Mundaka Upanishad (मुण्डक उपनिषद्)
यह उपनिषद् अथर्ववेदकी शौनक शाखामें है। 'मुण्डक' शब्द से तात्पर्य मुंडा हुआ सिर है। इस उपनिषद् के उपदेश मुंडे हुए सिर के समान आत्मा के ऊपर पडे अज्ञानता के पर्दे को हटा देते हैं। इस उपनिषद् में तीन अध्याय हैं जो दो खण्डों में विभाजित होते हैं, एवं मुण्डकोपनिषद् में लगभग साठ मन्त्र (श्लोक) हैं।
परिचय
मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेदके मन्त्रभागके अन्तर्गत है। इसमें तीन मुण्डक हैं और एक-एक मुण्डकके दो-दो खण्ड हैं। उपनिषद् के प्रारंभ में ग्रन्थोक्त विद्याकी आचार्यपरम्परा दी गयी है। वहाँ बताया है कि यह विद्या ब्रह्माजी से अथर्वाको प्राप्त हुई और अथर्वासे क्रमशः अंगी और भारद्वाजके द्वारा अंगिराको प्राप्त हुई। उन अंगिरा मुनिके पास महागृहस्थ शौनकने विधिवत् आकर पूछा कि भगवन् ! ऐसी कौन-सी वस्तु है जिस एकके जान लेनेपर सब कुछ जान लिया जाता है? महर्षि शौनकका यह प्रश्न प्राणिमात्रके लिये बडा कुतूहलजनक है ? क्योंकि सभी जीव अधिक से अधिक वस्तुओंका ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं।
मुण्डक उपनिषद् शान्ति पाठ
वर्ण्यविषय
- परा - अपरा विद्या
- ब्रह्माण्ड का कारण
- कार्य-कारण सिद्धांत
- ब्रह्म एवं आत्मा की प्रकृति
- जीव तथा ब्रह्म की तादात्म्यता
- ब्रह्म एवं आत्मानुभूति के साधन
सारांश
मुण्डकोपनिषद् में गुरु अंगिरस ने तपस्वी शौनक को ऐसा ज्ञान, जिसे जानने के पश्चात् कुछ भी जानने को शेष नहीं रहता है, उसके ज्ञान का उपदेश दिया है।
- प्रथम अध्याय - में उपदेशों की महानता तथा प्रथम खण्ड में उपदेशों का निम्न ज्ञान, मुण्डन तथा लौकिक क्रियाओं की व्याख्या की गई है।
- दूसरा अध्याय - अध्याय में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के कारण के रूप में ब्रह्म को स्थापित करने तथा जीव एवं जगत् के कार्य-कारण सिध्दांत से संबंधित है।
- तीसरा अध्याय - आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के साधनों तथा माध्यमों और मोक्ष के लिये आत्म-ज्ञान के महत्व पर चर्चा करता है।