Mandala Siddhanta (मण्डल सिद्धांत)

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मण्डल सिद्धान्त प्राचीन भारतीय राज्यव्यवस्था का महत्वपूर्ण विचार है। अन्तर्राज्यीय सम्बन्धों पर आधारित यह वह सिद्धान्त है जो एक राज्य को उसकी भौगोलिक स्थिति के आधार पर विजिगीषु राज्य का मित्र अथवा शत्रु बनाता है। मण्डल सिद्धान्त का उद्भव कहाँ से हुआ उस विषय में ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। वैदिक वांग्मय में मण्डल सिद्धान्त का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। मनुस्मृति महाभारत और अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने इस सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन किया गया है।

परिचय॥ Introduction

कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में मण्डल सिद्धान्त का विशेष वर्णन किया है। अर्थशास्त्र के छठे अधिकरण के दूसरे अध्याय में मंडल सिद्धान्त का वर्णन किया है। मंडल का अर्थ है - राज्यों का वृत्त। मण्डल सिद्धान्त 12 राज्यों के वृत्र पर आधारित है। इसके केन्द्र में एक ऐसा राज्य जो अपने पडोसी राज्यों को अपने राज्य में मिला लेने के लिए सदैव तत्पर रहता है। इसमें कुल मिलाकर 12 राज्य होते हैं - विजिगीषु, अरि, मित्र, अरिमित्र, मित्र-मित्र, अरि मित्र-मित्र, पार्ष्णिग्राह, आक्रन्द, पार्ष्णिग्रहासार, आक्रन्दासार, माध्यमा और उदासीन। आचार्य कौटिल्य ने राज्यों के पारस्परिक व्यवहार के संबंधों का स्वरूप निर्धारित करते हुए दो सिद्धान्तों का विवेचन किया है -[1]

  1. पडोसी राज्यों के साथ संबंध स्थापित करने के लिये मण्डल सिद्धान्त
  2. अन्य राज्यों के साथ व्यवहार निश्चित करने के लिए षाड्गुण्य नीति

कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित मण्डल सिद्धान्त को निम्न चित्र के माध्यम से समझा जा सकता है -

मण्डल सिद्धान्त

क्रं

सा

पा

र्ष्णि

ग्रा

सा

क्रं

पा

र्ष्णि

ग्रा

मध्यम मि

त्र

रि

मि

त्र

उदासीन
वि

जि

गी

षु

रि

मित्रमित्र अरि

मित्र

मित्र

कौटिल्य ने बारह राज्यों को चार मण्डलों में बाँटा है -

प्रथम मण्डल - इसमें स्वयं विजिगीषु, उसका मित्र, उसके मित्र का मित्र शामिल है।

द्वितीय मण्डल - इस मंडल विजिगीषु का शत्रु शामिल होता है, साथ ही विजिगीषु के शत्रु का मित्र और शत्रु के मित्र का मित्र सम्मिलित किया जाता है।

तृतीय मण्डल - इस मण्डल में मध्यम, उसका मित्र एवं उसके मित्र का मित्र शामिल किया जाता है।

चतुर्थ मण्डल - इस मण्डल में उदासीन, उसका मित्र और उसके मित्र का मित्र शामिल किया जाता है।

मण्डल सिद्धान्त के आधार पर कौटिल्य ने इस बात की ओर निर्देशित किया है कि कौन से राज्य मित्र हो सकते हैं और कौन से राज्य शत्रु। अतः राजा को अपनी नीतियों का निर्धारण इन तथ्यों को ध्यान में रखकर करना चाहिये या बनाना चाहिये। [2]

मंडल सिद्धान्त की अवधारणा॥ Mandal Siddhant ki Avadharana

मंडल एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है वृत्त। भारतीयों ने ब्रह्मांड को आवश्यक रूप में प्रस्तुत करने के लिए चित्रात्मक विशेषताओं को बताया है। मंडल दुनिया को ज्यामिति के संदर्भ में प्रोजेक्ट करता है। कौटिल्य ने एक राजनीतिक ज्यामिति विकसित करने के लिए मंडल के आकार का उपयोग किया जो विभिन्न राजनीतिक वास्तविकताओं के लिए जिम्मेदार है।

परराष्ट्र नीति - मण्डल सिद्धांत एवं षाड्गुण्य नीति॥ Pararashtra Niti - Mandala Siddhanta evam Shadgunya Niti

परराष्ट्र नीति प्रत्येक राज्य की अनिवार्य आवश्यकता है, जिसके बिना राज्य अपना अस्तित्व लम्बे समय तक कायम नहीं कर सकता क्योंकि दूसरे राज्यों के साथ सम्बन्धों से वह अपने अनेक हितों की पूर्ति करता है। इसीलिये परराष्ट्र नीति में यह कहा जाता है कि इसमें किसी राज्य का स्थाई शत्रु या स्थाई मित्र नहीं होता। राज्य का आन्तरिक दृष्टि के साथ-साथ बाहरी दृष्टि से शक्ति सम्पन्न होना बहुत आवश्यक है। इसके लिये राज्य को अपने मित्र राज्य सहित अन्य राज्यों के साथ संबंध सुधारने का प्रयास करना चाहिये। राजा अपनी कूटनीति का इस तरह से कार्यान्वयन करे कि शत्रु राजा भी बिना युद्ध किये उसके प्रभुत्व को स्वीकार कर ले और मित्र राजा भी उसके साथ प्रगाढता स्थापित करने का प्रयास करने लगे। मनु ने परराष्ट्र संबंधों पर विचार करते हुए दो प्रमुख सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। ये सिद्धान्त हैं -

  1. मण्डल सिद्धान्त
  2. षाड्गुण्य नीति

मण्डल सिद्धांत॥ Mandala Siddhanta

राजा को महत्वाकांक्षी होना चाहिये तथा उसे अपने राज्य के विस्तार हेतु हर संभव प्रयास करना चाहिये। इस दृष्टि से राजा को मण्डल सिद्धान्त के आधार पर दूसरे राज्यों के साथ संबंध स्थापित करने चाहिये। मण्डल सिद्धान्त का केन्द्र बिन्दू विजिगीषु राजा (विजय प्राप्ति की इच्छा रखने वाला राजा) होता है। विजिगीषु राजा को केन्द्र मानते हुये बारह राज्यों के मण्डल सिद्धान्त की रचना की गई है।

षाड्गुण्य नीति॥ Shadgunya Niti

मण्डल सिद्धान्त के माध्यम से सुनिश्चित हो जाता है कि कौनसा राज्य उसके प्रति किस प्रकार का दृष्टिकोण रखता है? उसके पश्चात राज्य हितों में वृद्धि करने के लिए षाड्गुण्य नीतिका प्रयोग करना चाहिये। षाड्गुण्य नीति का आशय है, छः लक्षणों वाली नीति। इसके अन्तर्गत यह बतलाया गया है कि राज्य द्वारा अलग-अलग परिस्थितियों मेम दूसरे राज्यों के प्रति किस प्रकार की नीति अपनानी जानी चाहिये। षाड्गुण्य नीति वैदेशिक सम्बन्धों के क्षेत्र में विवेक सम्मत विकल्पों का विवेचन प्रस्तुत करती है।

मण्डल सिद्धांत का विश्लेषण॥ Mandal siddhant ka Vishleshan

मनु ने भी इसी बातपर बल दिया है कि राजा को महत्त्वाकांक्षी होना चाहिए तथा उसे अपने राज्य के विस्तार हेतु हर संभव प्रयास करना चाहिये। इस दृष्टि से राजा को मण्डल सिद्धान्त के आधार पर दूसरे राज्यों के साथ संबंध स्थापित करने चाहिए। मण्डल सिद्धान्त का केन्द्र बिन्दू विजिगीषु राजा (विजय प्राप्ति की इच्छा रखने वाला राजा) होता है। विजिगीषु राजा को केन्द्र मानते हुए 12 राज्यों के मण्डल सिद्धान्त की रचना की गई है। जिससे यह बताया गया है कि विजिगीषु राज्य की सीमा के आधार पर स्थित राज्यों स्थिति एवं सामर्थ्य के अनुसार उनके साथ नीति का संचालन करना चाहिए। यदि कोई इसकी अनदेखी करता है तो उसे सम्भावित दुष्परिणामों को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। मण्डल शब्द का अर्थ है चक्र या घेरा। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सन्दर्भ में इसका अर्थ है राजमण्डल अर्थात राजा या राज्यों का चक्र या घेरा।

बारह राज्यों का वृत्त॥ Circle of Twelve States

विजिगीषु - अपने राज्य के विस्तार की आकांक्षा रखने वाला राजा विजिगीषु कहलाता है। इसका स्थान मंडल के बीच में होता है।

अरि - विजिगीषु के सामने की ओर उसके साथ लगा हुआ राज्य उसका शत्रु होता है। इसलिए वह अरि कहलाता है।

मित्र - अरि के सामने का राज्य मित्र कहलाता है, जो विजिगीषु का मित्र और अरि का शत्रु होता है।

अरिमित्र - मित्र के सामने वाला राज्य अरिमित्र कहलाता है। क्योंकि वह अरि का मित्र होता है और इसलिए विजिगीषु के साथ भी उसे मित्रता होती है।

मित्र-मित्र - अरिमित्र के सामने वाला राज्य मित्र-मित्र कहलाता है, वह मित्र राज्य का मित्र होता है और इसलिए विजिगीषु के साथ भी उसे मित्रता होती है।

अरिमित्र-मित्र - मित्र-मित्र सामने वाला राज्य अरिमित्र-मित्र कहलाता है। क्योंकि, वह अरिमित्र राज्य का मित्र होता है और इसलिए अरि राज्य के साथ भी उसका संबंध मैत्रीपूर्ण होता है।

पार्ष्णिग्राह - विजिगीषु के पीछे जो राज्य रहता है, वह पार्ष्णिग्राह कहलाता है। अरि की तरह विजिगीषु का शत्रु ही होता है।

आक्रांद - पार्ष्णिग्राह के पीछे जो राज्य होता है, उसे आक्रंद कहा जाता है। वह विजिगीषु का मित्र होता है।

पार्ष्णिग्राहासार - आक्रंद के पीछे वाला राज्य पार्ष्णिग्राहासार कहलाता है और यह पार्ष्णिग्राह का मित्र होता है।

आक्रंदासार - पार्ष्णिग्राहासार के पीछे वाला राज्य आक्रंदासार कहलाता है और यह आक्रंद का मित्र होता है।

मध्यम - मध्यम ऐसा राज्य है, जिसका प्रदेश विजिगीषु और अरि राज्य दोनों की सीमा से लगा हुआ रहता है। वह विजिगीषु और अरि दोनों से अधिक शक्तिशाली होता है। वह दोनों की सहायता भी करता है और आवश्यकता पडने पर दोनों का अलग-अलग मुकाबला भी करता है।

उदासीन - उदासीन राजा का प्रदेश विजिगीषु, अरि और मध्यम इन तीनों राज्यों की सीमाओं से परे होता है। यह बहुत शक्तिशाली राज्य होता है। उपर्युक्त तीनों के परस्पर मिले होने की दशा में वह उनकी सहायता कर सकता है, उनके परस्पर न मिले होने की दशा में वह प्रत्येक का मुकाबला भी कर सकता है।

इस प्रकार कौटिल्य कहता है कि राजा को राज्य की दृष्टि और स्थिति को ध्यान में रखकर नीति का निर्धारण करना चाहिए, ऐसा करने से राज्य के हितों में उत्तरोत्तर वृद्धि हो सकती है और राज्य एक शक्ति के रूप में उभरकर अपनी पहचान कायम कर सकता है।

मत्स्य न्याय एवं मण्डल सिद्धान्त॥ Matsya Nyaya evam Mandal siddhanta

प्राचीन राजनैतिक प्रणाली में मत्स्य न्याय का सिद्धान्त अपनाया जाता था। अर्थात जिस प्रकार छोटी मछली बडी मछली को खा जाती है, उसी प्रकार बडे राज्य भी छोटे राज्यों का दमन करते थे। इस स्वाभाविक स्थिति से मुक्ति हेतु एक राज्य दूसरे राज्य की सहायता करता था अर्थात वे आपस में मित्रवत संबंध रखते थे। इसी सिद्धान्त को मण्डल सिद्धान्त नाम दिया गया। यह सिद्धान्त राज्यों में शक्ति संतुलन का कार्य करता था, जिसमें आवश्यकता पडने पर एक राज्य अपने मित्र राज्य की सहायता करता था इसी कारण कहीं-कहीं मित्र के लिए सुबद्ध शब्द का प्रयोग किया है।

मण्डल सिद्धान्त का वर्तमान परिदृश्य में महत्व॥ Importance of Mandal Theory in the present scenario

  • राज्य के सुरक्षा सम्बन्धी निर्णय निर्माण में
  • विदेश नीति के निर्धारण में
  • अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की प्रगाढता सुनिश्चित करने में

कौटिल्य ने अन्तर्राज्यीय सम्बन्धों के निर्धारण हेतु मण्डल सिद्धान्त का प्रतिपादन अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र में किया है। इस सिद्धान्त के अनुरूप राजा का लक्ष्य राज्य की सुरक्षा के साथ उनका विस्तार भी है। फलतः कौटिल्य एक आक्रामक और विस्तारवादी विदेशनीति का प्रतिपादन करते हैं।[3] कौटिल्य ने विदेश नीति के छह मार्गदर्शक सिद्धान्तों को नीचे सूचीबद्ध किया है -

  • एक राजा विजय के अभियान को शुरू करने के लिए अपने राज्य के संसाधनों और शक्ति में वृद्धि करेगा।
  • शत्रुओं का सफाया होगा।
  • सहयोगियों को बढावा।
  • विवेकपूर्ण कार्रवाई को अपनाना।
  • युद्ध के मुकाबला शांति को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
  • राजा को जीत और हार दोनों में समान व्यवहार करना चाहिए।

मंडल सिद्धान्त का केंद्रीय आधार एक राज्य की स्थिति को दुश्मन या सहयोगी के रूप में राज्य के स्थान के संबंध में स्थापित करने में निहित है। कौटिल्य विजिगीषु (विजेता या महत्वाकांक्षी राजा) को मंडल सिद्धान्त के संदर्भ बिंदु के रूप में मानते हैं और चार बुनियादी वृत्तों की वकालत करते हैं।

मंडल सिद्धान्त का महत्व॥ Importance of Mandal Theory

कौटिल्य के मंडल सिद्धान्त का कोई महत्व नहीं है। वस्तुतः यदि मंडल सिद्धान्त का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में करें, तो कौटिल्य के मंडल सिद्धान्त की सार्थकता सिद्ध होगी।

राज्य की परराष्ट्र नीति अथवा मण्डल सिद्धान्त॥ Rajya ki pararashtra Niti Athava Mandal Siddhanta

कौटिल्य ने अन्तर्राज्य सम्बन्धों को अत्यधिक महत्व प्रदान किया है। कौटिल्य के अनुसार राज्य की सुरक्षा तथा प्रजा का सुख तभी संभव है जबकि राज्य दूसरे राज्यों से इस प्रकार सम्बन्ध निर्धारित करे कि या तो किसी प्रकार के आक्रमण की आशंका ही न रहे तथा यदि राज्य को युद्ध में उलझना ही पडे तो उसकी सुरक्षा को किसी प्रकार की जाँच न आए।

मंडल सिद्धान्त एवं वर्तमान अन्तरराष्ट्रीय राजनीति॥ Mandal theory and current international politics

कौटिल्य द्वारा प्रस्तुत मंडल सिद्धान्त न केवल उस समय के राजाओं के लिए तैयार किया गया था अपितु इस सिद्धान्त का आज भी महत्त्व बना हुआ है। वर्तमान एक ध्रुवीय विश्व राजनीति में संयुक्त राज्य अमरीका का वर्चस्व देखा जा सकता है, जिसकी कल्पना हम कौटिल्य के विजिगीषु राज्य से कर सकते हैं, जो अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र अपना उत्तरोत्तर प्रभाव बढा रहा है।

निष्कर्ष॥ Summary

भारतीय राजनीतिक चिन्तन में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है - मण्डल सिद्धान्त। इसका सार यह है कि हर देश को विश्व की राजनीति में सावधानी से रहना चाहिये। अनेक देश विस्तारवादी नीति पर चलकर अन्य देशों को हडप लेने का प्रयास करते हैं। प्रत्येक जागरूप देश को पास व दूर के हर देश पर नजर रखनी चाहिये और अपने हर शत्रु का मुकाबला करने के लिये अपने मित्र देशों को पहले से ही तैयार रखना चाहिये। इसके लिये उसे अरि, विजिगीषु, मध्यम व उदासीन - इन चारों की गतिविधि पर ध्यान देना चाहिये।[4]

मंडल सिद्धान्त कौटिल्य की विदेश-नीति संबंधी सूझ-बूझ और व्यावहारिक राजनीति में उसकी दक्षता तथा दूरदर्शिता का परिचायक है। मंडल-सिद्धान्त अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के मूलभूत सिद्धान्तों और वास्तविक तथ्यों तथा घटनाओं पर आधारित है। कौटिल्य का मंडल-सिद्धान्त आज भी विदेश नीति का स्थायी प्रकाश स्तम्भ है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र कूटनीति और रणनीतिक अध्ययन में एक अग्रणी कृति है। अंतर्राष्ट्रीय संबंध में उनके योगदान पर वांछित ध्यान नहीं दिया गया है। कौटिल्य ने विदेश नीति के संचालन में एक राज्य के भूगोल और आर्थिक नींव को महत्व दिया।

उद्धरण॥ References

  1. डॉ० नरेश कुमार, प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतक "मनु", महात्मा ज्योतिबा फुले रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली (पृ० 8)।
  2. डॉ० जितेन्द्र बहादुर सिंह, वैश्विक समस्या के रूप में आतंकवादः विश्लेषणात्मक अध्ययन, सन- अप्रैल 2013, शोध पत्रिका-इंटरनेशनल जर्नल ऑफ ह्यूमैनिटीज एंड सोशल साइंस इन्वेंशन (पृ० 62)।
  3. सचिन कुमार वर्मा, वर्तमान परिदृश्य में कौटिल्य के मण्डल सिद्धांत की प्रासंगिकताः एक मूल्यांकन, सन- मार्च 2022 विशेषांक, पत्रिका-संगम, विश्व गुरू भारत-चाणक्य (पृ० 51)।
  4. कौशल पंवार, अन्तर्राष्ट्र्रीय राजनीति के सिद्धान्त मण्डल व षड्गुण, सन् 2023, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० 12)।