरे आम होता है। इसमें गलाकाट स्पर्धा है। इस में अमीर और गरीबों की बढती खाई है। इस में काले धन के निर्माण और भ्रष्टाचार की अपार सम्भावनाएँ हैं। इस में, मायनार्ड केन्स के कहने के अनुसार लोभ को ही भगवान माना जाता है। और सामान्य मानव का हित शायद कभी कभी गौण उत्पाद के रूप में प्रकट होता है (लेट ग्रीड बी अवर गॉड एन्ड द ह्यूमन वेलफेयर विल कम आऊट ऍज ए बायप्रॉडक्ट - मायनार्ड केन्स)
- फाईट फॉर सर्व्हायव्हल एन्ड फाईट फॉर राईट्स् : जीना है तो संघर्ष करना ही पडेगा। लेकिन प्रत्यक्ष में केवल जीने तक यह संघर्ष नहीं रहता। औरों का जीना दुष्वार करने तक यह आगे बढता है। स्पर्धा सामान्य स्तर की नहीं होती। वह गलाकाट ही होती है। जहाँ एक-दूसरे का गला काटना संभव नहीं होता वहाँ ऐसे दो बलवान इकट्ठे आकर अन्य दुर्बलों का गला काटते है। रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार यह बातें सहकार के क्षेत्र में भी सामान्य हो गईं है।
- फ्रॅगमेंटेड ऍप्रोच ऍंड मटेरियलिस्टिक व्ह्यू. किसी भी बात का विचार करते समय उसे टुकडों में बाँटकर विचार करना। और यह टुकड़े जड़ पदार्थ हैं ऐसी मान्यता है। प्रकृति का और मेरा संबंध, प्रकृति भोगने की वस्तू है और मैं भोगनेवाला हूं, इतना ही है। इसलिये सहकारी तत्व पर चलने वाले उद्योगों और अन्य उद्योगों में प्रकृति प्रदूषण के मामले में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। सभी शकर कारखाने कई किलोमीटर तक दुर्गंध फ़ैलानेवाले केन्द्र बने हुए है। मानवीय और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का शोषण यह भी अन्य उद्योगों जैसा ही सहकारी उद्योगों का स्वभाव बन गया है। 'सहकारी' ऐसा नाम ना लगाते हुए भी ७०-८० वर्ष पहले धनवान लोग धर्मशालाएं बनाते थे। आज धनवान लोग, और धनी बनने के लिये हॉटेल बनाते है। अपंगाश्रम, वृध्दाश्रम, विधवाश्रम, अनाथालय आदि बनाना यह अब सरकार के लिये अनिवार्यता बन गई है।
- अनलिमिटेड इंडिव्हिज्युल लिबर्टी. अर्थात् अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य। लेकिन यह केवल बलवानों के लिये है। दुर्बलों के लिये शर्तें बलवान ही तय करते है। इस तरह बलवान अधिक बलवान और दुर्बल अधिक दुर्बल होते जाते है। मुझे 'स्पेस' चाहिये। ऐसे आग्रह के चलते समाज और कुटुम्ब नष्ट हो रहे है। परस्पर सहकार्य की भावना नष्ट हो रही है।
- धिस इज द ओन्ली लाईफ. अर्थात् मेरे मरने के बाद दुनिया भले डूबे। जो कुछ है बस यही जन्म है। इसलिये प्रकृति को लूट-खसोटकर तथा दुर्बलों का शोषण कर जितना उपभोग मिल सके उतना भोगने की महत्वाकांक्षा अन्य उद्योगपतियों की ही तरह सहकारी क्षेत्र के उद्योगपतियों में भी पाई जाती है। सहकारी क्षेत्र के जाने माने नेता, एक ओर तो मंदिरों में पूजा के फोटो छपवाकर अपनी छवि को धार्मिक बनाने का प्रयास करते है वहीं दूसरी ओर सैंकड़ों/हजारों/लाखों करोड का गबन करते हुए दिखाई देते है।
एकात्म मानव दर्शनपर आधारित, धार्मिक (भारतीय) ' सहकार ' का स्वरूप
स्वार्थ भावना के बिना विश्व के व्यवहार चल ही नहीं सकते। यह वस्तुस्थिति है। इसीलिये 'काम' को हमारे शास्त्रों ने पुरूषार्थ कहा है। काम अर्थात् कामनाओं की पूर्ति करने के लिये किये गये प्रयासों को भी हमारे शास्त्रों की मान्यता है। ऐसे प्रयासों को अर्थ पुरूषार्थ कहा गया है। किंतु व्यक्ति का विचार समाज के और प्रकृति के विचार के बिना अधूरा रहता है। इन तीनों का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है। समाज और सृष्टि के हित के दायरे में काम और अर्थ को रखने के प्रयासों को धर्म कहा गया है। अपनी कामनाओं / इच्छाओं को और उन की पूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखना धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों की दृष्टि से अनिवार्य बात है। मुझे अच्छा खाना मिले। ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है। अच्छा खाना मिलने के लिये प्रयास करना भी गलत नहीं है। किंतु मुझे अच्छा खाना मिले इस हेतु दूसरे का खाना छीनकर खाने को धर्म का विरोध है। मुझे सुंदर पत्नि मिले ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है। उस हेतु धर्मानुकूल प्रयास करना भी मान्य है। किंतु उस हेतु से अन्यों की पत्नियों को बुरी नजर से देखना, उन्हे छल, बल, कपट से पाने के लिये प्रयास करना धर्म को मान्य नहीं है। धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ति तक स्वार्थ स्वीकार्य है। लेकिन अन्यों के हित में जब नि:स्वार्थ भाव से काम करते हैं, सहकार की भावना से काम करते हैं तब वह धार्मिक (भारतीय) सहकार का नमूना होता है।
एकात्म मानव दर्शनपर आधारित वर्तमान में चलनेवाले सहकारिता के उपक्रम
- एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सर्वश्रेष्ठ सहकारिता का उदाहरण एकत्रित धार्मिक (भारतीय) कुटुम्ब है। कौटुम्बिक भावना के आधार पर ही विकसित किये ग्रामकुल और आगे “वसुधैव कुटुंबकम्” व्यवहार में लाने के प्रयास अपने धार्मिक (भारतीय) पूर्वजों ने किये थे। इस प्रकार के उपक्रमों में सहकारिता की शून्य स्तर की भावना रखने वाले नवजात शिशू को संस्कारित और शिक्षित कर धर्मानुकूल इच्छा और प्रयत्न करने की क्षमता रखनेवाला, किंतु साथ ही में औरों के लिये जीने वाला कुटुम्ब घटक निर्माण किया जाता है।
- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या तत्सम संगठनों द्वारा चलाये हुए सेवाकार्य। केवल संघ के कार्यकर्ताओं ने चलाए हुए ऐसे १.५ लाख से अधिक उपक्रम हैं। ये चलाने वाले लोग नि:स्वार्थ भाव से औरों के हित में काम करते हैं। इन उपक्रमों के नामों में 'सहकारी' यह शब्द नहीं है। लेकिन यह सभी उपक्रम एकात्म मानव दर्शन द्वारा मार्गदर्शित धार्मिक (भारतीय) सहकारिता पर आधारित ही हैं। इस में सहकार की भावना शुध्द एकात्मता की है।
- और एक प्रकार के उपक्रम वे है जिन में लोगों ने मिलकर संस्था निर्माण की है जिन में पूर्णत: या अंशत: एकात्मतापर आधारित व्यवहार होता है। वैसे पूर्णत: एकात्मता का व्यवहार करनेवाली संस्था अभी तक लेखक ने न देखी है न सुनी है। लेकिन शायद हो सकती है। कुछ सहकारी बँक धर्मादाय के नामपर समाजसेवी संगठनों को आर्थिक मदद करती हैं। उन बँकों की यह कृति तो एकात्मता से सुसंगत कृति है। लेकिन जब यही बँक २ घंटे में वाहन खरीदीपर कर्जा उपलब्ध कराती है, यह उपभोक्तावाद को बढावा देने और प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग को बढावा देने के कारण धार्मिक (भारतीय) सहकारिता का मार्गदर्शक उदाहरण नहीं रह जाती।
एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सहकारिता के मार्गदर्शक बिंदू
- एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सर्वश्रेष्ठ उपक्रम हमारी धार्मिक (भारतीय) एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था है। इस उपक्रम में जिस शिशू के मन में १०० प्रतिशत केवल अपने लिये सोचने की मानसिकता है, ऐसे शिशू को संस्कारित कर उस के मन में सहकारिता की ज्योत जलाई जाती है। उसे क्रमश: सर्वेषाम् अविरोधेन और आगे सर्वे भवन्तु सुखिन: की दिशा में बढाया जाता है। अपने हित के लिये धर्मानुकूल इच्छा और इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयत्न अनिवार्य है। किंतु इस से आगे केवल एकात्मता की भावना से पुरूषार्थ करना अपेक्षित है।
- एकात्मता पर आधारित पहले स्तर के सहकारी उपक्रम वही हो सकते है जो चराचर के हित में हों।
- दूसरों क्रमांकपर आनेवाले एकात्मतापर आधारित सहकारी उपक्रम वे है जो किसी का अहित नहीं करते।
भारतीय समृद्धि शास्त्र की पुनर्प्रस्तुति की आवश्यकता
सहकारिता के क्षेत्र में काम करने से पहले हमें धार्मिक (भारतीय) दृष्टिकोण से 'समाजशास्त्र' और आगे 'समृद्धिशास्त्र' की प्रस्तुति करनी होगी। इन के अभाव में हम धार्मिक (भारतीय) सहकारिता के तत्व को व्यवहार में नहीं ला सकेंगे। सहकारी उपक्रम यह अर्थ पुरुषार्थ का एक पहलू है। इसलिये समृद्धिशास्त्र के और मानव के शाश्वत विकास के प्राथमिक तत्वों की प्रस्तुति भी एकात्म मानव दर्शन के आधार पर करनी होगी।
अफ्रीका के देश अविकसित माने जाते हैं। कई एशिया के देशों को भी अविकसित माना जाता है। अमरिका शायद सबसे अधिक विकसित देश माना जाता है। योरप के भी काफी देश विकसित माने जाते हैं। किंतु अमरिका और योरप के देशों समेत एक भी ऐसा देश नहीं है जो और अधिक विकास नहीं करना चाहता। और उनके विकास का अर्थ है, और अधिक उपभोग। अधिक और अधिक प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग। इसे ही विकास कहा जाता है। विकास की दर बढाने की होड में हर देश लगा हुआ है। इसी होड के कारण आज विश्वभर के सभी देशों ने पाश्चात्य अर्थशास्त्र का स्वीकार किया है। इसके तीन प्रमुख कारण हैं। एक तो यह कि पश्चिमी देशों की तकनीकी प्रगति के कारण सभी की ऑंखें चौंधिया गयी है। और दूसरा कारण यह है कि भारत को छोड़कर इस पाश्चात्य इकोनोमिक्स से अधिक श्रेष्ठ ऐसा अन्य कोई विकल्प आज विश्व के किसी भी देश के सामने नहीं है। और तीसरा कारण यह भी है कि जिस प्रकार से हिंसक पशु पागल होकर जंगल में आतंक फैलाकर जंगल का जीवन भयप्रद कर देते है, इस विश्व के पर्यावरण में कई बलवान और मदांध देशों का आतंक मचा हुआ है। उस आतंक से जूझने के लिये, उस पर विजय प्राप्त करने के लिये जापान और भारत जैसे देश भी पाश्चात्य अधर्म युद्ध के मार्गपर चल पडे है ।
वास्तव में देखें तो कोई भी देश इस स्पर्धा के कारण सुखी नहीं है। प्रगत देशों के केवल बलशाली लोग हैं, वह इस होड से लाभ पा रहे है। विश्व का हर देश इस विकास की होड में घसीटा जा रहा है। किसी में भी यह हिम्मत नहीं है कि इसका विरोध कर सके। ऐसी स्थिति में एक भिन्न इकोनोमिक्स की प्रस्तुति और व्यवहार यह बहुत ही हिम्मत की बात है। ऐसे इकोनोमिक्स को व्यवहार में लाने की क्षमता भी उस देश के पास होना आवश्यक है। इस दृष्टि से भारत का स्थान अनन्य साधारण है। भारत अपने आप में एक विश्व हैं। हमारे पास संख्यात्मक और गुणात्मक दृष्टि से विश्व की सर्वश्रेष्ठ मानवीय प्रतिभा है और संसाधनों की विपुलता है। विश्व के इतिहास में जब जब ऐसे प्रसंग आये भारत ने ही विश्व को मार्गदर्शन किया है। आज भी विश्व को भारत से यही अपेक्षा है ।
एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सहकारिता के प्रतिमान : दो उदाहरण
योगेश्वर कृषि और मत्स्यगंधा : स्वाध्याय कुटुम्ब के पुरोधा स्वर्गीय श्री पांडुरंग शास्त्री उपाख्य दादा आठवले द्वारा यह दो प्रयोग सफलता से किये गये है। दोनों ही में वर्षभर में गाँव का प्रत्येक कुटुम्ब एक दिन गाँव के लिये देता है। इस परिश्रम से जो उपज या मत्स्य-उत्पादन होता है उस का विनियोग दुर्बल घटकों को सबल बनाने के किया किया जाता है। इस प्रक्रिया के चलते स्वर्गीय दादा ने ऐसे कई गाँव सबल बनाये है। इन गाँवों में कोई दुर्बल नहीं है। यह गाँव अब अन्य गाँवों को मार्गदर्शन कर वहाँ के दुर्बलों को सबल बनाने का प्रयास कर रहे है। इन दोनों उपक्रमों से विशाल पूँजी का निर्माण यह गाँव कर सके हैं।
उपसंहार
कौटुम्बिक भावना से चलाए गये उपक्रम सामने रखकर ही हमें भावी सहकारिता के क्षेत्र की पुनर्रचना करनी होगी। इस बातपर विचार पूर्वक और हिम्मत से प्रयोग करने की आवश्यकता है। ग्रामकुल जैसी व्यवस्थाएं कुछ गाँवों में क्षीण अवस्था में, लेकिन आज भी विद्यमान है। इन व्यवस्थाओं का और पू. दादा आठवलेजी ने किये प्रयोगों का अध्ययन करना होगा। भारतीयता की दृष्टि से ग्रामीण लोग अधिक धार्मिक (भारतीय) है। वर्तमान शिक्षा का असर उनपर उतना नहीं हुआ है जितना शहरी लोगों पर हुआ है। ग्रामीण लोग अभी भी एकात्म मानव दर्शन के विचार से पूर्णत: विलग नहीं हुए है। इसीलिये सहकारिता में हो या अर्थशास्त्र में, परिवर्तन के प्रयोग हमें ग्रामीण क्षेत्र से ही प्रारभ करने होंगे ।
References
- ↑ जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३४, लेखक - दिलीप केलकर
अन्य स्रोत:
वाचनीय साहित्य : योगेश्वर कृषि, लेखक पांडुरंग शास्त्री आठवले