Groundwater (भूगर्भ जल)

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भूगर्भ जल (संस्कृतः उदकार्गल) का तात्पर्य- भूस्तर के नीचे प्रवाहित सभी प्रकार के जल स्रोत से है। वेदों में जल की उपयोगिता और महत्व पर प्रकाश डालते हुये - जल को जीवन, अमृत, भेषज, रोगनाशक एवं आयुर्वर्धक कहा है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में भूगर्भ जल की परिभाषा, जल चिन्हों का वैज्ञानिक प्रतिपादन, वृक्ष तथा बाँबी के लक्षण से जल विचार, तृण शाकादि के द्वारा जल विचार, भू-लक्षण के अनुसार जल विचार, अन्य चिन्हों से जल विचार एवं जल शोधन की विधि के विषय में उल्लेख किया गया है। भूगर्भीय जल अन्वेषण पद्धति का विस्तृत वर्णन है, जिसके द्वारा मानव समाज भूगर्भ जल प्राप्त कर लाभान्वित हो सकता है।[1]

परिचय॥ Introduction

भूगर्भीय जलान्वेषण का विज्ञान सर्वप्रथम वराहमिहिर के द्वारा बृहत्संहिता में प्रतिपादन किया गया है। जल वैज्ञानिक वराहमिहिर ने पृथिवी, समुद्र और अन्तरिक्ष तीनों क्षेत्रों के प्राकृतिक जलचक्र को संतुलित रखने के उद्देश्य से ही भूमिगत जलस्रोतों को खोजने और वहां कुएं, जलाशय आदि निर्माण करने वाली पर्यावरणमित्र जलसंग्रहण विधियों का भूगर्भीय परिस्थितियों के अनुरूप निरूपण किया है।[2] बृहत्संहिता में जल विज्ञान को दकार्गल कहा गया है। वराहमिहिर के अनुसार जिस विद्या से भूमिगत जल का ज्ञान होता है, उस धर्म तथा यश देने वाले ज्ञान को दकार्गल या उदकार्गल कहते हैं -

धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोऽहं दगार्गलं येन जलोपलब्धिः। पुंसां यथाङ्गेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः॥ (बृहत्संहिता)[3]

भारतीय जलविज्ञान का सैद्धांतिक स्वरूप अन्तरिक्षगत मेघविज्ञान और वृष्टिविज्ञान के स्वरूप को जाने समझे बिना अधूरा ही है, मैंने अपने पिछ्ले दो लेखों में अन्तरिक्षगत मेघ विज्ञान, वृष्टि विज्ञान और वर्षा के पूर्वानुमानों से सम्बद्ध भारतीय मानसून विज्ञान के विविध पक्षों पर चर्चा की। अब इस लेख में विशुद्ध भूमिगत जलविज्ञान के बारे में प्राचीन भारतीय जलविज्ञान के महान वराहमिहिर प्रतिपादित भूगर्भीय जलान्वेषण विज्ञान के बारे में विशेष चर्चा की जा रही है।

भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त

जल-स्रोतों का पता लगाना

ज्योतिष शास्त्र के संहिता स्कन्ध में जो क्षेत्र-विभाग बतलाए गए हैं उन क्षेत्रों में विभिन्न लक्षणों के आधार पर जल की स्थिति, शिरा व मात्रा का ज्ञान भी बतलाया गया है। भूमि को हमारे आचार्यों ने प्रायः चार क्षेत्रों में विभक्त कर जल की रीति बतलाई है। जल स्रोतों का पता लगाने के लिये दीमकों के मार्ग का पता लगाना अत्युत्तम साधन है।[4] इसके अतिरिक्त अन्य विधियों का भी वर्णन है -

  • वेतस (वेदमजनूं) के वृक्ष से जल का ज्ञान -
  • जामुन के वृक्ष से जल का ज्ञान
  • गूलर के वृक्ष से जल का ज्ञान
  • बेर के वृक्ष से जल का ज्ञान
  • बहेड़े के वृक्ष से जल का ज्ञान
  • महुए के वृक्ष से जल का ज्ञान
  • कदंब के वृक्ष से जल का ज्ञान
  • ताड़ या नारियल के वृक्ष से जल का ज्ञान

जल विज्ञान का लक्षण व स्वरूप

अमरकोष के अनुसार आप, अंभ, वारि, तोय, सलिल, जल, अमृत, जीवन, पेय, पानी, उदक इत्यादि जल के ही पर्यायवाची शब्द हैं। वराहमिहिर ने जल विज्ञान को उदकार्गल कहा है। उदक जल को कहते हैं, अर्गला जल के ऊपर आई हुई रुकावट को कहते हैं। वराहमिहिर के ही शब्दों में जिस विद्या से भूमिगत जल का ज्ञान होता है उस धर्म और यश को देने वाले ज्ञान को उदकार्गल कहते हैं -

धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोsहं दकार्गल येन जलोपलब्धिः। पुंसां यथांग्रेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः॥ (बृहत्संहिता)[5]

जिस तरह मनुष्यों के अंग में नाडियाँ है उसी तरह भूमि में ऊँची नीची जल की शिरायें (धारायें) बहती हैं। आकाश से केवल एक स्वाद वाला जल पृथ्वी पर गिरता है। किन्तु वही जल पृथ्वी की विशेषता से तत्तत्स्थान में अनेक प्रकार के रस और स्वाद वाला हो जाता है। भूमि के वर्ण और रस के समान, जल का रस और वर्ण और रस व स्वाद का परीक्षण करना चाहिए।

सारांश॥ Summary

आचार्य वराहमिहिर के ग्रन्थ बृहत्संहिता में वास्तुविद्या में जिस विद्या के ज्ञान से भूमिगत जल का ज्ञान किया जाए उस ज्ञान को दकार्गल कहा गया है। बृहत्संहिता के ५४वें अध्याय में कुल १२५ श्लोकों में इसका विस्तार से वर्णन है।[6] संसार के छ्ह रस अर्थात मधुर अम्ल लवण कटु कषाय और तिक्त रसों का निर्माण इसी जल से विभिन्न रूपों में हुआ है। ये जल हमारे दोषों को दूर करते हैं तथा शरीर के मलों को नष्ट करते हैं। अथर्ववेद में नौ प्रकार के जलों का वर्णन हैं -

  • परिचरा आपः - नगरों आदि के निकट प्राकृतिक झरनों से बहने वाला जल परिचरा आपः कहलाता है।
  • हेमवती आपः - हिमयुक्त पर्वतों से बहने वाला जल हेमवती आपः है।
  • उत्स्या आपः - स्रोत का जल उत्स्या आपः है।
  • सनिष्यदा आपः - तीव्र गति से बहने वाला जल सनिष्यदा है।
  • वर्ष्या आपः - वर्षा से उत्पन्न जल वर्ष्या है।
  • धन्वन्या आपः - मरुभूमि का जल धन्वन्या है।
  • अनूप्या आपः - अनूप देशज जल अर्थात जहाँ दलदल हो एवं वात-कफ को अधिक होते हों, उस देश में प्राप्त होने वाला जल अनूप्या है।
  • कुम्भेभिरावृता आपः - घडों में रखा हुआ जल कुम्भेभिरावृता जल है।
  • अनभ्रयः आपः - फावडे आदि से खोदकर निकाला गया जल अनभ्रयः आपः है।

वेदों में जल की महत्ता के अनेक मंत्र प्राप्त होते हैं जिनमें कहा है - जल निश्चय ही भेषज रूप है जल रोगों को दूर करने वाले [7]

उद्धरण॥ References

  1. डॉ० मोहन चंद तिवारी, वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त, सन् २०१४, हिमांतर ई-मैगज़ीन (पृ० १)।
  2. निर्भय कुमार पाण्डेय, दकार्गलादि विचार, सन् २०२३, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २१२)।
  3. बलदेवप्रसाद मिश्र, बृहत्संहिता अनुवाद सहित, सन् १९५४, लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर प्रेस, मुंबई (पृ० ५४)।
  4. डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वेदों में विज्ञान, सन् २०००, विश्वभारती अनुसंधान परिषद, भदोही (पृ० ३११)।
  5. डॉ० जितेन्द्र व्यास, जल विज्ञान व वनस्पति विज्ञानः प्राकृतिक संसाधन शास्त्र की ज्योतिषीय प्रासंगिकता, सन् २०२२, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ अप्लाईड रिसर्च (पृ० १३४)।
  6. धर्मायण- जल विमर्श विशेषांक, आचार्या कीर्ति शर्मा- ज्योतिष में भूगर्भीय जल का ज्ञान, सन- २०२१, महावीर मन्दिर, पटना (पृ० ८८)।
  7. समीर व्यास, वैदिक काल में भू-जलविज्ञान एवं जल गुणवत्ता, सन् २०१९, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की (पृ० ४३७)।