Dharmik Approach on Languages (धार्मिक भाषा दृष्टि)
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प्रस्तावना
वर्तमान में भारत में दर्जनों भाषाएँ बोली जातीं हैं। ऐसा कहते हैं कि ५ कोस पर पानी और दस कोस पर बानी (वाणी) बदल जाती है। इस तरह बोली भाषाएं तो शायद हजारों की संख्या में होंगी। भाषाओं की अनेकता और विविधता के कारण संपर्क भाषा की समस्या भी बहुत जटिल हो गयी है। भाषाओं के अनुसार प्रान्तों के निर्माण के कारण कुछ सुविधा तो हुई, लेकिन इस के साथ ही भाषिक अस्मिताओं के झगड़े भी आरम्भ हो गए हैं। राष्ट्रीयता की भावना की कमी के कारण ये भाषिक अस्मिताएँ दो पड़ोसी प्रान्तों को एक दूसरे को शत्रु के रूप में खडा कर रहीं हैं। इस सन्दर्भ में धार्मिक (भारतीय) भाषा दृष्टि की समझ और क्रियान्वयन महत्वपूर्ण है। आगे हम अब भाषा के विषय में दो तरह से धार्मिक (भारतीय) दृष्टि का विचार करेंगे। पहला है दीर्घकालीन और दूसरा है वर्तमानकालीन परिस्थितियों से सम्बंधित।[1]
भाषा विकास
किसी भी समाज की भाषा के विकास में निम्न बातें महत्वपूर्ण होती है:
- भाषा का संबंध भावनाओं और विचारों की परस्पर अभिव्यक्ति और आकलन से है। समाज घटकों द्वारा अपनी भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति के लिये भाषा का विकास होता है।
- अधिक बुद्धिशील समाज अधिक विकसित होता है। अतः अधिक बुद्धिशील समाज की भाषा अधिक विकसित होती है। अधिक विविधताओं से सम्पन्न होती है। अधिक विकसित और अधिक विविधता से संपन्न से अर्थ समाज जीवनकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करनेवाली, अधिक शब्द-भण्डारवाली, समझने और बोलने में सरल और सुवाच्य, समाज की मान्यताएं, भावनाएं ठीक ठीक अभिव्यक्त करने वाली आदि से है। किसी समाज का विकास यदि एकांगी हो तो उस समाज की भाषा का विकास भी एकांगी ही होता है।
- जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अभिव्यक्ति की भाषा एक महत्त्वपूर्ण और प्रभावी माध्यम होती है। विकास की संकल्पना हर समाज की भिन्न होने से भाषाओं का विकास भी भिन्न प्रकार से होता है।
- श्रेष्ठ भाषा के गुण निम्न है:
- समाज और मानव जीवन के लक्ष्य की सिद्धि में वह संवाद / आकलन के तौर पर साधनरूप बने। समाज की जीवनदृष्टि की और समाज की मान्यताओं की सही सही अभिव्यक्ति की क्षमता हो। ऐसा होने से भाषा समाज द्वारा मान्य जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति का साधन बन जाती है।
- मानव की वाणी की पूरी क्षमताओं को वह अवसर भी दे और विकसित भी कर सके।
- नये अनुभवों की भी सरलता से अभिव्यक्ति करने की क्षमता रखने हेतु शब्द-निर्माण की क्षमता विशाल और सटीक हो।
- उपयोग में सहजता । व्याकरण-शुद्धता, तर्कशुद्धता, सरल लिपि आदि।
भारतीय भाषा विषय के अध्ययन और अध्यापन का उद्देश्य
भाषा के अध्ययन और अध्यापन का लक्ष्य शिक्षा के लक्ष्य से और मानव जीवन के लक्ष्य से भिन्न नहीं हो सकता। चराचर के साथ एकात्मता का ही अर्थ समग्र विकास है। पूर्णत्व है। मुक्ति है। मोक्ष है। परमात्मपद प्राप्ति है। यही धार्मिक (भारतीय) विचार में मानव जीवनका लक्ष्य है। यही शिक्षा का लक्ष्य है। तब तो भाषा अध्ययन, अध्यापन और उपयोग का भी यही लक्ष्य होना चाहिये। इसलिये भाषा विषय का विचार भी 'मोक्ष' इस लक्ष्य के लिये, पूर्णत्व प्राप्ति के लिये, परमात्मपद प्राप्ति के लिये, समग्र विकास की दृष्टिसे, चराचर के साथ एकात्मता की भावना के विकास की दृष्टि से ही करना होगा।
समग्र विकास की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना एकात्म मानव दर्शन में पं. दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं – व्यक्तिगत विकास, समष्टिगत विकास और सृष्टिगत विकास तीनों का मिलकर समग्र विकास होता है। सृष्टिगत विकास होने से आगे का परमेष्ठीगत विकास अपने आप ही हो जाता है। इसी को हमारे पूर्वज मोक्ष कहा करते थे। मुक्ति कहते थे। परमात्मपद प्राप्ति कहते थे।
पुरुषार्थ चतुष्ट्य के धर्म, अर्थ और काम इन पुरुषार्थों के अनुपालन से चौथे पुरुषार्थ की याने मोक्ष की प्राप्ति होती है। धर्म के अनुकूल जब अर्थ और काम होते हैं तब ही मोक्ष प्राप्ति भी होती है और भौतिक उन्नति भी होती है। इसीलिये यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म: ऐसी धर्म की व्याख्या वैशेषिक दर्शन में की गयी है। अभ्युदय की प्राप्ति के लिए समाज में परस्पर संवाद सहजता से होना आवश्यक होता है। यह संवाद समान जीवनदृष्टि वाले लोगोंं में सहज होता है। समाज की जीवन दृष्टि के अगली पीढी में संक्रमण के लिए सक्षम भाषा की आवश्यकता होती है। इसी दृष्टि से विकसित उनकी भाषा के माध्यम से उनकी मान्यताओं की सहज अभिव्यक्ति और अभिसरण दोनों हो सकते हैं।
वाणी के चार स्तर
हमारे पूर्वजों ने किसी भी जीवद्वारा होने वाली अभिव्यक्ति की प्रक्रियाओं और उन के माध्यमों का अत्यंत गहराई से चिंतन किया था। उन का कहना था कि यह अभिव्यक्ति वाणी के द्वारा होती है। वाणी के चार स्तर होते है। पहले, परा के स्तर पर जीवात्मा वस्तू की अनुभूति करता है। सामान्य अनुभव इन्द्रियों के वस्तू के साथ संपर्क के कारण मिलते है। किंतु अनुभूति वस्तू के साथ एकात्मता के कारण प्राप्त होती है। अनुभूति आत्मा का विषय होता है। अनुभूति के माध्यम से संवाद के लिये अन्य किसी औपचारिक शब्दों, वाक्यों, व्याकरण और औपचारिक भाषा की आवश्यकता नहीं होती । दूसरे, पश्यंति के स्तर पर वह उसे इंद्रियों द्वारा समझने का प्रयास करता है। इंद्रियो के स्तर पर इसकी अभिव्यक्ति होती है। तीसरे, मध्यमा के स्तर पर इंद्रियजन्य ज्ञान की मानव भाषा के स्वरूप में अपने मन के समक्ष प्रस्तुति होती है। चौथे, वैखरी के स्तर पर ही यह बोलने की भाषा के रूप में, औरों के लिये अभिव्यक्ति का रूप लेती है।
वाणी का आधार ध्वनि होता है। सामान्य ध्वनि को ‘आहत ध्वनि’ कहते हैं। इस ध्वनि का निर्माण दो पदार्थों के टकराने से होता है। वाचा याने जिससे हम बोलते हैं आहत ध्वनि से ही उत्पन्न होती है। दूसरी ध्वनि विशेष ध्वनि होती है जिसे ‘अनाहत ध्वनि’ कहते हैं। अनाहत ध्वनि के कई प्रकार होते हैं। गुरु अपने शिष्यों के साथ प्रत्यक्ष बोले बगैर ही उनकी जिज्ञासा का समाधान करता है। यह अनाहत ध्वनि का ही एक प्रकार है। इसी का वर्णन संत ज्ञानेश्वर महाराज ‘ज्ञानेश्वरी’ में ‘शब्देवीण संवादु’ ऐसा करते हैं। ॐ कार ध्वनि यह सृष्टि की सहज होनेवाली अनाहत ध्वनि है। ऐसी हर अस्तित्व की अपनी अपनी अनाहत ध्वनि होती है। वाणी के प्रगत अध्ययन में इन सबका अध्ययन अपेक्षित है। तब ही भाषा शिक्षा हमें मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर कर सकेगी।
भारतीय शिक्षा की प्रक्रिया में अनाहत ध्वनि के माध्यम से शिक्षा का वर्णन है। जो निम्न है:
वृक्षं वटं तरोर्मूले वृद्धा शिष्या: गुरोर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्या: छिन्न संशया: ।।
अर्थ : वटवृक्ष की छाया में गुरु और शिष्य बैठे हैं। शिष्य बूढ़े हैं। गुरु युवक है। प्रत्यक्ष में एक शब्द भी न बोलते हुए गुरु का व्याख्यान हो रहा है। याने गुरु मौन बैठे हैं। शिष्य भी मौन हैं। तथापि शिष्यों के मन में उभरे संशयों का निराकरण हो रहा है।
यह जो गुरु और शिष्यों के मध्य संवाद हो रहा है यह वैखरी से परे की भाषा में चल रहा है। गुरु मन ही मन में शिष्यों के संशय जान रहा है। और अपने मन से सीधे शिष्यों के मन से संवाद कर रहा है।
जिसकी भाषा अधिक विकसित होती है उसकी अभिव्यक्ति भी उतनी ही सक्षम होती है । शायद इसीलिये तैत्तिरिय उपनिषद की शिक्षा वल्ली में भाषा को ही शिक्षा कहा गया होगा। इस से यह समझ में आता है की संवाद की गुणवत्ता के लिये भाषा का महत्व कितना अनन्यसाधारण है । वास्तव में वैखरी से लेकर परा तक का विकास भाषा विकास में अपेक्षित है। यही वह विकास है जिससे मनुष्य अपने लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। लेकिन स्खलन की अत्यंत निम्न अवस्था के कारण वैखरी से आगे की अभिव्यक्ति का विचार अर्थात् परा, पश्यन्ति और मध्यमा का विचार वर्तमान में बहुत आगे का विचार होगा । अतएव उन का विचार हमें आगे जाकर करना ही है। वर्तमान में सामान्य मनुष्य के स्तर पर हम मात्र वैखरी का विचार करेंगे।
भारतीय भाषा दृष्टि
वर्तमान में अंग्रेजी भाषा का भीषण दबाव विश्व की सभी भाषाओंपर है । केवल धार्मिक (भारतीय) समाज ही नहीं विश्व के सभी समाज अपनी भाषाओं के समक्ष अंग्रेजी के कारण निर्माण हुए अस्तित्व के संकट से जूझ रहे है । इस दृष्टि से धार्मिक (भारतीय) भाषा विषयक दृष्टि के साथ ही यथास्थान हम अंग्रेजी की तुलना भी करते चलेंगे ।
भारतीय समाज और विश्वभर के हर मानव के लक्ष्य की सिद्धि में वह साधनरूप बने
भारतीय समाज की मान्यता के अनुसार और वास्तव में भी विश्व के हर मानव जीवनका लक्ष्य मोक्ष है, यह हमने पहले इस लेख में देखा है। मोक्ष का ही अर्थ मुक्ति है, पूर्णत्व की प्राप्ति है । मानव का व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि और परमेष्टिगत ऐसा समग्र विकास है। इस लक्ष्य की साधना की दृष्टि से धार्मिक (भारतीय) भाषाएं विश्व की अन्य किसी भी भाषा से भिन्न है। लक्ष्य की श्रेष्ठता के कारण भाषाएं भी श्रेष्ठ है। प्रमुख रूप से संस्कृत से निकटता के कारण इन भाषाओं में निम्न विशेष गुण है। लेकिन विदेशी भाषाओं में तो कई संकल्पनाएँ न होनेसे उनके लिए शब्द भी नहीं हैं।
- शब्दावली : सर्वप्रथम तो मोक्ष यह संकल्पनाही अन्य किसी समाज में नहीं है। अतः उन की भाषा में भी नहीं है । मोक्ष की कल्पना से जुड़े मुमुक्षु, जन्म-मृत्यु से परे, पुनर्जन्म, स्थितप्रज्ञ, साधक, पूर्णत्व, अधिजनन, आत्मा, परमात्मा, कर्मयोनी, भोगयोनी, प्राण, ब्रह्मचर्य, अंत:करण-चतुष्टयके मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार यह चार अंग, योग, सदेह स्वर्ग, इडा/पिंगला/सुषुम्ना नाडियाँ, कुंडलिनी, अष्टसिद्धि, षट्चक्रभेदन, अद्वैत, तूरियावस्था, निर्विकल्प समाधी, त्रिगुणातीत, ऋतंभरा प्रज्ञा आदि विभिन्न शब्द भी अन्य किसी विदेशी भाषा में नहीं हैं। भगवद्गीतामें ही ऐसे सैंकड़ों शब्द मिलेंगे जिनके लिये सटीक प्रतिशब्द विश्व की अन्य किसी भाषा में नहीं मिलेंगे ।
- मोक्ष से जुडी संकल्पनाएं : विश्व के अन्य समाज स्वर्ग और नरक की कल्पना से आगे बढ नहीं पाए है । वर्तमान विज्ञान भी जड़ जगत के आगे चेतना तक नहीं पहुंच पाया है। धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार तो वास्तव में जड़ कुछ है ही नहीं। जब अखंड और अनंत चैतन्य परमात्मतत्त्व से सभी सृष्टि का जन्म हुआ है तो कोई भी वस्तू जड़़ कैसे हो सकती है। ऊपर शब्दावली के संदर्भ में दिये शब्दों की संकल्पनाएं समझने के लिये धार्मिक (भारतीय) भाषाएं और उस में भी संस्कृत का ही आधार लेना पड़ता है।
- कहावतें और मुहावरे : हमारी भाषाएं मोक्ष कल्पना से जुडी कई कहावतों और मुहावरों से भरी पडी है। कई संस्कृत की उक्तियों का उपयोग जस का तस अपनी भिन्न भिन्न धार्मिक (भारतीय) भाषाओं में किया जाता है। जैसे आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च, विश्वं पुष्टं अस्मिन् ग्रामे अनातुरम्, सच्चिदानंद, आत्माराम, प्राणपखेरू उड जाना, पंचत्व में विलीन हो जाना, सात्म्य पाना, जैसी करनी वैसी भरनी, मुंह में राम बगल में छुरी, काया, वाचा, मनसा किये कर्मों का फल, परहितसम पुण्य नहीं भाई परपीडासम नहीं अधमाई, कायोत्सर्ग, परकायाप्रवेश करना आदि ।
- लोगोंं के नाम : जितनी संख्या में भारतवर्ष में राम, कृष्ण और शंकर इन तीन देवों के भिन्न भिन्न नामों के लोग पाये जाते है उतनी बडी संख्या में शायद ही विश्व में अन्य कोई नाम पाये जाते होंगे । यह नाम रखने के पीछे माता-पिता की भावना बच्चे उन देवताओं जैसे सर्वहितकारी बनें ऐसी हुआ करती है । अच्छे नामों को तोडकर मरोडकर कहना यह धार्मिक (भारतीय) समाज की रीति नहीं है।
भारतीय सांस्कृतिक और सामाजिक मान्यताओं की संवाहक
भाषा का विकास एक समाज अपनी मान्यताओं, अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति के आधार पर ही करता है। उस समाज की भाषा, उस समाज की सोच का प्रतिबिंब होती है। इसीलिये सभी समाजशास्त्रज्ञ, शिक्षाशास्त्रज्ञ और भाषाशास्त्रज्ञ शिक्षा के माध्यम के विषय में एकमत हैं। सभी का सुविचारित कहना है की हर बच्चे की प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही होनी चाहिये। अपनी मातृभाषा या देशी भाषाएं शिक्षा का माध्यम रहने से बच्चा अपनी संस्कृति के साथ जुडा रहता है। जैसे बच्चे की अपनी माँ का दूध ही बच्चे का सबसे बेहतर पोषण कर सकता है। उसी प्रकार से मातृभाषा मे शिक्षा पाने से बच्चे का विकास अन्य किसी भी भाषा को शिक्षा के माध्यम के तौरपर स्वीकार करने से बेहतर होता है। मातृभाषा के स्थानपर बच्चोंं की शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी या अन्य किसी विदेशी भाषा को बनाने से बच्चे का सांस्कृतिक दृष्टि से गणना से परे नुकसान होता है।
धर्म, संस्कृति, राष्ट्र, संस्कार, परमात्मा, मोक्ष, एकात्मता जैसी संकल्पनाएं अन्य समाजों की भाषाओं में नहीं है । ना ही इन संकल्पनाओं की अभिव्यक्ति के लिये उचित शब्द। अन्य भाषाओ के माध्यम से पढने से हमारे बच्चे इन मूलभूत धार्मिक (भारतीय) संकल्पनाओं से अर्थात् मूल धार्मिक (भारतीय) तत्व से अपरिचित रह जाते है।
विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देना एक सामाजिक अपराध है । यह विषय सामान्य लोगोंं द्वारा निर्णय करने का नहीं है। ऐसे मामलों में लोकतंत्रात्मक पद्दति अपनाने से जनता का अपरिमित नुकसान होता है। समाज एक कुटुम्ब जैसा ही होता है । इस में कुछ बडे (समझदार, ज्ञानी) लोग होते हैं। लेकिन बडी संख्या अज्ञानियों की होती है । घर में जैसे जो सज्ञान (केवल आयु से नहीं तो ज्ञान, अनुभव आदि से सज्ञान) होते है, वही सब के हित को ध्यान मे रखकर निर्णय लेते है। घर के सब लोग उस निर्णय के अनुसार व्यवहार करते है। भोजन में, खाने के लिये क्या हो इस बात का निर्णय नासमझ बच्चोंं के मत (लोकतांत्रिक प्रणाली के अनुसार मतदान) के अनुसार तय नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार शिक्षा का माध्यम कौन सी भाषा हो इसका निर्णय लोकतांत्रिक ढंग से नहीं लिया जा सकता । यह निर्णय करना, वोट बैंक की राजनीति करनेवाले राजनीतिक दलों का या सरकार का काम नहीं है । यह निर्भय, नि:स्वार्थ और विद्वान शिक्षाविदों का काम है ।
अंग्रेजी या योरप की अन्य भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने के सांस्कृतिक दुष्परिणाम
मेकॉले का भारत में शिक्षा के माध्यम के विषय में अत्यंत स्पष्ट मत था । धार्मिक (भारतीय) भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने के परिणामस्वरूप क्या होगा यह मेकॉले बताता है: "वी विल बी टीचिंग फॉल्स ऍस्ट्रॉनॉमी, फॉल्स हिस्ट्री ऍंड फॉल्स मेडिसीन बीकॉज दे आर इन द बॅड कंपनी ऑफ अ फॉल्स रिलीजन. वी शॅल ऍब्स्टेन फ्रॉम गिव्हींग एनी पब्लिक एन्करेजमेंट टु द पीपल एंगेज्ड इन टु द कन्व्हर्शन ऑफ नेटिव्हज् इन टु क्रिश्चॅनिटी".
भावार्थ यह है कि यदि हम धार्मिक (भारतीय) भाषा का शिक्षा के माध्यम के तौर पर उपयोग करते है तो हमें झूठा खगोल पढाना होगा अर्थात् आर्यभट्ट और वराहमिहिर पढाने होंगे (कोपरनिकस और गॅलिलियो नहीं), झूठा इतिहास पढाना पड़ेगा अर्थात् राम और कृष्ण का (भारत की मानहानी करनेवाला, विकृत छवि निर्माण करनेवाला मनगढन्त इतिहास नहीं), झूठा वैद्यक पढाना होगा अर्थात् चरक और शुश्रुत के वैद्यकीय क्षेत्र का पराक्रम अर्थात् आयुर्वेद सिखाना होगा, ऍलोपथी नहीं।
आगे मेकॉले कहता है - और ऐसा करने से जो लोग भारत के मूल निवासियों को ईसाई बनाने में जुटे हुए है उन्हें हम कोई सहायता नहीं करेंगे। इससे मेकॉले का यह अभिप्राय है की अंग्रेजी भाषा माध्यम से शिक्षा देने से भारतीयों के ईसाईकरण में सहायता होती है । अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाने वाले भारतीयों की जीवनदृष्टि बदलकर अंग्रेजियत की याने व्यक्तिवादी, इहवादी और जड़़वादी हो जाती है।
व्यवहार में भी हम यही अनुभव करते है। अंग्रेजी भाषा माध्यम से शिक्षा पानेवाले बच्चोंं का सर्वप्रथम वाचनविश्व बदल जाता है । वह केवल अंग्रेजी साहित्य पढने की क्षमता और रुचि रखता है । जैसा साहित्य बच्चा पढता है वैसे ही उस के विचार बन जाते है । जैसे उस के विचार होते हैं वैसी उस की मानसिकता बन जाती है और जैसी मानसिकता होगी वैसा ही उस का व्यवहार हो जाता है । कुछ उदाहरणों से इसे स्पष्ट करेंगे:
- ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी - (प्रामाणिकता यह सर्वश्रेष्ठ रणनीति है) - इस अर्थ की कहावत किसी भी धार्मिक (भारतीय) भाषा में नहीं है । हमारी मान्यता तो है कि प्रामाणिकता तो हमारे खून में होनी चाहिये । प्रामाणिकता हमारा धर्म है। ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी कहनेवाला प्रामाणिकता का रणनीति के तौर पर उपयोग करता है।
- किंग कॅन डू नो राँग - (राजा कभी भी गलती नहीं कर सकता) किसी भी धार्मिक (भारतीय) भाषा में इस अर्थ की कहावत नहीं है। धार्मिक (भारतीय) मान्यता तो यह है कि राजा भी गलती कर सकता है । और उसकी गलती का दण्ड उसे मिलना चाहिये।
- यू कॅन नॉट चूज युवर पॅरेंट्स् - (आप अपने माता पिता का चयन नहीं कर सकते) । धार्मिक (भारतीय) मान्यता तो यह है कि हम अपने कर्मों के कारण अपने पूर्वजन्म के अंतिम क्षण में ही अपने माता पिता तय कर लेते हैं।
- क्राईंग चाईल्ड ओन्ली गेट्स् मिल्क – बच्चा रोएगा नहीं तो उसे दूध नहीं मिलेगा । इस अर्थ की भी कोई कहावत किसी भी धार्मिक (भारतीय) भाषा में नहीं है । हमारे यहां तो यही सर्वमान्य है कि बच्चा यदि नहीं रोएगा तो भी उस की माँ उसे दूध पिलाएगी ही। माँ अपने बच्चे को भूखा नहीं रहने देगी। यह कहावत पाश्चात्य तत्व - फाईट फॉर राईट्स्- से निर्माण हुई है। अन्यथा कोई अंग्रेज माँ भी बच्चा रोता नहीं है इसलिये उसे भूखा नहीं रहने देगी।
- आय ऍम स्टिल ए सेलेबल पर्सन, माइट इज राईट, किलर इन्स्टिन्ग्ट, आदि - ऐसे और भी कई उदाहरण दिये जा सकते है ।
इसीलिये शिक्षा का माध्यम कौनसी भाषा हो इसका भी निर्णय न तो बहुमत से और न ही सरकार के द्वारा करना ठीक होगा । यह निर्णय करना भी निर्भय, नि:स्वार्थ, देशभक्त और विद्वान शिक्षाविदों का काम है ।
शब्द निर्माण क्षमता
भारतीय देवनागरी लिपि में ३६ व्यंजन और १६ (वर्तमान में १२) स्वर हैं। अंग्रेजी में इक्कीस व्यंजन और पाँच स्वर हैं। इन वर्ण और स्वरों के बाहर कोई शब्द इन भाषाओं में नहीं हो सकता । इन वर्ण और स्वरों के आधारपर ही शब्द बनते है । गणित कर यदि देखा जाये तो ध्यान में आएगा की अंग्रेजी भाषा में जो शब्द निर्माण की सम्भावनाएँ हैं उन से न्यूनतम १ इस ऑंकडेपर २२ शून्य रखने से जितनी संख्या बनती है, उतने गुना से अधिक शब्द निर्माण की क्षमता धार्मिक (भारतीय) भाषाओं में है । शब्द निर्माण क्षमता अधिक होने का अर्थ है भावनाओं और अनुभवों की अभिव्यक्ति में सरलता और सटीकता। शब्द निर्माण क्षमता कम होने का अर्थ है भावनाओं और अनुभवों की अभिव्यक्ति में कठिनाई । शब्द निर्माण की क्षमता के साथ ही सभी संभाव्य विविध शब्दों के निर्माण की क्षमता होना भी पूर्णत्व का लक्षण है। संस्कृत भाषा में मर्यादित संख्यामें तय किये गए ‘धातु’ओं की सहायता से हर ‘अर्थ’ के लिए शब्द निर्माण किया जा सकता है। इस दृष्टि से संस्कृत भाषा की श्रेष्ठता अनन्यसाधारण है।
भारतीय भाषाएं समझने, सीखने में और उन के उपयोग में सरलता
- संस्कृत तो श्रेष्ठतम है ही । लेकिन अन्य धार्मिक (भारतीय) भाषाएं भी अंग्रेजी से अधिक व्याकरण शुद्ध हैं। तर्कसंगत हैं। बुद्धियुक्त हैं। इस लिये धार्मिक (भारतीय) भाषाएं सीखना सरल है। धार्मिक (भारतीय) भाषाएं उपयोग करने में भी सरल है। शरीर रचना शास्त्र का भी इसमे विशेष ध्यान दिया गया है। ओष्ठय, दंत्य, मूर्धन्य, तालव्य और कंठय ऐसी हमारे भाषाओं की वर्णमालाओं के अक्षरों की रचना अत्यंत वैज्ञानिक है।
- भारतीय भाषाएँ, अपवाद छोड़कर सामान्यत: जैसी लिखी जाती है वैसी ही बोली जाती है। हमारी भाषाएं, व्यवहार, धार्मिक (भारतीय) सोच यह 'पूर्णत्व' का आग्रह करने वाली है। इसीलिये व्यवहार में सरलता में पूर्णत्व की दृष्टि से हमारी लिपियाँ ऐसी बनाई गई है। अंग्रेजी शब्दों की लिखाई (स्पेलिंग) अलग होती है, और उन लिखे हुए शब्दों को पढा अलग ढंग से जाता है। लिखा जाता है 'डीओ' लेकिन पढा जाता है 'डू'। लिखा जाता है 'सीओडब्ल्यू' लेकिन पढ़ा जाता है 'काऊ'। इस मामले में तो अंग्रेजी भाषा धार्मिक (भारतीय) भाषाओं की तुलना में बहुत ही निम्न स्तर पर है।
- अंग्रेजी लिखाई के पढने में उच्चारण की भी समस्याएं है। 'इ' का उच्चारण कभी 'अ' तो कभी 'आइ' तो कभी 'ई' तो कभी 'ए' किया जाता है। किस शब्द में किस जगह कौन सा उच्चारण करना है यह स्मरणशक्ति का काम है। उसे तो याद ही करना और रखना पड़ता है। ऐसा ही मामला अंग्रेजी भाषा के सी, एफ, पी आदि कई अन्य व्यंजन और स्वरों के विषय में भी है। जैसे 'सी' का उच्चार 'सेंटर' शब्द में 'स' तो 'कल्चर' शब्द में 'क' किया जाता है । 'सी' का, 'के' का और 'क्यू' का तीनों के उच्चारण कभी एक 'क' ही होते है तो कभी भिन्न । इस समस्या के कारण बहुत बडी संख्या में योग्य शब्दों के प्रयोग के लिये उन्हे कण्ठगत करना पड़ता है। इस कारण व्यक्ति को अपनी मस्तिष्क की क्षमताओं का एक हिस्सा अकारण ही अधिक व्यय करना पड़ता है। जिस का उपयोग व्यक्ति अन्य किसी अधिक उपयुक्त बातों का स्मरण रखने के लिये कर सकता था। अंग्रेजी में एक ही अक्षर के कई उच्चारण यह सामान्य बात है । अब 'यू' का देखें। वह 'पुट' मे 'ह्रस्व उ', 'रूरल' में 'दीर्घ ऊ' 'प्यूअर' में 'यूअ', 'आवर' में 'व' और 'बट' मे उच्चारण हीन होता है। अंग्रेजी में स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त व्यक्ति को भी कितने ही शब्दों के सही उच्चारण जानने के लिये शब्दकोष देखना ही पड़ता है। यह कठिनाई धार्मिक (भारतीय) भाषाओं के पढने में दूसरी-तीसरी पढे बच्चे को भी नहीं होती।
- भारतीय भाषाओं के अक्षर सीखना भी अन्य भाषाओं के अक्षर सीखने से अधिक सरल है । धार्मिक (भारतीय) भाषाओं की अक्षरमाला का एक अक्षर समझ में आते ही उस वर्ग के सभी अक्षरों का उच्चारण सहज ही आ जाता है । जैसे 'क' अक्षर का उच्चारण कंठ से होता है। 'क' अक्षर का उच्चारण समझ में आते ही 'क' वर्ग के ख, ग, घ, ङ अक्षरों का उच्चारण आ जाता है। ऐसा अंग्रेजी में नहीं होता । 'बी' अल्फाबेट का 'ए' या 'सी' के उच्चारण से कोई संबंध नहीं होता। 'के' अल्फाबेट के उच्चारण का 'जे' या 'एल्' क्रे उच्चारण से कोई संबंध नहीं होता। हमारी वर्णमाला की रचना भी भाषा सीखने के लिये अति उपयुक्त हो, इस विचार से की गई है। 'क' वर्ग के वर्णाक्षरों के लिये मुख के किस अवयव का उपयोग करना है यह समझने से 'क, ख, ग, घ, ङ ' का शुद्ध उच्चारण सरल हो जाता है । अनुनासिकों के स्वाभाविक उच्चारणों को भी वर्णमाला में सटीक स्थान दिया गया है । जैसे दंड शब्द में 'ण्' का उच्चार होगा। 'म्' का नहीं। क्योंकि 'ण' यह 'ट' वर्ग का अनुनासिक है ।
- भारतीय सोच में 'पूर्णत्व की प्राप्ति' का आग्रह है। इसलिये धार्मिक (भारतीय) भाषाओं में शब्दों का उच्चारण स्पष्ट, पूरा और पर्याप्त शक्ति के साथ हो, जिससे वह सुनने वाले को अच्छी तरह से सुनाई दे, समझ में आये, ऐसा आग्रह होता है। अंग्रेजी या योरप की अन्य भाषा में शायद जितना अधूरा उच्चारण होगा, उतना उसे ठीक उच्चारण (राइट ऍक्सेंट) माना जाता है।
- देवनागरी के लेखन से उंगलियाँ और संस्कृत भाषा बोलने से जबान लचीली बन जाती है । फिर विश्व की कोई भी भाषा लिखना और बोलना सरल हो जाता है ।
ज्ञान और विज्ञान की भाषा
संस्कृत भाषा यह प्राचीनतम काल से ज्ञान और विज्ञान की भाषा रही है। इस की वर्तमान विज्ञान की विधा में भी नये शब्द निर्माण की क्षमता विश्व की अन्य किसी भी भाषा से विलक्षण है। संस्कृत में बने शब्द अर्थवाही भी होते है। जैसे संगणक के साथ पेन ड्राईव्ह नाम का एक उपकरण होता है। इस उपकरण का कार्य जानकारी का संकलन और आवश्यकतानुसार उपलब्धता करना है। इस कार्य का न तो पेन (लेखनी) से सम्बन्ध है और ना ही ड्राईव्ह याने ‘चलाना’ से। इसे संस्कृत में स्मृति शलाका कहते हैं। अर्थ है - जिसमें स्मृति सुरक्षित की है ऐसी छोटी सी डंडी।
सामाजिकता बढानेवाली - रिश्ते नातों की भाषा
भारतीय कुटुम्ब सामाजिकता के पाठ पढने का एक अत्यंत सशक्त माध्यम है। इस में जन्म के समय केवल अपने लिये विचार करनेवाला बच्चा बडा होकर अपनों के लिये जीने लग जाता है। बच्चे का अपनत्व का दायरा धार्मिक (भारतीय) कुटुम्ब में अन्य किसी भी समाज से बडा होता है। वसुधैव कुटुम्बकम् का वस्तुपाठ बच्चा इस विशाल कुटुम्ब से ही लेना प्रारंभ करता है। धार्मिक (भारतीय) भाषाएं सामाजिकता के विकास की दृष्टि से भी अत्यंत विकसित है । हमारी भाषाओं में भिन्न भिन्न प्रकार के जितने रिश्तों के नाम हैं विश्व की अन्य किसी भाषा में नहीं हैं। जैसे माता-पिता, भाई-बहन, बेटा-बेटी, दादा-दादी, नाना-नानी, मौसा-मौसी, फूफा-फूफी, ताऊ-ताई, ननद-ननदोई, बहन-बहनोई, साला-साली, भतिजा-भतीजी, भांजा-भांजी, देवर-भाभी, जेठ-जेठानी, चाचा-चाची, मानी हुई बहन या भाई / मानस-कन्या या मानसपुत्र आदि। अंग्रेजी में यह रिश्ते बस मदर-फादर, ब्रदर-सिस्टर, सन-डॉटर, अंकल-ऑंटी तक ही सीमित है।
अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम न बनाकर धार्मिक (भारतीय) भाषाओं को माध्यम बनाने की आवश्यकता
- अपनी भाषा का प्रयोग सामान्य व्यवहार के लिये करना यह हर समाज के लिये स्वत्व और स्वाभिमान की बात होती है। पराभूत और परावलंबी मानसिकता रखनेवाले समाज ही विदेशी समाजों की भाषा अपनाते हैं। जर्मनी में जर्मन, जापान में जापानी, पुर्तगाल में पुर्तगाली, फ्रांस में फ्रेंच भाषाओं का ही ये देश सामान्य व्यवहार के लिये उपयोग करते हैं।
- अधार्मिक भाषाएं उन समाजों की मान्यताओं, सोच को अभिव्यक्त करती है।और अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में एकात्मता का विचार नहीं है। इसलिये इन भाषाओं में अध्ययन कर बच्चे हीन संस्कृति अपनाते जाते है। बच्चोंं को हीन संस्कृति से बचाकर 'एकात्मता' पर आधारित श्रेष्ठ संस्कृति मे संस्कारित करना धार्मिक (भारतीय) भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने से ही संभव होता है।
- बच्चोंं की प्रतिभा का पूरा उपयोग अध्ययन के लिये होता है। धार्मिक (भारतीय) भाषाएं सीखने के लिये सरल, व्याकरणशुद्ध और तर्कशुद्ध होने के कारण भाषा सीखने में प्रतिभा का न्यूनतम और बहुत छोटा हिस्सा ही व्यय होता है। बचा हुआ पूरा हिस्सा नये विषयों के अध्ययन के लिये उपयोग में लाया जा सकता है ।
- संस्कृत भाषा जिसे आती है, उसे विश्व की अन्य कोई भी भाषा सीखना बहुत सरल होता है। अन्य धार्मिक (भारतीय) भाषाओं के लिये भी यह कम-अधिक मात्रा में लागू होता है।
- ग्रीक और लॅटिन यह संस्कृत के बाद दूसरे क्रमांक की प्राचीन भाषाएं हैं। किंतु संस्कृत में आज भी उपलब्ध विविध विषयों पर लिखे ग्रंथों की पांडुलिपियाँ ग्रीक और लॅटिन दोनों भाषाओं में लिखी पांडुलिपियों की संख्या से सैंकड़ों गुना अधिक है। वर्तमान शिक्षा के कारण इन पांडुलिपियों से प्राप्त होनेवाला ज्ञान असंगत होता जा रहा है। धार्मिक (भारतीय) और विशेषत: संस्कृत सीखने से इन ग्रंथों में सुरक्षित और छुपा ज्ञान मानवमात्र को उपलब्ध हो सकेगा।
अंग्रेजी भाषा को हटाकर धार्मिक (भारतीय) भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने की उपाय योजना
भारतीय भाषाएं वर्तमान में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। और अस्तित्व का यह संकट अग्रेजी भाषा को शिक्षा के माध्यम के स्वरूप में अपनाने की सामान्य लोगोंं की मानसिकता के कारण है। इस लड़ाई को लड़ाई के धर्म के अनुसार लड़ना होगा । धार्मिक (भारतीय) संस्कृति धर्मपर आधारित होने से यह धर्मयुद्ध होगा। अर्थात् अंग्रेजी भाषा से हमारी कोई लड़ाई नहीं है । हमारी लड़ाई है अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने के विरोध में।
अंग्रेजी भाषा का एक प्रबल बलस्थान निम्न है। विश्व के बहुत बडे हिस्से में, दर्जनों देशों में अंग्रेजों के उपनिवेश रहे हैं। हर उपनिवेश में अंग्रेजों ने अपनी संस्कृति, अपनी भाषा को स्थानिक समाज पर थोपने के सफल प्रयास किये। इसी का परिणाम है कि कई देशों ने जैसे अमरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों की संस्कृति और सामान्य व्यवहार की भाषा अंग्रेजी बन गई। धार्मिक (भारतीय) संस्कृति मे उपनिवेषवाद को कोई स्थान नहीं है । इसलिये यह अंग्रेजी का ऐसा बलस्थान है जिसे हम उसी ढंग से उत्तर नहीं दे सकते। अर्थात् इंग्लैण्ड को अपना उपनिवेश बनाकर नहीं दे सकते। इस बल स्थान को हमें धार्मिक (भारतीय) भाषाओं के अन्य बल स्थानों के बल पर ही परास्त करना होगा ।
- अंग्रेजी भाषा के और अपनी भाषा के बलस्थानों और दुर्बल स्थानों को समझना और अंग्रेजी के दुर्बल स्थानों का और अपनी भाषाओं के बलस्थानों का लाभ लेकर अंग्रेजी माध्यम को शिक्षा के माध्यम के रूप मे निर्बल करना।
- भारतीय समाज में स्वत्व और स्वाभिमान की भावना जगाना। इस हेतु से विद्यालय पहल करें। अपने स्वाभिमान और स्वभाषा के विषय में अपनेपन का भाव जगाएं । अभिभावकों को अपने बच्चोंं को धार्मिक (भारतीय) (स्थानिक) भाषा के माध्यम वाले विद्यालय में ही डालने का महत्व बताकर आग्रह करें। हर विद्यालय अपनी बस्ती में इस विषय का आंदोलन / अभियान चलाए।
- भारतीय / प्रांतीय भाषाओं को सरकारी व्यवहार की और न्यायालयों की भाषा बनाना । इस हेतु सभी राजनीतिक दलों पर दबाव बनाना होगा। दो भिन्नभाषी प्रांतों का परस्पर व्यवहार भी अंग्रेजी की जगह हिंदी में चलाना होगा। हमारे देश की सभी भाषाएं 'राष्ट्रभाषाएं' है। अन्य देश छोटे होने से, छोटे देशों की 'राष्ट्रभाषा' एक होना स्वाभाविक है। हमारा देश बडा है। इसलिये हमारी १८ राष्ट्रभाषाएं है। हिंदी और तमिल या तेलुगु या मराठी या पंजाबी सभी भाषाएं समान है । सर्वसहमती से किसी भी एक राष्ट्रीय भाषा को राष्ट्र की सम्पर्क भाषा बनाने के प्रयास करने चाहिये। प्राचीन काल में संस्कृत संपर्क भाषा थी। हम निश्चय करें तो वर्तमान में भी संस्कृत में संपर्क भाषा बनने की सामर्थ्य है।
- विश्वभर की सभी भाषाओं में उपलब्ध भद्र ज्ञान के ग्रंथों का धार्मिक (भारतीय) भाषाओं में अनुवाद करने हेतु राष्ट्रीय स्तर से लेकर जिला स्तर तक एक विभाग का निर्माण जिसका उद्देश्य ही ‘भारतीय भाषाओं को वैविध्य की दृष्टिसे भी समृद्ध बनाना’ होगा। इस विभाग का काम युद्धस्तर पर चलाना होगा। विश्व का लिखित अलिखित भद्र ज्ञान धार्मिक (भारतीय) भाषाओं मे उपलब्ध कराना होगा।
- प्रगत पाठयक्रमों का अध्ययन-अध्यापन धार्मिक (भारतीय) भाषाओं में, विशेषत: आरम्भ में हिंदी में और फिर अन्य भाषाओं में प्रारंभ करना होगा। इस हेतु प्रगत पाठयक्रमों के लिये उपयुक्त तकनीकी शब्द निर्माण का काम हमारी राजभाषा प्रसार समिती कर रही थी। उसे फिर गति और शक्ति देनी होगी। अंग्रेजी मे सिखाया जानेवाला ५ वर्ष का अभियांत्रिकी का पाठयक्रम अपनी भाषा में सीखने के लिये बच्चोंं को २/२.५ वर्ष पर्याप्त होते है। अपनी भाषा में प्रगत पाठयक्रम लाने से बच्चोंं के यौवन के २/२.५ वर्ष वर्ष व्यर्थ जाने से बच जाएंगे। देश के स्तर पर हमारे करोडों युवक वर्षों का आज होनेवाला अपव्यय हम टाल सकेंगे। इस हेतु प्रगत पाठयक्रम अपनी भाषा मे लाने का काम अविलम्ब करना होगा।
- तत्वज्ञान, समाजशास्त्र, न्यायशास्त्र, धर्मशास्त्र, राज्यशास्त्र, नीतिशास्त्र जैसे शास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, गृहनिर्माण शास्त्र, व्यवस्थापन शास्त्र, जल-प्रबंधन शास्त्र, कण-भौतिकी, रसायन, अणू-विज्ञान आदि भिन्न भिन्न विषयों के संबंध में धार्मिक (भारतीय) दृष्टिकोणपर आधारित साहित्य धार्मिक (भारतीय) भाषाओं में विश्व के सम्मुख शक्ति, व्याप्ति और गति के साथ प्रस्तुत करना।
- संस्कृत मे उपलब्ध ग्रंथों में प्रतिपादित विषयों की वर्तमान काल के सापेक्ष पुनर्प्रस्तुति करना। इससे विश्वकल्याण की दृष्टि हमें प्राप्त होगी। चराचर के साथ एकात्मता की भावना के आधारपर विकसित भिन्न भिन्न विषयों के ज्ञान का अगाध सागर हम विश्व के सामने प्रस्तुत कर सकेंगे।
- मातृभाषा (राज्य की) ही शिक्षा का माध्यम बने इस हेतु आंदोलन चलाना/जनजागरण करना।
- आंतराष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रमों में औपचारिक स्तर पर अपनी भाषाओं का ही उपयोग करते रहना। भिन्न भिन्न देशों में 'संस्कृत/हिंदी विश्व संम्मेलन' का आयोजन कर, धार्मिक (भारतीय) भाषाओं की महत्ता विश्वविख्यात करना।
- अंग्रेजी का वर्तमान में उपजीविका पाने के लिये महत्व समझकर 'अंग्रेजी भाषा' अध्यापन के लिये श्रेष्ठ पद्दति का उपयोग करना। सुनना, बोलना, पढ़ना और अंत में लिखना यह किसी भी भाषा को सीखने के स्वाभाविक चरण होते है । बच्चा इसी क्रम से अपनी भाषा सीखता है । संस्कृत भारती द्वारा संस्कृत संभाषण के लिये विकसित 'संस्कृत संभाषण वर्ग' की पद्दति से विद्यालय यदि अंग्रेजी पढाएंगे तो बच्चे अच्छी तरह अंग्रेजी बोल सकेंगे । इस से अभिभावकों को अंग्रेजी माध्यम में बच्चोंं को पढाने का मोह नहीं होगा।
- एक तात्कालिक उपाय के रूप में, जब तक अंग्रेजी चलेगी तब तक रोमन लिपि के स्थानपर देवनागरी लिपि के उपयोग से अंग्रेजी भाषा के उच्चारण और लेखन की आधी समस्या हल हो सकेगी।
अपनी भाषा में अन्य भाषा के शब्दों को लेने से भाषा समृद्धि या प्रदूषण
अपनी भाषा में बात करते समय अंग्रेजी शब्दों का उस में जहाँ तहाँ उपयोग करना यह सामान्य लोगोंं की आदत बन गई है । उस के समर्थन मे कहा जाता है की ‘ऐसा करने से हमारी भाषा समृद्ध बनती है’। अंग्रेजी भाषा का उदाहरण दिया जाता है। अंग्रेजी भाषा भिन्न भिन्न भाषाओं से ऐसे शब्द लेती रहती है। अंग्रेजी शब्दकोष के हर नये प्रकाशन में ऐसे अन्य भाषाओं से लिये शब्द मिलते है । अंग्रेजी जैसी अवैज्ञानिक (आर्बिट्रेरी) भाषा के लिये यह ठीक हो सकता है । हमारी भाषाओं के लिये नहीं। हमारी भाषाओं के शब्दों का निर्माण शास्त्रीय पद्दति से होता है। अंग्रेजी शब्दों का उपयोग और समावेश हमारी भाषाओं में करने से हमारी भाषाएं प्रदूषित होती हैं। इसलिये अपनी भाषा में बोलते/लिखते समय हम यह विशेष रूप से देखें की अंग्रेजी या उर्दू भाषा के शब्दों का उपयोग कर हम अपनी भाषा को प्रदूषित तो नहीं कर रहे? ऐसा करते हों तो इसे अविलंब रोकने का प्रयास करना आवश्यक है ।
पहली कक्षा से अंग्रेजी सीखने का आग्रह और बलप्रयोग सामाजिक अपराध है
- अंग्रेजी भाषा नहीं आती इसलिये विद्यालयों की शिक्षा से वंचित रहनेवाले बच्चोंं की संख्या लक्षणीय है। इन बच्चोंं को शिक्षा से वंचित रखने का अधिकार किसी को भी नहीं है। यह समाजद्रोह है।
- अंग्रेजी मे संवाद की अनिवार्यता वाले देशों की संख्या विश्व में मुश्किल से दर्जनभर है। अन्य सभी देशों के साथ उन देशों की भाषा में ही संवाद होता है। हमारी जनता के मुश्किल से ०.१ प्रतिशत लोगोंं का ही शायद इन अंग्रेजी भाषी दर्जनभर देशों से व्यवहार चलता है। इस ०.१ प्रतिशत लोगोंं को अच्छी अंग्रेजी आना आवश्यक है। किंतु इस ०.१ प्रतिशत समाज के लिये बाकी के ९९.९ प्रतिशत लोगोंंपर अंग्रेजी थोपना अनावश्यक ही नहीं, सामाजिक प्रतिभा की ह्त्या करने का सामाजिक अपराध भी है।
संपर्क भाषा की समस्या
वर्तमान जीवन के प्रतिमान के कारण भारत में संपर्क भाषा की समस्या निर्माण हुई है। हजारों की संख्या में बोली, भाषाएं और प्रादेशिक भाषाओं का अस्तित्व तो २०० वर्षों से पहले भी था ही। लेकिन संपर्क भाषा की कोई समस्या नहीं थी। लोग उस समय भी कन्याकुमारी से लेकर बद्रीनाथ तक घूमते थे। उस समय संपर्क भाषा की समस्या नहीं थी। आज इस समस्या के निर्माण होने का कारण ही वर्तमान का जीवन का प्रतिमान है।
वर्तमान में मानव पगढीला हो गया है। आवागमन के साधन, स्वभाव से भिन्न प्रकार का काम करना, अतिरिक्त धन की उपलब्धता, पर्यटन के लिए विज्ञापनबाजी और आजीविका के लिए नौकरी ये बातें मनुष्य को एक स्थानपर टिकने नहीं देते। यह पगढ़ीलापन वर्तमान के अधार्मिक (अधार्मिक) जीवन के प्रतिमान की ही देन है। प्रतिमान को धार्मिक (भारतीय) बनाना ही उसका उत्तर है।
उपसंहार
भारतीय भाषाएं अपनी होने से उन के प्रति लगाव होना अत्यंत स्वाभाविक है। यदि वह श्रेष्ठ नहीं हैं तो, केवल वे अपनी हैं इस के कारण उन्हें बचाने का कोई कारण नहीं है। धार्मिक (भारतीय) भाषाएं विश्व में सर्वश्रेष्ठ होने से उन का वैश्विक स्तरपर स्वीकार और उपयोग होने में विश्व का हित होने से उन्हें केवल बचाना ही नहीं तो उन्हें उन की योग्यता के अनुरूप योग्य वैश्विक स्थान दिलाना, एक धार्मिक (भारतीय) होने के नाते हम सब का पवित्र कर्तव्य है ।
References
- ↑ जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३०, लेखक - दिलीप केलकर